Book Title: Divya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Author(s): Jawaharchandra Patni
Publisher: Vijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वल्लभ विजय दिव्य जीवन ज वा ह र चन्द्र पटनी Jain t ea Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ । 8860 3 -- 300388888888888000000000000036 000000888000003888888888888880 - &0000000000000590508 68800008888888805 65800000000000000000000000000 253432003888888888888888888888888888889068 &00000000000000 &000000 330000000000000000000000000000030% 33000 स्वर्गवास वि. सं. २०११ परमपूज्य आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराज दीक्षा वि. सं. १९४४ . -- - - 88600-80000000000000003 388888 5000 - - 2018 28586988888888886506580003003588888888888888888888888888888888888885502035 20803083 388 38888888 88888 3 300000000000 2006 8888600000000000000000 0 0 8330000588 80 388888888888888 - - - & 000 0 20060380808 888888888888888888833636033333383838 80030030038888888888 8 880038080888888888800-800 300035 330000888888888888885608 4000 00 8 . 83303080000000 0 000000000000000000002068 89woo. 30000000000003 38883 368 जन्म वि. सं. १९२७ 856920 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन (आचार्यदेव श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजकी जीवनकथा) लेखक जवाहरचन्द्र पटनी एम० ए० (हिन्दी, अंग्रेजी) अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, श्री पार्श्वनाथ उमेद कालेज, फालना प्रकाशक आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी जन्मशताब्दी समिति बम्बई Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जयन्तीलाल रतनचन्द शाह प्राणलाल कानजीभाई दोशी खीमजीभाई हेमराज छेडा मदनलाल ठाकोरदास शाह कान्तिलाल डाह्याभाई कोरा मानह मंत्रीगण आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी जन्मशताब्दी समिति पता, श्री महावीर जैन विद्यालय अगस्त क्रांति मार्ग, बम्बई-३६ वि. सं. २०२७, चैत्र वीर निर्वाण सं. २४९७ सन १९७१, अप्रेल मूल्य देढ रुपया (समितिके सदस्योंको भेंट) मुद्रक शांतिलाल हरजीवन शाह नवजीवन मुद्रणालय अहमदाबाद-१४ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जैन संस्कृतिके महान् ज्योतिधर युगदिवाकर महाप्रभावक आचार्यप्रवर श्री विजयानन्दसूरीश्वरजी ( श्री आत्मारामजी महाराज ) की पुण्यसमृतिको समर्पित श्रद्धा-सुमन Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याणमार्ग जैन-एकता हो जाने पर हमारे पास सभी फिरकेके मुनियों, साधुसाध्वियों, त्यागियों आदिका जो विपुल खजाना है, उनकी आध्यात्मिक शक्ति जो आज साम्प्रदायिकताकी चहारदीवारीमें बन्द हो कर कुण्ठित हो गई है, वह व्यापक बनेगी। सारा जैनसमाज ही नहीं, सारा मानवसमाज उनसे लाभ उठाएगा। इस प्रकार त्यार्गीवर्गके आध्यात्मिक तेजका प्रभाव सर्वव्यापी हो जायगा। जैन-एकतासे एक लाभ यह भी होगा कि सभी फिरकेके जैन एकदूसरेके उत्सवों, पर्वो, त्योहारों, विवाह, जन्म, मृत्यु आदि विशिष्ट अवसरों या किसी आयोजनोंमें भाग ले सकेंगे। धर्म मनुष्य-मनुष्यके बीच वात्सल्यसम्बन्ध जोड़ कर, भेदभावोंकी दीवारें तोड़ कर अभेदभाव की ओर ले जाता है; जबकि पंथ और सम्प्रदाय जब धर्मतत्त्वरहित हो जाते हैं तो भेदभावकी दीवारें खड़ी कर देते हैं, आपसमें लडाने-भिड़ानेका काम करते हैं; धार्मिक क्रियाकाण्डोंको ही अधिक महत्त्व देने लगते हैं। वे उनमें तो लाखों रुपयोंका धुंआ उड़ा देंगे, लेकिन उन रुपयोंको बचाकर जनहितकारी प्रवृत्तियोंमें लगानेसे हिचकिचाएंगे, बहाने बनाएंगे। आप सभीसे मेरा अनुरोध है कि आप यह नियम लें कि 'हमें अपने सहधर्मी-भाइयोंको अपने समान सुखी बनाना है।' इसके लिये अपने मौजशौकमें कमी करके, खर्चमें कतरव्योंत करके जो पैसा बचाएं, वह उनकी उन्नतिके कार्योंमें लगाएं। यदि आप विद्यावान हों तो उन्हें विद्या, और हुन्नरमें प्रवीण हों तो हुन्नर सिखाएं। बूंद-बूंदसे सरोवर भर जाता है, वैसे ही एक एक पैसा देनेसे लाखों रुपये सहधर्मी-उत्कर्षके लिए एकत्र हो सकते है। याद रखिए, दस हजार रुपये खर्च करके एक दिनका जीमन (दावत) देनेकी अपेक्षा उन्हीं दस हजार रुपयोंसे अनेकों परिवारोंको सुखी बनाना उत्तम कार्य है। विवाहशादियोंमें धनका धुंआ उडानेके बजाय उस खर्चमें कटौती करके उस धनराशिसे सहधर्मीभाइयोंको विविध उद्योग-धंधोंमें लगा दो। -- आचार्य श्री विजयवल्ल भसूरिजी. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन (प्रकाशकीय) परमपूज्य प्रातःस्मरणीय युगदर्शी आचार्यदेव श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजको जन्मशताब्दीके निमित्त फालना (राजस्थान) की श्री पार्श्वनाथ उमेद कालेजके वाईस-प्रिन्सीपाल व हिन्दी विभागके अध्यक्ष प्रो. श्री जवाहरचन्द्रजी पटनोकी लिखी आचार्यप्रवरकी यह जीवनी प्रकाशित करते हमें प्रसन्नता होती है। प्राध्यापक श्री पटनीजी एक यशनामी लेखक हैं व स्वर्गीय आचार्य महाराजके प्रति बड़ा पूज्यभाव रखते हैं। परमपूज्य शान्तस्वभावी आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजी महाराजकी प्रेरणासे उन्होंने इस चरित्रका श्रद्धा व भक्तिसे हृदयंगम शैलीमें आलेखन किया है। इसके लिये वे धन्यवादके अधिकारी हैं। ___ इस चरित्रको परमपूज्य आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजी महाराज तथा पूज्य मुनिरत्न श्री जनकविजयजी गणिने देख जानेका जो कष्ट लिया है एतदर्थ हम उन्हींके अत्यन्त आभारी है। योजना तो ऐसी थी कि यह पुस्तक ठीक जन्मशताब्दी समारोहके सुवर्ण अवसर पर छपकर प्रकाशित हो जाय, और समितिके सदस्योंको यथासमय मिल जाय। इस दृष्टिसे इसका मुद्रणकार्य दिल्लीके एक नामी प्रेसको सुपुर्द किया गया था। किन्तु उत्तरोत्तर कुछ संजोग ही ऐसे निर्माण होते गये कि पुस्तकके मुद्रणके बारेमें प्रेसके सामने नई नई ऐसी कठिनाइयां खड़ी होती गईं कि अन्तमें प्रेसके लिये वह कार्य समितिको वापस भेज देना अनिवार्य बन गया। इस मुसीबतके समयमें आखिर अहमदाबादके सुविख्यात नवजीवन मुद्रणालयने हमारी सहायता की व इस चरित्रका सुन्दर-स्वच्छ मुद्रण बहुत अल्प समयमें ही कर दिया। इसके लिये हम नवजीवन मुद्रणालयके अत्यन्त आभारी है। जन्मशताब्दी समितिने समितिके हरेक सदस्यको परमपूज्य आचार्यदेवकी गुजराती, हिन्दी व अंग्रेरेजी जीवनीमेंसे सदस्य जिस भाषाकी जीवनी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त करना चाहे वह भेंट देनेका निर्णय किया है । अंगरेजी जीवनी भी प्रो. श्री पटनीजीने ही लिखी है। गुजराती जीवनीके लेखक हैं श्री रतिलाल दीपचन्द देसाई । अंगरेज़ी व गुजरातो जीवनी जन्मशताब्दी समारोह के अवसर पर ही प्रकाशित की गई थी। इस हिन्दी पुस्तकको इतने अधिक विलम्बसे प्रकाशित करनेके लिये हम समितिके सदस्योंके हृदयसे क्षमाप्रार्थी हैं। इस युगके एक समर्थ व प्रभावक संघनायककी यह जीवनकथा हम सभीके लिए प्रेरणारूप होकर हमें समाजसेवा एवं धर्मपालनके प्रति प्रोत्साहित करे यही शुभ कामना। पोपटलाल भीखाचन्द्र बम्बई, अध्यक्ष, चैत्र शुल्का पूर्णिमा, आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी वि. सं. २०२७ जन्मशताब्दी समिति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'दिव्य जीवन' पुस्तक आचार्य भगवंत श्रीमद् विजयवल्लभसूरीश्वरजी महाराजको जीवनकथा है, जिसको विद्वान लेखक प्रो० जवाहरचन्द्र पटनी, एम० ए०,ने परिश्रमसे लिखी है। श्री पटनोजीकी गुरुभक्तिका यह अमर फूल है, जिसको सुगन्ध सब जगह फैलेगी। गुरुदेवका जीवन व्यापक और विशाल था। उस महान जीवनसे अनेक व्यक्तियोंको प्रेरणा मिली है। अनेक पथभूलोंको गुरुदेवने प्रकाश दिखाया था और सत्पथ पर चलाया था। इस भौतिक वैभवके युगमें आत्मिक शान्तिका सन्देश अत्यन्त ही आवश्यक है । गुरुदेवने कहा था : “भाग्यशालियों! तुम्हारी कारें, तुम्हारे बंगले, तुम्हारी शानशौकत, सब कुछ यहां ही रहने वाला है, इसलिये सेवामार्ग पर चलो।" मुझे इस बात को प्रसन्नता है कि प्रो० पटनीने युगवीर आचार्य भगवंतके क्रांतिकारी सन्देशको यथार्थ रूपमें रखनेका सत्प्रयास किया है। गुरुदेवने शाकाहार, मद्यनिषेध आदि क्षेत्रोंमें जो महान् कार्य किया है, उसका संक्षिप्त किन्तु साररूप वर्णन 'दिव्य जीवन में हुआ है। गुरुदेवने जीवनभर समस्त मानवसमुदायमें अहिंसाका सन्देश फैलाया। __ वे सम्प्रदायको सीमामें बन्द नहीं रहे, उनका क्षेत्र सारा मानवसमाज था। उन्होंने समाज और व्यक्तिको ऊंचा उठाने के लिये सेवाधर्मका उपदेश दिया। प्रभुसेवा और समाज-सेवाको गुरुदेवने उन्नतिका सोपान कहा। गुरुदेवने राष्ट्रको कुव्यसनोंसे बचाने के लिये जगह जगह प्रभावशाली भाषण दिये। कुव्यसनोंसे मनुष्य पतनको ओर जाता है, फलस्वरूप राष्ट्र भी नीचे गिरता है। गुरुदेवको देशभक्ति विशाल थी। उन्होंने आजादीको स्वर्ग तथा गुलामीको नरक कहा। उनके प्रवचनोंसे जनतामें देशकी आजादीके लिये जागृति आई। गुरुदेवने स्वयं खादी पहनी और दूसरोंको खादी पहनने के लिए प्रोत्साहित किया था। गुरुदेवका जीवन एक देशभक्त संतको जीवन था। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ गुरुदेवके व्याख्यानों और प्रवचनोंमें त्याग और सेवाका स्वर गूंजता था । कितने ही भाग्यशालियोंने उनके करकमलों द्वारा दीक्षा ली। उनकी निश्रा में अनेक प्रतिष्ठायें तथा अंजनशलाकायें सम्पन्न हुई । गुरुदेवकी अभिलाषा थी कि सम्प्रदायका भेदभाव भूलकर सभी भगवान महावीरके झंडेके नीचे एकत्रित होकर अहिंसाधर्मका प्रचार करें, सब मिलकर समाजोत्थान और शिक्षा क्षेत्रमें काम करें। गुरुदेवने अनेक राजा-महाराजाओं को भी प्रतिबोध दिया था । गुरुदेवका शिक्षाप्रेम, समाजसेवा, साहित्यसाधना आदि गुणोंका विद्वान लेखकने विशेष वर्णन करके किताबकी उपयोगिता बढ़ा दी है । गुरुदेवकी काव्यकला तथा उनके प्रवचनोंका सार 'दिव्य जीवन ' में अंकित है । उनके साहित्यका गम्भीर विवेचन करके लेखकने उनकी जीवनकिताबके वे पृष्ठ खोले हैं जो अभी तक बन्द थे, अतः मैं उन्हें हृदयसे धन्यवाद तथा बधाई देता हूं । गुरुदेवका सारा जीवन दिव्य था, उनका जीवन प्रकाश ही था । मुझे विश्वास है कि इस दिव्य प्रकाशसे व्यक्ति और समाजको रोशनी मिलेगी । आचार्य समुद्रसूरि गोडीजीका उपाश्रय पायधुनी, बम्बई ३ संवत् २०२७, आषाढ कृष्णा ९ ( दिनांक २८-६-७० ) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनी बात 'दिव्य जीवन' लिखनेकी अभिलाषा बहुत समय पहलेसे थी। गुरुदेव आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजके साहित्यको पढ़नेसे मनमें एक ऐसा दिव्य चित्र अंकित हो गया जो सद्जीवनकी उज्ज्वल रेखाओं और मानवताके रंगसे बना था। सर्वप्रथम मैंने दिव्य मूर्तिके दर्शन पालोतानामें १८-१९ वर्ष पूर्व किये थे, तब मैंने उनके मुखको तेजस्विता देखकर यह सहज ही अनुमान लगा लिया था कि यह वही प्रकाश है, जिसको भौतिक माया-जालमें फंसा हुआ मनुष्य देखनेके लिए छटपटा रहा है। उन उज्ज्वल प्रकाशकिरणोंमें मानवता, उदारता, करुणा, स्नेह, ज्ञानकी गरिमा, सौम्यता तथा शीतलताके रंग स्पष्ट देखे जा सकते थे। यह सप्तरंगी व्यक्तित्व इन्द्रधनुषके समान मेरे हृदयगगनमें अंकित हो गया। - उनकी वाणोमें मधुरता एवं प्रभावशीलता थी। एक एक शब्द अन्तरसे निकल कर कानोंमें मानो मिश्री घोलता था। हृदयवीणाके तार झंकृत होकर मधुर गीत-स्वरोंको गुंजायमान कर देते थे। फिर श्रोता आत्मविभोर होकर सांसारिक क्षणभंगुर सुखोंकी मायावी चकाचौंधको भूल कर अमर सुखको खोजके लिए व्याकुल हो जाता था। ऐसी थी गुरुदेवकी मधुर एवं अमर वाणी। गुरुदेवके बाह्य जीवनकी चमकती रेखाओंके भीतर चमकते हुए आत्मिक प्रकाशको देखनेकी मैने कोशिश की है। यह आत्मिक या भीतरका प्रकाश 'मनकी आंख से ही देखा जा सकता है। गुरुदेवके प्रति भक्तिने मेरे अन्तर्चक्षु खोलकर उनके आन्तरिक सौन्दर्यको देखनेके लिए मुझे प्रेरित किया। यदि भक्तिकी शक्ति न होती तो ऐसे दिव्य जीवनके दर्शन भी न हो पाते। गुरुदेवने अपने साहित्यके माध्यमसे तथा प्रवचनोंके द्वारा जो विचार प्रकट किये हैं, वे अत्यन्त ही उपयोगी है। मैन उनका साहित्यिक रूप भी जनता-जनार्दनके सामने रखा है। उनका काव्य, उनका गद्य, उनकी शैली Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबमें उच्च कोटिके प्रतिभासम्पन्न साहित्यकारको झलक मिलती है। उनके साहित्यको गम्भीरता और उच्चताको देखकर मैं निश्चय रूपसे कहता हूं कि उस पर एक सुन्दर और गौरवपूर्ण शोधग्रन्थ (Thesis) लिखा जा सकता है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि उनके जीवनग्रन्थको लिखनेके पहले मैंने उनके समस्त प्राप्य साहित्यको न केवल पढ़ा ही है वरन् उसका चिन्तन तथा मनन भी किया है। 