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(५) काल ते मोह शत्रु ने डालि दियो भ्रमजाल ॥१॥ निज धन मेरो लुटिलियो है कियो बहत वेहाल । मानिक चरन शरन गहि लीनी कीजे वेगि निहाल ॥२॥
६१ पद राग मोरट ॥ शिव रमनी जाटू डारी-वैरागी भयो प्रभु म्हारो ॥टेका तारनते रथ फेरि दियो प्रभु पशू फंद निरवारो ॥ शिव० १॥ अ. ध्रुवादि भावन भावत लोकांतिक सुयश उचारी। भूपण वसन डारि गिरि ऊपर पंच महाव्रत धारो ॥ शिव० २॥ पंच समिति त्रय गुप्ति सखिनि युत् सुख वारिधि विस्तारी । निजानंद अनुभव रस में छकि विपय गरल वमि डारी शिवा काज होय विन के टिंग सजनी उन विन कोई न हमारो।मानिक जग असार उखि करि