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(५३) भाव दःखमय हेय जानि छुटकावें । यह विधि सों दृढ़ धरत तत्व रुचि शिव त्रिय चित ललचावें ॥ शिव ४ ॥ ख्याति लाभ पूजो कोरनि की चाह न चित्त नुहावें । मंत्री
आदिक चार भावनना भावत्त चित हालसावें ॥ शिव०॥ ५॥ तारन तरन भवादधि के जग जैनी सत्य कहा। जयवंते बता ने मानिक स्वहिन हेत यश गावें ॥ शिव०६॥
५५ पाद-राग मोन्ट दीपदी टुगो । आतम जानोरेभाई-जाने जानत भ्रम मिटिजाई॥ आत० ॥ टेक । परश गंधरन वर्ण विवर्जित सहिन सुनुण परजाई। व्यय उत्पाद ध्रौव्य सत युत पै इन्द्रिनि करि न लखाई ॥ आन० १॥ चौखूटो न तिखूट गोल नहि शब्द रहित पुनि गाई। हैचित पिंड अखंड ज्ञान घन अनुभव गम्य बताई