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THE FREE INDOLOGICAL
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श्री जिनेन्द्राय नमः।
मानिकबिलास ॥
Okerto
१ पद-गग ठुमरी ॥ चलो भवि पावापुर में पूजन को जिन राज ॥टेक ॥ जहां वसुविधि हरि शिवत्रिय पाई महावीर महाराज ॥ चलो० ॥१॥ जिन के दर्शन ते अघ विनसत दरशत शिवमग साज । वसुविधि पूज रचाय गाय गुण कोजे आतम काज ॥ चलो० ॥२॥ वे प्रभु दीनदयाल जगत गुरु राखत जग की लाज। मोनिक या भवदधि अथाह में वे प्रभु धर्म जहाज ॥ चलो० ॥३॥
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२ पद-राग होरी मैं॥ जो सुख चाहो निराकुल क्यों न भजो जिनवीर ॥ टेक ॥ आयु घटे छिन ही छिन तेरी ज्यों अंजुलिको नीर ॥ जो० १॥ मात तात सुत नारि सुजन कोई भीर परें नहीं सीर । अपनी लखि पोखे सो तेरो विनसि जायगो शरीर ॥ जो०२॥ वे प्रभू दोन द. याल जगत गुरु जानत हैं पर पीर । भाव सहित ध्यावें भवि मानिक पावें भवदधि तोर ॥ जो० ३॥
३ पद-राग ठुमरी झझोटी में ॥ जिनवर चरण भक्ति वर गंगा ताहि भजो अवि नित सुखदानी ॥ टेक ॥ स्याद वाद हिमगिरिते उपजी मोक्ष महासागरहिं समानी ॥१॥ ज्ञान विराग रूप दोऊ ढाये संयम भाव मगर हितहानी । धर्म ध्यान
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जहां भमर परत हैं जामें शम दम शांति रस पानी ॥२॥जिन संस्तवन तरंग उठत है जहां नहीं भ्रमकीच निसानी । मोह महागिरि चूर करति है रत्न त्रय शुध पंथ ढलोनी ॥३॥ सुर नर मुनि खगादि पंछो जहं रमतहि चित प्रशांतिता ठानी। मानिक चित निर्मल स्नान करि फिर नहिं होत मलिन भविप्रानी ॥४॥
४ पद-राग भारंग नया देश की ठुमरी ।। ज्यों तरुबर की छड्यां-तन धन जानारे भाई ॥ टेक ॥ घटत वढ़त, चपलावत चंचलक्षण में जात पलाई ॥ ज्यों० १॥ तूं तो ज्ञान रूप चिटुगुण घन यह पदल परजाई प्रकृति विरोधी ते रति ‘मानी यह बूढो चतुराई । २॥ या प्रसंग चहुंगति में भट को विषय जु विषफल खाई। तात मात
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(६) सुत नारि सुजन लखि अपनाये दुखदाई ॥३॥ तातें अब पर प्रीति तजो निज आतम में लो लाई। जिन वृप शुद्ध भजो अब मानिक पावो शिव ठकुराई ॥४॥
५ पद-राग सोरठ में ठुमरी॥ निरग्रंथ यती मन भावेंकगरादिक नाहिं सुहावें ॥ टेक ॥ बीतराग विज्ञान भावमय शिवमारग दरशावें ॥ निर० १॥ रत्नत्रय भूषण जुत सोहत निज अनुभूति रमांवें ॥निर० २॥ बिन कारण जगवन्धु जगत गुरु हिश उपदेश सुनावें ॥ निर० ३॥ चिर विभाव आताप हरन को ज्ञानामृत झरलावें ॥ निर०४॥ कर्मजनित आचार त्यागि के परमातम को ध्यावें ॥ निर०५ ॥ मानिक भवि सतगुरु सुचन्द्र लखि आकुल ताप वुझावें ॥ निर० ६ ॥
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(.) ६ पद--राग मोरट मंझोटी में ॥ जगत में सम्यक सेली सार । जगणाटेक।। नोठि मिली मोहि बड़ेभाग्य तें दरशन मोह निवार ॥ जग० १॥ दुर्लभ नरभत्र पाय तहां वह मिले कुगुरु व्याहार । सो कुसंग तजिसेली आयो पायोवृप सुखकार जग०२।। कुगुरु कुदेव धर्म आदि सब जाने मिथ्या चार । सेली के परताप तजे हम जैनाभास लबार ॥ जग० ३ ॥ आपापर को भेद पि. छानो भानो चिर भ्रमभार । मानिक जय. वंतोनित सेलो शिवमारग दातार ॥जग०॥
पद-रागपद ॥ भोरो मति तेरीरे सुज्ञानीरा लागे हो विषयनि धाइ ॥ टेक ॥ इन प्रसंग चहुंगति भटकाये पाये दुख अधिकाय ॥ भोरी० १॥ पराधीन छिन अधिक होन इक छिनक
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() मांहिं बिनसाइ । बाधा सहित हेतु बंधन को शुद्ध ज्ञान मनलाइ॥ भोरी० २॥ इन्द्रि य जनित इन्हें तूं भ्रमतें जानत है सुखदाइ। भ्रमतजि ज्ञानदृष्टि करि देखो यह पु. दल पर जाइ ॥ भोरी० ३॥ ये दुखमय तूंसु. 'खमय मानिक भेद विज्ञान कराइनिजानं द अनभव रस में छकि अन्य सवे छुटका. इ॥ भोरी०४॥
पद-राग पद।। चेतन यह बुधि कोन सयानी जिन मत रीति विपर्यय मानी॥ टेक ॥भूलि रहोनित कुलाचार में हित अनहित की परख न जानी । कुगुरादिक के पक्षपातकरि वन सनी नहिं यो जिनवानो ॥ चेत०१॥ बीतराग सर्वज्ञ देव छवि की बहुधा सराग विधि ठानी । प्रगट कुदेव क्षेत्र पालादिक
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तिन्हें भजन शठ निपट अज्ञानी ॥ चेत०२॥ नग्नलिंग बिन और न जिनमत माहिं न श्री जिनवर बग्नानी। करि प्रतीति सेवत कुगुनि को श्रो जिन अज्ञाभंग करानी ॥ चेत०३॥ मोह मोह विन धर्म कहो निज ताकी तूने सुधि विसरानी । पुण्य कर्म उत्पत्ति हेतु में करी अनीति महा दुखदानी ॥ चेत०४॥ पापो दुष्ठ हटी कपटो शठ भ्रष्ट लोभ मदकरि अभिमानी । तिनसों नेह द्वेष धर्मिन सों यह दुर्बुद्धि महा दुखखानी ॥ चेत० ५॥ सप्तक्षेत्र धन खरच कथन सुनि बहुत करत है आना कानी । विषय खेत कुगुरुनि के हेत धन खरच देत इमि पावस पानी ॥ चेत०६ ॥ जिन मत मांहिंसर्व आगम में रागद्वेप भ्रम नाशक दानी। खोलि हृदय दृग स्वपर परखि अव छांडउ शिथ
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(१७) लाचार कहानी ॥ चेत० ॥ फिरि यह दाव कठिन मिलने का जाते पुरुषारथ कर ज्ञानी सब विकलप तजि सुगुरु सीख भजि मानिक यह हित हेत निशानी ॥ चेत०८॥
पद-राग दादरा धान गहाई ॥ ___ यह देखो जगजीवन के अलट परो।यह० ॥ टेक ॥ गाडुरिवत प्रवाह इमि पड़ते हित अनहित सुधि बुधि विसरो ॥ यह० ॥१॥ हांडी परखि ग्रहें दमड़ी को विन परखें जाहि कसर परी । परमारथ हित देव धर्म गुरु परखन नहीं उरमति निगरी यह०२॥ अनरथ दंड रूप कारज की लगो रहित नित लगनि खरी। प्रोजन भूत शास्त्र सामायक चित सरधा नहिं नेक धरी ॥यहरू ॥३॥ सत गुरु सीख गहत नहिं शठ हठ पकड़त जिमि हाडिल लकड़ी।मानिक स्व.
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पर परखि तजि दुरमति भजि जिन वृप तेरी सफल घरी ॥ यह ॥४॥
१० पद-राग मझोटी ॥ . ते जग मांहिं अपंडित जानो-जिनने हित अनहित न पिछानो ॥ टेक ॥ भूलि रहे नित शब्द अर्थ में वस्तु स्वरूप नहीं सरधानो ॥ ते ॥ १॥ विपय कपाय भाव वाढत मुख काढ़न कर्कश यच असुहानो। रटत काकवत सिद्धांतन को शठ जन वंचन को सु ठिकानो ॥ ते ॥२॥ ख्याति लाभ पूजादि चाह चिन पडितपनों आपु ही मानो। साधर्मिनसों करतद्वपनिन अ. विनय को सुधरें हटवानी ॥ ते० ३॥ तिनि के विपत्रत शास्त्र होन तिनि दगति मारग कियो पयानो।मानिक ये लक्षण लखि तिनके तजहु प्रसंग सदा मतिवानी ! ॥ते०४॥
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. ( १२) ११ पद-राग झंझोटी॥ ते जग में सत पंडित जानो-जिन निज पर हित अनहित पिछानो ॥ टेक ॥ शब्द शुद्ध पुनि अर्थ शुद्ध जिन भाव शुद्ध लखि करि सरधानो ॥ ते० १॥ हित मित बचन खिरत मुख मानों परमानंद जलद बरसानो । निःसंदेह प्रश्नोत्तर करते ताकरिभ- , वि भ्रम दाघ बुझानो ॥ ते० २ ॥ जिन सि. द्वांतनि के मर्मी उर साधर्मी लखि अति हरखानो। चित प्रभाबना माहिं रहत नित जिनके मिथ्या भाव पलोनो ॥ते० ३॥ ख्यात लाम पूजादि चाह बिन जिनने जात्यादिक मद भानी। करि प्रसंगतिनको अब मानिक जो चाहत हो शिव पुर थानो ॥ ते०४ ॥
१२ पद-राग झंझोटी मिथ्या दृष्टी जीव जगत में इमि प्रपंच
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(१३) करते हरखाई ॥ टेक ॥ वस्तु सका न जा. नत ठानत पक्षपात धरि करत लड़ाई ॥१॥ देव धर्म गुरु रूप गहन नहिं चित अभिमान धरत अधिकाई । भूले है कुगुरुनि प्रसंग करि करण विपय विपखात अघाई ॥२॥ पुण्य कर्म शिवमारग ठानत शुद्ध रूप करतूति न पाई। साधर्मिन के छिद्र लखत चित द्वेष धरत मुख करत बड़ाई॥३॥ भर्म भाव में भर्मत डोलत कर्म कलोलनि में भटकाई । अहंकार ममकार करत चित धरत कपाय भाव कलुपाई ॥॥ स्वपर जोव को दया न जानत अघकारण ठानत चितलाई। मानिक ऐसे जीवन को नित संग तजी जिनराज धुआई ॥५॥
१३ पद-गग सौरठ ॥ . अब हम सुनें सुगुरु के वना-जासों खुले
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जुसम्यक् नैना ॥ अब० टेक ॥ स्वपर पिछाना भ्रम तमभाना जाना अव मत जना ॥ अब० १॥ हित अरु अहित सुतिन के का रण जानि लिये सुख देना ॥ अव०२ कगुरु सुगुरु बच विन पहिचाने मिथ्याभाव मिटना ॥ अब०३ ॥ तिनके जानत सरधो ठानत जग में जीव भ्रमना ॥ अब०४॥ मानिक सुगरु सीख नौका चढ़ि क्योंकर जीव तरेना ॥ अब०५॥
१४ पद-नाग मोटी ॥ जीव अवस्था तीन प्रकोरा-जानत ज्ञानी ज्ञान मंझारा ॥ टेक ॥ बहिरातम अंतर आतम परमातम रूप लखो सुखकारा॥जीव० ॥१॥ विषय भोग में मगन रहत नित हित अनहित को नाहिं बिचारा । हेय उपादेय लखत न शठ बहिरातम भ्रमत भवार्णवधा
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( १५ ) रा ॥ जीव० २ ॥ व्रत विन सम्यक् युत जधन्य है ज्ञान विराग शक्ति विस्तारा | व्रत प्रमाद युत् मध्यम अंतर आतम करत कर्म गण क्षारा ॥ जीव० ३ ॥ पष्ठम गुणतें क्षीण मोहलों सो उत्कृष्ट कहे गणधारा । निज स्वभाव साधक भव बाधक सकल विभाव भाव वहि डारा ॥ जीव० ४ ॥ श्री अरहंत सकल परमातम लोका लोक विलोकनहारा निकल सिद्ध जगशीस बसत बिन अंत लसत शिव शर्म मंझारा ॥ जोत्र० ५ ॥ वहिरातमता हेय जानि पुनि अंतर आतम रूप सम्हारा । परमातम को ध्याय निरंतर मानिक जो सुख होय अपारा ॥ ज०६ ॥ १५ पद - राज ठुमरी ॥
तिन जीवन सों क्या कहना - जे निज
