________________
( १५ ) रा ॥ जीव० २ ॥ व्रत विन सम्यक् युत जधन्य है ज्ञान विराग शक्ति विस्तारा | व्रत प्रमाद युत् मध्यम अंतर आतम करत कर्म गण क्षारा ॥ जीव० ३ ॥ पष्ठम गुणतें क्षीण मोहलों सो उत्कृष्ट कहे गणधारा । निज स्वभाव साधक भव बाधक सकल विभाव भाव वहि डारा ॥ जीव० ४ ॥ श्री अरहंत सकल परमातम लोका लोक विलोकनहारा निकल सिद्ध जगशीस बसत बिन अंत लसत शिव शर्म मंझारा ॥ जोत्र० ५ ॥ वहिरातमता हेय जानि पुनि अंतर आतम रूप सम्हारा । परमातम को ध्याय निरंतर मानिक जो सुख होय अपारा ॥ ज०६ ॥ १५ पद - राज ठुमरी ॥
तिन जीवन सों क्या कहना - जे निज