'पंचामृत,' 'वल्लभ-वाणो' आदि अध्यायोंमें उनके निबन्धोंका सार रखनेका मैने प्रयास किया है। आधुनिक विश्वको भौतिक धमचमाहटमें मनुष्य अमर सुखकी बांसुरीका स्वर सुनने के लिए तड़प रहा है। मानवके विशाल बंगले, सुन्दर कारें तथा विपुल बैंकबेलेंस भी उसे शान्ति प्रदान नहीं कर पाते। ऐसे समयमें दिव्य जोवन ही शीतल आम्रकुंजोंके समान हैं, जिनकी शीतल छायाके नीचे बैठनेसे असीम शान्ति मिलती है और मन तृप्त हो जाता है। गुरुदेवका दिव्य जीवन ऐसी ही सघन छायावाला आम्रकुंज है। मैं इस आम्रकुंजकी शीतल छायामें बैठकर उनकी वाणीरूपी बांसुरीका मनमोहक स्वर सुन रहा हूं। ____ गुरुदेवकी विश्वमैत्री एवं करुणा विशाल थी। उन्होंने 'अहिंसा परमो धर्मः'को विश्वमें फैलानेके लिए जीवनभर कार्य किया। युद्धकी लपटोंमें जल रहे विश्वको उन्होंने अहिंसा और प्रेमका संदेश सुनाया। उनका अहिंसाका सन्देश हिन्दू, मुसलमान, जैन, सिक्ख, ईसाई, पारसी, हरिजन आदि भाईबहनोंने प्रेमसे सुना और वे अहिंसाधर्मकी ओर प्रवृत्त हुए। अनेक मनुष्योंने शाकाहार अपनाया और शराबको सदा-सर्वदाके लिए छोड़ दिया। ऐसी थी गुरुदेवकी सेवाभावना। अनेक विदेशी विद्वान भी गुरुदेवकी प्रतिभा, सुशीलता एवं समतासे प्रभावित हुए थे। गुरुदेवके विषयमें अधिक लिखनेकी अभिलाषा अभी भी दिलमें है। उनके साहित्यमें मानवजीवनका अमर खजाना भरा हुआ है; उसे लेनेके लिए अन्तशक्ति चाहिये । गुरुदेव स्वर्गसे आशीर्वाद देंगे कि वह अन्तर्रेरणा मिल जाय और उनका साहित्य-पीयूष पीकर लेखनी मचल उठे। आशा है, वह सुअवसर भी कभी आएगा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म परमपूज्य आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजीका अत्यन्त आभारी हूं, जिन्होंने इस पुस्तककी प्रस्तावना लिखकर इस जीवन-ग्रन्थकी शोभा द्विगुणित कर दी है। आचार्यश्रीकी प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहनसे मैं इस जीवनग्रन्थको लिख सका हूं। 'युगवीर आचार्य 'के रचयिता श्री फूलचन्दजी दोशी - 'महुवाकर 'को धन्यवादके फूल अर्पित करता हूं, जिन्होंने स्नेहपूर्ण मार्गदर्शन एवं अपने सरस साहित्यसे मुझे प्रोत्साहित किया। म ‘आचार्य श्री विजयवल्लभसूरीश्वरजी जन्मशताब्दी समिति का भी आभारी हूं, जिन्होंने मुझे पुण्यश्लोक गुरुदेवकी 'जीवन-कथा' आलेखित करनेका पुनीत कार्य सौंपा। जय वल्लभ ! फालना (राजस्थान) -- लेखक दिनांक १ जून, १९७० Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची १. समर्पण २. निवेदन (प्रकाशकीय) ३. प्रस्तावना --पू. आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजी महाराज ४. अपनी बात अध्याय १. प्रकाशकी ओर २. जीवनझलक ३. जागृति ४. मुक्तिपथ ५. दिव्य पथिक ६. करुणाका स्वर ७. अमृतधारा ८. वह दिव्य प्रकाश ९. सेवा-सौरभ १०. शिक्षा और नवोदय ११. काव्यकला १२. गद्यशैली १३. कुछ रोचक संस्मरण १४. अमर ज्योति १५. श्रद्धांजलियां १६. पंचामृत १७. वल्लभ-वाणी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ दि व्य जी व न Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ आकृति से भी मनुष्य हो, प्रकृतिसे भी, वहीं मनुष्यताका निवास होता है। ऐसी मानवता पैसेसे, सत्तासे, बल तथा बुद्धिसे नहीं मिलती, ऐसी मानवता मिलती है। देश, वेश, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, कौम, प्रान्त, भाषा आदिकी दीवारोंको लांघकर दुनियाके हर मानवके साथ मानवताका व्यवहार करनेसे ही । - श्री विजयवल्लभसूरिजी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकी ओर __चांदनी रातमें चन्द्रप्रकाश सरिताकी लहरों पर नाच रहा था। नीलिमाम चांदी घुल गई थी। सरिता पर मानो चन्द्रका धवल हास छिटक गया हो। यह थी चन्द्रप्रकाशकी माया । प्रभातके समय जब उषाने कुंकुम बिखेरा, तब अरुणोदय हुआ। रविप्रकाशने धरतीका श्रृंगार किया। ओस बिन्दु चमक उठे, फूलोंके मुख खुल गये और सुगन्ध ही सुगन्ध बिखर गई। यह था रविप्रकाशका प्रभाव।। अन्धकारको दूर करनेके लिये प्रकाशकी आवश्यकता रहती है। प्रकाश फैलानेवाले रवि, चन्द्र हैं---दीपकका प्रकाश भी अन्धकारको हटाने के लिये सशक्त' है, ये जहां रहेंगे, प्रकाश रहेगा ही। प्रकाश ही उनका जीवन है। उनका जीवन और प्रकाश पर्यायवाची बन गये हैं। जिनका जीवन ही प्रकाश है, वे ही इस विश्वमें प्रकाश फैलाते हैं। वे जहां जाते है, रवि, चन्द्र एवं दीपशिखाके समान प्रकाश छिटकाते हैं। विश्वको महान् विभूतियोंका जीवन-प्रकाश, अन्धकारको दूर करने में सफल हुआ है। यदि ये मानव-ज्योतियां नहीं होती तो विश्व में कितना अन्धकार होता! मानवजीवनका प्रकाश है मानवता। मानवता रूपी किरणमें सप्त रंग हैं : करुणा, उदारता, कोमलता, प्रेमभावना, सहिष्णुता, त्यागवृत्ति एवं सुशीलता। यह श्वेत किरण इन सात रंगोंको अपने में रमाये हुये हैं। १. झिलमिल प्रकाश, मेरे प्रकाश, अगजग भरमें भरते प्रकाश, दृगको चुम्बन करते प्रकाश, अन्तरमें मधु झरते प्रकाश, झिलमिल प्रकाश तो जीवनमें, छम छम नर्तन करता प्रेयसी। - गीतांजलि : विश्वकवि रवीन्द्र ; हिन्दी अनुवाद : श्री भवानीप्रसाद तिवारी। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ऐसे ही प्रकाशसे प्रकाशित था आचार्यदेव श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजीका जीवन । उनका जीवन प्रकाशका ही रूपान्तर था। रविकिरणकी तरह उनका जीवन समाजोद्यानको प्रकाशित करता रहा और व्यक्तिको पुष्पित-पल्लवित करता रहा। सर्वप्रथम आचार्य वल्लभने अपने जीवनको विद्याके प्रकाशसे प्रकाशित किया। अपने दिव्य गुरु आचार्य श्रीमद् आत्मारामजी महाराज (श्रीमद् विजयानन्दसूरिजी महाराज)के जीवनप्रकाशसे वे इतने आकर्षित हुए कि उन्होंने सत्रह वर्षकी अल्पायुमे ही दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा (संन्यास) ग्रहण करने के पश्चात् वल्लभने दत्तचित्त होकर विद्याध्ययन किया। विद्याके अनेक मधुर फलोंसे उनका जीवनविटप सुशोभित होकर झुक गया। उनमें विनम्रता आ गई और सघनता भी। सघनतामें शीतलता निवास करती है। शीतलता आनन्ददात्री है। वृक्ष जब फलोंसे लद जाता है, तब वह झुक जाता है। उसकी छाया भी सघन एवं शीतल हो जाती है। थका हुआ यात्री जब उस द्रुम-छाया तले बैठ कर घड़ीभर विश्राम करता है, तब उसकी सारी थकान मिट जाती है। वह ताजगी प्राप्त कर स्वस्थ बन जाता है। आचार्य वल्लभका जीवनवृक्ष ऐसा ही था । पूज्य गुरुदेव वल्लभने षड्दर्शनोंका विशद अध्ययन किया : न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा तथा वेदान्त । षड्दर्शनके अतिरिक्त उन्होंने जैनदर्शनका सूक्ष्म अध्ययन किया। विद्याके प्रतापसे उनकी दृष्टि निर्मल हो गई। निर्मलता उनके मनमें बस गई, निर्मलता उनके आचरणमें छा गई, निर्मलता उनके तनमें रम गई। निर्मलता थी उनके व्यवहारमें, निर्मलता थी उनको वाणीमें। निर्मलताने उनके जीवनको आकर्षक बना दिया। निर्मलताकी गंगाधारामें उनका जीवन निखर गया। निर्मलतासे उनकी मानवता खिल गई। मानवतासे समभावका मधुर प्रकाश उनके मनमें छिटक गया। श्रीमान् स० का० पाटिलकी अध्यक्षतामें वि. संवत् २०१० कार्तिक शुक्ला २को मनाई गई आचार्य वल्लभकी ८४वीं जन्मजयन्तीके पावन प्रसंग पर गुरुदेवने ये उद्गार प्रकट किये थे : __ "मैं न जैन हूं, न बौद्ध, न वैष्णव हूं, न शैव, न हिन्दू हूं, न मुसलमान । मैं तो शांतिपथको खोजने के मार्ग पर चलनेवाला एक मानव हूं, यात्री हूं।" ये शब्द आचार्य वल्लभकी 'वसुधैव कुटुंबकम्' (समस्त संसार एक कुटुम्ब है)की भावनाके द्योतक हैं। इनमें उनका समभाव स्पष्ट झलकता Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन है। गुरुदेवने एकता और प्रेमका संदेश दिया। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी, हरिजन आदिमें एक ही उज्ज्वल ज्योति है। भेदभाव अज्ञानके कारण प्रतीत होता है। गुरुदेवका कथन था: “विविध मनुष्य रंग-बिरंगे कांचके लम्प हैं । इन काचके लैम्पोंमें ज्योति जल रही है। वह ज्योति श्वेत तथा उज्ज्वल है, परन्तु भिन्न भिन्न रंगवाले कांचके लैम्प होनेके कारण भिन्न रंगोंवाली रोशनी दीखती है। इससे भ्रमित नहीं होना चाहिये। भीतर तो सभी में वही अकलुष, अनिंद्य, निर्मल ज्योति है । इसलिये प्रेमसे रहो।" ____ गुरुदेव समाजके प्रति अपने उत्तरदायित्वको भली भांति जानते थे। उन्होंने समाजोन्नतिके लिये जीवनमर प्रयास किया। व्यक्तिको ऊंचा उठानेके लिये उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। बम्बईकी एक विशाल सभामें गुरुदेवने कहा था : - “शुद्धाचरण द्वारा जीवनको मंदिरके समान पवित्र बनाओ। पावन मंदिरमें ही करुणामूर्ति आनन्दघन प्रभु विराजमान होंगे। मनको पवित्र बनानेके लिये शुद्ध आहार (शाकाहार), शुद्ध विहार (आचरण) तथा शुद्ध विचारकी आवश्यकता है। इन त्रिरत्नों (शुद्ध आहार, शुद्ध विहार, शुद्ध विचार) का दिव्य हार पहनो।" गुरुदेव शुद्धाचरणको मानव-उत्थानकी सुन्दर सीढी मानते थे। उन्होंने कहा था : “धर्म प्रेम सिखाता है, वैरभाव नहीं। धर्म पुष्प है, कांटा नहीं। तुम प्राणिमात्रके लिये प्रेमभाव रखो।" २ गुरुदेवने मनुष्यमात्रको सुखकी कुंजी बताते हुए कहा था : “यदि सुखी बनना चाहते हो तो दूसरोंको सुख पहुंचाओ।" राष्ट्रभावना समझाते हुए उन्होंने कहा था : “ देशप्रेमके बिना राष्ट्रका विकास असम्भव है। देशप्रेमका आधार है बलिदान । नेताओंको चाहिये कि वे अपने जीवनको त्यागमय बनावें। पहले घरमें चिराग जलाओ, फिर मस्जिदमें। पहले अपनेको सुधारो।" महाराणा प्रतापकी जयन्तीके समारोहमें गुजरांवाला (हाल पाकिस्तान) में वि. सं. १९९७ में उन्होंने कहा था : । "महाराणा प्रतापकी देशभक्ति अनुपम थी। जो देशकी स्वाधीनताके लिये बन बन भटके थे, जंगली कन्दमूल-फूल खाकर जिन्होंने दिन बिताये २. चत्तारि धम्मदारा : खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । अर्थात् - क्षमा, संतोष, सरलता और नम्रता ये चार धर्मके द्वार है। --स्थानांगसूत्र । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन थे और जिस मनको दुःख और भूखसे बिलबिलाते बच्चोंका रुदन भी विचलित नहीं कर सका था, वह मन किस फौलादका बना हुआ होगा! महाराणा प्रतापके जीवनकी प्रत्येक घटना रोमांचक है। आजके युवक महाराणा प्रतापके जीवनसे स्वतन्त्रताप्राप्तिके लिये आत्मबलिदान व संकट सहन करनेकी शिक्षा लें तो भारतवर्ष संसारमें अनुपम स्थान प्राप्त कर सकेगा।"... गुरुदेवकी देशभक्ति अनुकरणीय थी। उन्होंने स्वतन्त्रता-आन्दोलनमें जनताको देशप्रेमका उपदेश देकर जागृत किया। स्वतन्त्रताप्राप्तिके लिये उन्होंने एकताको सर्वोपरि माना। उन्होंने संवत् २००२ मार्गशीर्ष वदी १० को. मालेरकोटलाकी आम सभामें कहा था : “देशकी स्वतन्त्रतासे सबका कल्याण होगा। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख आदि सभी बन्धु हैं। उनके बीच एकता नितान्त आवश्यक है। यदि देशमें एकता होगी तो विश्वशांतिमें भारत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा। हिन्दू चोटी सहित नहीं जन्मता, न मुस्लिम सुनतयुक्त जन्मता है। सिक्ख दाढी सहित जन्म नहीं लेता। जन्मके पश्चात् ही ये विविध संस्कार, आचारादि होते हैं। सभीमें आत्मा एक ही है। सभी मोक्षके अधिकारी हैं। सभीमें परम कृपालु प्रभु निवास करते हैं। इस देशमें सभीको हिलमिल कर रहना चाहिये। खुदाका बंदा- ईश्वरका भक्त - वही है जो समस्त प्राणियोंको अपने समान समझे।” ३ गुरुदेवकी देशभक्तिमें मानवताका कोमल स्पर्श था। संत दादूने भी इसी प्रकारके भाव प्रकट किये हैं : आप हि आप विचारा।। सब हम देख्या शोध करि, दूजा नाहिं आन । सब घट एकै आत्मा, क्या हिन्दू मुसलमान । आतम भाई जीव सब, एक पेट परिवार । संत कवि दादू दयाल तथा गुरुदेवके विचारोंमें अद्भुत समानता है। गुरुदेवने आजादीके संबंधमें कहा है : “आजादी ही जीवन है, गुलामी ही मृत्यु है।" स्वतन्त्रता-आन्दोलनके संदर्भमें कहे गये इस कथनमें जागृतिका स्वर सुनाई देता है। इसका आध्यात्मिक अर्थ भी है : आजादीका अर्थ मोक्ष है; ३. आचार्य श्री विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, पृष्ठ ६२. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन तथा बंधन है सांसारिक मायाकी बेडियां। बेडियोंमें बंधा जीवन कष्टप्रद तथा मृत्यु तुल्य है। मुक्त होने पर ही छुटकारा है। ___ आचार्यदेवने स्वयं खादी पहनी तथा अन्य मुनिराजोंको भी खादी एवं स्वदेशी अपनानेके लिये प्रेरित किया। आचार्यदेवकी कथनी और करनीमें कभी अन्तर नहीं रहा। __आचार्यश्री पूज्य महात्मा गांधी, महामना मदनमोहन मालवीय तथा महान् देशभक्त पंडित मोतीलालज नेहरूके सम्पर्कमें आये तथा स्वराज्य-आन्दोलनमें सक्रिय सहयोग देनेको जनताको प्रेरित किया। गुरुदेवने देशभक्तिसे युक्त भाषण अनेक स्थानों पर दिये। गांधीजीके मद्यनिषेधके आन्दोलनमें गुरुदेवका योगदान अत्यधिक प्रशंसनीय रहा। उनके अहिंसक आन्दोलनके वे प्रबल समर्थक थे। स्वराज्य-आन्दोलनका एक मधुर एवं प्रेरणास्पद संस्मरण है। आचार्य वल्लभकी पंजाबके अम्बाला शहरमें राष्ट्ररत्न पंडित मोतीलालजी नेहरूसे भेंट हुई। उस समय स्वदेशी आन्दोलनकी धूम मची हुई थी। पंडितजी विदेशी सिगरेट पीते थे। गुरुदेवने उनसे कहा : "आप देशको स्वतन्त्र करानेके लिये बाहर निकले हो, फिर इस विदेशी सिगरेटको क्यों पीते हो?" गुरुदेवके इस कथनसे पंडितजी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सिगरेट न पीनेकी आम सभामें प्रतिज्ञा की। पंडित मोतीलालजीके उस समयके ये उद्गार आज भी सुजीवनकी प्रेरणा देते हैं : “ मैं अब तक अन्धकारमें भटक रहा था, एक जैन मुनिने मुझे प्रकाश दिखाया। ___गुरुदेवके सम्पूर्ण जीवनका चित्रपट मेरी आंखोंके फिल्मपट पर अंकित है। मैं देख रहा हूं आकाशमें इन्द्रधनुष । बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल-~इन सप्त रंगोंसे इन्द्रधनुष मनको लुभाता है। गुरुदेवका जीवनचित्र भी इन्द्रधनुषके समान रमणीय लग रहा है। इस इन्द्रधनुषमें भी सप्त रंग हैं : निर्भीकता, स्पष्टवादिता, तेजस्विता, सौम्यता, सज्जनता, विनम्रता एवं भव्यता। यह इन्द्रधनुष मेरे मनके आकाशमें खिल गया है। मेरी आंखोंमें बस गया है। गुरुदेवके इन्द्रधनुषी जीवनका मधुर आकर्षण ऐसा था जो उनकी ओर अनायास खींचता था। इस खिंचावमें कोई जादू या चमत्कार नहीं था। जादू और चमत्कार क्षणिक होते हैं। उनमें सहज आकर्षण था। इस सम्बन्धमें एक मनमोहक प्रसंग यहां प्रस्तुत करता हूं। ४. आचार्य श्री विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, पृष्ठ ७१. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन जब गुरुदेव हरजी ( जालोर जिला) पहुंचे तब श्री ज्योर्ज नामक अंग्रेज उनके दर्शनार्थ वहां आये । श्री ज्योर्ज योगिराज श्रीमद् शांतिसूरिजीके परम भक्त थे । वे गुरुदेवके गुणोंको सुनकर उनके पास आये थे । ज्योर्ज महोदय गुरुदेवका अभिवादन करके विनम्र वाणीमें कहा : आप मारवाड़ में पधारे हैं यह सुनकर मैं आपके दर्शनार्थ आया हूं । "1 11 "t ' योगिराज से क्या संदेश लाए हो ? ' गुरुदेवने शान्त एवं प्रसन्न मुद्रामें श्री ज्योर्जको पूछा । " 11 श्री ज्योर्ज मुस्कराते हुए बोले : उनका संदेश है, ॐ शान्ति और जगत्का कल्याण | मैं आपके चरणोंमें रहकर ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूं । गुरुदेवने मधुर वाणीमें कहा : आपकी भावना सराहनीय है । परन्तु पंजाब में एक कालेजका उद्घाटन होनेवाला है इसलिए मुझे वहां पहुंचना जरूरी है । " "" ज्योर्ज महोदय जिज्ञासु थे । वे चरणकमलका मकरंद लेने पधारे थे । मधुर भावसे बोले : “ यदि आपको कष्ट न हो तो मैं आपके साथ कुछ दिन विहारमें रहकर और समय मिलने पर ज्ञानगोष्ठी करना चाहता हूँ । गुरुदेवन कहा : 'आप खुशीसे आइये। मुझे भी आप जैसे विद्वानोंका परिचय प्राप्त कर आनन्द होगा । " " " श्री ज्योर्ज जैन दर्शनके मर्मज्ञ थे । गुरुदेवने देखा कि उनमें एक अन्तज्योति जल रही है । उसे और प्रज्वलित करना है । यह प्रकाशकिरण यदि चमकेगी तो अन्धकार निश्चय ही दूर होगा । ज्ञानका प्रकाश ही मोहान्धकारको दूर कर सकता है । आज प्रकाशकी आवश्यकता है । अन्धकारमें भटकते हुए कितने ही मनुष्य प्रकाशकी खोज कर रहे हैं । गुरुदेवने श्री ज्योर्जको कहा : " यदि आप जैसे व्यक्ति योगिराजके सन्देशवाहक बन जायें तो जगत्को बहुत लाभ हो । " " श्री ज्योर्ज बोले : " मेरी भावना तो यही है । 'आपकी भावना श्रेष्ठ है । पूज्यश्रीने कहा : श्री ज्योर्ज गुरुदेवके साथ कुछ दिन रहे। उन्होंने गुरुदेवसे जो प्राप्त किया, वह मधुसंचय था। वे भ्रमर बन कर आये थे. हेतु । वे मत्रु प्राप्त कर अपने स्थानको वापस चले गये । - मधुसंचय करने प्रश्न उठता है कि श्री ज्योर्ज आबू पर्वतकी शान्त और आनन्दप्रद गोदसे गुरुदेव वल्लभकी शरणमें थोड़ेसे समयके लिये क्या लेने आये थे ? --- Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन चकोर चन्द्रको ओर देखता है, वह चन्द्रामृत पीकर तृप्त हो जाता है। सरोवरके पास प्यासा जाता है, क्या सरोवर उसे बुलाता है ? प्यासा अपने आप सरोवरको ढूंढ़ लेता है, भ्रमर अपने आप पुष्पको खोज लेता है। . चन्द्रकिरणका काम है कुमुद-कलीको खोल कर उसे प्रस्फुटित करना। रविकिरण पुष्पकलियोंको अपने कोमल स्पर्शसे खोलती हैं। उनका सौन्दर्य निखर जाता है, उनमेंसे सुगन्ध बिखर जाती है। श्री ज्योर्जने गुरुदेवके चरणकमलोंमें रह कर जो मधुसंचय किया वह कितना लाभकारी था! ऐसे अनेक ज्योर्ज गुरुदेवके सत्संगसे स्फूर्ति पाकर पुष्पवत् खिले हैं। ऐसा था गुरुदेवका रम्य जीवन । उनके जीवनमें प्रेमका चुम्बक था। आज कितने ही ज्योर्ज प्रकाश मांग रहे हैं। कौन अब उन्हें प्रकाश देगा? गुरुदेवकी असीम करुणा और दिव्यताका शब्दचित्र करनेके लिए मनमें तड़पन है, परन्तु अनुपम कवि-चित्रकारकी प्रतिभा कहांसे लाऊं? मैं मनकी बात कैसे कहूं? अन्तर्गतकी बात अली, सुन, । मुख थी मोपे न जात कही री।-चिदानन्द । जीवन-झलक आचार्य वल्लभसूरिजीका सांसारिक नाम छगनलाल था। आचार्यश्रीका जन्म कार्तिक शुक्ला द्वितीया (भाई दूज) विक्रम संवत् १९२७को गुजरात प्रान्तके बड़ौदा शहरमें हुआ था। उनके पिता सेठ दीपचन्दभाई बड़े धार्मिक संस्कारवाले थे तथा उनकी माता इच्छाबाई धर्मपरायणा एवं कोमल स्वभाववालो महिला थी। बडौदाका यह श्रीमाली परिवार अत्यन्त ही प्रतिष्ठित था। _छगन सहित चार भाई थे--हीराचन्द, खीमचन्द, छगनलाल (आचार्य वल्लभ) तथा मगनलाल । और तीन बहनें थीं- महालक्ष्मी, जमुना एवं रुक्मणी। माता-पिताके धार्मिक संस्कारोंकी छाप बालक छगन पर विशेष रूपसे पड़ी। छगन मातापिताका अत्यन्त ही लाडला था, परन्तु भाग्यकी निष्ठुरता कहें या कर्मका विधान, बालक छगनको अकेला छोड़कर पिताजी स्वर्गधाम Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० विव्य सिधारे और फिर माता इच्छाबाई भी अपने पुत्ररत्नको प्रभुशरणमें सौंप दिव्य धाम सिधारी । माता इच्छाबाईने अपने हृदयवल्लभ को अमर सुख प्राप्त करनेका अंतिम संदेश दिया था । वह संदेश धीरे धीरे अंकुरित हुआ और अन्तमें वल्लभको वह अमर धन प्राप्त हुआ । माता-पिताका सात्त्विक जीवन बालकके जीवनका सुषुप्त निर्माण करता है । छगनके बाल्यकालमें सद्जीवनके जो संस्कार आए वे माता - पिताकी अमर देन थी । बाल्यकालके उन संस्कारोंने छगनको विश्ववल्लभ बना दिया । ३ जागृति संध्या ढल रही थी। रविकी अंतिम किरणें सोना बिखेर कर चली गई । पश्चिम दिशाकी लालिमाको देख मनका मोर नाचने लगा: अहा ! कितनी सुहावनी है यह लालिमा, यह रूप-रंग ! धीरे धीरे संध्याका रूप सरिता - जल में प्रतिबिम्बित हुआ- • जैसे कोई नायिका जलदर्पणमें अपना रूप निहार रही हो । उस समय मैं अपनी वाटिकामें बैठा हुआ आदर्श जीवन का वह हृदय - द्रावक प्रसंग पढ़ रहा था जिसमें बालक छगन अपनी मरणासन्न माताकी शैयाके पास बैठा हुआ फूट फूट कर रो रहा है । सहसा मांकी आंखें खुलीं और उसने अपने लाडले पुत्रको आंसू टपकाते देखा। मांने बोलनेका प्रयत्न किया । धीमे स्वरमें वह बोली : छगन ! तू भी इतना दुर्बल ! मांकी वाणी सुनते ही बालक छगनकी आंखोंसे गंगा-यमुना बहने लगीं । बालकने दयनीय नेत्रोंसे मरणोन्मुख ममतालु माताको देखा और करुण स्वरमें बोला : माँ ! हमें किसके भरोसे छोड़ जाती हो ? "" 33 " "" मौन माताका स्वर सहसा फूट पड़ा : "बेटा, अमर सुखको प्राप्त करने में अपना जीवन बिताना । मैं तुम्हें करुणासागर परम परमात्माकी शरणमें सौंपकर इस नश्वर संसारसे विदा हो रही हूं । " माता इच्छाबाईका जीवनदीप बुझ गया । बालकके सामने अन्धकार ही अन्धकार था । आदर्श जीवनके इस कारुणिक प्रसंगको मैंने समाप्त किया १. 'आदर्श जीवन', रचयिता : श्री कृष्णलाल वर्मा, श्री फूलचन्द हरिचन्द्र । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ११ ही था कि मेरी दृष्टि पश्चिमी आकाश पर पड़ी। संध्याकी लालिमा फीकी पड़ रही थी । धीरे धीरे रात्रिकी काली चादर धरती पर बिछने लगी । मैंने सोचा, कहां हैं वह सांध्य लालिमा ? सब कुछ समाप्त हो गया । संसारका सौन्दर्य, वैभव सब कुछ नश्वर है । परन्तु इस क्षणिक सुखमें मनुष्य किस प्रकार खो जाता है ? बालक छगनके मनमें हलचल मच गई। वह सोचने लगा कि माताने अमर सुख प्राप्त करनेका अंतिम संदेश दिया है । वह अंतिम संदेश उसके मनप्रदेश में अमृतजलके समान रम गया । संसारके सुख उसे संध्याके रंगबिरंगे बादलोंके समान क्षणिक लगने लगे । बालक छगनकी मनोदशा इस प्रकार थी : किन गुन भयो रे उदासी, ममरा । पंख तेरी कारी, मुख तेरा पीरा, सब फूलनको वासी ॥ सब कलियनको रस तुम लीना, सो क्यूं जाय निरासी । 'आनन्दधन' प्रभु तुमारे मिलनकुं, जाय करवत ल्यू कासी । मनभ्रमर अब विषयवासनाके फूलोंका रस पीना नहीं चाहता । उसे तो प्रभुभक्तिका अमर पुष्परस पीना है, अतः ये सब रस फीके लग रहे हैं। मैं छगनकी पीड़ाको समझ गया । उसी क्षण मुझे ऐसे ही सुखके अभिलाषी एक राजकुमारकी कथा स्मरण हो आई । 'दि लाइट आफ एशिया 'के रचनाकार श्री एडविन अरनाल्डने राजकुमार सिद्धार्थको मनोदशाका कैसा सजीव शब्दचित्र अंकित किया है ! यह अविस्मरणीय प्रसंग मैंने हाल में ही पढ़ा था। वह मेरे सामने झूमने लगा । छगन हो या राजकुमार सिद्धार्थ, अमर रसका पान करनेवालोंकी समान दशा होती है । उस सरस काव्यकी जो झांकी मेरे सामने नाचने लगी वह यह थी कि राजकुमार सिद्धार्थ रथमें बैठकर कपिलवस्तु नगरी में सैर-सपाटेके लिए निकल पड़े। राजा शुद्धोदनने इसके पहले समस्त नगरीको सजानेकी आज्ञा दी : अरे नगरवासियों ! राजाका यह आदेश है कि आज किसी प्रकारका अप्रिय दृश्य नगर मार्ग में देखने को नहीं मिले। कोई अंधा, लूला, लंगडा या अपाहिज व्यक्ति मार्ग में न रहे। न कोई बीमार ही रहे और न वृद्ध ही । कोई कोढी या निर्बल व्यक्ति राजपथ पर न आने पाये । शाक्यकुमार सिद्धार्थने जब कपिलवस्तु नगरीको नववधूके समान बनावसिंगारमें देखा तो उसके मनकी कली खिल गई । वह अपने सारथिसे बोला : Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दिव्य जीवन " 'अहा, यह सोनेका संसार कितना सुहावना है ! मुझे यह आकर्षक लग "" रहा है । किन्तु भ्रमका पर्दा आंखों पर अधिक देर तक न रहा। थोड़े दिनोंके बाद मार्ग में झुर्रियोंवाले, हड्डीके ढांचेवाले तथा धनुषाकार झुकी पीठवाले एक वृद्धको देखकर राजकुमारको निराशा हुई। फिर एक दिन कुमारने स्मशानयात्राका दृश्य भी देख लिया । कुमारने कुतूहलवश अपने सारथिसे पूछा : 'क्या सभीका ऐसा ही अन्त होता है ? "1 39 सारथिने कहा : राजा शुद्धोदनके अनेक प्रयास, सुन्दरी यशोधराका आकर्षण, पुत्र राहुलका वात्सल्य, राजकुमार सिद्धार्थको संसारके क्षणिक सुखोंके जालम नहीं बांध सके और अन्तमें वह अमर सुखकी खोजके लिए घरसे निकल पड़ा । 