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(१६) हित अहित लखैना ॥ टेक ॥ मोह वारुणो पी अनादित आपा पर परखैना ॥ निन १॥तन धन गृह सेवक परिजन जनये परप्र. गट दिखेना ॥ तिन० २॥ देव कुदेव सुगुरु कुगुरादिक इन में भेद गिनेना ॥ तिन०३॥ शिव सुखदानी श्री जिन बानी ताका स्वरस चखैना ॥ तिन०४॥ हित के कारण साधर्मीजन तिनसों नेह करैना ॥ तिन० ॥ मानिक ऐसे जीवनि कूलखि भवि विल खे हरखैना ॥ तिन०६॥
१६ पद-राग सोरठ तालदीपचंदी ॥ आकुल रहित होय इमि निशिदिन कीजे तत्व बिचारा हो ॥ टेक ॥ को मैं कहारूप है मेरो पर है कौन प्रकारा हो॥ आकुल०१ को भवकारण बंध कहाँ को आत्रव रोकनहारा हो । झरत कर्म बंधन काहे तेस्था
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नक कौन हमारा हो ॥ आकुल०२ ॥ इस अभ्यास किये पावत हैं परमानंद अपारा हो । मानिक ये ही सार जानिके कीजे वारंवारा हो । आकुल० ॥३॥
१५ पद-राग मझोटी सुधिर चित्त करि अहनिशिनिष्ट्रय कीजे येम विचारा हो। टेक ॥ मैं चित ज्ञान रूप है मेरो पर जीव निरधारा हो । सुथिर० ॥ भ्रम भव कारण दख वंधन सम संवर है सखकारो हो। चिर विभावता झरण निर्जरा सिद्ध स्वरूप ह. मारा हो ॥ सुथिर० २॥ धनि धनि जनजिन यह विचार करि महा मोह निरबारा हो। तिनके चरण कमल प्रति मानिक युगल पाणि शिर धारा हो ॥ सुधिर०३
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(१८) १८ पद-गग मंझोटी ॥ आकुलता दुखदाई तजो भवि अकुलता दुखदाई हो ॥ टेक ॥ अनरथ मूल पाप की जननी मोहराय की जाई हो ॥ आ०१॥ अकुलता करि रावण प्रतिहरि पायो नर्क अघाई हो । नेणिक भूप धारि आकुलता दुर्गति गमन कराई हो॥ आ०२॥ आकुलता करि पांडव नरपति देश देश भटकाई हो। चक्री भरत धारि आकुलता मान भंग दुख पाई हो ॥ आ० ३॥ आकुल विना पुरुष निरधन ह सुखिया प्रगट दिखाई हो । आकुलता करि कोटीध्वज हू दुखी होय विललाई हो ॥ आ०४॥ पूजा आदि सर्वकारज में विधन करण वुध गाई हो।मानिक आकुलता विन मुनिवर निरआकुल पद पाई हो ॥ आ०५॥
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१९ पद-गग झंझोटी॥ जाही समय मिटो भव्यन को महामोह चिर पगो करम सों ॥ टेक ॥ भेद ज्ञान रवि प्रगट भयो सुगयो मिथ्या तम हृदय सदन सों ॥ जाही० ॥ १ ॥ मोज लस्से निज परजु भिन्न ये परिचय करे शुद्ध अनुभवसों । ज्ञान विरागी शुभमति जागी चेतनता न कहे पुदगल सौं । जाहो० ॥२॥ यो प्रवीन करतूति करत नित धरत जुदाई सदा जगत सों। मानिक लखो प्रगट पात्रक ज्यों भिन्न करत है कनक उपलसों ॥जाही० ॥३॥
२० पद-राग पद ॥ तत्त्वारथ सरधानो ज्ञानी इमि सरधान धरत सक नाहीं ॥टेका सुख दुख कर्मानित जानत मानत निज में न करम परछांहीं।मैं चित पिंड अखंड ज्ञान घन जन्म मरण
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(२०) है पुदगल मांहीं ॥१॥ रोगादिकतो देहात्रित हैं धन कुटुंब पर प्रगट दिखाहीं। शुभ अरु अशुभ उदय सुख दुखमें हर्प विपाद न उर उमगांहीं ॥ २॥ शुभ मय राग होत है ताको हेय गिनत निज परणति ना. हीं। कब निर बिकलप होइ दशा निज आपुन मांहिं आप निवसांहीं ॥ ॥ आपुन सम सब जीवन जानत वृप प्रभावलिखि अति हर्षाहीं । या कलि मांहिं अल्प हैं तिन पर मानिक मन वच तन वलि जांहीं ॥४॥
____ २१ पद-राग ठुमरी देश में ॥ ___ अब मोहि जानि परो जग में जैन धर्म है सार ॥ अब० ॥ टेक ॥ जामें देव धर्म गुरु आगम तत्त्व कहो निरधार ॥ अव०॥ दोषावर्ण रहित जग ज्ञायक महादेव सुखकार । ज्ञान विरागी परिग्रह त्यागी सुगुरु स्वपर हितकार ॥ अव० २॥ मोह क्षाह
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(२) विन धर्म कहो निज शांति भाव रसधार । सप्ततत्व पद द्रव्य पदारय मुख्य और उपचार ॥ अव०३॥हित अरु अहित सुतिन कारण विच हेयाय विचार। मानिक या विन मुक्ति नहीं है सब संसार असार ॥ अब०१॥ ___ २२ पद-लायनी ( मप्तध्यान की )
जूवा मांस मद वेश्या चोरी खेटक पर नारी । इन सातो विसननकी हकीकत कहूं • न्यारी न्यारो ॥ टेक ॥ [जूवा सकल पाप
को बाप आपदा को कारण जानो। कलह खेन दुर्यश के हेत दारिद को ठिकानी ॥सत्य रूप निजगुण हो सो ततछिनहीं पलानो। रुद्र ध्यान को वास जासु नहिं देखन वधिवानो॥ शुभ अरु अशुभ भाव जूवा तजि भजि वृष सुखकारो। इन सातो० ॥१॥ [मांस] जंगम जोव को नाश होत तव मांस
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(२) कहाईरे। सपरस आकृति नाम गंध लखि घिन उपजाईरे । नर्कयोग निर्दई खांय नर नीच कसाईरे।नाम लेत तजि देत असन उत्तम कुल भाईरे ॥ सन में मगन भाव यह भक्षण तजि अति दुखकारी। इन सातो. ॥२॥ [मदिरा] क्रमिकुल राशि कुवास जासु छूबत शुचिता जावे । नीच कुलीमद पान करत निजतन सुधि विसरावे॥भूमि माहि मुख फाडि पडत तहांश्वान मूत्र प्यावे। पुत्री मात बधू समलखि अनुचित ही वतलावे॥मोह भाव वारुणीतजोभजि निज स्वभाव भारी । इन सातो० ॥३॥ वेश्या। अशुचि खानि नित असत बानि बोलति तजि लज्यारे । धनहित प्रीति करत निरधन लखि तुरत ही तज्यारे ॥ मास खान मदपान करत किलविष जन रज्यारे । प्र
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(३) गट पापिनी यारयधू लखि वुधजन भज्या. रे । कुमति भाव गणिका तजि भजि निज परणति हितकारी । इन सातो० ॥ [चोरी] करत तस्करी सासु हृदय दुर्ध्यान दहनिजारे । पीटे धनी विलोकि लोक निर्दय मिलि अतिमारे ॥ प्रजा पाल करि कोप तोप शूरी धरि संहारे । लखि वंदीगृह प्र. गट त्रास मरि नीची गति धारे ॥ पर की चाह भाव चोरी तजि ग्रह निजनिधि प्या. री ॥ इन सातो० ॥५॥[शिकार ] निरपराध निर्वल भय आतुर खटकत भगिजा. हीं। ऐसे दीन मृगादिक प्रानी निवसत बन माहीं ॥ तिन्हें अखेटो रसन लंपटी घातत हरपाई । जीय घात करि नर्कजात जिन आगम फरमाई ॥ निर्दय भाव शिकार त्यागि करि जीवन सों यारो। इन
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( २४ ) सातो० ॥६॥ [पर स्त्री] महा पापजरु नारि पराई रमें सुक्ख काजें। जूठ खानि जिमि श्वान वानिचित नाहिं कुधी लाजें। ता जनतें दृग ज्ञान चरण सम्यक्त तजि भाजें। या भव त्रास नर्क तप्तायस की पुतली दागे। पर धी भाव नारि पर तजि करि कीरत उजियारी । इनसातो० ॥ ७ ॥ [फलवर्णन पांडव नरपति जुवा खेलि तिनि सही विपति भारी।मांस खाय वकराय सुरा वश यादो गण जारी॥ चारुदत्त वेश्यावश होकर सही वहुत खारी । चोरी करि शिव भूत विप्र पुनि पाई बिपतारी ॥ आखेटक वश ब्रह्म दत्त मृत दर्गति थिति धारी ।नर्क गती रावण ने पाई इच्छित पर नारी। द्रव्य भाव करि सातो सेवत ते नि गोदचारी। इन सातो० ॥८॥जे सतसंग भजत जिन
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(२५) आगम तिन भव थिति टारी । कुगुरु कुदेव कुधर्म त्यागि शिर जिन आज्ञा धारी॥ हित अरु अहित सुतिन के कारण तिन ने परखारी । द्रव्य भाव व्यसन कू त्यागितेपरणे शिवनारी ॥ तिन को बार बार कहि मानिक बंदना हमारी । इन सातो० ॥
२३ पद-गज़ल ॥ जिनरोज को सुमिरले क्या वक्त पाया है ।। टेक ।। नर भव सुथल सुकुल में सहजे तूं आया है।तन धन के जो नशे में आपा भुलाया है । जिन० १॥ सुत मात तात त्रियसों नेहा लगाया है। निशि दिन वेहोश होकर बिपयों लुभाया है । जिन०२॥ कु. गरादि करि प्रसंगजिनागमन भाया है। करि मेरो मेरो नरभव नाहक गमाया है। जिन०३॥ इस जगत गहर महर के अब
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तीर आया है। अब चेत चेत मानिक सत गुरु जताया है जिन०४॥
२४ पद-गज़न्न ।
जिन रागद्वेष त्यागः सो सत गुरु है हमारा । तजि, राज ऋद्धि तृणवत् निजकाज निहारा ॥ टेक ॥ रहता है वो वनखंड में धरि ध्यान कुठारा । जिन महामोह तरुको जड़ मूल उखारी ॥ जिन० १ ॥ जगमांहि छारहा है अज्ञान अंध्यारा । विज्ञान भान तम हर घर मांहि उजारा ॥ जिन०२॥ स. वांग तजि परिग्रह दिग् अंबर धारा । रत्न त्रयादि गुण समुद्र शर्म भंडारा ॥ जिन०३॥ विधि उदय शुभाशुभ में हर्ष अरति निबारा । निज अनुभव रस मांहिं कर्म मल को पखारा ॥ जिन०४॥ परवस्तु चाह रोकि पूर्व कर्म संहारा । पर द्रव्य से जुभिन्न
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(२) चिदानंद निहारा ॥ जिन० ॥ ५॥ शुक्लानि को प्रजालिकर्म कानन जारा।निन मुनिकों देखि मानिक नमस्कार उचारा॥ जिन०६॥
२५ पद-राग महार तथा झंझोटी ॥ अब हम जैन घरम धन पाया । चाह रही न कछु मन में जब कर चिंतामणि आया ॥ टेक ॥ चिरतें रंक भयो भ्रमकरि नाना गति में भटकाया । सुगुरु दयाल नसाइ महाभ्रम निज धन निकट दिखाया ॥ अव० १॥ रत्नत्रय मय है अटूट साधर. मिन ये पर खाया। हृदय कोप में राखि निरंतर दिन प्रति चित में भाया अव०२॥ कुगुरादिक बहु फिरत लुटेरे तिन का संग छुट काया । इन्द्रिय चपल चोर ढिंग बैठे तिन का यत्न करायो । अव०३॥या धन रक्षक देव सुगुरु श्रुत की प्रतीति उरल्या
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(२८) या। सारथवाह भये शिवपुर के तिनसं नेह लगाया ॥ अव०४॥ जिन पाया तिन सुगुरु सुध्याया तिन का यश जग गाया। या धन को विलसे जे मानिक तिन अनंत सुख पाया ॥ अव० ५ ।
२६ पद-गग दीपचदी तथा होरी मोरठ में ॥
जबे कोऊ जाविधि मन को लगावे। तब परमातम पद पावे ॥ टेक ॥ प्रथम सप्रतत्वनि की श्रद्धा धरतन संयम लावे। सम्यक ज्ञान प्रधान पवन वल भ्रम बादर वि.
