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देव जिननाथा। समिरत नाहिं नवावत माथा ॥ कुगुरादिक को जोरत हाथा । डारत शिर में धूल रे॥ जिय० २॥ निज स्वभाव को भाव न जाना । परही में नित आपा माना ॥ परके हेत धरें ठग वाना। बोबत पेड़ वंवूल रे॥ जिय०३॥ अव तें सुगुरु सोख उर धरिले। निज हित हेत सुकरनी करले ॥ मानिक भव सागर को तरिले। विधिकों कर निरमूल रे ॥जिय०४॥
११२ पद-होरी लत की। __ महा मोह शत्रु प्रभु थारो दरश लखन नहीं देयरे ॥ टेक ॥ तुमतें अंतर डारि ताडिके निज निधि सब हर लेय रे । गति गति नाच नचावत मोइ को सुधि बुधि सव हर लेय रे ॥ महा० १॥ काल लब्धि बल तुम दरशन रिपु अब कछु निवल प