31 सभीका यही अंत है शाक्यकुमार । बालक छगनकी दशा भी इसी प्रकारकी थी। न तो उसे भोजन अच्छा लगता था, न खेलकूद । मृग जालमें फंसा हुआ था; छुटकारा पानेके लिए वह व्याकुल था । छगनकी आयु अभी छोटी थी, परन्तु उसको तो अमर सुखकी धून सवार हो गई थी। प्रभातकी मुस्काती उषा आती और सोना बिखेर कर चलो जाती । संध्या हंसती हुई आती और सागरसरिता और विपशिखरों पर नाच कर चली जाती। इस तरह दिन बीतने लगे । arrat संसार अनाकर्षक लगने लगा । माताका अंतिम संदेश उसकी हृदयवीणा पर नित गूंजता । इस संदेशने छगनको जागृत कर दिया | साधुमुनिराजोंके उपदेशोंसे बालककी वैराग्यभावना विकसने लगी। भगवान्की पावन शरण में जीवनको अर्पण करनेकी इच्छा दिन-ब-दिन बलवती होने लगी । भाग्यसे संवत् १९४०में मुनि चन्द्रविजयजी महाराजका चातुर्मास बड़ौदा शहरके पीपलाशेरी उपाश्रयमें हुआ । पीपलाशेरीमें छगनजीका घर था । मुनिश्रीके उपदेशोंसे बालक छगनकी आत्मज्योति धीरे धीरे प्रकट होने लगी । संवत् १९४२ का वर्ष छगनके जीवनमें क्रान्ति ले आया । उस समय वह सातवीं कक्षा में पढता था । उस वर्ष आचार्य श्रीमद् विजयानन्दसूरीजी महाराज ( प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी महाराज) बडौदा शहरमें पधारे। उनके उपदेशोंसे छगनकी भक्तिलता पुष्पित होकर फैलने लगी । किशोर छगनकी आयु उस समय १५ वर्षकी थी । छगनने दिव्य गुरु श्री आत्मारामजी महाराजको इस प्रकार देखा जैसे चकोर चन्द्रकी ओर देखता है । उस चन्द्र Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन १३ प्रकाशसे उसके हृदयकी कुमुदिनी खिल गई । छगन सोचने लगा : इस आनन्दलोक में मैं सदा-सर्वदाके लिये बस जाऊं । ऐसा था गुरुदेव आत्मारामजीके जीवनमें आकर्षण । भ्रमर चरणकमल पर मंडरानेके लिए आतुर हो उठा। गुरुदेवकी आनंदमूर्ति हृदयमें बस गई । चिदानन्द आनन्द मूरति । निरख प्रेम भर बुद्धि ठगी री । मुक्तिपथ दिव्य महात्मा मेघगम्भीर वाणीमें उपदेशामृत पिला रहे हैं। जनसमुदाय मंत्रमुग्ध होकर उस अमृतका पान कर रहा है। दिव्य महात्माके मुख पर ब्रह्मतेज झलक रहा है । उनके मुखारविन्दसे निकला हुआ एक एक शब्द जनमनमें रम रहा है । दिव्य सन्तने कहा : सुख मृगतृष्णा हैं ।' अमर सुखकी कुमार एवं जंबुकुमारने यौवनके थे।" " अपने मनके अंधकारको दूर करो । संसारके खोज करो । नेमिकुमार, वर्द्धमान, शाक्यवसन्तमें ही संसारके बन्धन तोड़ दिये ये शब्द शान्त भावसे सुन रहा था प्रन्द्रहवर्षीय बालक छगन । दिव्य महात्मा थे श्रीमद् आत्मारामजी महाराज, जो संवत् १९४२में बडौदा नगरमें पधारे थे । बडौदा नगरके जानीशेरी उपाश्रयमें दिव्य गुरुदेवके व्याख्यान सुनने के लिये जनताकी अपार भीड़ रहती थी । श्रीमद् आत्मारामजी प्रकांड विद्वान तथा समभाववाले महात्मा थे। उनके समभावने सभी जाति एवं धर्मके लोगोंको आकर्षित कर दिया था । हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी आदि उनकी सभाओंमें आते और हर्षित होकर जाते । विदेशी विद्वान् भी उनसे विशेष प्रभावित थे । प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान डा० ए० एफ० रुडाल्फ हार्नल पूज्य गुरुदेवकी विद्वत्ता एवं सहृदयतासे आकर्षित होकर उनके दर्शनार्थ अमृतसर आये थे । वे गुरुदेवके सदैव प्रशंसक बने रहे । डा० हार्नल महोदयने अपना उपासकदशांग ग्रंथ गुरुदेवको समर्पित किया । समर्पण में उन्होंने १. तृषित निरखि रविकर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी । - तुलसी : रामचरितमानस । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दिव्य जोल गुरुदेवकी प्रशंसामें संस्कृतमें कविता लिखी है, जिसका छायानुवाद यहां प्रस्तुत है: “आप रविप्रकाशके समान अज्ञानरूपी अन्धकार दूर करते हो, आप मानवमें सद्भावोंकी अमृतवर्षा करते हो। आप जैन दर्शनमें निदित १८ पापोंकी कालिमासे रहित हो। आप ज्योतिपुंज हो। आप साक्षात् आनन्दघन हो, आप दिव्य आत्मप्रकाश हो। आपने मेरे समस्त संशयोंको अपने ज्ञानके दिव्य प्रकाशसे मिटा दिया है, अतः अत्यन्त ही श्रद्धा तथा कृतज्ञभावसे मैं अपना यह ग्रंथपुष्प आपको अर्पित करता हूं।" बालक छगनलालकी मानसवीणाके तार इन व्याख्यानोंसे भक्तिरागसे गूंज उठे। संसारकी क्षणभंगुरता उसे व्यथित करने लगी। भूल्यो भमत कहाँ बे अजान । आलपंपाल सकल तज मूरख, कर अनुभवरसपान। आप कृतांग गहेगो इक दिन, हरि मग जेम अचान। होयगो तन-धनथी तुं न्यारो, जेम पाको तरुपान। -चिदानन्द छगन सोचने लगा कि संसारके सुख मायाजाल हैं। एक दिन कालका ग्रास बनना होगा। जिस प्रकार सिंह मृग पर झपटता है वैसे ही हे मूर्ख मनुष्य! तुझ पर भी काल झपटेगा। पीले पत्तेके समान तुझे टूटना है। तेरा शरीर और धनमाया रहनेवाले नहीं हैं। गुरुदेवके व्याख्यानोंकी कथायें, उदाहरण, महापुरुषोंके जीवन आदि उसके सामने इसी प्रकार दिनरात झूमते, जिस प्रकार कि चित्रपट पर चित्र। तब सहसा उसके स्मृतिपट पर नेमिकुमारका चित्र अंकित हो गया। गुरुदेवने उस कथाको कितनी सरस एवं भावपूर्ण शैलीमें कही थी! भावमग्न वह उस दृश्यमें खो गया : २. अठारह पापस्थानक-१) हिंसा, २) झूठ बोलना, ३) चोरी, ४) मैथुन (अब्रह्म), ५) धनदौलत पर मोह, ६) क्रोध, ७) गर्व, मद, ८) माया, ९) लोभ, १०) राग, ११) द्वेष, १२) क्लेश, १३) दोषारोपण (व्यर्थ ही किसी पर लांछन लगाना), १४) चुगली, १५) हर्ष और उद्वेग, १६) दूसरेको बुरा कहना और अपनी प्रशंसा करना, १७) प्रवंचना-ठगाई, १८) मिथ्या दृष्टिकोण। ये १८ पाप आत्माको मली करते हैं, परिणामस्वरूप जीवको ८४ लाख जीवयोनियोंके जन्ममरणके चक्करमें भटकना पड़ता Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन १५ 'द्वारिकानगरीकी साज-सज्जा कितनो नयनाभिराम है - जैसे कोई मुग्धा नायिका बनाव- सिंगार कर अपना रूप देख रही हो । नेमिकुमार रथमें बैठकर विवाहके लिये राजमहलके समीप पहुंच गये । सर्वत्र तोरण और पुष्पमालाएं मनको मोहित करने लगी । किन्तु यह क्या सुन रहा हूं ? यह हृदयको कंपाने वाली पशुओंकी कातर आवाज कहांसे आ रही है ? - कुमारने सारथिसे पूछा । सारथिने कहा : कुमार, ये विविध पशु एकत्रित किये गये हैं । आपके श्वसुर उग्रसेनने आपके विवाह के उपलक्ष्य में यादवोंको अनेक प्रकारके मांसके व्यंजन खिलानेके लिये इन पशुओंको हर्षपूर्वक एकत्रित किया है । ―― It 'नेमिकुमारने कहा : इस संसारको धिक्कार है । यह समस्त पापोंका सागर है । हे सारथि, जहां ये पशु हैं, वहां रथको ले जाओ। इनको फिरसे स्वच्छन्द घूमने दो । " 16 'उसी समय सारथिने रथ मोड़ दिया । नेमिकुमारने इन पशुओंको देखा। उनमें से किसीके गलेमें और किसीके पांवमें बन्धन थे। कितने ही पिंजरे में छटपटा रहे थे । नेमिकुमार विश्वप्रिय एवं सहृदय थे । उनको देखकर प्रत्येक पशु मानो अपनी अपनी भाषामें कहने लगा मुझे बचाओ, मुझे बचाओ ! " कुमारने सबको छोड़ दिया । पशुगण वनमें पुलकित होकर भाग गये । नेमिकुमार संसारजालको तोड़कर अमर सुखको प्राप्त करनेके लिये चले गये । " छगनके सामने दिनरात महापुरुषोंके दिव्य चरित्र आते और वह गहरी चिन्तामें डूब जाता । वह सोचता : मैं कब इस मायावी संसारके जालसे छुटकारा पाऊंगा | उसको जंबुकुमारका दृष्टान्त स्मरण हो आया । जंबुकुमार ! तुमको धन्य है । गणधर श्री सुधर्मास्वामीकी अमर वाणीने तुम्हारे मानसatest प्रकाशित किया । अहा, तुमने अमर सुखकी प्राप्तिके लिये भरयौवनमें क्षणिक संसारसुखको त्याग दिया । जंबुकुमारकी कथा २५०० वर्षों पहिलेकी है, परन्तु छगनको यह लगा कि यह घटना आज ही घटित हुई है । उसका रोम रोम पुलकित हो उठा। इस प्रकार दिव्य गुरुदेव आत्मारामजीकी वाणीने छगनके अन्तरलोकको आलोकित कर दिया । उसका मन प्रकाशसे जगमगा उठा । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जोक्ल एक दिन जब व्याख्यान समाप्त हुआ तब बालक छगन महात्माजीके पास स्थिर भावसे बैठ गया। उसे न खानेकी सुध रही, न पीनेकी। उसके मनका पंछी आनन्दगगनमें ऊंची उडान भर रहा था। गुरुदेवने उसको पूछा : “ वत्स ! इस तरह क्यों बैठा है ? उठ!" बालकने महात्माजीके दोनों पांव पकड़ लिये। उसके नयनोंसे अश्रुगंगा बहने लगी। उस पावन जलधारासे उसने महात्माजीके चरण धोये। गुरुदेवने स्नेहयुक्त स्वरमें पूछा : “भद्र ! क्या दुःख है ? धन चाहता बालकने कहा: "हां" महात्माजी : “कितना?" बालक : “गिनती मैं नहीं बतला सकता।" महात्माजी : “अच्छा, किसीको आने दो।" बालक : “नहीं, मैं आपसे ही लेना चाहता हूं।" महात्माजीने सोचा कि यह कैसी बालहठ है ! फिर समझाते हुए कहा : “ वत्स, हम पैसा-टका नहीं रखते।" . बालकने स्थिर भावसे उत्तर दिया : “ मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो नश्वर है।" गुरुदेवको विस्मय हुआ। उन्होंने बालकसे पूछा : “तब कौनसा धन चाहता है ?" बालकने शान्त मावसे उत्तर दिया : “वह धन, जिससे अनन्त सुख मिले।" बालकके उज्ज्वल भाल पर प्रकाशकी रेखायें चमक रही थीं। नेत्रोंमें दिव्य ज्योति थी। महात्माजी कुशल जौहरी थे। अमूल्य हीरेको परख गये। उन्होंने कहा : “इस महान आत्मा द्वारा समाजका कल्याण होगा। इसका जीवनदीप अन्धकारको दूर करेगा। व्यक्ति और समाज इससे प्रकाशित होंगे।" गुरुदेवकी वाणीने बालक छगनके मनमें सहस्र दीप प्रज्वलित कर दिये। ___ छगनकी दशा रस्सीसे बंधे हाथीके समान थी। वह बन्धन तोड़कर भागना चाहता था, परन्तु अनेक बाधायें थीं उसके मार्गमें। उसके बड़े भाई खीमचन्द यह चाहते थे कि वह व्यापारघंधेमें पड़कर घरकी प्रतिष्ठामें चार Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ दिव्य जीवन चांद लगा दे। उसे दुकानके कामकाजमें लगाया, परन्तु सब बेकार था। छगन संसारनाटकको अच्छी तरह समझ गया था। उसे यह पता था कि इस नाटकका अंतिम दृश्य दुःखान्त है। खीमचन्दभाईने अपने प्यारे अनुज पर कड़ी निगरानी रखी, परन्तु एक दिन छगनके स्कूलकी छुट्टी थी। वह दुकानकी कहकर जंगलके मार्गसे नगरके निकटके स्टेशन पर पहुंचनेके लिए चुपकेसे चल पड़ा। ग्रीष्म ऋतु थी। धरती तप्त तवेकी तरह तपी हुई थी। प्यासके मारे छगनजीका कंठ सूखा जा रहा था, परन्तु कोई चिन्ता नहीं। चातक जैसे स्वाति नक्षत्रकी मेघबूंदोंके लिये तरसता है, छगन अपने दिव्य गुरुदेव आत्मारामजीके दर्शनके लिये व्याकुल था। वह संध्या समय अहमदाबाद पहुंचा। संध्याका चित्ताकर्षक समय था। अहमदाबाद नगरीकी चहलपहल मनको लुभानेवाली थी। परन्तु छगनका मनमधुकर गुरुदेवके चरणकमलका मकरंदपान करनेके लिये आतुर था। मेरे मनकुं जप न परत है बिनु तेरे मुख दीठडे, प्रेमपीयाला पीवत पीवत, लालन सब दिन नीठडे । - श्री आनन्दघनजी महाराजके इस गीतमें छगनके मनका चित्र उतर आया है। उसने नगरीकी चमकदमक देखी तक नहीं। उसे दीख रहे थे गुरुदेवके चरणकमल । गुरुदेवने दूरसे अपने लाडलेको देखकर कहा : "लो भाई ! छगन आ गया। वैराग्यरंगमें रंग गया है।" छगन गुरुके दर्शनसे इतना प्रसन्न हुआ, मानो अंधेको आंखें मिल गई हो। हर्ष उसके हृदयमें नहीं समा रहा था। किन्तु दूसरे दिन छगन क्या देखता है कि बड़े भाई खीमचन्द उसके सामने हैं। छगनके मुख पर उदासी छा गई। खीमचन्दभाईने चतुराईसे काम लिया। वे गुरुदेवसे बोले : “छगन दीक्षा ले यह प्रसन्नताकी बात है, परन्तु इसकी अवस्था बहुत छोटी है, अतः जब योग्य हो जाय तभी दीक्षा दें।" खीमचन्दभाईने भांप लिया कि छगनको मोड़ना अब कठिन है। उसको तीव्र इच्छाको देखते हुए खीमचन्दभाईने उसे उस समय गुरुदेवके पास ही रखा। बादमें वह बडौदा भी गया, परन्तु सब फीका फीका लग रहा था उसे । खीमचन्दभाई, हीराचन्दभाई तथा बहन श्रीमती जमुनाबाई एवं परिवारके अन्य सदस्योंन छगनको बहुतः समझाया-बुझाया, परन्तु 'सूरदास, यह काली कामरी, चढ़त न दूजो रंग'वाली बात छगन पर खरी उतरती है। दि.-२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन छगनकी दशा जहाजके पंछीके समान थी। जहाजका पंछी समुद्रके ऊपर इधर-उधर उड़कर फिर जहाज पर ही आता है, अन्यत्र कहीं उसका बसेरा नहीं। छगनका मन संसारसे ऊब गया था। वह अपने जहाज पर आना चाहता था। उसका जहाज था दिव्य गुरुदेवके चरणकमल । उसका मन गुरुचरणोंमें ही अटका हुआ था। संवत् १९४३में गुरुदेवका चौमासा पालीताणामें हुआ। छगनलाल भी अपने भाईकी आज्ञा लेकर गुरुदेवके दर्शनार्थ एवं यात्रार्थ पालीताणा पहुंचा। छगनलाल भी अपने भाईकी आज्ञा लेकर गुरुदेवके दर्शनार्थ एवं यात्रार्थ पालीताणा पहुंचा। पूज्य गुरुदेवकी शरण उसे अत्यन्त ही शीतल लगी। भक्तिभावकी बेलडी उसके तनमनमें पसर गई। चातुर्मासके पश्चात् गुरुदेवने विहार किया और राधनपुर पधारे। छगन भी उनके साथ था। वहांसे छगनजीने अपने बन्धु खीमचन्दभाईको रजिस्टरी पत्र भेजा, जिसमें लिखा था : “ मेरी दीक्षा अमुक दिन होनेवाली है। आप दीक्षा महोत्सव पर अवश्य पधारें।" पत्र पढ़कर खीमचन्दभाई व्याकुल हो गये, शीघ्र ही राधनपुर पहुंचे। वहां उन्हें पता लगा कि कोई दीक्षासमारोह नहीं है। छगनने उन्हें राधनपुर बुलानेके लिये ही यह पत्र भेजा है। जब सारे प्रयत्न निष्फल हुए तो खीमचन्दमाईने छगनको प्रेमपूर्वक गुरुचरणोंमें सौंपनेका पक्का विचार कर लिया। वे गुरुदेवके पास गये और विनय वाणीमें बोले : “मैं अपना प्यारा भाई आपको शरणमें छोड़ता हूं। यदि उससे कोई भूल हो जाय' तो क्षमा करना भगवंत ।" इतना कहते ही उसके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु टपकने लगे। उन अनमोल मोतियोंको धरती अपने अंचलमें झेल लेने लगी। बन्धुविछोहका यह कारुणिक दृश्य बड़ा मार्मिक था, किन्तु समय देखकर खोमचन्दभाईने साहस बटोरा। वे गद्गद् स्वरमें बोले : "मेरा अनुज कितना भाग्यशाली है! यह पावन वेला धन्य है।" ___ करुणामूर्ति गुरुदेवने हर्षित होकर कहा: “खीमचन्दभाई ! तुमने बहादुरोका काम किया है, तुम भाग्यवान हो, तुम्हारा छगन समाजका उजाला होगा।" ___खीमचन्दभाईने छगनको गले लगाया और फिर उससे अश्रुभरे नेत्रोंसे विदाई लो। सभी दर्शकोंकी आंखोंमें आंसू छलछला रहे थे। . वैशाख सुदी १३, संवत् १९४४ (गुजराती १९४३) का शुभ दिन आया। आचार्य श्रीमद् आत्मारामजीने राधनपुरमें छगनलालको दाक्षा दी। