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(६) सुत नारि सुजन लखि अपनाये दुखदाई ॥३॥ तातें अब पर प्रीति तजो निज आतम में लो लाई। जिन वृप शुद्ध भजो अब मानिक पावो शिव ठकुराई ॥४॥
५ पद-राग सोरठ में ठुमरी॥ निरग्रंथ यती मन भावेंकगरादिक नाहिं सुहावें ॥ टेक ॥ बीतराग विज्ञान भावमय शिवमारग दरशावें ॥ निर० १॥ रत्नत्रय भूषण जुत सोहत निज अनुभूति रमांवें ॥निर० २॥ बिन कारण जगवन्धु जगत गुरु हिश उपदेश सुनावें ॥ निर० ३॥ चिर विभाव आताप हरन को ज्ञानामृत झरलावें ॥ निर०४॥ कर्मजनित आचार त्यागि के परमातम को ध्यावें ॥ निर०५ ॥ मानिक भवि सतगुरु सुचन्द्र लखि आकुल ताप वुझावें ॥ निर० ६ ॥