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{36) जोति विगारी हो । मैं भी०१॥ भर्म भाव अवरोध हेन भर शाल्य भाव सुखकारोही। चिर विभायना भिारन निर्जरा लोक स्वरूप विचारी हो। मैं भी०२॥ माह छोह बिन धर्म कही जिन वोध सुलभ कारी हो। इमि विचार चित करन लगृह निकली राज दुलारी हो ॥ सी० ॥ मानिक प्रभु पद उधरि गजल ममता पाश नित्रारी हो ।प्रभु गुण नाला पहर गल गजुल जाय चढ़ी गिरनारी हो । मैं भी०४॥
२ पद-राग झमोटी हो जगमा ॥ मूरत पारी वे दिल विच रही ये समाय ॥ टेक॥ बीनराग विज्ञान भावमय पर मौदारिक काय ॥ मूर० १॥ भविजन कुखुद न चन्द्रोपम भर्म तिमिर विनमाय ॥ सूर० २॥ अनुपम शांति छबी पर मानिका मन बच तन अलिजाय ।। मू०३ ॥
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