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन उस समय उसकी आयु सत्रह वर्षकी थी। छगनलालका नाम वल्लभविजय रखा। मुनि वल्लभविजय श्री हर्षविजयजीके शिष्यरत्न हुए। दिव्य गुरुदेवकी पावन एवं शीतल शरण पाकर मुनि वल्लभविजयको ऐसी अनुभूति हुई जैसी कि शिशुको अपनी खोई हुई माताकी शान्तिदायिनी गोदमें बैठनेसे होती है। जैसे आम्रकुंजमें कोयल मधुर गीत गाती है वैसी ही आनन्दकी रागिनी वल्लभके मानस कुंजमें गूंज उठी। दिव्य गुरुके चरणकमल शीतल चंद्रिकाके समान उज्ज्वल थे। वल्लभके हृदयसरोवरमें चरणचन्द्रकी चंचल किरणें नाचने लगी। जैसे धूपसे थका हुआ यात्री शीतल मन्द एवं सुगंधित पवनके कोमल स्पर्शसे प्रफुल्लित हो जाता है, वैसी ही आनन्दानुभूति संसार त्यागने पर मुक्तिपथके पथिक वल्लभको हुई। : संसारके मोहबन्धन तोडकर वल्लभ अमर सुख रूपी चिंतामणि रत्नको प्राप्त करनेकी भूमिका बनाने लगे। अमर सुखकी अमृतधारामें वे अपनेको तथा समस्त जगतको रसमग्न करना चाहते थे। दिव्य पथिक कृष्णपक्षकी रात्रि भयावनी लगती है, किन्तु प्रभातवेलामें जब अरुणोदय होता है तब दृश्य कितना सुहावना लगता है ! कितना अन्तर है अंधकार और प्रकाशमें ! जब मनुष्य अंधकारमें रहता है तब वह पथभ्रष्ट यात्रीकी तरह अंधकारमें ही चलता है। किन्तु जब उसके मार्गमें कोई दीपकवाला मिल जाता है तब उसको स्पष्ट दीखने लगता है कि वह अपने पथसे भटक गया है। फिर उस प्रकाशके सहारे वह 'प्रकाशपथ पर आ जाता है। और जब एक बार पथिक प्रकाशमें आता है तब वह अंधकारमें नहीं जाना चाहता। प्रकाशपथ ही सत्पथ है। ___ मुनि वल्लभविजयजीको प्रकाश मिला आचार्य श्रीमद् आत्मारामजी महाराजसे। उनके गुरु मुनि श्री हर्षविजयजी विद्वान्, सहृदय एवं कृपालु सन्त महात्मा थे। उनकी छत्रछायामें वल्लभका जीवन-बिरवा विकसने लगा। मुनि वल्लभका पथ आलोकमय था। पथिककी तरह अब उन्हें आलोकपथ पर चलना था और उन्हें पहुंचना था उस शाश्वत सुखधाम पर जहां न Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० दिव्य जीवन रोग है, न शोक, न मोह है न ममता, केवल अखंड आनन्द है । उनका मनहंस उस आनन्द स्वरूप मानसरोवरमें क्रीडा करनेके लिये आतुर था। सर मान हंस चाहे, चातक मेघ पानी । जगनाथ ऐसे हरदम, तुमरी सरणमें आऊं ॥ मोहनमूर्ति तारी, मुझ मनमें आ खडी हो । दृष्टि वहां पडी हो, नहीं बौर जन्म पाउं ॥ आतम लक्ष्मी स्वामी, आतमलक्ष्मी दीजै । 'वल्लभ' हर्ष होवे, नहीं और तुमसे चाउं ॥ ' 6 हंसको मानसरोवरकी चाहना थी, चातकको आनन्दघनके जलकी । वल्लभके जीवनका लक्ष्य था : स्वयं प्रकाशवान बनकर समाजको प्रकाशित करना । उनके स्मृतिपट पर कृपालु माता इच्छाबाई के पावन शब्द अंकित थे : अमर सुखधनकी खोज करना, छगन ! 44 "1 मुनि वल्लभका मार्ग साफ-सुथरा था, लक्ष्य स्पष्ट था । आत्मोद्धार और समाजोत्थान उनके जीवनके लक्ष्य बन गये । मुनि वल्लभविजयने सर्वप्रथम विद्यादेवीकी शरण ली । कृपालु विद्यादेवी तो कांचको भी हीरा बना देती है । कविकुलभूषण कालिदास कितने मूढ थे, परन्तु विद्याकी साधनासे कविशिरोमणि बन गये । आचार्य हेमचन्द्रने विद्याकी साधना से जो ज्ञानामृत प्राप्त किया, वह कितना मधुर है ! उस अमृतको प्राप्त कर आचार्य हेमचन्द्रने न केवल अपने को ही तृप्त किया वरन् जगत्को भी सुखमय बनानेकी पावन चेष्टा की । मुनि वल्लभविजयजीने विद्याध्ययनमें पूरा मन लगाया। प्रारम्भमें आपने अनेक पुस्तकें पढ़ी। उनकी बुद्धि कुशाग्र थी । स्कूलमें भी वे सदा आगे रहते थे और उन्हें कई पुरस्कार भी मिले थे । आपने चंद्रिका, अमरकोष, अभिधानचिंतामणि, दशवैकालिक, आचारप्रदीप, न्यायशास्त्रकी न्यायबोधिनी आदि ग्रंथोंका अध्ययन किया; तत्पश्चात् आपने कल्पसूत्र, श्री सूत्रकृतांग आदि ग्रंथोंका सूक्ष्म अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त आपने गीता, रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद् आदिका परिचय प्राप्त किया । श्रीमद् आत्मारामजी महाराज के सान्निध्य में आपने जैन दर्शनका ज्ञान प्राप्त किया । पूज्य गुरुदेव आत्मारामजी महाराज उत्कट विद्वान थे । उन्होंने सरल हिंदीमें जैन दर्शन पर अनेक पुस्तकें लिखीं हैं । उनमेंसे उल्लेखनीय हैं : जैन तत्त्वादर्श, अज्ञान१. आचार्य विजयवल्लभसूरिजी रचित स्तवन से उद्धृत । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन २१ तिमिरभास्कर, तत्त्वनिर्णयप्रसाद तथा चिकागो प्रश्नोत्तर । भारतीय एवं विदेशी faraiने इन पुस्तकोंकी भूरि भूरि प्रशंसा की है । ऐसे विद्वान गुरुदेवके चरणों में रहने से मुनि वल्लभकी ज्ञानपिपासा बढ़ना स्वाभाविक था । फिर उनका दृढ़ विश्वास था कि : 'विद्ययाऽमृतमश्नुते । ' - विद्यासे ही अमरता प्राप्त होती है । (2 पूज्य वल्लभ ने अपने एक व्याख्यानमें कहा था : 'ज्ञान वाहन है । वह सत्पथ पर ले जाता है । परन्तु यदि उस वाहन पर मनुष्य सवार ही न हो तो वह मंजिल तक कैसे पहुँचाएगा? उस वाहन पर सवार होनेके लिये मनुष्य में लक्ष्यके प्रति पूर्ण विश्वास होना चाहिए । लक्ष्य है अमरताप्राप्ति । 11 मुनि वल्लभविजयजी के महान् जीवनकी अभी निर्माणावस्था थी । गुरुदेव श्री आत्मारामजी महाराजके ज्ञानमय एवं चारित्रमय वातावरणका उन पर अमिट प्रभाव पड़ा । पूज्य गुरुदेवकी ख्याति न केवल देशमें ही थी, अपितु विदेशमें भी थी । सन १८९३ ई० में चिकागो में सर्व धर्म परिषदका आयोजन हुआ था । गुरुदेव तो धर्मनिषेध के कारण समुद्रयात्रा नहीं कर सकते थे, अतः उन्होंने श्री वीरचन्द राघवजी गांधीको अपना प्रतिनिधि नाकर भेजा था। गुरुदेवने श्री गांधीको एक निबंध चिकागो सर्व धर्म परिषद में पढ़ने के लिए दिया था, जिसमें जैन दर्शनके संबंध में सुन्दर विवेचन था । इस निबंधकी रचनायें मुनि वल्लभविजयजीका सहयोग था । इस प्रकार गुरुदेव के विविध कार्योंमें मुनि वल्लभ हाथ बंटाते थे । वे गुरुदेवके सचिव ही बन गये थे । इन सबका परिणाम बहुत अच्छा हुआ । उनमें गुरुदेवकी कार्यदक्षता, सहिष्णुता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं मधुर मानवताके गुण विकसित हुए । इन्हीं गुणों के कारण मुनि वल्लभ जनवल्लभ बन गये । मुनि वल्लभविजयजीके जीवन-भवनके दो सुन्दर स्तम्भ हैं : सत्संगति और विद्याध्ययन | ज्ञानी गुरुदेव एवं अन्य ज्ञानियोंकी सत्संगति से उनमें विद्या प्राप्त करनेकी तीव्र उत्कंठा बिकच गई। पूज्य वल्लभने शुद्धाचरण द्वारा मनको मंदिरके समान बनाया, और विद्याका पावन दीपक उसमें जलाया । सत्संगति और विद्याका प्रभाव कितना उत्तम होता है ! इनसे किसी भी मनुष्यका जीवन सुन्दर बन सकता है । मुनि वल्लभविजयजीकी निर्माणावस्था में ही, संवत् १९४७की चैत्र सुदी १० ( ता० २१ - ३ - १८९० ई०) को, उनके गुरु मुनि श्री हर्षविजयजीका Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ दिव्य जीवन दिल्लीमें स्वर्गवास हो गया। उस समय उन्हें ऐसा लगा कि उनकी शीतल छाया अदृश्य हो गई हो। मुनि वल्लभ कृपालु गुरुदेव श्रीमद् आत्मारामजीके मार्गदर्शन में निष्कंटक आगे बढ़ रहे थे। खैवनहार उनकी जीवननैयाको बड़ी कुशलतासे देख रहा था। चारों ओर कोमल एवं शीतल चांदनी फैली हुई थी। आकाशमें चन्द्र अमृत वर्णन कर रहा था। सागरकी लहरों पर मंथर गतिसे जीवननौका जा रही थी, कि संवत १९५३ (गुजराती १९५२) जेठ सुदी सप्तमी, मंगलवारकी रातको गुजरांवालामें भयंकर अंधकार छा गया। अर्ध रात्रिके समय गुरु देव आत्मारामजी अपने शयनसे उठे और पद्मासनमें बैठ गये। उन्होंने अपने शिष्योंको अपने पास बुलाया और इन शब्दोंके साथ अंतिम विदा ली : “लो भाई, अब हम चलते हैं, अर्हन् ।" इतना कहते ही गुरुदेवका प्राणहंस उड गया। उस समय ऐसा लगा जैसे जगत्का चन्द्र ही अस्त हो गया हो। वल्लभके सामने अंधकार ही अंधकार था। परन्तु वल्लभके मानसलोकमें वह चन्द्र शाश्वत प्रकाश फैला रहा था। वह प्रकाश कभी नहीं मिटा। वह प्रकाश अमर था, निर्मल था, शीतल था। ___ मुनि वल्लभने अपने ज्ञानसे अच्छी तरह समझ लिया था कि मनुष्यकी सबसे बड़ी दुर्बलता है अज्ञान । इसी अज्ञानके कारण वह अहंकारसे ग्रसित रहता है, अहंकारसे वह अपने भीतर ऐसा अंधकार फैला देता है कि फिर उसे कुछ नहीं दीखता। अन्तर्प्रकाश अंधकारकी राखमें छिप जाता है। अन्तर्प्रकाशसे जीवन चमकता है। जैसे मोतीमें चमक होती है वैसा ही मनुष्यमें मानवताकी चमक होती है। कोमलता, दया, सदाशयता, त्याग, समभाव मानवताकी चमकसे चमकते है। यह चमक है अन्तप्रकाश । इसीको कहते हैं आत्मप्रकाश। अज्ञान-अंधकारमें भटकता हुआ मनुष्य धर्मके नाम पर लडता है, जातिभेद पर रक्तपात करता है, काले-गोरेके रंग-भेदमें उलझता है। पूज्य गुरुदेव आत्मारामजी महाराजने अपने एक लेख 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर' में लिखा है : “यह महापाप है कि एक व्यक्ति अपनेको दूसरेसे ऊंचा समझे। ऊंच और नीच जातिवाली भावना अनैतिक है, और विकृत बुद्धिकी परिचायक है। सभी मनुष्य समान है।" मुनि वल्लभविजयजीके हृदयोद्यानमें ये मानवीय भाव पुष्पोंके समान प्रस्फुटित हो गये । इन पुष्पोंकी सुगन्ध समाजमें फैली। पूज्य वल्लभने कहा था : “समाजमें सुगन्ध बिखरनेके पिहले अपने में सुगन्ध भरो।" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन फूल जहां खिलते हैं, सुगन्ध स्वतः बिखरती है। पूज्य वल्लभके सत्कर्मोंकी, सदजीवनकी, सद्भावोंकी तथा सत्प्रयासोंकी सुगन्ध बिखर गई । जनमानस सुवासित हुआ। जनताने अपने वल्लभको अलंकरणोंसे विभूषित करना चाहा। यह तो जनताका अपने गुरुदेवके प्रति श्रद्धाका उपहार था। संवत् १९८१में लाहौर चौमासेमें पंजाब श्रीसंघके बारंबार विनंती करने पर आपने आचार्यपद स्वीकार किया । पहिले भी श्रीसंघने आपको कई बार आचार्यपद देनेका प्रस्ताव रखा था। आपने कई बार पदों, उपाधियों और अलंकरणोंको विनम्रतासे टाल दिया था। इसके बाद वैशाख शुक्ला तृतीया, संवत १९९० गुरुवारको श्री बामणवाडाजी तीर्थस्थल पर पोरवाल सम्मेलनमें आपको 'कलिकालकल्पतरु' तथा 'अज्ञानतिमिरतरणि की उपाधियोंसे अलंकृत किया। आचार्य वल्लभको इन अलंकरणोंमें रुचि नहीं थी। आपको जनताने 'पंजाबकेसरी' तथा 'भारतदिवाकर'की पदवियोंसे भी विभूषित किया। यह जनताका प्यार था, उनके प्रति श्रद्धा थी, परन्तु गुरुदेव तो जनवल्लभ ही रहना चाहते थे, जनमानसमें प्रेमप्रकाशकी तरह बसना चाहते थे। वे व्यक्ति और समाजकी उन्नतिके इच्छुक थे। वे कहते थे: "प्रत्येक प्राणीमें ईश्वर विद्यमान है। शुद्धाचरणसे व्यक्ति अपने मनको प्रभुका पावन मंदिर बना ले।" गुरुदेवने सोचा : व्यक्तियोंसे ही समाजका निर्माण होता है। यदि व्यक्ति' सच्चरित्र, निष्ठावान, मानवतावादी तथा देशभक्त होंगे तो राष्ट्र विकासोन्मुख होगा। गुरुदेवने व्यक्तिके शुद्ध खानपान एवं आचरणशुद्धि पर विशेष महत्त्व दिया। उन्होंने मद्यनिषेध अभियानमें राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधीको हार्दिक सहयोग प्रदान किया। गुरुदेवने मद्यनिषेध पर बंबई, पंजाब, गुजरात एवं राजस्थानमें अनेक भाषण दिये। उनके भाषण सारगर्मित होते थे। संवत् २००९ चैत्र वदी १४ को बम्बईकी विशाल सभामें गुरुदेवने मदिरासेवनके दुष्परिणामों पर टिप्पणी करते हुए कहा था : “मदिरापानसे मनुष्य आत्महीन, निस्तेज एवं निराश बन जाता है। वह स्वयंका, परिवारका, राष्ट्रका तथा समाजका बोझ बन जाता है। वह विनाशके गर्त में अपने आपको पटक देता है।" __ पसरूर (पंजाब) की एक समामें आचार्यश्रीने कहा था : “शराबी आत्मप्रकाश खो देता है। उसके शरीरका तेज व स्वास्थ्य मंद पड़ जाता है और अन्त वह मृत्युकी गोदमें लेट जाता है।" Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन इस प्रकार आचार्यदेवने मनुष्यको दुर्व्यसनोंसे बचनेके लिये उपदेश दिये । उनका दृष्टिकोण था कि व्यक्ति जब ऊंचा उठेगा तब समाज और राष्ट्र ऊंचे उठ सकेंगे । राष्ट्रका गौरव गगनचुंबी अट्टालिकाओं एवं विशाल मवनोंसे कदापि नहीं बढ़ता, वह बढता है सुशील नागरिकोंसे । गुरुदेवने समाजोद्यानको फलतेफूलते देखना चाहा । उन्होंने एक प्रवचनमें कहा था : 'समाज उद्यान है । नर-नारी पुष्प-पौधे हैं । इस समाजोद्यानके बागवान हैं साधुसंत तथा समाजके अग्रणी । यदि इसे सुजलसे नहीं सींचा गया और आवश्यकतानुसार पेड-पौधोंकी कांटछांट और देखभाल नहीं की गई तो उद्यान कुरूप होकर उजड जाएगा।” गुरुदेव समाज - बगियाके माली थे । 66 सहृदय २४ संवत १९८३, जेठ शुक्ला अष्टमीको वे बिनौली (उत्तर प्रदेश ) पधारे। वहाँ उन्हें दुःखी हरिजन बन्धु मिले। हरिजनोंने गुरुदेवसे कहा : 'हमें पानीका भारी कष्ट है । अछूत होनेके कारण हमें कोई कुओं पर पानी भरने नहीं देते। हम प्यासे मर रहे ह । " 16 "" गुरुदेवको इससे अत्यन्त ही दुःख हुआ । उन्होंने हरिजन बन्धुओंको आशीर्वाद दिया और कहा : तुम्हारा कष्ट मेरा कष्ट है । मैं तुम्हारा जलसंकट दूर करनेका प्रयास करूँगा । " मध्यान्हमें व्याख्यानके अन्तर्गत गरुदेवने हरिजनोंके कष्टका उल्लेख "L 'मानवता ही धर्म है । प्यासे मर रहे हैं । कहां किया और अत्यन्त ही दर्दभरी वाणीमें कहा : कितनी शर्म की बात है कि यहांके हरिजन बन्धु गया धर्म और कहां गया प्रेम ? दुःखी जनोंकी पीडा समझो । यही धर्मका सार है । गुरुदेवकी अपीलका असर गहरा था । शीघ्र ही धन इकट्ठा हो गया और हरिजनोंके लिए कुंआं बन गया । इस प्रकारकी थी गुरुदेवकी समाजसेवा | ६ करुणाका स्वर संवत् १९९३ में आचार्यदेवका चार्तुमास बड़ौदा नगरमें हुआ। वहांकी जनताने उनका भाव भीना स्वागत किया । न्यायमंदिरमें आचार्यश्री के सान्निध्यमें जगद्गुरु हीरविजयसूरिजी महाराजकी जयन्ती श्री मुखर्जीकी अध्यक्षता में धूमधाम से मनाई गई । जयन्ती समारोहम सभी जाति व धर्मके लोग उप Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ दिव्य जीवन स्थित थे। हजारोंकी संख्यामें जनता सम्मिलित हुई। आचार्यदेवने जगद्गुरुके जीवन एवं कृतित्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने अपने प्रवचनमें कहा : "ऐसी कौनसी शक्ति थी जगद्गुरु हीरविजयजीमें, जिससे मुगल सम्राट महान अकबरको अहिंसा धर्मकी ओर आकर्षित हुआ।" आचार्यदेवने जगद्गुरुकी दिव्य शक्तिका उल्लेख करते हुए कहा : "जगद्गुरुने संसारको अहिंसा और प्रेमका सन्देश दिया। हिंसासे संसारमें संघर्ष बढ़ते हैं, अशान्ति फैलती है और जीवन नष्ट हो जाता है। सम्राट अकबरने जगद्गुरुके दिव्य गुणोंसे प्रभावित होकर उन्हें गुजरातके वाइसराय द्वारा आदरपूर्वक आगरा पधारनेके लिये आमंत्रण भेजा था।" ____ आगे चलकर आचार्यदेवने कहा कि “हम सबको जगद्गुरुके पवित्र आदर्शोको जीवनमें उतारना चाहिये। जगद्गुरुने विश्वकल्याण एवं प्राणिमैत्रीका दिव्य संदेश जगत्को दिया। करुणा और प्रेमसे विश्व कल्पवृक्ष बन सकता है। महान् अकबरने पूज्य हीरविजयसूरिजीको जगद्गुरुकी उपाधिसे विभूषित किया, जिसे उन्होंने सम्राटके प्रेमभावके कारण ही स्वीकार किया।" अन्तमें आचार्य वल्लभने कहा कि "समाजोत्थानके लिए जगद्गुरुके समान कर्तव्यभावनाकी आवश्यकता है। समाजका सरस वातावरण व्यक्तिका नवोदय कर सकता है। समाजको सजाने, संवारने एवं सुन्दर बनानेके लिये जगद्गुरुने कितना त्याग किया! अपनी दिव्य चारित्रिक शक्तिसे उन्होंने सम्राट अकबरके मानसको बदल दिया और मानवमें छिपे ज्योतिकरणको प्रज्वलित कर दिया, जो अज्ञानकी राखकी ढेरीमें छिपा हुआ था। न केवल जगद्गुरुने समाजोत्थान एवं व्यक्तिविकासके लिये अपनेको समर्पित किया, अपितु अपने साथियोंको भी समाज और व्यक्तिको ऊंचा उठानेके लिये प्रेरित किया।" ____ जगद्गुरुने जगत्कल्याणके लिए जो कार्य किये वे आज भी प्रेरणा दे रहे हैं। आचार्यदेव विजयवल्लभसूरिकी जीवनयात्रा भी जनमानसमें मनुष्यता जगाने में सफल हुई। जहाँ भी उनके चरणरज पडे उस स्थानमें जागृति आ गई। आचार्यदेव संवत १९९८ वैशाख वदि ९ को जम्मू शहरमें पधारे। उस समय आपके स्वागतमें जो जुलूस निकला वह अत्यन्त ही भव्य था। जम्मू शहरके मार्ग सुन्दर रंग-बिरंगी झंडियोंसे सजाये गये थे। कितने ही ग्रामोंमें बैंड बाजे सहित भजन मंडलियां और सभी तरहके लोग इस संतके दर्शनार्थ आये थे। आचार्यदेवके प्रति जनताकी अपार श्रद्धा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ दिव्य जीवन देखकर रामचरितमानस ( अयोध्याकाण्ड ) का वह पुनीत प्रसंग स्मरण हो जाता है, जबकि रामदर्शनके लिये ग्रामोंके नर-नारी, बाल-वृद्ध सभी मार्ग में आ जाते हैं, जनता उनके पीछे चलती है : गांव गांव अस होई अनंदू । देखि भानुकुल कैरव चन्दू | धन्य सो देसु सेलु बन गाऊं । जहं जहं जाहि धन्य सोई ठाऊं | - सूर्यकुलरूपी कुमुदनीको प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा स्वरूप रामके दर्शन कर गांव गांव अत्यधिक आनन्द हो रहा है । वह देश, पर्वत, वन और गांव धन्य है और वही स्थान धन्य है जहां राम जाते हैं । आचार्यदेवका व्यक्तित्व अत्यधिक गरिमावान था । वे जहां जाते थे उनके पास लोग खिंचे हुए आते थे और उनकी वाणी सुनकर सद्जीवनकी प्रेरणा पाते थे । जनताकी पीडाको वे समझते थे । उनमें सरलता थी और एक ऐसा आकर्षण था, जिसे चुम्बक कह सकते हैं । वह चुम्बकीय आकर्षण कितने ही दिव्य गुणोंसे बना था । सरलता, विनम्रता, सौम्यता एवं दिव्यताने उनके जीवनको चुम्बकवत् बना लिया था । उसे देखकर मनुष्यमें सद्भाव जागृत हो जाते थे और उनकी आत्मज्योति धीरे धीरे बढ़ने लगती थी । मेरे पास ऐसी कोई प्रतिभा नहीं, न शब्दभंडार है, न बुद्धिकी अंतर्शक्ति है कि वल्लभके जीवनको गरिमाका वर्णन कर सकूं । ७ अमृतधारा जम्मू शहरसे वैशाख सुदि ६को आचार्यदेव विहार कर सत्तवारी, विसना, हरियाला, जफरवाला आदि शहर - गांवोंमें अहिंसा, प्रेम, करुणा और मैत्रीका संदेश देते हुए संखतरा पधारे । संखतरामें आचार्यदेवकी दिव्य वाणीका अमृतपान करनेके लिये हिन्दू, मुस्लिम, सिख आदि सभी जातियोंके लोग आते थे । कसाइयोंने भी अपनी दुकानें बन्द कर दी । आचार्यदेवने अहिंसा और प्रेम पर भाषण दिये । उनके अहिंसा के उपदेशसे संखतरामें श्रीयुत् मुहम्मद अनवर, मुहम्मद अकस्बाल, मुहम्मद रफी आदिने मांसभक्षणका परित्याग कर दिया। उन्होंने अत्यन्त ही प्रसन्न होकर कहा : आज हमारे भाग्य खुल गये हैं । हमने मनुष्यजीवनका सार समझ लिया है । गुरुदेव सचमुच फरिश्ता बनकर आये हैं । " "" Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन संखतराकी एक विशेष घटनाका यहां उल्लेख करता हूं। जहां जहां आचार्यदेव जाते थे, वहां वहां ऐसा वातावरण हो जाता था कि पारस्परिक वैमनस्य समाप्त हो जाता था। परिवारका कलह भी मिट जाता था। संखतराके लाला अमीचन्द धर्मात्मा व्यक्ति थे। वे गुरुदेवके भक्त थे। वे परोपकारी जीव थे। उनकी मृत्युके बाद उनके दो पुत्र देवराज और ज्ञानचन्द आपसमें झगड़ने लगे। आचार्यदेवको किसीने विनती की कि यदि दोनों भाई सुखशान्तिसे रहेंगे तो परिवारमें शान्ति रहेगी और वे सामाजिक कार्योंमें भी रस लेंगे। ___आचार्यदेवने दोनों भाइयोंको दुपहरको अपने पास बुलाया। उनका व्यक्तिगत कोमल स्पर्श, पत्थरहृदयको भी पिघला सकने में सक्षम था। दोनों भाइयोंने गुरुदेवके चरणोंमें वन्दना की और विनम्रतासे पूछा : "गुरुदेव, आपने हमें क्यों याद किया है ?" गुरुदेव : “तुमसे एक जरूरी काम कराना है, इसीलिये तुम्हें दुपहरको तकलीफ दी है।" वे बोले : “ऐसा न कहिये । हम तो आपके सेवक हैं। हमारा अहोभाग्य है कि आप हमारे गांवमें पधारे हैं और हमें खास तौरसे याद कर भाग्यशाली बनाया है।" गुरुदेवने कहा : “यदि बुरा न मानें तो एक बात कहूं।" वे बोले : “फरमाइये।" गुरुदेव बोले : “तुम स्व० लाला अमीचन्दके पुत्र हो। वे जब जीवित थे, तब उन्होंने अनेक बिछुड़े भाइयोंको मिलाया था, मगर आज स्वर्गमें बैठे हुए उनको यह देखकर कितना दुःख होता होगा कि उनके दो पुत्र एकदूसरेसे बिछुड़ रहे हैं। मेरी यही इच्छा है कि आप एकदूसरेके साथ मिलकर रहेंगे।" . दोनों स्तब्ध हो गये । कुछ देरके बाद दोनोंने एकदूसरेकी तरफ देखा। दोनोंकी आंखोंसे अश्रुमोती टपकने लगे। दोनोंने एकसाथ गुरुदेव कहकर उनके दिव्य चरण पकड़ लिये। उन्होंने अश्रुजलसे गुरुदेवके चरणोंका अभिषेक किया। आचार्य वल्लभका शील जनमनके अन्तरतमको छू लेता था। कोमलता, विनम्रता, सदाशयता, समभावना, तपनिष्ठता एवं ज्ञानविमा रूपी छह उत्तम Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ दिव्य जीवन गुणोंसे उनका शीलत्व निखर गया था। वे छह गुण मानवताके आभूषण है। गुरुदेवमें इन गुणोंको देखकर मुझे बहुमूल्य प्लैटिनम धातुसमूहके छह धातुओंका स्मरण हो आता है। प्राचीन शास्त्रोंमें जिस श्वेत स्वर्णका उल्लेख हुआ है वह प्लैटिनम ही है। गुरुदेवके व्यक्तित्वकी श्वेत स्वर्णता जनमानसको बरबस छू लेती थी। उनकी दिव्य स्वर्णता या शुभ्रता मनके अन्तर्प्रदेशमें छिपे राग-द्वेषादि कषायोंके मैलको गलानेमें सशक्त थी। वह दिव्य शुभ्रता मनुष्यता ही है। मनुष्यतासे ही मनुष्य, मनुष्य' कहलानेका अधिकारी बनता है। इसके बिना वह मनुष्यवेशधारी पशु ही माना जाता है। किन्तु मनुष्यताका विकास साधनाके द्वारा संभव है। साधना अथवा कर्मसे मनुष्य मनुष्योचित गुणोंको प्राप्त करता है । आचार्यदेवने साधनासे अपने जीवनको मनुष्यताके प्रकाशसे आलोकित किया था। यही कारण है कि उनका जीवनप्रकाश जनमानसको प्रकाशित कर देता था। ऐसी कितनी ही घटनायें हैं जो यह प्रदर्शित करती हैं कि उनका दिव्य आकर्षक जीवन व्यक्तियों, परिवारों एवं समाजमें शान्ति स्थापित करने में सफल हुआ। यह कोई जादू या टोना नहीं था, न कोई चमत्कार था। यह वह साधना थी जिससे कोई भी मनुष्य ऊंचा उठ सकता है। साधनाके द्वारा मनुष्य देवता बन सकता है। आत्माके भंडारमें कितने ही दिव्य रत्न ह, उनको प्राप्त करनेके लिये साधनाकी आवश्यकता है। आचार्यदेवका मिशन था, व्यक्तिको ऊंचा उठाया जाय । समाजकी उन्नति, सभ्यताका विकास, संस्कृतिकी उच्चता व्यक्तिके चरित्र पर निर्भर है। कुव्यसन व्यक्तिको पतित कर देते हैं। अज्ञान उसे अन्धकारमें भटकाता है। शुद्ध आहार, शुद्ध विहार एवं शुद्ध विचार मनुष्यजीवनभवनके तीन स्तम्भ है। आचार्यदेवने इसीलिये शाकाहार पर सदा जोर दिया। गुरुदेवने कहा था : “ रसनाके स्वादके लिये मनुष्य जीवोंकी हत्या करता है। सुनिये, उस आर्तनादको जिसे मूक पशु, पक्षी, जलचर तथा अन्य प्राणी मृत्युके भयके कारण करते हैं। इस आर्तनादको नेमिकुमारने सुना था और वे अपने रथको उन दुःखी प्राणियोंके पास ले गये थे। उन सबको उन्होंने मुक्त कर दिया था। सम्राट अकबर मुगल थे। वे जगद्गुरु श्रीमद् हीरविजयसूरिजीकी पवित्र वाणीको सुनकर अहिंसाकी ओर झुके थे और उन्होंने पिंजरोंसे पक्षियोंको मुक्त कर दिया था, सरोवरों में क्रीडा करती मछलियोंको पकड़ना बन्द करा दिया था और वर्षमें छः महीने पशुवध सारे साम्राज्यमें बंद करवा दिया था। जिस आर्तनादका गुरुदेवने उल्लेख किया Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन २९ है उसे सुनिये पद्मावत महाकाव्य के रचनाकार मलिक मोहम्मद जायसीके सजीव एवं मर्मस्पर्शी शब्दों में । प्रसंग है : अनेक पक्षियोंको चिडीमारने पकड़ लिया । जो पक्षी सुखसे वृक्षों पर क्रीडा करते थे तथा फल-फूल, कन्दमूल खाते थे, जो सरोवरोंके शीतल जलमें अपने पंखोंको भिगोकर जलके छींटोंको आनंदमग्न होकर बिखराते थे, वे आज शिकारीकी डलियामें पंखोंको फड़फड़ाकर तड़प रहे हैं । हीरामन तोता भी छटपटा रहा है । उन पक्षियोंकी तड़पनका यह हृदयविदारक दृश्य रोंगटे खड़ा कर देता है । पक्षियोंका रुदन क्रन्दन, विलाप कितना भीषण है ! अन्तमें जायसी इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं : १ 14 'जो न होत अस पर मांस खाधू । कत पंखिन्ह कहं धरत बिधू । " - यदि दूसरोंका मांस खानेवाले इस संसारमें नहीं होते तो व्याघ इन पक्षियोंको क्यों कर पकड़ता ? ― गुरुदेवने अहिंसा और प्रेमको मनुष्यतारूपी रथके दो पहिये कहा । दिनांक २०-६-३८को श्री आत्मानन्द जैन कालेज, अम्बालाका उद्घाटन समारोह समाजरत्न श्री कस्तूरभाई लालभाईकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ । इस अवसर पर गुरुदेवने विद्यार्थियोंको यह संदेश दिया था : 'शिक्षाका उद्देश्य चरित्रका निर्माण करना है । इस कालेजमें इस प्रकारकी शिक्षा दी जाय जिससे विद्यार्थी शुद्ध एवं आदर्श जीवनवाला बने । उसमें मानवता, करुणा और प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभावना हो । उसका खानपान शुद्ध हो । उसके आचार-विचार सुन्दर हो । ऐसे विद्यार्थी ही समाजके हीरे होते हैं । हीरोंकी कीमत उनकी चमकके कारण होती है, मनुष्यकी कीमत उसके चरित्रके कारण होती है । ' 33 " आचार्यदेव के भाषणका प्रभाव गहरा था । आत्मानन्द जैन स्कूल लुधियाना एक मुसलमान विद्यार्थीने, जो उस समारोह में आया था, खड़े होकर मांसभोजनका परित्याग कर दिया। उसने कहा : किसी भी धर्मशास्त्र में मांसभक्षण करनेकी आज्ञा नहीं है । " ८८ १. बंदि मां सुआ करत सुख केली । भूरि पांख धारि मेलेसि डेली । तहवां बहुल पंखि खरभरहीं । आपु आपु कहं रोदन करहीं । - पद्मावत : मलिक मोहम्मद जायसी । