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[ ५३ ] रयण मुज बलियो! संभव आपजो रे, चरण कमल तुम सेवा नय अम विनवे रे, सुणजो देवाधिदेवा ॥ साहिब० ॥७॥
संभव जिनवर विनती, अवधारो गुणज्ञाता रे, स्वामी नहीं, भुज खिजमते, कदिये होशो फल दाता रे ॥संभव।।१॥ करजोड़ी उभो रहुं, रात दिवस तुम ध्याने रे, जो मनमां आणो नहि तो शु कहिए थाने रे ॥संभव॥२॥ खोट खजाने को नहि, दीजिये वंछित दानो रे, करुणा नजरे प्रभुजी तणी, वाधे सेवक वानो रे, ॥संभव।।३॥ काल लब्धि नहि मति गणो, भाव लब्धि तुम हाथे रे, लडथडतु पण गज बच्चु, गाजे गयवर साथे रे ॥संभव॥४॥ देशो तो तुमहि भला बीजा तो नविजाचुरे वाचक जस कहे साईशु, फलशे अभुज साचु रे ॥संभव॥५॥
. (३) संभव जिनराज सुखकंदा, अहो सर्वज्ञ जिनचंदा, हरी भरम जाल का फंदा, मीटे जरा मरण का दंदा ॥ संभव० ।।१॥ जो याचक आश ना पूरे, तो दाता बिरुद है दूरे, जो दायक भूलना जाणे, तो मांगन आश कुण आणे ? ॥ संभव ॥२॥ गुणवंत जान जो तारे, तो शिरपर नाथ कुण घारे, मुल गुणी कोन जगसारे, अनादि भरम को फारे ॥ संभव० ॥३॥ जो रोगी होत है तन में, तो वैद्य वो धारता मनमें; हुँ रोगी वैद्य तूं पूरो, करो सब रोग चकचूरो ॥ संभव० ॥ ४॥ ज्युपारस लोहता खंडे, कनक शुद्ध रुपकुमंडे.