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लब्धि बल सत संगति ने निज घर स्वघट दिखाये । हम०२॥ अहित हेनु कुगुगदि परसि के दूरी से छुटकाये। हित के कारण सुगरु देव नुन निशिदिन चिन में भाये ॥ हम०३॥ परखे हयाय हृदय दृग जिन आज्ञा शिरलाये । मानिक शैली निजघर गली लखिभविजन नित धाये। हम०४॥
११ पद ग माग ___ सम्यक शैली के लोग शांति रस भीजन लागे ॥ टेक॥ दृढ़ सरधान धरत तन्वनिको विन शंका त्रय योग ।। शांनि० १॥ सगरू देव श्रुत चित चाहत नित कुगुगदिक को वियोग । हेयाय पस जिनके घद करन स्वानुभव भोग ।। शांति० २॥ मम नम हर विज्ञान दिवाकर जनि घट उटिन मनोग। भोगत भोग उदास रहत नित निर विक