घटावे ॥ जवे० १॥ वर चरित्र निज में नि. __ ज थिर करि विषय भोग बिरचावे। एक
देश वा सकल देश धरि शिवपुर पथिक कहावे ॥ ज० २॥ द्रव्य कर्म नो कर्मभिन करि रागादिक बिनसावे। इष्ट अनिष्ठ बुद्धि तजि पर में शुद्धातम को ध्यावे ॥ ज०३॥
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(२) नय प्रमाण निक्षेपकरण के सब विकलप छुटकावे । दरशन ज्ञान चरण मय चेतन भेद रहित ठहरावे ॥ जवे. ४॥ शुक्र ध्यान धरि घाति घाति करि केवल जाति जगावे । तीनकाल के सकलज्ञेय युत् गुन पर्यय झलकोवे ॥ जवे०५॥ या क्रमसों वड़भाग्य भव्य शिब गये जाहिं पुनि जावे । जयवंतो जिन वृप जग मानिक सुग्नर मुनि यश गावे ॥ जवे० ॥
२७ पद-राग मोरठ ॥ ___ कब निज आतम के गुण गास्या । जासू
फेरि नहीं दुख पास्या ॥टेक ॥ कब गृहवास । छांड़िवन से निज अनुभूति लखास्या ।।
कत्र० १॥ कब थिर योग धारि एकासन नेकन चित्त चलास्या । कब मैं ध्यान चमू सजिकरिवल मोहारातिभगास्या ॥ कव०२॥ भेद ज्ञान करि निज में निज धरि पर पर
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णति छुटकोस्या। ऐसी दशा होय मानिक 'कव जीवन मुक्ति कहास्या ॥ कव०३॥ __.२८ पद-राग ईमन धीनातिताले में ॥
प्रभु जी हम ने अघ बहु कीने ॥ टेक॥ पंच पाप में मगन रहत नित विषय भोग चित दीने ॥ प्रभ०१॥पर मेंइष्टानिष्ट ठानि के रागद्वेष रसभीने । आर्तरुद्र दुर्ध्यान धारिकें नर्क बसेरे लीने ॥ प्रभु० २ ॥ अधम उधारक शिव सुखकारक सुनियत यश प्रा. चीने। बीतराग लखि जांचत मानिक सम्यक् रत्न सुतीने ॥ प्रभु०३॥
२० पद-राग रेखता ॥ जिय काल घटा देह सदन छावने लगी। छावने लगी जो ये डरावने लगी । जिय० ॥टेका यह विरधापन प.वस भ्रम बदरा उठे जोर । अहे दूसरे उर तृष्णा पवन चलति है चहुं ओर ॥ त्रय योग चपल चपला
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(१) चमकावने लगी । जिय० १॥ मिथ्यात्वनि. शि अंधियारी लगी रोग की झड़ियां। यह आयु धोती जाति ज्यों घटियाल की घडि.. यां ॥ दुर्गति विरुप सरिताजु बहायने लगी ॥ जिय०२॥ नर भव सुकुल सुशैली बड़े माग्यतें पाई। जिन वाणि पर्म औषधि नित सेबोरे भाई ॥ मानिक जरादों व्याधी विनसावने लगो। जिय०३॥
३० पद-गग रेखता ॥ विज्ञान छटा कर्म मल बहावने लगी। वहारने लगी जीमन भावने लगी ॥विज्ञा० ॥टेका यह काल लब्धि पावस ऋतु आईहै अति जोर । दूसरे उर शुद्ध भाव बदरा उठे घोर ॥ त्रय कारण रूप चपला चमकाने लगी ॥ विज्ञा० १॥ जहां शाम्य शशि प्रकाशत भ्रम तिमिर जुनसिया । वैराग्य चलत पवन शांति उदक वरसिया ॥ परवस्तु
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( ३२ ) चाह दाहको बुझावने लगी ॥ विज्ञा० ॥२॥ तत्त्वनि की ऊहापोह जहां घालो हिंडोरा तहां झूले सुम्मति नारि चिदानंद के जोरा॥ निज परणति सखी निज में झुलोबने लगी॥ विज्ञा०३॥ या भांति छके दम्पति निरद्वंद वाग में। लागे हैं अति उछाह स्व पर सौंज त्याग में। तिन मानिक लखि शिवत्रिय ललचावने लगी ॥ विज्ञा०४॥
___ ३१ पद-राग सोरठ तिताला ॥ कर जिय निज सुरूप विचार-जातें होहु भवदधि पार ॥ कर० ॥ टेक ॥ काम भोग प्रवंध कथनी सुनिय तं बहुवार। अनुभवन परिचय सुकरते गये काल अपार ॥कर०१॥ देव रागी गुरु अत्यागी धर्म हिंसाकार। इन प्रसंग अभंग दुख बहु लहोते अनिवार ॥ कर० २॥ या प्रकार मिथ्यात्त्व करितूं परो भवदधि घोर । एक परतें भिन्न आ.
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( ३३ ) तम दुर्लभ है संसार ।। कर० ३॥ नीठिकरि अब बड़े भागनि आयो जगत किनार । तत्व रुचि करि करहु मानिक सफल नर अव. तार । कर०४॥
३२ पद-राग झंझोटी ॥ आतम रूप निहारो शुद्ध नय आतम रूप निहारा हो ॥ टेक ॥ जाकी विन पहिचान जगत में पाया दुःख अपारा हो। आत० १॥ बंध पर्स विन एक नियत है निर्विशेप निरधोरा हो । परतें भिन्न अखि न्न अनोपम ज्ञायक चिन्ह हमारा हो । आत०२॥ भेद ज्ञान रवि घट परकाशत मिथ्या तिमिर निवारा हो । मानिक वलिहारी जिन की तिन निज घट माहि सम्हारा हो ॥ आत० ॥
३३ पद-राग गीड मल्हार हिंडोरा जगत हिंडोरनारे घालो आली मोह
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( ३४ ) कदम तरुडार ॥ जग० ॥ टेक ॥ कुमति कुरमनी चिदानंद दंपति झूलत करि मनुहार ॥जग०१॥ चहंगतिगमनजुडोरीजामें बड़ीयहुत दुखकार । जहां पच इंद्रिय सखी झुलावत झोकन नाहिं सम्हार ॥ जग०२॥ भरम भाव वादर उमहत तहां वरसत हैमद बार । योग चपल तहां चपला चमकत विधि शुभ अशुभ यार ॥ जग० ३॥ इहि विधि अनंतकाल झलत जिय पायो दुःख
अपार । मानिक चतुर पुरुष जानों जिनि __ यह झूलन दियो टार ॥ जग०४॥
३४ पद-होरी काफी में ॥ जिन मत तिन अजहं न पायो । जिन्हें कगरुनि बहकायो । जिन० ॥ टेक॥ नरभव सथल सुकल जिन वृष लहि पैविपरीत गहायो । हिताहित ज्ञान नसायो । जिन० १॥ निर्विकार जिनचंद छवीकें चंदन ले लिप
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टायो । परिग्रह धारिन को गुरु माने तिन ही को नमन करायो । कहें हम भाव न भायो । जिन०२॥ कुलाचार कूधर्म जानि धनदान पुण्य ठहरायो । लंघन • उप यास ठानि के वस्तु स्वरूप न पायो । क्या तन कट करायो । जिन०३॥ जिन ग्रहमांहिं मोम की बाती करि उत्सव मन भायो। सचित वस्तु सजिनिशि श्री जिन भजि पाप पंथ में धायो॥ कहाभयो जेनी कहायो। जिन ॥४॥ोजिनेन्द्र की माल नाम करि धरि बहु. मोल करायो । केवल ज्ञान छबीताको पंचा मृत न्हवन करायो ॥ कहें आज जन्म बधायो । जिन०५॥ रण भंगार जु आदि कथन सुनि अंग अंग हरपायो ।प्रोजन भूत तत्व सुनि विलखे ताकलह बतायो॥तिमिर मिथ्या दृग छायो । जिन० ६॥ मान
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( ३६ ) बढ़ावन को जिन प्रतिमा धरि जिन भवन करायो। तामहिं पद्मावति भैरव धरितेल सिंदूर चढ़ायो ॥ बहुत संसार वढायो । जि न० ७ ॥ तर्पनादि यज्ञोपवीत तिलकादि कुलेप बनायो । अन्य मतो सादश किरिया करि मन में नाहिं लजायो ॥ कहें जिन आज्ञा मायो । जिन० ८॥ के धन होय के वैरी विलसे कै परिवार बढ़ायो । कै अरो. गता के सुभोगता इन फल मांहिं लुभायो । वृथा बिकलप उपजायो। जिन० ६ ॥ देव धर्म गुरु परखि शास्त्र उर तत्वारथ रुचिलायो । शैली शुद्ध सेइ अब मानिक ज्यों सुख होय सबायो ॥ सदा समरस सरसायो । जिन० १०॥
३५ पद-दादरा जिला उमरिया रे योंही बीती जाय ॥ टेक ॥ या विचार में चतुर रहत हैं भूरख चितना
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सुहाय ॥ उम० १॥ वालापन ख्यालनि में खोया तरुन विपय विष खाय । विरधापन तरु पत्र जानि यम पवन लगत झरिजाय ॥ उम० २॥ दुर्लभ नर भव पाइ नाहि शठ कुगुरुनि सेइ गमार । काग उड़ावन डारि उदधिमणि फिर पीछे पछताय ॥ उम०३॥ वनि आवे तो कर उयाय यह औसर फिर न लहाय । सैलो शुद्ध सेय मानिक जालं अविनाशी पदपाय ॥ उम०४ ॥
३ पद-राग टप्यो अंगाला ॥ सुज्ञानीरा कुगुरोंदीनीरे मन जायटेक। पंच पापकरि मलिन रहित नित विषय क. पाय सुभायरे ॥ सुज्ञानी० १॥ तिनि प्रसंग चहुंगति भटकायो दुखपायो अधिकायरे॥ सुज्ञानी०२॥ ये पाथर का नात्र प्रगट है मूढ़न लेत डुबाय रे ॥ सुज्ञानो० ३॥
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(३८) सुगुरु सीख नौका चढि मानिक भव समुद्र तरिजायरे ॥ सुज्ञानी०४॥
____३६ पद-राग टप्पो जंगला ॥ सुज्ञानीरा सुगुरुनि के गुनगाय॥सुज्ञानी० टेकाअंबर बिन मुनि नगन दिगंबर संवर भूषित काय ॥ सुज्ञानी० १॥ वीतराग विज्ञान भाव मय अप्ट कर्मविनसाम ॥ सज्ञानी० ॥२॥ शांति छबी रवि तासु निरखते भवि सरोज विकसाय । सुज्ञानी० ३॥ हित मित बचन अमो जनु बरषत भव भ्रम दाघ पलाय ॥ सुज्ञानी० ४ ॥ मानिक सतगुरु गुण सुमिरनकरि अशुभकर्मनसिजायासुज्ञानी०५॥
__ ३७ पद-टप्पोराग अगला ॥ सुज्ञोनीरा सुगरु सीख उरलाय ॥ सुज्ञानी० ॥टेक॥ सम्यक दरशन ज्ञान चरन मय शिवमग दियो वताय ॥ सुज्ञानी०१॥ नय निश्चय व्यवहार दुहुनि करि लखि निज
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(३९) गुन सुखदाय ॥ सुज्ञानी०२॥ तजि विभाव निजभाव भाय ज्यों हावे शिवपुर राय ॥ सुज्ञानी० ३॥ सतगुरु सोख गहो अब मानिक फेरिन भव भटकाय ॥ सुज्ञानी०१॥
३८ पद-राग देश तथा ईमग । जिन आगम मो मन भावे । म्हाने दुश्रुत नाहिं सुहाव। जिन टेक ॥ स्यादवाद पदकरि शोभित है सब संदेह नसावे |जिन०॥१॥ भूल अनादी तुरत मिटावे निज पर तत्त्व लखावे । हित अरु अहित सुतिन कारण विच हेयाहेय जतावेजिन०२॥ देव धर्म गुरु रूप दृढ़ावे विषय भोग विरचावे । सम्यक दर्शन ज्ञान चरण मय शिव मारग दरसावे ॥ जिन० ३॥ याकलि माहिं प्रगट श्रुत मानों देव सुगुरु यतरावे। मानिक जे सरधान धरत तिनकों भवसिंधु तरावे ॥ जिन० ॥१॥
