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तीर आया है। अब चेत चेत मानिक सत गुरु जताया है जिन०४॥
२४ पद-गज़न्न ।
जिन रागद्वेष त्यागः सो सत गुरु है हमारा । तजि, राज ऋद्धि तृणवत् निजकाज निहारा ॥ टेक ॥ रहता है वो वनखंड में धरि ध्यान कुठारा । जिन महामोह तरुको जड़ मूल उखारी ॥ जिन० १ ॥ जगमांहि छारहा है अज्ञान अंध्यारा । विज्ञान भान तम हर घर मांहि उजारा ॥ जिन०२॥ स. वांग तजि परिग्रह दिग् अंबर धारा । रत्न त्रयादि गुण समुद्र शर्म भंडारा ॥ जिन०३॥ विधि उदय शुभाशुभ में हर्ष अरति निबारा । निज अनुभव रस मांहिं कर्म मल को पखारा ॥ जिन०४॥ परवस्तु चाह रोकि पूर्व कर्म संहारा । पर द्रव्य से जुभिन्न