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( ३२ ) चाह दाहको बुझावने लगी ॥ विज्ञा० ॥२॥ तत्त्वनि की ऊहापोह जहां घालो हिंडोरा तहां झूले सुम्मति नारि चिदानंद के जोरा॥ निज परणति सखी निज में झुलोबने लगी॥ विज्ञा०३॥ या भांति छके दम्पति निरद्वंद वाग में। लागे हैं अति उछाह स्व पर सौंज त्याग में। तिन मानिक लखि शिवत्रिय ललचावने लगी ॥ विज्ञा०४॥
___ ३१ पद-राग सोरठ तिताला ॥ कर जिय निज सुरूप विचार-जातें होहु भवदधि पार ॥ कर० ॥ टेक ॥ काम भोग प्रवंध कथनी सुनिय तं बहुवार। अनुभवन परिचय सुकरते गये काल अपार ॥कर०१॥ देव रागी गुरु अत्यागी धर्म हिंसाकार। इन प्रसंग अभंग दुख बहु लहोते अनिवार ॥ कर० २॥ या प्रकार मिथ्यात्त्व करितूं परो भवदधि घोर । एक परतें भिन्न आ.