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(४०) ३८ पद-राग देश तथा ईमन ॥ जिन मत लिंग तीन विधि वरने।तिन को सरधा भवि करने ॥ टेक ॥ मुनि, श्रा. वक उत्कृष्ट आर्जिका एही भवदधि तरने ॥जिन० १॥वाह्याभ्यंतर संग रहित जिन रूप यथा विधि धरने । खंड वस्त्र वा कदि कोपीन श्रावक उत्कृष्टा चरने ॥ जिन० २॥ स्वेत साटिका धरति आर्जिका राग द्वेष को हरने ।इन के इन्द्रादिक भवि जन गण रहत चरण के सरने ॥ जिन०३ ॥ इन विन
और कुलिंग जगत में भेष उदर के भरने। मानिक भव्य परखि सेवे ते शिव मंदरिकों परने ॥ जिन०४॥
४. पद--राग देश तथा ईमन । अब हम सुने सुगुरु के बैना । जासूखु. ले ज सम्यक नैना ॥ टेक ॥ स्वपर पिछाना भ्रमतमभाना जाना अब मत जैना॥अव०१॥
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(४१) हित अरु अहित सुतिनके कारण जानिलए सुख दैना ॥ अत्र०२॥ कुगुरु सुगुरु वच विन पहिचाने मिथ्या भाव मिटैना ॥ अव० ३॥ मानिक सगरु सीख नौका चढि क्यों कर. जीव तिरेना । अब०४॥
४१ पद-गग देश नया ईमम॥ निज आतम में रमि रहना । परस्मनेह तजि देना ॥ निज० ॥ टेक ॥ परसों नेह हेत है दुख को सी विधि बंधन सहना ।। निज०१॥ इष्ट अनिष्ट बुद्धि तजि पर में यह निज हित लखि लेना ॥ निज० ॥ सकल द्रव्य को ज्ञातादृष्टा यह स्वभाव भजि लेना ॥ निज० ३॥ मानिक अपने निज स्वभाव में सदा काल थिर रहना॥ निजल्या
४२ पद-भाग दीपचंदी ॥ तोकों यह सिख कोने दईरे । जासूदुगति गैल गहीरे ॥ टेक॥ तुमति सखी सर
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(४२) वांग तजी चित कुमति कुत्रिय बसिगईरे। क्रोध मान मद मोह छको सुधि युधि सय विसरि गईरे॥ तोको०१॥ अनरथ कर्म करतन हटत पग पंच पाप दुख मईरें। कगरादिक सेवे निशि बासर सत संगति तजि दईरे ॥तोकों० २॥ हित अरु अहित सुतिन कारण में भर्म बुद्धि परनई रे। ख्याति लाभ पूजा कीरति की चाह भई नित नई रे। तोको ३॥ तातें अब कुचालि ताज मानिक भजि जिन वृप सुख मईरे। वीती ताहि विसारि वावरे अव तूं राखि रहीरे तोको ४॥
४३ पद-राग कलांगण्टा ॥ करले सम्हाल अपनी-तूं छांड़ मोह की झपनी ॥ टेक ॥ तूं तो चिन्मूरति ज्ञाताक्यों पुद्गल के रसराता। यासू तेरा क्या नाता तजि राग द्वेष का तांता ॥ कर० ॥
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(४३) येविषय भोग दुखदाई-देहें नरकगनिभाई। भोगत तूं नाहिं अघाई इन छांड़ि भजा जिनराई ॥ कर० २॥ सुत मात नात परिधारा-सय स्वारथ का संसारा । इन काज करत अघ भारा क्यों बढ़त भवदाधि पारा ॥ कर०३॥ तन धन तू अपना वे सो दगा देय खिर जावे। सो तो परगट दिख लाव-क्यों नहिं भ्रम भूल भगावे ॥ कर०॥ कुगुरादिक के संगराचा मिथ्यात महा मद माचो। तासें गति गति में नाचा-इन त्यागि धर्म गहि सांचो॥ कर०५ ॥ यह सुगुरु सीख उर धरले-श्री जिनवर देव मुमिरिले। निज कारज . अब करले-मानिक हित पंथ पकरले ॥ कर० ६ ॥
४४ पद-राग देश ॥ ज्ञानी रत नाही परसों दिन रतियारे
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(४४) ॥ ज्ञानी० टेक ॥ ज्ञान विराग शक्ति को धारेनिज परणतियारे ॥ ज्ञानी० १॥ ज्यों व्यमचार निप्यार यार सोभरता मांहिं वि. रतियारे । पंकज रहे पंक माहीं पय नहीं परसतियारे ॥ ज्ञानो० २ ॥ उदय चरित्र मोह ' वर बसतें व्रत नहीं रतियारे । कर्म शुभा
शुभ उदय मांहिं नहिं हर्ष अरतियारे ॥ ज्ञानो० ३ ॥ भोग बिलास करत न धरत ममता निज छतियारे। भव तिथि घटत बढ़न प्रबोध शशि भ्रम तम विनशतियारे ॥ ज्ञानी० ४ ॥ देव धर्म गुरु तत्व निजातम तन मन बतियारसरधा धरत हरत अघ मानिक गुनसुमिरतियारे॥ज्ञानी०५
४५ पद-राग गौष्ट मल्हार ॥ क्यों घरडारी कुमति कुनारी चेतनराय अनारी ॥ टेक ॥ या प्रसंग चहुंगति भट
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(४५) काये पाये दुख अतिभारी ॥ क्यों० १ ॥ त्रभुवन पति पद छांडि आपनो क्यों हो रहे भिखारी। दुखी भये विन लाज मरत ही सुधि दुधि सवे विसारी ॥ क्यों०२॥ अब अपनी बल आप सम्हारो निज पौरुप विस्तारी ।मानिक सुमति कहत नजि दुरमति भजि जिन पति सुखकारी पक्यांगा३ ४६ पद-राग झझोटी माफी मिश्रगति में ॥
भव्य सुनो एक सीख सयानी । काज करो इमिनित हित दानी ॥ टेक ॥ युगल घड़ी भ्रम भाव नासिकें प्रगटा के चैतन्य निसानी । भव्य० १॥ ज्ञान सुरूपी को सुज्ञान करि ताही को ध्यान धरी सुखदानी। इत्यादिक कौतूहलकरि भरि जन्म पियो ज्ञानामृत पानी । भव्य०२ ॥ तजिभव पास वसहुँ शिव वाम विनासह मोह - पति रजधानी । मानिक इमि पुरुपारय
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(४६ ) साधत जीवत काल अंत विन प्रानी भव्यता
'४७ पद-राग टप्पो मंझोटी को। एरे तेंने नाहक जन्म गमायो रे ॥टेका गर्भवास नवमास सहे दुख सुनता नाहिं लजायोरे ॥ एरे०१॥ बालापन ख्यालनिमें खोयो रुदन करत दुःख पायोरे । तरुणपने विषयनि वश निशि दिन तरुणी सों चित लायोरे ।। एरे० २॥ काम क्रोध छल लोभ मोह करि बहु विधि पाप कमायो रे। कै कुसंग लगि कुगुरुनि तें पगिनिज हित नाहिं सुहायो रे॥ एरे० ३॥ गृह कारण वि. रधापन में तृष्णा वश हे विललायोरे। मानिक सुगुरु सीख अजहूं भजि होय ब. हरि पछितायो रे ॥ एरे०४॥
४-पद-राग जोगिया ॥ यम आनि कंठ जब घेरा जीव तब कोई नहीं रक्षक तेरा ॥ टेक॥ सब कुटुंब स्वारथ
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को साथी भीर परें नहींनेरा । तिनके हेत करत अघ भाई होयगा नर्क वसेरा जीव० १॥ हरि हर इन्द्र चन्द्र आदिक सब भये हैं काल के चेरा । कहु तोको कैसे राखेतिन कीनो पर भव डेरा ॥ जीव०२॥ नय उपचार पंच पद सरनो गहिले अव मन मेरा निश्वय आप सरनो गहि मानिक जी होवे सुरझरा ॥ जीव०३॥
४९ पदनाम जोगिया ॥ जीव लखि सम्यक नैन निहारी तजि भर्म वुद्धि दुख कोरी ॥ टेक ॥ अध्रुव तन धन अध्रुव परिजन अभुत्र महल अटारी। भ्रम करि सब नित्य मानत है सुधि बुधि सवे विसारी ॥ जीव० १॥ द्रव्य दृष्टि करि तूं अविनाशी चिन्मूरति दृग धारी । जग उपजत विनसत लखि भाई क्यों हर्षत विलखाई । जीव० २॥ तातें निज सम्हाल
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(४८) अव मानिक नातर होयगी स्वारी। सर्व विकलप तजि थिर चित करि भजि सिद्ध अकल अविकारी ॥ जीव० ॥
५० पद-राग जोगिया ॥ जीव लखि यह संसार असारा जामें सुख नाहिं लगारा ॥ टेक ॥ द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव रूप पंच पर कारा । तामहिं भ्रमत अनादि काल ते मिथ्या भाव पसारा ॥ जीव० १॥ महा कठिन करि बड़े भाग्यतें आयो जगत किनारा। चके तो फिर नाहिं ठिकाना विषम चतुर्गति धारा ॥ जीव० २॥ देव धर्म गुरु रूप परखि निज मोह भाव निरबारा। रत्नत्रय नौका चढ़ि मानिक क्यों न होहु भब पारा ॥ जीव०३।
५१ पद--राग भैं । भवि जन सब विकलप तजि निशदिन
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(४) जिन मंदिर को धावो । मनुप जन्म अनि दुर्लभ पायो सा क्यों वृथा गमावा ॥टेक। या जिनेन्द्र को जजन भजन करि दुगंति वंध नसावो । के जिन आगम पठन प्रवण करि मिथ्या भाव मिदावो ॥ भवि०१॥ के जिन गुण स्तोत्र पाठकरि सकल कुभाव गमावो। कैसाधार्मिन सौं चरचा करि वि. पय कपाय घटावी ॥ भवि०२॥ हित के कारण देव धर्म गुरु ग्रंथ परखि उरलावा। कुगुरादिक नित अहित हेत लखि तिन के पास न जावी ॥ भवि० ३ ॥ जहा पोह करी वह श्रुतते चित प्रमाद छुटकावी । धरह धारना तत्वनि की निज अनुभव करि सुख पावी ॥ भवि०४॥ सप्त क्षेत्र धन खरच कथन सुनि उर आनंद उमगावी । कृन कारित अनुमोद भाव करि बहु सुन उपजावो ॥ भवि० ५॥ या कलि मांहिं ग्रही शिव
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कारन और न बनत उपावो । मानिकचंद यही अनुक्रम सो भव समुद्र तरि जावो ॥ भवि०६॥
५२ पद--राग भैरों ॥ परमारथ पथ को जे ध्यावें ते जगधन्य कहावें ॥ टेक ॥ मिथ्यातम निरवारि धारि दुग सम्यक तत्व जु पावे। सम्यकज्ञान प्रधान पवन बल भ्रम बादर विघटावे ॥ पर० १॥ देव शास्त्र गुरु भक्ति करत पैशुभ फल को नहिं चावे । भागत भोग उदास रहत नित चित बैराग वढ़ावे पर०२॥ सकल पदारथ में निर्ममता शाम्यभाव उर भावे। जिन सिद्वान्त परम उपवन में मन मर्कट बिरमावे ॥ पर० ३॥ नय निश्चय व्यहार दहनि करि निज परतत्व दृढावे । ज्ञानानंद सुधारस पीकर पूरब कर्म भरावैपर०४॥ सर्व गव्यतेभिन्न आप को आष.
