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(२५) आगम तिन भव थिति टारी । कुगुरु कुदेव कुधर्म त्यागि शिर जिन आज्ञा धारी॥ हित अरु अहित सुतिन के कारण तिन ने परखारी । द्रव्य भाव व्यसन कू त्यागितेपरणे शिवनारी ॥ तिन को बार बार कहि मानिक बंदना हमारी । इन सातो० ॥
२३ पद-गज़ल ॥ जिनरोज को सुमिरले क्या वक्त पाया है ।। टेक ।। नर भव सुथल सुकुल में सहजे तूं आया है।तन धन के जो नशे में आपा भुलाया है । जिन० १॥ सुत मात तात त्रियसों नेहा लगाया है। निशि दिन वेहोश होकर बिपयों लुभाया है । जिन०२॥ कु. गरादि करि प्रसंगजिनागमन भाया है। करि मेरो मेरो नरभव नाहक गमाया है। जिन०३॥ इस जगत गहर महर के अब