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(६८) र्विकार निरवंद निरामय सहजानंद सुभाय ॥ हृदय० १ ॥ सकल द्रष्य निरखे पनि जाने में परमें नहीं जाय । स्वच्छ सुखद अ. मंद ज्ञान घन ज्यों दर्पन झलकाय हृदय ॥२॥ वंध मोक्ष बिन शुद्धा चल युत् गुण अनंत परजाय । द्रव्य कर्म नो कर्म भाव विधितें बिलक्ष दरशाय ॥ हृदय०३॥ अव्या बाध अखंड अनाफुल सुख मय त्रिनुवन राय । अनुभव ढग निरखत ये मा. निक तिनहीं को प्रगटदिखाय ॥ हृदय०४॥
___७८ पद-राग झकोटी को बगा। नेमि नवल वनि आयोरे बना उग्रसेन नृप को नगरी में ॥ टेक ॥ शीस मुकट मुतियों का सेरा इन्द्रादिकसंग लायोरे वना ॥ उग्र०१॥ अशरण पशु आक्रंदन लखि के उर बिराग झलकायो रे बना ॥ उग्न०२॥