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माहिं निवसाये। ज्यों पंकज निन रहन पंक में पै अलिप्त विकमावे ॥ पर० ५ ॥या भूधि मंडल मांहिं सुतेजन जीवन मुक्तिकहावें। मानिक निन के गुण चितारिके हाथ जोरि शिर नावें ॥ पर०६ ॥
५३ पद-दादरा॥ जिन मत परखारे भाई । जाके परखत भ्रम मिटि जाई ॥ टेक । नय प्रमाण निक्षेप न्याय करि परखतभ्रम मिटिजाई॥१॥ विन परखें जोवादि तत्व को भेदन परत दिखाई। यथा अंध सिंधुर गहि झगड़त वस्तु स्वरूप न पाई २॥ काल दीप तेंजिन मत मांहीं नाना भेप बनाई। ज्ञान विराग रूप तजि जिन मत विपय कपाय बढ़ाई ॥३॥ पचेन्द्री सेनी आरज हे सीख लई चतुराई । जिन मत परखन को हैं मृरख
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( ५२ ) करनी सकल गमाई ॥ ४ ॥ देव धर्म गुरु ग्रंथ परखि पुनि तजि प्रमाद दुखदाई । जिन वृष शुद्ध भजो अब मानिक फेरि न भव भटकाई ॥ ५ ॥
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५४ पद - राग भैरों तथा फोंटी !! शिव सरूप परमातम जे भवि गुण पयय युत घ्यावें । तिनकी कर्म कालिमा विनसे परब्रह्म हो जावें ॥ टेक ॥ रहित सप्त भय तत्त्वारथ में नेक न संशय लावें । सम्यग्ज्ञान प्रधान भान बल भ्रम तम घान नसावें ॥ शिव०९॥ स्वपर भेद विज्ञान करत वा निज में निज विरमांवें । सुख दुख में न विषाद हरष चित नित वैराग्य बढ़ावें ॥ शिव० २॥ संवर निर्जर हित स्वरूप श्रीगुरु उर ध्यान लगायें। मोह छोह बिन शाम्य भांव चित धर्म उपादेय भावें ॥ शिव० ३ ॥ आश्रव बंध बि
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(५३) भाव दःखमय हेय जानि छुटकावें । यह विधि सों दृढ़ धरत तत्व रुचि शिव त्रिय चित ललचावें ॥ शिव ४ ॥ ख्याति लाभ पूजो कोरनि की चाह न चित्त नुहावें । मंत्री
आदिक चार भावनना भावत्त चित हालसावें ॥ शिव०॥ ५॥ तारन तरन भवादधि के जग जैनी सत्य कहा। जयवंते बता ने मानिक स्वहिन हेत यश गावें ॥ शिव०६॥
५५ पाद-राग मोन्ट दीपदी टुगो । आतम जानोरेभाई-जाने जानत भ्रम मिटिजाई॥ आत० ॥ टेक । परश गंधरन वर्ण विवर्जित सहिन सुनुण परजाई। व्यय उत्पाद ध्रौव्य सत युत पै इन्द्रिनि करि न लखाई ॥ आन० १॥ चौखूटो न तिखूट गोल नहि शब्द रहित पुनि गाई। हैचित पिंड अखंड ज्ञान घन अनुभव गम्य बताई
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( ५४ ) ॥ आत०॥ जाको पद जग पूज्य जगोत्तम जामें जग झलकाई। स्वपद विसारि राचि पर पद में दुखिया होत अघाई॥आत०३॥ जब अपनो वल आप सम्हारे डारे विकल पताई । मानिक तब शिब महल में वासी सुख अनंत बिलसाई ॥ आत०४॥
५६ पद-राग दादरा जिला ॥ तन धनरे दगा दिशे जोय ॥ टेक ॥स. न्ध्या समय अरुण अंबर ज्यों चपला च. मकि पलाय रे ॥ तन०१॥ सस्यक दृग करि निरखि सयाने यह पुदगल परयाय॥तन०२॥ पूरब सुकृत करि यह ठहरत यतन करें न रहाय रे ॥ तन०३॥ जाके हेत करत अघ भाई लहे कुमति दुखदाय ॥ तन०४॥ धन सुक्षेत्र विन तन तप करि ज्यों होवे सुर शिवराय ॥ तन०५॥ छिन उपजत छिन छिन में विनसत जाको यही सुभाय॥तन०६॥
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(५५) मानिकचंद कहत आपुन सों औरनि की समझाय ॥ तन०७॥
द-राग देश।। निज निधिकारी नहीं जाय हो त्रिभुवन के ज्ञाता हो ॥ टेक ॥ तेरी निधि दृग ज्ञान चरणमय सो निज में अवलोय॥ होत्रिभु०॥ निज विधि के जाने विन जग में बहुत दुखी तूं होय । होत्रिभु० ॥ पर गुण रचि पराश्रित है के दिया है अपनप्या खोय ॥ होत्रिभु० ॥ तातं पर तजि निज भजि मानिक निरआकुल सुख होय॥ हात्रिभु० ॥
पद-ठमर्ग दंग ।। जियरा भयो विरागी रे हो नेमि जीनों सुरति मेरो लागी॥टेका घर कुटुंब से का. ज नहीं निज परणनि जागीरे ॥जियरा०॥ जग असार लग्नि पशु पकार सुनि हमकों त्यागारे। चढ़ि गिरनारि धरि चरित भार
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आतम लौ लांगीरे ॥ जियरा० २॥ आपु पगे शिवरमनी से हम प्रभुगुण पागी रे। मानिक नेम चरण भजि राजुल भई वड़ भागीरे ॥ जियरा०३॥
५९ पद-राग होरी ॥ हृदय छवि वस गई श्री जिन प्यारी यह ती सुर नर गण मनहारी ॥ टेक ॥ अनंत ज्ञान दृग सुख वीरजमय अनंत चतुष्टय धारी । तुम मुख चन्द्र वचन किरणावलि लोकालोक उजारी ॥ हृदय० १॥ शांति स्वभाव साधि शिवपथ को भये अविचल अविकारी। मानिक श्री जिन चरन कमल पर मन बच तन वलिहारी ॥ हृदय०२॥
६० पद-राग भैरवी टप्पो ॥ एजी म्हारी अरज श्री जी म्हारी अरज सनि लीजो जी त्रिभुवनपाल ॥टेक॥ आदि
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(५) काल ते मोह शत्रु ने डालि दियो भ्रमजाल ॥१॥ निज धन मेरो लुटिलियो है कियो बहत वेहाल । मानिक चरन शरन गहि लीनी कीजे वेगि निहाल ॥२॥
६१ पद राग मोरट ॥ शिव रमनी जाटू डारी-वैरागी भयो प्रभु म्हारो ॥टेका तारनते रथ फेरि दियो प्रभु पशू फंद निरवारो ॥ शिव० १॥ अ. ध्रुवादि भावन भावत लोकांतिक सुयश उचारी। भूपण वसन डारि गिरि ऊपर पंच महाव्रत धारो ॥ शिव० २॥ पंच समिति त्रय गुप्ति सखिनि युत् सुख वारिधि विस्तारी । निजानंद अनुभव रस में छकि विपय गरल वमि डारी शिवा काज होय विन के टिंग सजनी उन विन कोई न हमारो।मानिक जग असार उखि करि
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( ५८ ) रजमति पति शरण विचारो || शिव० १ ॥ ६२ पद- राग कोटी धोम तिताला || जगत त्रय पूज्य लखो जी जिन चंद ॥ टेक ॥ परम शांति मुद्रा के निरखत ही उपजत परमानंद || जगत० १॥ अनंतज्ञान दृग सुख वीरजमय भविक मोद सुखकंद ॥ जग० २ ॥ जासु ज्ञान जोतिष्ना प्रसत्त फटत अनृत तम खंड ॥ जग० ३ ॥ मानिक नैन चकोर लखत चित रटत कटत भवकंद
॥ जग० ४ ॥
६३ पद - राग पिल्लू दादरा ॥ जादों रायरे दगा दियें जाय ॥ टेक ॥ छप्पन कोटि युत व्याहन आये हर्ष हिये न समाय ॥ जादों० ९ ॥ पशू छुड़ाय गये गिरि को प्रभु अब कहा करों उपाय ॥ जा दों० २ ॥ शिव रमनी सिद्धन की नारी ताते
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( v )
लिये भरमाय || जादों०३ ॥ राजुल मानिक जग असार लखि प्रभु मग लागी धाय॥ जा०१ || ६४ पद-राग दुगने मोष्ट ॥
राजुल जिय में करत विचार-ठाड़ी उग्र सेन दरबार | राजु० टेक ॥ शुभ अरु अशुभ उदय कर्मादिन यह कोनों निरधार ॥ राजु० ९ ॥ छप्पन कीटि जादों युन व्याहन आये नेमिकुमार । पशू निहारि त्रिचारि अथिर जग जाव चढ़े गिरनार॥राजु काकी मात वापकाको सुत काको है परिवार ! काको तन धन काको यौवन झूठा जग व्योहार || राजु ॥ तातें अब प्रभु पान जाय के कोजे तत्व विचार । मानिक ताज दुरमति शुभमति सजि रजमति भजि भरतार ॥ राजु०४ ॥
६५ पद राग देश आली मेरो नाथ भयो वैरागी ॥ टेक ॥
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(६०) हमको तो कछु दोष नहीं ये कौन गुन हमको त्यागी ॥ आली० १॥ आप पगे शिव रमनी सों ये हमतो प्रभु गुनपागी। मानिक तप धरि घर तजि रजमति प्रभु ही के मग लागी ॥ आली०२॥
६६ पद-दादरा __ सतगुरु कीनो पर उपकार-ये जिया दुःखम काल मझार ॥ टेक ॥ गुरुप्रसाद दुर्लभ निज निधि में पाई अति सुखकार ॥सत०९॥ सप्तभंगमयवाणी प्रभु की झोली जो गणधार। ताही क्रमतै वहु मुनिगण श्रुत रचे स्वपर हितकार ॥ सत०२॥ जिन के पठन श्रवण करते मिटि जात भरम अंधियार।स्वपर भेद की वृद्धि होत उपजत अनुभौ सुखसार ॥सत०३॥ केवल श्रुत केवल ह्यां नांहीं मुनिजन गण न लगार ।
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( ६१ )
मानिक श्रुत सरधान धरत ते होत भवो दधि पार । सत० g ॥
६० पद-रमिया ॥
धनि शैली शिव पुर गैली है ॥ टेक ॥ जामें नित श्रुत पठन वन हे जिन जजन भजन विधि फैली है ॥ धनि०९॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म खण्डिनी ज्ञानादि स्वगुण की थैली है ॥ धनि०२ ॥ जामें भवि चरचा नित जल्पत तिनकी मति होत न मेली है ॥ धनि । मानिक यह जयवंती जग में कलि में शिव रमनि सहेली है || धनि०४ ॥
६८ पद-रमिया
भज नेमीश्वर शिव सुखकारी ॥ टेक ॥ छपन कोटि युत व्याहन आये चित पशुअनि को करुणाधारी ॥ भज० ९ ॥ राजवाज सब परिजन छांड़े जिन छोड़ दई राजुल छांड़ नारो ॥ भज० २ ॥ चढ़ि गिरिनारि ध्याय
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(६२) निजआतम जिन पायो निज पद अविकारी ॥ भज० ३ ॥ शिव रमणी बर तासु चरण पर मानिक मन वचतन वलिहारी। भज०४॥
६ पद-दादरा देश। हो मेरे स्वामी तूं निज घर आउ॥टेका पर घर कुमति कूर संग भटको अब मत मूले जाउ ॥ हो०१ ॥ नर भव सुकुल सुथल ते पायो फिरि ऐसो नहीं दाउ ॥ हो०२॥' रत्न त्रय निज निधि तेरे घर विलसो त्रिभू वन राउ ॥ हो०३॥ सुमति सोख अजहूं भज, मानिक अचल सुघर सुख पाउ ॥ हो०४॥
७० पद-दश में। हम तो अब निज घर को आये ॥टेक॥ भेद विज्ञान भान परकाशत भ्रम तम घान नशाये ॥ हम०१॥ निज घर के जाने बिन जग में घर घर भ्रम दुख पाये। काल
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लब्धि बल सत संगति ने निज घर स्वघट दिखाये । हम०२॥ अहित हेनु कुगुगदि परसि के दूरी से छुटकाये। हित के कारण सुगरु देव नुन निशिदिन चिन में भाये ॥ हम०३॥ परखे हयाय हृदय दृग जिन आज्ञा शिरलाये । मानिक शैली निजघर गली लखिभविजन नित धाये। हम०४॥
