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ठुराई ॥ विन० ७ ॥ मौन खोलि के दीनो है दिक्षा हितकारी सखी नुनाई। मानिक चंद धन्य दंपनि पर सुर नर मुनि वलि जाई ॥ स्वहित जिन स्तुनि गाई ।विन०॥
० पद-दोनी दीपपदी ॥ दई कुमती मेरे पिउको कैनी सीख दई ॥ टेक । स्वघर छोड़ि पर हो संग रोचत नाचत ज्यों चकई ॥ दई १॥ रत्न त्रय निज निधि ठगाय के जोड़न कल खई । रंक भये घर घर डोलन अब केनी विधि निर्मई ॥ दई१२॥ यह कुमती मैरी जनम को वग्नि पिय कीने अपमई । पराधीन दुम्ब भोगत भोंद्रनिज मुधि बिनरि गई ॥ दई०३॥ मानिक मुमनि अरज मुनि नत गुरु तुमती कृपा मई। बिछड़े कंथ मि. लाबहु स्वामी चरण शरण में लई दई०शा