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(४३) येविषय भोग दुखदाई-देहें नरकगनिभाई। भोगत तूं नाहिं अघाई इन छांड़ि भजा जिनराई ॥ कर० २॥ सुत मात नात परिधारा-सय स्वारथ का संसारा । इन काज करत अघ भारा क्यों बढ़त भवदाधि पारा ॥ कर०३॥ तन धन तू अपना वे सो दगा देय खिर जावे। सो तो परगट दिख लाव-क्यों नहिं भ्रम भूल भगावे ॥ कर०॥ कुगुरादिक के संगराचा मिथ्यात महा मद माचो। तासें गति गति में नाचा-इन त्यागि धर्म गहि सांचो॥ कर०५ ॥ यह सुगुरु सीख उर धरले-श्री जिनवर देव मुमिरिले। निज कारज . अब करले-मानिक हित पंथ पकरले ॥ कर० ६ ॥
४४ पद-राग देश ॥ ज्ञानी रत नाही परसों दिन रतियारे