११ पद ग माग ___ सम्यक शैली के लोग शांति रस भीजन लागे ॥ टेक॥ दृढ़ सरधान धरत तन्वनिको विन शंका त्रय योग ।। शांनि० १॥ सगरू देव श्रुत चित चाहत नित कुगुगदिक को वियोग । हेयाय पस जिनके घद करन स्वानुभव भोग ।। शांति० २॥ मम नम हर विज्ञान दिवाकर जनि घट उटिन मनोग। भोगत भोग उदास रहत नित निर विक
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(६४) लप उपयोग ॥ शांति०३ ॥ जे शिव मारग मांहि रमत विधि फल तें हरप न सोग। मानिक तिनकोसंगकरत मिटि जातभ्रमण भवरोग ॥ शांति०४॥
____७२ पद- राग देश ठुमरी ॥ ज्ञानी तेनें परसें प्रीति लगाई॥टेक ॥ तूंचिदघन पर जड़ से रावो चित में नां. हिं लजाई॥ ज्ञानी० १॥ पर की प्रीति रीति विपता की छिन में मिलि बिछुराई । पर को तो कछु दोष न ज्ञानी तो परणति दुखदाई॥ ज्ञानी० २॥ भ्रम मद छाकि थापि निज पर में अहंबुद्धि उपजाई । सववन में वहु कष्ट सहेतें सो सुधि क्यों बिसराई। ज्ञानी०३॥ निज स्वभाव तजि बहु दुख पायो मानिक मन बचकाई। पर की प्रीति तजो सुभ जो निज सत गुरु यो फरमाई ॥ ज्ञानी०४॥
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पट-गजान॥ छवि वीतराग की मेरे उर में समा रही। दृग बोध वीर्य शमं मई दृग में छारही ॥ टेक ॥ नासाग्र दृष्टि धरें करें वर विरागता । सुख बारिध विस्तारवे को चन्द्र है यहो ॥छवि०१॥ वर गुढ नुामन घरं अभी सुरंग रंगी । शिव पंथ के लखाव ने को दीपिका यही ॥ छवि०२॥ जाके स्त्रगुण पर्यय यामें समा रहे । निज आतम दर्शाने को आरसी यही ॥ छवि। छवि देखि दर्प कोटिहू कंदर्प को गया । मिथ्यात्न तम नमानने को मित्र है यही ॥ वि०४॥ नागेन्द्रसुर नरेन्द्रफुनि गणेन्द्र भी ध्यादें । विज्ञान बीनागना का हेतु है यही ॥ छवि०५॥ यह मानिक उर नाहीं निश्चे हुआ है आज । भव सिंधु ने तरन की जलयान है यही ॥ छवि० ६ ॥
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१४ पद-राग झमोटी ॥ प्रभु थाकी छवो पे मैं बारी॥ प्रभुण्टेक॥ वीतराग विज्ञान भावमय पर्म शांति मद्रा धारी ॥ प्रभु० १॥ नाशा अग्र दृष्टि को धारें भविसुर नर मुनि गण मनहारी॥प्रभु० २॥ अनुभव रस झलकत मुख पुलकित मानो बचन कहत आनंदकारी ॥ प्रभु०३॥ धारि अनुराग विलोकत मानिक ते पावत पद अविकारी ॥ प्रभु०४॥
१५-पद दादरा कलांगहा में ॥ __ सुनि लीजो मेरी टेर कर्मनि ने मोहि घेरो ॥ टेक ॥ कर्म शत्र ने भव भव मांही दोनो है दुःख घनेरो ॥ सुनि० १॥ रत्नत्रय निज धन मेरो हरि करि लीनो मोहि चेरो ॥ सुनि० २॥ तुम हो दीनदयालु जगत गुरु मोतन क्यों नहीं हेरो ॥ सुनि० ३॥ शरण
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(६) गहो मानिक सन बच नन अग कीजे निर चरी दुनिय"
पद- Rar ॥ तेरी मति हीनरे जिय तेरी मनि होन ॥ टेक ॥ निज धन तेगे कर्म शत्रु ने अ. नचीनी कर दीन । तान नोहि तुम्न नाही भयो जगत में दोन ॥ रे जिम०१॥ परही को जाचन परहीराचा पर मय आपेशी कोन । तूं गुबमय यों दुखी होन ज्यों जल विच प्यासी नीन ॥ रे जिय०२॥ करि पीरुप मम मात्रछाडि लखि सम्यक रत्न सुतीन । गुरु वचन सरधा घरि मानिक निजगुण होउलव लोन रेजिय या
परदादा हृदय जिन मृत्ति रही ये समाय-एजी और कळू न मुहावै मन में । टेक ॥ नि.
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(६८) र्विकार निरवंद निरामय सहजानंद सुभाय ॥ हृदय० १ ॥ सकल द्रष्य निरखे पनि जाने में परमें नहीं जाय । स्वच्छ सुखद अ. मंद ज्ञान घन ज्यों दर्पन झलकाय हृदय ॥२॥ वंध मोक्ष बिन शुद्धा चल युत् गुण अनंत परजाय । द्रव्य कर्म नो कर्म भाव विधितें बिलक्ष दरशाय ॥ हृदय०३॥ अव्या बाध अखंड अनाफुल सुख मय त्रिनुवन राय । अनुभव ढग निरखत ये मा. निक तिनहीं को प्रगटदिखाय ॥ हृदय०४॥
___७८ पद-राग झकोटी को बगा। नेमि नवल वनि आयोरे बना उग्रसेन नृप को नगरी में ॥ टेक ॥ शीस मुकट मुतियों का सेरा इन्द्रादिकसंग लायोरे वना ॥ उग्र०१॥ अशरण पशु आक्रंदन लखि के उर बिराग झलकायो रे बना ॥ उग्न०२॥
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(E) मोर मुबन्द कर कंकन तोरे गिरितन रथ फिरवायो रे बना॥ उग्र०॥रज मति नजि भवि सिद्ध निरंजन स्वात्म ब्रह्मरुचि ला. योरे बना ॥ उग्र०॥ भवि जन नारि जारि विधि गण शिव निय सां नहा लगायो रे बना उग्र०॥ शिव रमनी घर लखि क मा. निकमन वचनन शिर नायो रेबना। उग्र।
७८ पद-गग होरी झापी ॥ विनती सुनियो यदुगई तुम्हरे में शग्ने आई ॥ टेक ॥ छप्पन कौटि सजि व्याहन संग ले कृष्ण हली दोऊ भाई । अशरण पशु आनंदन लखिचित करुणा उपजाई। बहुत वैराग बढ़ाई ॥ बिन० १॥ समदवि जसे पिता छोड़ि छाड़ी शिव देवी माई। भुवि मंडल को राज छोड़ि के पगुअनि बंदि छुड़ाई ॥ फेरि रथ गिरि को जाई ॥ बिन०२॥ भूपण वसन डारि गिरिज
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( ७० )
पर ध्यान धरो चिढ़ राई । जग असार लखि हमकों छोड़ो शिव रमनी मन भाई ॥ हमारी सुधि हुन आई ॥ बिन०३ ॥ अधिर जगत में सार न दीखे गति गति भ्रमन दुखाई । हो तुम नाथ त्रिलोकपती जातत पीर पराई ॥ कहा कहिये समभाई बिन० ४ ॥ मैं इक मित्र मलिन तन में मेरी निर्मल जोनि छिपाई । कर्म शुभाशुभ आवत भ्रम तें तसु फल है दुखदाई ॥ नाथ मोहि लेउ छुड़ाई ॥ बिन० ५ ॥ भेद ज्ञान भ्रम हानि लोक में निज स्वभाव सुखदाई । बोध दुलभ पायो नहीं कबहूं तुम हो शरण सहाई ॥ मोहि अब लेउ अपनाई ॥ बिन० ॥ ६ ॥ बार बार चिंतत इमि राजुल प्रभु, हो के मग धाई । शीस नवाइ चरण गहि हीनोअव मोहि तार गुसांई ॥ कहा इतनी नि
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ठुराई ॥ विन० ७ ॥ मौन खोलि के दीनो है दिक्षा हितकारी सखी नुनाई। मानिक चंद धन्य दंपनि पर सुर नर मुनि वलि जाई ॥ स्वहित जिन स्तुनि गाई ।विन०॥
० पद-दोनी दीपपदी ॥ दई कुमती मेरे पिउको कैनी सीख दई ॥ टेक । स्वघर छोड़ि पर हो संग रोचत नाचत ज्यों चकई ॥ दई १॥ रत्न त्रय निज निधि ठगाय के जोड़न कल खई । रंक भये घर घर डोलन अब केनी विधि निर्मई ॥ दई१२॥ यह कुमती मैरी जनम को वग्नि पिय कीने अपमई । पराधीन दुम्ब भोगत भोंद्रनिज मुधि बिनरि गई ॥ दई०३॥ मानिक मुमनि अरज मुनि नत गुरु तुमती कृपा मई। बिछड़े कंथ मि. लाबहु स्वामी चरण शरण में लई दई०शा
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(७२) ८१ पद-राग होली दीपचंदी जिला पिल्लू ॥ सुधर सइयां मानों बात हमारी तजि कुमति कुनारी ॥ चतुर० ॥टेका कुटिल कुरूप लगी परसें नित वंध वढावन हारी ॥ तजि०१ ॥ सकल कुभाव कुरंग छिरकत नित लोकलाज तजि सारी। पापकींच वहु भांति लपेटें देति वदन पर डारी ॥ तजि०२॥ चक्षुहोन को ज्यों जग डोले बोले अति दुख कारो। या प्रसंग गति गति दुख पायो फिर तासों क्या यारी॥तजि०३॥ मो विनती पिय मान सयाने नातर होयगो खारी । मानिक स्वघर आउ हठ तजि भज सुमति सीख सुखकारी॥तजि०४॥
८९ पद-होनी दीप चदी जिला पिल्लू ॥ पर परणतिसों रतिमानी रे मदमातो लंगर ॥ टेक ॥ पर परणति मय आप जानिके निज निधि नाहिं पिछानी रे॥ मढ०
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(३) १॥ इष्ट अनिष्ट हेतु पर को लखि हर्प विषाद जुठाने रे ॥ मद० २॥ या प्रसंग निन दुखी होन है दुद को मुख करि जाने रे एम० ३ ॥ मम तजि निज परणति भज मानिक सुननि सुनीख बखानेरे ॥ मद०॥ _____८२ पर-योगी दीपचंकी निगा पिता
सबड पिया आये हमारी आरी चेतन कुमति कुनारि त्यागि के ॥ टेक ॥ काल लविध यह ऋतु वसंन में आनंद ठाठ रचौरी। चेत० १॥ मिथ्या कुरंग निकारि सार दृग केसर रंग छिर कोरी । सम्यक ज्ञान अमल घर चारित चावा अंग चरचौरी ॥ चेन०२॥ स्खक्रया नाद अलापन स्वर भरि स्यात् पद मुरज सजागे॥ आज वियोग मनि मो. तिन के हमरो मन हरग्बोर्ग ॥ चेन ॥ धन्य दिवस निज पति संग मानिक सुमति
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(38) सखी खेले होरी। अनुभव फाग रचावत' पति चिरजीवो यह जोरी ॥ चेत०१॥
___ ८३ पद- राग झझोटी दीपचंदी ॥
मोह वारुणी पी अनादित पर घर धूम मचावे रे जिया ॥ टेक ॥ कमति करमिनि ठगनि ठगि लीनो निज घर चित नाहिं सहावे रे जिया ॥ मोह० १॥ परही से रोचत पर संग नाचत पर परणति अपनावरे जिया ॥ मोह०२॥पर करि दुखी सुखी पर हो करि इमि विभाव उपजावेरे जिया ॥ मोह० ३ ॥ इन्द्रिय विषय सुःख करि माने दुरगति के दुख पावरे जिया ॥ मोह०४॥ मानिक सुमति कहति धनि सतगुरु भूले कों शह वतावरे जिया ॥मोह० ॥
८४ पद-राग ठुमरी झंझोटी। जिन धुनि सुनि दुरमति नसिगई रेनय स्यादवाद मय आगम में ॥ टेक ॥ निभम
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(५) सकल नत्व दरशावत यह नो भविजन के मन वशि गईरे ॥ नय० १॥ चिर भ्रम ताप निवारण कारण चन्द्र कलानो दरश गईरे ॥ नय०२ ॥ अघ माह पावन कारण मानिक मेघ घटासी वरनि गईने । नय७३॥
