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पर ध्यान धरो चिढ़ राई । जग असार लखि हमकों छोड़ो शिव रमनी मन भाई ॥ हमारी सुधि हुन आई ॥ बिन०३ ॥ अधिर जगत में सार न दीखे गति गति भ्रमन दुखाई । हो तुम नाथ त्रिलोकपती जातत पीर पराई ॥ कहा कहिये समभाई बिन० ४ ॥ मैं इक मित्र मलिन तन में मेरी निर्मल जोनि छिपाई । कर्म शुभाशुभ आवत भ्रम तें तसु फल है दुखदाई ॥ नाथ मोहि लेउ छुड़ाई ॥ बिन० ५ ॥ भेद ज्ञान भ्रम हानि लोक में निज स्वभाव सुखदाई । बोध दुलभ पायो नहीं कबहूं तुम हो शरण सहाई ॥ मोहि अब लेउ अपनाई ॥ बिन० ॥ ६ ॥ बार बार चिंतत इमि राजुल प्रभु, हो के मग धाई । शीस नवाइ चरण गहि हीनोअव मोहि तार गुसांई ॥ कहा इतनी नि