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(६) श्री पद्म प्रभु जीन स्तवन पद्म प्रभु प्राण से प्यारा, छोडावो कर्मनी धार करम फंद तोडवा घोरी प्रभुजी से अर्ज है मोरी ॥पद्म०॥१॥ लधुवय अक थें जीया, मुक्ति में वास तुम किया; न जानी पीर तें मोरी, प्रभु अब खेंच ले दोरी ॥पद्म ॥२॥ विषय सुख मानी मों मन में, गयो सब काल गफलत में, नरक दुःख वेदना भारी निकलवा ना रही बारी ॥पद्म०॥३॥ परवस दीनतां कीनी, पापकी पोट शिर लोनी, भक्ति नहीं जानी तुम केरी, रह्यो निशदिन दुःख घेरी ॥पद्म०॥४॥ ईस विध विनती तोरी करु में दोय कर जोडी, आतम आनंद भुज दीजो वीरचं काम सब काम कीजो ॥पद्म॥५॥
(२) हो अविनाशी, शिववासी, सुविलासी सुसीमानंदना, छो गुणराशी, तत्व प्रकाशी खासी मानो वंदना ! तुमे घर-नरपति ने कुले आया, तुमे सुसीमा-राणीनां जाया, छप्पन दिश कुमारी हुलराया ॥ हो अवि०॥१।। सोहम सुरपति प्रभु घर आवे, करी पंचरुप सुरगिरि लावे, तिहा चोसठ हरि भेला थावे ॥ हो अवि० ॥२॥ कोडि साठ लाख उपर भारी, जल भरीया कलसा मनोहारी; सुर नवरावे समकित धारी ॥ हो अवि० ॥३॥ थय थुई मंगल करी घर लावे, प्रमु ने जननी पासे ठावे; कोडी बत्रीस सोवन वरसावे ।। हो अवि ॥४॥ प्रभु देहडी दीपे नीलमणि गुण गावे श्रेणी इन्द्र तणी; प्रभु चिरंजीवो त्रिभुवन घणी ॥ हो अवि० ॥५॥ अढोसें धनुष उची काया, लही