___८५ पदाग देश तथा पिन दृग भरि देख महाराज येजी म्हारोगेम रोम तन हरखी ॥ टेक ॥ दीपा वर्ण रहित सब ज्ञायक तीन भुवन शिरताज ॥ दग०९॥ घिर मिथ्या भ्रम भूलि मिटी मैने निजनिधि पाई आज ॥ दृग० २॥ आजुल ताप मिटी ननछिनही पाया सुख सामाज ॥ग ३॥ मानिक धन्य भाग्य धनि वाउर राज सफल भये काज ॥ दृग०४॥
८६ पद-राग देश मचा पिप ! जीरा नहीं माने माय नी नमिवर त्रिन देखें ॥ टेक । उपन कोदि युन्द ध्याहन
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(७६) आये हर्ष हिये न समाय ॥ जीरा० १॥ पश छुड़ाइ गये गिरि को प्रभु अव तो कछू न वशाय ॥ जीरा०२॥ शिव इमनी सिद्धन को नारी तिन लीने बहकाय ॥ जीरा०३॥ मानिक निज हित लखि रजमति प्रभु के मग लागी धाय ॥ जोरा०४॥
८७ पद-राग देश ॥ म्हाने क्यों न तोरो राज म्हाने क्यों न तारो। अब मैं शरणा लीनो थारो राज ॥ म्हाने० ॥ टेक ॥ तुम तो अधम अनेक उबारे तिन पायो पद अबिकारो राज ॥ म्हाने० १॥ दुष्ट कर्म ने भव भव मांहीं हमरो काज विगारो राज ॥ म्हाने० २॥ तारण तरण बिरद सुनि आयो मौतन नेक निहारो राज ॥ म्हाने० ३॥ मानिक मन वच शरण लयो है कर्म फंदा निरबारी राज म्हाने०४॥
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(99) ___८८ पद-राग पिग ॥ अचिरज लागे हो भारी लखि नहिमा श्रीजिन थारी ॥ टेका वीतराग जिन नाम धरायो प्रचुर राग करतारी ॥ अचि० १॥ निज त्रिय त्यागि बनेवन में फिर क्या परणी शिवनारी ॥ अचि०२॥ पग्न मानि रन भीनी मुरनिविधि गम क्यों नयकारी। अचि०३॥ अनुपम बर अनसुन महिमा पर मानिक नित बलिहारी ॥ अचि०४ ॥
____ पद-गला नागer | छयो रखते मुझे निज भाव नजर आ. ता है। जैसे प्रति वित्रको जुआयना झाल काता है "टेका विश्व के तन्व मबी निज गुण पर्यय समेत ज्ञान अनि स्वच्छ में इक वार समाजाता है ॥ १॥ भिन्न परभाव में सदा स्वभाव ने ही मगन यही अनिशय नही
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(E) परभाव को सताता है॥२॥ शांति रस मांहिं मगन है सदा आनंद मई मेरे भ्रम दाघ को छिन मांहिं वो वुझाता है ॥३॥ राग विन नाम प्रभू मानिक राग करोहरो विधि जाल सदा होवे महा साता है ॥ ४ ॥
___९० पद-ठुमरी सम्माच ॥ __ सखीरी मैं तो जाउंगी नेमि प्रभु पास ॥टेक॥ जग बिकार दव झालसी लागे उर वैराग्य प्रकाश ॥ सखी०१॥ घर कुटुंव से कोज नहीं हैं लागो दरशन की आश ॥ सखी० २॥ मानिक राजुल प्रभु पर जाचति दीजे म्हाने अविचल वास ॥ सखी०३॥
९ पद-ठुमरी ॥ __ मैं भी चलो थारे साथ नेमि जी सनि. यो टेर हमारी हो ॥ टेकजग नासो विन शरण भवोदधि में वूड़त मझधारी हो। मैं इक भिन्न मलिन तन ने मेरी निरमल
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{36) जोति विगारी हो । मैं भी०१॥ भर्म भाव अवरोध हेन भर शाल्य भाव सुखकारोही। चिर विभायना भिारन निर्जरा लोक स्वरूप विचारी हो। मैं भी०२॥ माह छोह बिन धर्म कही जिन वोध सुलभ कारी हो। इमि विचार चित करन लगृह निकली राज दुलारी हो ॥ सी० ॥ मानिक प्रभु पद उधरि गजल ममता पाश नित्रारी हो ।प्रभु गुण नाला पहर गल गजुल जाय चढ़ी गिरनारी हो । मैं भी०४॥
२ पद-राग झमोटी हो जगमा ॥ मूरत पारी वे दिल विच रही ये समाय ॥ टेक॥ बीनराग विज्ञान भावमय पर मौदारिक काय ॥ मूर० १॥ भविजन कुखुद न चन्द्रोपम भर्म तिमिर विनमाय ॥ सूर० २॥ अनुपम शांति छबी पर मानिका मन बच तन अलिजाय ।। मू०३ ॥
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(८०) ___९३ पद-राग शिला पिल्लू ॥ तुमी से नू प्रीत लगी-लगी रे मैंनू ॥तु मी० ॥ टेक ।। जग नायक जिन चन्द्र निरखते चिर भ्रम सूल भगी ॥ भगी० १॥ ज्ञान बिराग हेतु बर लखि निज आतम जोति जगी। जगी रे०२॥ तुमरी शांति छबी मानिक के निशि दिन हिय में पगी पगी०३॥
___९४ पद-राग जिला पिल्ल ॥ बसी रे मैंन जिन छबि गनि बसी ॥ वसी रे टेक ॥ निर्विकार निरद्वंद अनोपल ध्यानारूढ़ लसी ॥ लसीरे०१॥ जाके लखत नसत रागादिक सुमति सुतिय हुलसी ॥ लसी०२॥श्री जिनचन्द्र छबी भ्रम तम हर मानिक चित निवसीबसी०३॥
५ पद-ठुमरी बरवैको । तुम दरशन बिन मोइ को कल न प
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(१)
रत जिन देव ॥ टेक ॥ जैसे रटत चकोर चन्द्रमा तैले मेरी देव ।। तुम०१ ॥मो निज हित के तुम पर कारण नारन तरन स्व. मेव ॥ तम०२॥ मानिक मन बच तन कर जाचत चरण कमाल की सेव। नमा
रद-राग मोरट प्रभु जो माहि भव दधि ते तागे-म्हारी बिननाउर धारो॥टेक॥ गगी द्वेपी देव लेय में दुख पायो अनि भारीप्रभु०१ तुमनो अधन अनेक उबारे पद पायो अविकारा॥ प्रभुषा यह जग जाल हैन स्वारथ को तुम बिन कोई न हमरी ॥ प्रभु०३॥ नारण तरण विस्ट लुनि मानिक लीनो शरण तुम्हारी ॥ प्रभु०४॥
७ पदमाग सौरट ॥ प्रभु जी नेट विमान हमारी ॥ टेक ॥
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(८२) मिथ्या तिमिर हृदय दृग छायो हित अ. नहित न विचारो ॥ प्रसु० १ ॥ पर अपनाय सहो दुख भारी अपनो पद न स. म्हारो । प्रभु०२॥ तुमती परम शांति रस सागर नागर नाम तिहारो ॥ प्रमु०३॥ स्वाभाविक धन जाचत सानिक की चिनतो अब धारो ॥ प्रभु०४॥
पद-दादरा ॥ श्री जिनयारी छवी मन भावे हो ॥ श्री जिन टेक ॥ परम शांति मुद्रा के निरखत निज अनुभ्यूति लखावे हो भी० ॥ वीत राग विज्ञान भाव मयदेखत दुरित नसावे हो ॥ नोजिन० २॥ मानिक निज हित हेत छबी लखि हरखि हरखि गुण गाने हो ॥ नी०३॥
पद-रागनी ॥
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मूति तिहारी प्रभु जी प्यारी लागी हो मोडको॥ टेक ॥ जय से लखी छवि शान्ति मनोहर तब से भरम बुधि सारी भागी हो ।। माइ०१।। तुम गुण परमामृन आस्वादत निज अनुभति कला जागी हो ॥ मोइ०२ ।। मानिक दृग चकोर निरखत छविधि सम घर सुखकारी लागे हो ॥ मोइ०३।।
१०. पद ग पारंग ॥ मन मोहन छबि थारी हो जिन वर ॥ मन टेक ॥ दर्शज्ञान सुख वीयं अनंनी अंतर विमन तुम्हारी हो । जिन०१॥ तुन नख जोति कोटि रवि लोपे उपमा जगन निहारी हो । भामंडल भव सात दिसत हैं तीन छत्र शिर लानी हो । जिन० २॥ चौ. सठि चमर इन्द्र नित ढोरत दाप अठार टारो हो ।दिव्य ध्वनि अलर विन बिरनी जग जीवन सुखकारी हो ॥जिन:॥ दश
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( ८४ ) जनमत दश केवल उपजे चउदश सुर कृत थारी हो । ऐसे श्री जिनवर लखि मानिक मन वच तन बलिहारी हो ॥ जिन० १ ॥
१०१ पद - दादरा ॥
श्री जिन हो सुनों मेरी विनती ॥टेक॥ दुष्ट कर्म ने भव भव माहीं दुख दोना ही हमें अनगिन्ती ॥ श्री० १ ॥ अंजन आदि अधम अघ भारे तारे हो भविक अनगिनती ॥ श्री०२ ॥ मानिक चरण शरण गहि लीनो दीजे हो अचलपुर वस्ती || श्री ०३ ॥
१०२ पट - दुमरी जिन्ता ॥
हुइआ जे बलिहारो हो श्री जिन थापे ॥ हुइ० ॥टेक॥ वीतराग विज्ञान भावमय वर अनंत गुण धारी हो । हुइ०१ ॥ नाशा अग्र दृष्टि को धारें वर विरागता कारी हो || हुइ० २ || अनुभब रस झलकत मुख पुलिकत सुर नर मुनि मन हारी हो ॥हुइ०
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(५) ॥३॥ निरसन दृग हरपन हिय मानिक मन वच धोक हमारी हो । हुइ०१॥
१० पद-दादग। आज मेरे नेना सफल भये लग्यि छवि श्री जिन की ॥टेक॥ बीनराग मुद्रा निरखत ही मिथ्या भाय नये ॥ लखि १ ॥ अब मल दूरि करन को पावन लायक दान दये ॥ लडि०२॥ निज हिन कारण छ. वि लखि मानिक मन बच काय नये ॥ लांख० ॥६॥
१४ पद-दादग। धनि सर धानी जन जिन पायी पथ निरवान ।। टेक।। मिथ्या निमिर फटी प्र. गटी घट अंतर समकित भान । नि०१ ।। माह मई नजि शयन दगा हे जाग्रन दशा महान । सर्व तत्व को मरम लखी तिन अनाचीक भगवान ॥ धनि०२॥ निजको
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(८६) ज्ञान तेज उधृत नित करत सुधारस पान। निज हित हेत सुतिन के मानिक सुमिरत गुण अमलान ॥ धनि० ३ ॥ ___ १५ पद-होरी दादरा कलांगडा ।।
मेरे ज्ञानी पिया घर आउरे ॥ टेक ॥ कुमति कुनारि भरम मदमाती याके पास न जाउरे ॥ मेरे० १॥ काल लब्धि ऋतुराज मांहिं यह अनुभव फाग रचाउरे॥ मेरे० २ ॥ सम्यक दग जल नय पिचकारि. न भरि २ नित छिरकाउरे ।मेरे० ॥ ज्ञान गुलाल चरित्र अर्गजा सलि मलि अंग लगा उरे। मेरे०४ ॥ समति सीख मानो पिय, मानिक फिर यह दाव न पाउरे ॥मेरे०॥
१०६ पद-होरी काफी ॥ या विधि होरी मचावे-जवे जियरासुखः पावे ॥ टेक ॥ श्रोजिन भबन मांहि साजन जुत, बहु निधि तूर बजावे ॥ ज०१॥ त--
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(७) त्यारथ चरचावर चोवा मलि २ अंगल. गावे । शांति सुधारस रंग राचि करि राग गुलाल उड़ावे । जवे०२॥ जिन आगम ध्वनि अमल पान करि मन वच तन छकि जावे । सुमति नारि जुत हरखि हरखि केश्री जिन के गुण गावे ॥ ज०३॥जि. नवर गुण वर निज स्वरूप को एक रूप दरशाव। निरमल सरधा धर्म मिठाई ग्रहत न नेक अघावे ॥ ज०४॥ त्यागि ध्यान करते जब निज में निज विरमावे । मानिक यों वड़ भाग खेलि फिर आवाग. मन मिटावे ॥ ज०५॥
१०७ पद-दमरी जिना झगोटी की ॥ लखि छवि वीतगग जिन की आज म्हारे आनंद उर न समावे ॥टेक॥ मिथ्या तम हर अनुपम दिनकर स्वपर भेद दरशावे॥ आज० १॥ वीतराग मुद्रा निरख.
