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(५५) मानिकचंद कहत आपुन सों औरनि की समझाय ॥ तन०७॥
द-राग देश।। निज निधिकारी नहीं जाय हो त्रिभुवन के ज्ञाता हो ॥ टेक ॥ तेरी निधि दृग ज्ञान चरणमय सो निज में अवलोय॥ होत्रिभु०॥ निज विधि के जाने विन जग में बहुत दुखी तूं होय । होत्रिभु० ॥ पर गुण रचि पराश्रित है के दिया है अपनप्या खोय ॥ होत्रिभु० ॥ तातं पर तजि निज भजि मानिक निरआकुल सुख होय॥ हात्रिभु० ॥
पद-ठमर्ग दंग ।। जियरा भयो विरागी रे हो नेमि जीनों सुरति मेरो लागी॥टेका घर कुटुंब से का. ज नहीं निज परणनि जागीरे ॥जियरा०॥ जग असार लग्नि पशु पकार सुनि हमकों त्यागारे। चढ़ि गिरनारि धरि चरित भार