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तिन्हें भजन शठ निपट अज्ञानी ॥ चेत०२॥ नग्नलिंग बिन और न जिनमत माहिं न श्री जिनवर बग्नानी। करि प्रतीति सेवत कुगुनि को श्रो जिन अज्ञाभंग करानी ॥ चेत०३॥ मोह मोह विन धर्म कहो निज ताकी तूने सुधि विसरानी । पुण्य कर्म उत्पत्ति हेतु में करी अनीति महा दुखदानी ॥ चेत०४॥ पापो दुष्ठ हटी कपटो शठ भ्रष्ट लोभ मदकरि अभिमानी । तिनसों नेह द्वेष धर्मिन सों यह दुर्बुद्धि महा दुखखानी ॥ चेत० ५॥ सप्तक्षेत्र धन खरच कथन सुनि बहुत करत है आना कानी । विषय खेत कुगुरुनि के हेत धन खरच देत इमि पावस पानी ॥ चेत०६ ॥ जिन मत मांहिंसर्व आगम में रागद्वेप भ्रम नाशक दानी। खोलि हृदय दृग स्वपर परखि अव छांडउ शिथ