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(e) त ही रोम रोम हरपावे ॥ आज० २॥ मा. निक निज हित हेत छवी लखि हरषि ह. रषि गुण गावे ॥ आज०३॥
१०८ पद-ठुमरी झंझोटी ॥ स्याम सुरत घन मूरत प्रभु की लागे म्हाने प्यारी जो॥टेका विश्वसेन नंदन जग बंदन पद पंकज पर वारी जी ॥ स्याम०१॥ कमठ दलन शिवत्रिय मन रंजन अचल ध्यान धरतारी जी ॥ स्याम०२॥ प्रभु छवि लखि शत कोटि पंचशत लज्जित मन महिं भारी जी ॥ स्याम० ३॥ जिन रबि चरण शरण मानिक नित पतित दुरित तमहारो जी॥ स्याम०४॥
१०९ पद-मंझोटी
अब ते नं जिनमत पायो जगसार रे ॥टेक ॥ वालापन ते ने खेलि गमायो योबन बनिता लाररे ॥ अब० १॥ वृद्ध मये
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(८) तृष्णा वश तें न ढोयो कुटुंब को भाररे॥ अव०२॥ लोक लाजतं बहु अघ कोने निस फल दुम्ब करनाररे । अब० ॥ मानिक अजहूं हठ तजि सुलटो हाउ भवोदधि पाररे । अब० ॥
११० पद-होगी नारी । धन्य घडी धनि भाग्य हमागे पायी दरश प्रभू यारो ॥ टेक ॥ दरश देखि भ्रम निमिर पलानो सुख वारिधि विस्तारा ॥ धन्य० १॥ नन सफल भये शांनि छत्री ल. खि परम मोद निरधारी ॥ धन्य०२॥ मानिक प्रभु के चरण कमल पर नन मन धन परिबारी ॥ धन्य०३॥
१११ पद-गग गी नया पहा में । जिय नेरी बड़ी भूलरे जिय नेरी बढी भूल ॥टेक। कीड़ी एक कमाई नाही वाचन है निज मूल रे ॥ जिय० १॥ नारण तरण
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(0)
देव जिननाथा। समिरत नाहिं नवावत माथा ॥ कुगुरादिक को जोरत हाथा । डारत शिर में धूल रे॥ जिय० २॥ निज स्वभाव को भाव न जाना । परही में नित आपा माना ॥ परके हेत धरें ठग वाना। बोबत पेड़ वंवूल रे॥ जिय०३॥ अव तें सुगुरु सोख उर धरिले। निज हित हेत सुकरनी करले ॥ मानिक भव सागर को तरिले। विधिकों कर निरमूल रे ॥जिय०४॥
११२ पद-होरी लत की। __ महा मोह शत्रु प्रभु थारो दरश लखन नहीं देयरे ॥ टेक ॥ तुमतें अंतर डारि ताडिके निज निधि सब हर लेय रे । गति गति नाच नचावत मोइ को सुधि बुधि सव हर लेय रे ॥ महा० १॥ काल लब्धि बल तुम दरशन रिपु अब कछु निवल प
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(९) रेयरे ॥ महा० २ ॥ मानिक मदत करहु करुणा कर निश्चल पट निबसेयरे महा।
११३ पद-सोग माफी ॥ सखीरी मैं तो जाउंगी गिरि की ओरो प्रभु ही से ध्यान लगी जिय में ॥ टेक ॥ विषय विकार झालसी लागे उर वैराग जगोरी ॥ मैं० १॥ अब गृह में कछ काम नहीं कोउ लाख यतनवा करारी ॥ मैं०२॥ मानिक प्रभु पद उर धरि रजमति प्रभु ही को शरण गहोरी॥ मैं०३॥
११४ पद-रेगना मग का ॥ इश्क अब मुझको मेरे निज दर्श का हुआ सही। निश्ल ये जिनगज तेरो सेव में बुधि पर्नई ॥टेक ॥ भव में भ्रमते अब तलक तुम भेद में पाया नहीं। काट टन्धि सबल परस पद आज मैं निज निधि राई ॥ इश्क० १॥ विश्वदर्शी विश्व व्यापी पर
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( २ )
- मत निज भाव में । ज्यों महीपे चन्द्रिका सुमही स्वरूप नहीं भई ॥ इश्क०२ ॥ शिव मई शिवमार्ग उपदेशन कुशल तुम हो प्रभ भव्यजन भव सिन्धुतें बहुतारि कोने अप मई | इश्क० ३ ॥ मैं दुखी चिरकाल से पर चाह भ्रम आतिश दहा । देखि श्री जिन चन्द्र भ्रम नशि शांतिता प्रगटी नई ॥ इश्क० ॥ ४ ॥ भक्ति भव भव रहो मानिक के हृदय तत्र तक प्रभू । जब तलक न विभात्र नशि सुख होय विश्वातम मई ॥ इश्क० ५ ॥
११५ पद -गजल तथा सूर मल्हार ॥
देखो भवि जिनवर छवो यह शांति सुरससूं भरी ॥ टेक ॥ नासिकाग्र दृष्टि महा शुद्धसु आसन घरें । आनन अरविन्द हंसे माना वयन उच्चरें ॥ ज्ञान वर विराग हेत देखते कल मल हरें । भव्यजन जलज प्रकाश कों सुरविप्रभा धरें ॥ जासुप्रभा देखि कोटि
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(3) भानुको प्रभाहरी । देखो०१॥ घाति कम नाशि करिअनंत ज्ञान मानता। जाम लो. कालोक के स्वभाव को प्रकाशना । इप्टी अनिष्ट कर्म भाव को विनामती । निज स्वभाव मांहिं बो ना लीन रहे शाश्वना । अनुभवन करने मुझी मेरी दशा नजरपरी ॥ देखो०२॥ वीनराग नाम महागग भ क्ति को करें। जिन के जो अभक्तने नि. गोद के मांही परें । इन्द्र औ फणेन्द्र चन्द्र चरण तर मस्तक धरें। जाकी ध्वनि मुनि के पग्बादी कोटि घर हरे॥ मानिक कब ऐसी दशा होय सो धनि २ घरो॥देखी।
१२ पा-गी, मगर आज जिनवर दरशन पावे ॥टेक॥ भल अनादी तुग्न नमानी निज आतम दरशाये ॥ आज० १॥ पर की चाह महा. दन दाहन-सोती अब मीटिंग नहिं जा
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वत । परम शांति मुद्रा के निरखत-निज आनंद झरलाये ॥ आज० २॥ मोह सुभट जग वश करि राखा-ताका बल अब तोड़ जु नाखा । भव भव संचित अशुभ कर्म जे सो अब तुरत पलाये ॥ आज०३॥ जाको इन्द्र चन्द्र शत बंदत सेवत-मुनि गण पाप निकंदित। मानिकनित दरशन चित चाहत हरखि हरखि गुण गाये ॥ आज०४॥
११७ पद-राग पिल्लू ठुमरी दादरे में एजी म्हाने प्यारी लगेछविथारी ॥टेक॥ नाशा अग्र द्रष्टि को धारी बर विरागता कारी ॥ प्यारी०१॥ अनुभव रस झलकत मुख पुलकत सुर नर मुनि मनहारी ॥प्यारी०२॥ अनुपम शांति छवी पर मानिक कोटि मदन परवारी ॥ प्यारी०॥३॥
११८ पद-राग पिल्लू ठुमरी दादरे में। ' एजी मुजरो हमारो लीजे ॥टेक॥तु म
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तो वीतराग आनंद घन हम को भी अब कीजे ॥मुज० १॥ अधम उधारन शिव सुख कारण समयनि मांहिं भजीजे ॥मुज० ॥२॥ मानिक चरण शरण गहि लीनो अब निवल पद दोजे ।मुज०३॥
१९८ पद-होरी दीपचंदो ॥ , मन मोहो जिनचंद को देखि झलकनित लगी रहत दरशन की ललक॥टेका नासि काग्र दिठि धरत ध्यान बर। भविक मोद हित वर विराग कर ॥ निरविकार निरटुंद अनीपम । उछलत शांति सुधा की छलक ॥ मन०१॥ चिर भ्रम तम निवड़ विनाश करत । भव जिनको भवानप छिन में हरत ॥ स्वपर भेद विज्ञान करत । आज म्व
गई हृदयद्रगनि की पलक ॥मन०२॥पा. यराह अवरोध रहित बरगुण अनंत भगवंत
सुखाकर । मानिक चित चकोर चाहतनित।
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( ६ ) नित उदय रहोत्रिभुवन की मलक मन०३ ॥
१२० पद-राग पिला ॥
"नादार गजरे वारी । जिनराज शरण में थारी। महाराजशरण में थारी । म्हाने तारो जग भरतारो जी ॥ टेक ॥ की व्याहन की तय्यारी। शित्र क्षत्र फिरत त्रय भारी । संग जादो कृष्ण मुरारी जी ॥ जिन०१॥ इन्द्रादिक बहु असवारी । जहां नाचे सुरासुर नारी। गुण गावति हैं करि तारी जी ॥जिन०२॥ श्रीनेसीश्वर छवि भारो। जापे कोटि म. दन परवारी । को कवि बरणत बुधि हारी जी॥ जिन०३॥ कृप उग्रसेन घर नारी गावें मंगल हित गारी । हर्षित अंग अंग अपारी जी ॥ जिन०४॥ पशुवनि की सु नत पुकारी। प्रभु करुणानिजचित धारी। रथ फेरि दियो गिरनारी जी ॥ जिन०५॥
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( ५ )
वैराग्य जलधि विस्तारी । नत्र छोड़ि ज गत दुखकारी । भये पंच महाव्रत धारी जी ॥ जिन० ६ ॥ त्रिनवे उग्रमेन कुमारी | हमरी कहा चूक निहारी। प्रभु शिव रमनो चिन भारी जी ॥ जिन० ॥ मैं तो बारि ही बार पुकारी। चूत भव जल संधारी । मानिक को करहि नारी जी ॥ जिन॥
१२ पद-राग हाथी या में।"
एजी म्हाने नादि दीजो श्री जिनदेव मैं तो थारो शरण दियो जी ॥ टेक ॥ वर हित कारण विधि गण जारन तारन न रन न्वमेव ॥ थागे० १ ॥ बारी बानी - मृत समानो वरपन ज्यो वन देव ॥ वारीष् मानिक इमि देखि शरण लिया है उरण की सेव ॥ थारो० ३ ॥
पद-रान
जे नरध्यावत जिन गुण माला ॥ जेनर
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(c) ॥ टेक ॥ तिनको प्रगट इन्द्र नरपति पद पुनि बिलसें शिव वाला ॥ जे०१॥ जिन मानुष भव सफल कियो है ते होवें जिन पाला ॥ जे०२॥ तिन मिथ्या भ्रम नाश कियो है तिन घट प्रगट उजाला ॥जे॥३॥ प्रभु को ध्यावत प्रभु पद पावत इन्द्र न. वावत भालो ॥ जे० ४॥ जिन निज आतम प्रगट लखो तिन परखो निज पर हाला ॥ जे० ५॥ आप तरें अरु परको तारत अति भारी भव नाला ॥ जे०६ ॥ तिन प्रः संग मानिक नहिं काटत मिथ्या विषधर काला ॥ जे० ७॥ १२३ पद-ग जत ठुमरी में चल्ती दीपचंदी॥
मोह बिधि ने घुमरिया कैसी दई। जासू स्वपर भेद बुधि बिसर गई। देक । पर अपना बत परही को ध्यावत आपगि. नत नित परही मई ॥ मोहर १॥ कबर्ड
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