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० दिव्य जीवन - गुरुदेवने कहा था : “नैतिक दृष्टिके अतिरिक्त स्वास्थ्य एवं आर्थिक दृष्टिसे भी मांसाहार अनुपयुक्त एवं हानिकारक है। शाकाहार मानवविकासकी कुंजी है। इसका प्रचलन प्राचीन कालसे है। आचार्यदेवके शाकाहार विषयक भाषणोंसे प्रभावित होकर अनेक भाग्यशालियोंने मांसभोजनको त्याग दिया था। - वह दिव्य प्रकाश मैं अपनेको महान बनाता जाऊं, यह मेरी इच्छा है। मैं तुम्हारे प्रकाशको अपनी रंगीन छायाके रंगसे रंग दूंगा। - गीतांजलि आचार्यदेवकी समभावपूर्ण दृष्टिने सबके मनको जीत लिया था। संवत् १९९८में सियालकोटमें कृष्ण जन्माष्टमीका उत्सव बड़े उल्लासके साथ मनाया गया। हिन्दू मंदिरमें विशाल सभाका आयोजन किया गया, जिसमें जनताने बहुत संख्यामें भाग लिया। आचार्यदेवने कृष्ण भगवान् पर अत्यन्त ही सुन्दर एवं प्रभावशाली भाषण दिया। कृष्णके कर्मयोग पर गुरुदेवका भाषण सुनकर जनता गद्गद् हो गई। लोगोंने कहा : “ये महात्मा कितने महान् हैं ! ये सब धर्मोंको न केवल आदरकी दृष्टिसे देखते हैं, अपितु उनका विशेष ध्यान भी रखते हैं।" ___ एकने कहा : गुरुजीने कर्मकी कितनी अच्छी व्याख्या की है ! अब तक मैं तो अन्धकारमें ही था। अच्छे कर्मोंके द्वारा मनुष्य' महान् बन सकता है। गुरुजीने कहा है कि "मनुष्यको चाहिये कि वह अपना उद्धार आप ही करे। वह अपनी अवनति आप ही न करे।' क्योंकि प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपना बंधु (हितकारी) है और स्वयं अपना नाशकर्ता है। धम्मपदमें भी १. उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ।।-गीता ६,५ 2. Each hath such lordship as the loftiest ones: Nay, for with powers above, around, below, As with all flesh and whatsoever lives, Act maketh joy and woe. - The Light of asia: ___Edmin Arnold. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन उल्लेख है कि हम ही खुद अपने स्वामी हैं और आत्माके सिवा हमें तारनेवाला कोई दूसरा नहीं है। इसलिये जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने उत्तम घोड़ेका संयमन आप ही करता है, हमें अपना संयमन आप ही भली भांति करना चाहिये। निष्काम भक्तिकी व्याख्या अत्यन्त ही सरल रूपसे समझाते हुए महात्माजीने फरमाया कि बिना फलको कामनाके इस संसारमें अच्छे कार्य करते चलो, कल्याण होगा। परमेश्वर न तो किसीके पापको लेता है, न पुण्यको । कर्मके स्वभावका चक्र चल रहा है, जिससे प्राणिमात्रको अपने अपने कर्मानुसार सुख-दुख भोगने पड़ते हैं।" इस प्रकार गुरुदेवकी वाणी जनमानसमें क्रीडा करती थी। उस वाणीका प्रभाव औषधि तुल्य होता था। सियालकोटमें चातुर्मासके अन्तर्गत गुरुदेवका उपदेशामृत पीनेके लिये आर्यसमाजी, सिख, ईसाई, मुसलमान आदि सभामें बड़ी संख्यामें पहुंचते। गुरुदेव बड़ी सरल एवं सरस वाणीमें उनकी शंकाओंका समाधान करते। चार्तुमासकी समाप्तिके पश्चात् आचार्यदेव विहार कर आगा गांव पधारे। आप एक जीर्णशीर्ण गुरुद्वाराम ठहरे। गुरुद्वाराको खंडहर रूपमें देखकर गुरुदेवको दुःख हुआ। उन्होंने गुरुद्वाराके जीर्णोद्धारका उत्तरदायित्व स्वीकार किया। गुरुदेवके समभावका यह ज्वलन्त उदाहरण है। गुरुदेवका विशाल दृष्टिकोण उनकी विश्वमैत्रीभावनाका द्योतक है। उनकी विश्वमैत्रीमें करुणाकी सहज चमक थी। उस चमकसे दर्शकके चित्त पर एक दिव्य चित्र अंकित हो जाता था। वह ऐसी चमक थी जो सहज आनन्द प्रदान करती थी। पूज्य गुरुदेवमें ऐसी करुणा थी कि जिससे मनुष्योंके दुष्ट विचार समाप्त हो जाते थे; उनके मनका मैल धुल जाता था और मनमें मानवताका प्रकाश शनैः शनैः खिलने लगता था। वह करुणा प्रेमका प्रकाश थी, जिसके लिए महान् नाटककार शेक्सपियरने अपने प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय नाटक 'दि मर्चेन्ट आफ वेनिस में लिखा है : It is an attribute to God himself; Any earthly power doth then show likest God's When mercy seasons justioe. (Act IV, Sc. i) ३. अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।। तस्मा सञ्जमयत्ताणं अस्सं भदं व वाणिजो॥-धम्मपद ४. नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः॥- गीता Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन यह करुणा परम कृपालु परमात्माका दिव्य गुण है। इस दिव्य करुणाके द्वारा ईश्वरीय प्रेमप्रकाश विश्वपटल पर छिटक जाता है। आचार्यदेव' संवत् १९९८ पौष सुदि २को गुजरांवाला शहर पधारे। वहां आपके भाषणोंका विषय था आत्मशुद्धि । आत्मशुद्धिके लिये मांसाहारत्यागको अनिवार्य बताते हुए गुरुदेवने कहा : “ यह शरीर तो ईश्वरकी धरोहर है। इसे पवित्र रखना मनुष्यका परम कर्तव्य है। पवित्र शरीरमें पवित्र मन रूपी सिंहासन पर आनन्दघन प्रभु निवास करते हैं। मांसाहार मानवशरीरके लिये अनुपयुक्त आहार है। उससे शरीर पुष्ट बनता है, यह मनुष्यका भ्रम है।" इन भाषणोंका प्रभाव अमिट था। कितने ही मांसप्रेमियोंने मांसभोजन त्याग दिया। मौलवी अहमुद्दीनने गुरुदेवको खड़े होकर विनम्र वाणीमें कहा : " यद्यपि आज हमारा ईदका बड़ा त्यौहार है तो भी मैं आपके पवित्र वचन सुनने यहां आया हूं। जबसे आपने यह बताया कि कुरान शरीफमें भी गोश्त खाना मना लिखा है, तबसे हमारी गोश्त न खानेकी मान्यता और भी मजबूत हो गई है। मैंने अपने अनेक साथियोंको मांस भोजन न करनेकी शपथ दिलवाई है।" गुरुदेवने प्रसन्न होकर मौलवी साहबको कहा : “ मौलवीजी, मैं आपको मुबारकबाद देता हूं। खुदाका बन्दा, अल्लाहका प्यारा सबको प्यारकी निगाहसे देखता है। आप खुदाके सच्चे बन्दे हैं।" संवत् १९९९ आषाढ सुदि २को गुरुदेव चौमासेके लिये जंडियालागुरु पधारे। पर्युषण पर्वमें समाचार आये कि बंगाल और मेवाड़में हजारों कुटुम्ब संकटम आ पड़े हैं। आचार्यश्रीने पीड़ित भाई-बहनोंकी सहायताके लिये मर्मस्पर्शी भाषण दिये। आपने कहा : “हमारा धर्म जीवों पर दया करना है। जब हम छोटे छोटे प्राणियों पर दया करते हैं तब मनुष्य पर दया करना तो हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य हो ही जाता है। मैं चाहता हूं कि एक राहत फंड कायम किया जाये और उसके लिये सारे पंजाबमें चंदा जमा किया जाये और जमा हुई रकम पीड़ितोंकी सहायताके लिये भेजी जाय।" ____ आपके कारुणिक भाषणसे राहत फंड कायम हुआ और अच्छी रकम एकत्रित हुई, जो संकटग्रस्तोंको भेजी गई : यह थी आचार्यदेवकी मानवसेवा। गुरुदेवकी मानवता विशाल थी। भारत-विभाजनसे जो रक्तपात हुआ, उससे मानवता संत्रस्त हो गई। गुरुदेवने भारतीय जनताको कहा : Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ दिव्य जीवन "हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, आर्यसमाजी आदि भारतकी संतान हैं। सबको एक विशाल कुटुम्बके समान समझना और उनकी सेवा करना यही प्रत्येक भारतवासीका धर्म है। सेवा ही आजकी सच्ची पूजा, सच्ची नमाज और सच्ची गुरुवाणी है। मनुष्यसमाज जीवित रहा तो धर्म भी जीवित रहेगा। यदि समाज सुदृढ़ एवं समृद्ध, बलवान और प्राणवान होगा तो धर्म भी प्राणवान होगा।" ता० १७-१०-४७ के अमृतसरके उर्दू पत्र ‘वीर भारत में आचार्यश्रीने देशवासियोंके प्रति एक दर्दभरी अपील प्रकाशित कराई थी। अपीलके कुछ शब्द यहाँ उद्धृत हैं -- “भारतके तमाम जैनोंसे अपील है कि जो हिन्दू, सिक्ख और जैन भाई और अन्य भाई-बहिन पाकिस्तानसे दुःखी होकर आये हैं, वे सब तुम्हारी सहायताके योग्य हैं। उनको तुम अपने भाई-बहिन समझो और यह मानो कि उनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है।" इस अपीलका यह प्रभाव पड़ा कि श्रीमन्तोंने रुपयोंकी थैलियां खोल दीं। अमृतसरमें कपड़ोंकी गांठे आईं, भोजनालय खुल गये। सभी एकताके सूत्रमें बंध गये। मानवता जाग गई। गुरुदेवकी यह अपील भारतके कोने कोनेमें प्रसारित हुई। बम्बई, मद्रास, गुजरात, राजस्थान एवं पंजाबके सहृदय नगरवासियोंने गुरुदेवकी अपील पढ़कर राहत समितियां बनाई तथा धन एकत्रित कर पंजाबके दुःखी भाईबहिनोंकी सहायताके लिये भेज दिया। हिन्दू, सिक्ख, जैन तथा अन्य पीड़ितोंको इस राहतसे शान्ति मिली। सहस्र कंठोंसे पुण्यश्लोक गुरुदेवके लिये मधुर गीतकी तरह ये शब्द फूट पड़े : तारणहार, पीड़ितोंकी वाणी, मानवताका मोती।। सचमुच मानवताका मोती अपनी अनोखी चमकसे आज भी हमारे मनके अन्धकारको दूर कर रहा है। वह दिव्य चमक सदा-सर्वदा मेरे मनमें क्रीडा करती रहे। दि.-३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेवा-सौरभ वल्लभनगरकी सजावट देखकर ऐसा लग रहा था मानो छोटी-सी अलकापुरी धरती पर बस गई हो। कितने ही द्वार बनाये गये। आत्मद्वार, वल्लभद्वार, ललितद्वार, कांतिद्वार, हंसद्वार आदिकी शोभा रमणीय थी। कहीं सुन्दर पताकायें पवनके साथ क्रीडा करती हुई ऐसी लग रही थी जैसे रंगबिरंगे पंखोंवाले पक्षी पवनमें अठखेलियां कर रहे हों। कहीं उच्च द्वारों पर सरस कथन मनको लुभा रहे थे। सरस कथनोंमें विद्या अमर धन है, ज्ञानज्योति जलाओ, अहिंसा परमो धर्मः, प्राणिमात्रसे मैत्री रखो, सभीमें ईश्वरकी दिव्य ज्योति है-- आदि सारवाक्य उन द्वारों पर बहुमूल्य आभूषणोंके समान लग रहे थे। ___ मुख्य द्वारकी साज-सजावट कलात्मक थी। स्वर्गीय गुरुदेव आत्मारामजी महाराज एवं आचार्य वल्लभसूरिजीके चित्र मुख्य द्वार पर सबको आकर्षित कर रहे थे। यह वल्लभनगर फालना विद्यालयके प्रांगणमें सजाया गया था। इसमें जैन कान्फ्रेन्सका समारोह होनेवाला था। इस समारोहके अध्यक्ष थे श्री कांतिलाल ईश्वरलाल तथा उद्घाटनकर्ता थे प्रसिद्ध उद्योगपति समाजरत्न श्री कस्तूरभाई लालभाई। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मद्रास, बंगाल, पंजाब तथा उत्तरप्रदेशसे अनेक सज्जन इस अधिवेशनमें सम्मिलित हुए थे। भारतके कोने कोनेसे शुभ संदेश भी प्राप्त हुए थे। अधिवेशनके प्राण लोकमान्य गुलाबचन्दजी ढड्ढा भी इसमें उपस्थित थे। संवत् २००६ मिति माघ शुक्ला पूर्णिमा, दिनांक २-२-५९ के प्रभात कालमें उत्सवका शुभारम्भ हुआ। जयपुरनिवासी श्री सोहनलालजी दूगडने ध्वज फहराया। ___इस अधिवेशनमें समाजोत्थान, शिक्षाप्रचार एवं समाजकी दयनीय दशा पर प्रेरणादायक भाषण हुए और सभीने आचार्यदेव वल्लभसूरिजीके महान उपकारोंकी भूरि भूरि प्रशंसा की तथा अनेक विद्वानोंने अपनी वाणी-वाटिकाके श्रद्धापुष्प उनके चरणकमलों पर चढ़ाये। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ___इस अधिवेशनमें जनता आचार्य वल्लभकी समाजसेवासे प्रेरित होकर उन्हें शासनसम्राट, युगप्रधान, शासनदीपक आदि पदवियोंसे विभूषित करना चाहती थी। इसके लिये विनम्र आग्रह किया गया। भारतके समस्त प्रान्तोंके प्रतिनिधियोंने मिलकर गुरुदेवको राजी करनेका अथक प्रयत्न किया, परन्तु दिव्य संतने कहा : "भाग्यशाली प्रतिनिधि बंधुओं! आप लोगोंके प्रेमभरे शब्द सुनकर मैं रोमांचित हुआ। समाजकी कैसी दयनीय दशा है ! मध्यमवर्गके भाईबहिनोंकी दर्दभरी दशा है। आज देशके कोने कोनेमें नवनिर्माणकी आवश्यकता है। आजादीकी सुनहली किरणें ग्राम ग्राममें पहुंचानी हैं। इसके लिए हम सबको रात-दिन काम करना होगा। स्थान स्थान पर उद्योगधंधे खुले, शिक्षाके प्याऊ ज्ञानजल पिलावें-- यह मेरी अभिलाषा है। क्षमा करना। आज देशकी दशाको ओर दृष्टिपात करो। पीड़ित भाई-बहिनोंकी ओर देखो। देश और समाजकी इस विषम दशामें मुझे आचार्य पदवी भी भारी पड़ रही है। इस विकट दशामें मैं कोई भी अलंकरण कैसे धारण कर सकता हूं? ___ "भाग्यशालियों, समयका संदेश सुनो। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका विचार करो। स्वर्णिम अतीतकी ओर देखिये। जगडुशाह, विमलशाह, वस्तुपाल, तेजपाल, समराशाह और भामाशाहने समाजोत्थानके लिये क्या नहीं किया ? आज लक्ष्मीके भंडार भरपूर हैं परन्तु कहां है वह पीडा। जब दुखियोंके प्रति पीड़ा ही नहीं है, फिर धर्म कहां रहा, मानवता कहां रही? जीवन खोखला बन गया है-- केवल कंकाल मात्र । " मुझे किसी अलंकरण या पदवीकी आवश्यकता नहीं। मुझे पद नहीं काम दो। मैं पदवीसे अधिक कीमती वस्तु आपसे मांग रहा हूं। मैं भिक्षु हूं और सदा रहूंगा। आप लोग एकतामें रहो। शिक्षण संस्थाओंके लिए अपनी तिजोरियां खोल दो। आप लोग लक्ष्मीके ट्रस्टी हो। लक्ष्मी समाजकी है। गरीब भाई-बहिनोंकी सुध लो। उनकी पीड़ाको समझो।" गुरुदेवकी मर्मभरी वाणी सुनकर सबकी आंखोंमें आंसू रमने लग। सभी मौन थे--चित्रलिखे-से दीख रहे थे। किन्तु वाणीका प्रभाव गहरा था। उनकी वाणी जनमानसमें क्रीडा करने लगी। गुरुदेवकी निस्पृहताका यह दिव्य उदाहरण है। उन्होंने कभी भी अपनी प्रशंसा नहीं चाही। वे समाज और व्यक्तिको ऊंचा उठाना चाहते थे। यह था उनका पुनीत लक्ष्य । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ दिव्य जीवन गुरुदेव तो विश्वसंत थे। वे अपने अन्तःचक्षुओंसे देखते थे कि सभी प्राणियोंमें दिव्य ज्योति जल रही है। वह दिव्य ज्योति जब प्रकट होती है तब जीवन पलटा खाता है। इस संबंधमें एक घटना उल्लेखनीय है : आचार्यदेव नाणा ग्राममें विहार करते हुए पधारे। ग्रामके ठाकुरने उनके स्वागतके लिए अपना रथ भेजा। ग्रामकी जनता गुरुदेवके अभिनन्दनके लिए भारी संख्यामें पहुंची। समस्त ग्राम सजाया गया। गुरुदेव ठाकुर साहब लक्ष्मणसिंहजीके महलमें पज्ञारे। गुरुदेवने ठाकुर साहब तथा उनके बन्धु श्री रामसिंहजीको राजाओंके प्रजापालनके संबंधमें उपदेश दिया। गुरुदेवकी सुधा तुल्य वाणीको सुनकर ठाकुर साहब गद्गद् हो गये। उन्हें नई दृष्टि मिली। उन्होंने मांस-मदिराका सदा-सर्वदाके लिए त्याग कर दिया, शिकार खेलना बन्द कर दिया। इतना ही नहीं, ठाकुर साहबने नाणा ग्रामकी सीमामें शिकार खेलना बन्द करवा दिया। ठाकुर साहब लक्ष्मणसिंहजीकी तीनों रानियोंने मांस-मदिराका त्याग कर दिया। उनके बन्धु श्री रामसिंहजी भी शाकाहारकी ओर प्रवृत्त हुए। ___ इस घटनासे मुझे जगद्गुरु हीरविजयसूरिजीके महाप्रयासोंका स्मरण हो आता है। महान् अकबरको प्रतिबोध देनेवाले जगद्गुरुका नाम लेनेसे मनमें आनन्दकी तरंगे उठने लगती हैं। व्यक्ति और समाजके उत्थानके लिये जगद्गुरुने जिस मार्गका अनुसरण किया था, उस राजपथको गुरुदेव वल्लभने सुशोभित किया। संतजनोंका यही मार्ग है। गुरुदेवकी विनम्रता और प्रेम-भावना जनमनको छू लेती थी। उनके प्रेममें करुणा और विश्वमैत्रीका मधुर मिलन था। उनका ज्ञान उच्च कोटिका था । ज्ञान और प्रेमका सरस मिलन दर्शकको लुभा लेता है। एक दार्शनिकने कहा है : ज्ञान दीपक है, प्रेम उसका प्रकाश है। गुरुदेवका जीवन इस कथनकी सत्यता प्रकट करता है। ज्ञान और प्रेमयुक्त जीवनमें जो ज्योति जलती है उसकी चमकको सरलता कहा जा सकता है। यह सहज सरलता विद्वानोंको भी आकर्षित कर लेती है। विद्वान पंडित बद्रीप्रसादजीका मिलनप्रसंग गुरुदेवकी सहज सरलताका सजीव उदाहरण प्रस्तुत करता है। पंडित बद्रीप्रसादजी महेन्द्रगढ़ (पटियाला जिला)के निवासी थे। वे द्वारका तीर्थकी ओर जा रहे थे। वे गुरुदेवके दर्शनके लिये आबूरोड स्टेशन पर उपरे। उनके साथ होशियारपुरके श्री शांतिलाल भी थे। शान्तिलालभाईने पंडितजीको गुरुदेवके महान् जीवनकी चर्चा की, जिससे उनकी दर्शनप्यास बढ़ गई। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ३७ पंडितजी भाई शान्तिलालके साथ भीमाणा ( आबू रोड ) पहुंचे। वहां गुरुदेवके दर्शन करके वे आत्मविभोर हो गये । शास्त्रचर्चा हुई । गुरुदेवने कहा : " धर्म में क्लेश, राग-द्वेषका कोई स्थान नहीं । धर्मं समभाव और प्राणिमात्रके लिये मैत्रीभाव सिखाता है। भगवान महावीरने अहिंसा और त्यागकी बहुमूल्य भेंट विश्वको दी है । " गुरुदेव के शीतल एवं इक्षुरस तुल्य मधुर तथा हृदयस्पर्शी शब्दोंको, सुनकर पंडितजीकी हृदयवीणा झंकृत हुई । वीणाकी मधुर स्वरलहरी आज भी कानों में मिश्री घोल रही है । पंडितजीने कहा : " कृपालु ! आपका वचनामृत पीकर मैं धन्य धन्य हुआ । मैं द्वारका तो जा रहा हूं, परन्तु वास्तवमें मुझे यहां ही द्वारकाके दर्शन हो गये हैं । " पंडितजीके मुखारविंद से जब ये शब्द सुने तो गुरुदेव ने कहा: “पंडितजी, ऐसा न कहिये । मैं तो धर्मका दीपक जलानेके लिए यह जीवन जी रहा हूं। इस शरीर से धर्म, साहित्य, देश और मानवताका कल्याण हो, यही मेरी कामना है, यही मेरी साधना है । ' " पंडितजी मनमें जो प्रसन्नताका दीपक प्रज्वलित हो गया था, उसकी ज्योति निराली थी । उनके मुखमंडल पर वह प्रकाश चमक रहा था, उनके नेत्रों में वह दिव्यता स्पष्ट दिखाई दे रही थी । पंडितजीने प्रसन्नभावसे गुरुदेव - के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए कहा : " गुरुदेव ! मैंने आज तक किसीको अपना मस्तक नहीं नमाया, किन्तु इन चरणकमलोंमें सहज ही मस्तक झुक रहा है । अहा ! ये चरणकमल कितने शीतल हैं ! 33 भीमाणाके भाई-बहिन इस मिलनको देखकर आश्चर्यचकित हो गये । ऐसा लगा मानो राम-भरत मिलन हुआ हो । एक ओर प्रेम था, दूसरी ओर भक्ति । प्रेमकी शक्ति असीम है । भक्ति प्रेमकी ओर खिंची हुई आती है । राम प्रेमके प्रतीक है, भरत भक्तिके । थाणामें एक विशाल सभामें गुरुदेवका मानवधर्म पर अत्यन्त ही मर्मस्पर्शी प्रवचन हुआ । इस सभाकी अध्यक्षता श्री वामन अनंत रेगने की । इस सभा में बम्बई तथा आसपासके उपनगरोंसे हजारों भाई-बहिन आए थे । मानवधर्मकी सरस व्याख्या करते हुए गुरुदेव ने कहा : " मानवधर्मका अर्थ है - सबके प्रति प्रेमभावना । प्रेममें करुणाका वास है । जिसके हृदयमें करुणा होती है वही प्रेमको पहचानता है। भगवान प्रेम रूप हैं, क्योंकि वह करुणा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन सागर है। प्रेमपुजारी भगवानका सच्चा भक्त होता है, क्योंकि उसके मनमें सबके प्रति मैत्रीभाव रहता है।" इस सुन्दर व्याख्यासे सभाके अध्यक्ष श्री रेगे अत्यन्त ही प्रसन्न हुए। उन्होंने हर्षित होकर ये उद्गार प्रकट किये : ." गुरुदेवकी वाणीमें मधुरता है। उनके हृदयमें प्राणिमात्रके लिये कल्याणकी भावना है। आत्मकल्याणके लिए मानवधर्म अर्थात् मनुष्यताका महत्त्व गुरुदेवने जिस सुन्दर शैलीमें बताया है उससे मैं अत्यन्त ही मुग्ध हुआ। मानवसेवा द्वारा पीड़ित भाई-बहिनोंके दुख-दर्द दूर करनेके लिए हमें सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये ।” बम्बईके आजाद मैदानमें आरोग्यमंत्री श्री शान्तिलाल शाहकी अध्यक्षतामें महावीर जयन्ती मनाई गई। विशाल जनमेदनी गुरुदेवका भाषण सुनकर पुलकित हो गई। गुरुदेवने भगवान् महावीरका संदेश जनता-जनार्दनको सुनाया: "समस्त प्राणियोंको अपना जीवन प्रिय है, वे सुख चाहते है, दुःखसे घृणा करते हैं। वे दीर्घायु होना चाहते हैं। अतः सभीके जीवनकी रक्षा होनी चाहिये। भगवान महावीरने कहा था : 'यदि विश्वका समस्त खजाना आपको मिल जाय, फिर भी आपको संतोष नहीं होगा। न समस्त धनवैभव आपको कालके पंजेसे बचा लेगा।' ___भाग्यशालियों! लक्ष्मी चंचल है। समाजसेवामें धन खर्च करो। यह धन, ये महल, और यह चकाचौंध नाशवान है, अतः दूसरोंको सुखी करनेका प्रयास करो। जैसे वृक्षका पत्ता पतझड़में पीला होकर गिर जाता है, वैसे ही मनुष्योंका जीवन भी आयुके समाप्त हो जाने पर सहसा नष्ट हो जाता है। इसलिए गौतम ! क्षणमात्र भी प्रमाद न करो। भगवान महावीरने एकताका संदेश दिया था। उनका दिव्य संदेश आजके खंडित-बिखरे हुए और दुखी विश्वके लिए अमृतांजन है।" __गुरुदेवने भगवान महावीरकी करुणाका उल्लेख करते हुए कहा : "भगवान महावीरकी करुणा अनन्त सागरके समान थी। जगत्सुखके लिए उन्होंने भीषण कष्ट सहे। अपनी साधनासे उन्होंने जो ज्ञानामृत प्राप्त किया, वह विश्वको पिलाया। विश्वके समस्त प्राणी उनकी करुणाके पात्र हैं। विषेला चंडकौशिक सर्प भी उनकी करुणाका पात्र बना। अतः उसका उद्धार हुआ। गुरुदेवका वालकेश्वरमें दिया गया भाषण अत्यन्त ही प्रभावशाली तथा दर्दभरा था। उनकी वेदना आज भी मुखरित है। उस वेदनाका स्पंदन Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन आज भी इन शब्दोंमें हो रहा है : “तुम भाग्यशाली हो। वाल्केश्वरके गगनचुम्बी महलोंमें रहते हो और ठंडी हवाका अनुभव करते हो। फल, मेवा, मिठाई आदि कीमती चीजें खाते हो। तुम्हारी मोटरें दौड़ती है, क्योंकि तुम लक्ष्मोवान् हो। मगर क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा पड़ौसी बीमार है उसको दवा, इंजेक्शन और फलोंकी चिन्ता है, लड़केको कालेजमें भेजना है, परन्तु पासमें कालेजकी फीसका पैसा नहीं है, पुस्तकें पानका साधन नहीं है। बच्चोंको छटांकभर दूध पिलानेके तो सपने ही आते हैं ?" गुरुदेवके भाषणका समाजवादी स्वर आज भी गूंज रहा है। हमें शोषणहीन समाजकी रचना करनी है, जिसमें कोई भूखा-प्यासा नहीं रहने पाये। तुम्हारी लक्ष्मीमें उनका भी भाग है। फिर वे भूखे हैं। और भूखा कौन पाप नहीं कर सकता? इसलिये यदि आप उन्हें पापसे बचाये रखना चाहते हैं तो उनके लिये रोजी-रोटीकी व्यवस्था कीजिये। ___ गुरुदेवको मध्यम एवं निर्धन वर्गकी पीड़ा सताती रही। उन्होंने दादर (बम्बई)की विशाल सभामें प्रतिज्ञा की: "मेरे हृदयका दर्द सुनो। मैं जब तक बम्बईमें बैठा हूं, इस अरसेमें उत्कर्ष फंडमें यदि पांच लाख रुपये जमा नहीं होंगे तो मैं दूध और उससे बनी वस्तुओंका त्याग करूंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।" ___ गुरुदेवको प्रतिज्ञासे पांच लाखकी राशि निश्चित अवधिके पहले ही एकत्रित हो गई। बहनोंने इस कोषमें अपने आभूषण भी दानमें दिये । यह धनराशि तो प्रतीक मात्रकी थी। गुरुदेव इस प्रतिज्ञा द्वारा समाजके पीड़ित भाई-बहनोंके लिये साधनसम्पन्न लोगोंमें स्नेह तथा कर्त्तव्यभावना विकसित करना चाहते थे। वे उन्हें बताना चाहते थे कि सम्पत्ति समाजकी है। वे तो केवल ट्रस्टी हैं। १. गुरुदेवकी प्रतिज्ञा पूर्ण करनेके लिये श्री खीमजीभाई छेडा तथा अन्य १०८ सज्जनोंने दृढ़ संकल्प किया था। भक्तिकी शक्तिने उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण की। 2. Sincere and unified efforts created a magic influence of unloosening the purse strings and the target amount was collected ahead of the scheduled hour. This has been a unique incident from which the posterity and pessimistic workers will derive a great lesson of zeal and will. -A dedicated soul: Shri K. D. Kora. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन गुरुदेवने समाजोत्कर्षके लिये पैसाफंड योजना बनाई थी। इस योजनाके अनुसार प्रत्येक परिवारको एक पैसाउत्कर्ष फंडमें देना चाहिये। इसका उद्देश्य है साधारण जनतामें समाजसेवाके प्रति रुचि उत्पन्न करना और बिना किसी भारके समाजोत्थानके लिये धन एकत्रित करना। गुरुदेवकी समाजसेवाके दो कार्यक्रम थे : एक था विध्वंसात्मक, दूसरा रचनात्मक । विध्वंसात्मक कार्यक्रममें वे समाजकी कुरीतियां पर कटु प्रहार करते थे। समाजरूपी शरीरके सड़ेगले अंशोंका शल्यकरण आवश्यक था। एक अवसर पर गुरुदेवने कहा था : “आज तो वरविक्रयका रोग लगा हुआ है। यह रोग इतना चेपी है कि समाज इस भयंकर टी० बी०के रोगके कारण मृतप्राय बन रहा है। जहां देखो वहां लड़कोंका नीलाम हो रहा है। लड़कीवालोंसे बड़ी बड़ी रकमें तिलक-बींटीके रूपमें मांगी जाती है, सोना या सोनेके जेवर मांगे जाते हैं, घड़ी, रेडियो, सोफासेट, स्कूटर या अन्य फर्नीचरकी मांग तो मामूली बात है, विदेश जाने और पढ़ाईका खर्च तक मांगा जाता है। इस प्रकार पराये और बिना मेहनतके धन पर गुलछर्रे उड़ाये जाते हैं। युवकोंके लिये तो यह बेहद शर्मकी बात है।" इस प्रकार गुरुदेवके समाजोत्थानविषयक व्याख्यानोंसे समाजसुधारकी भावना विकसित हुई। गुरुदेवके रचनात्मक कार्यक्रममें शिक्षाका प्रचार, मध्यम एवं गरीब वर्गके लिये उत्कर्षफंडकी योजनायें, साहित्यप्रकाशन, अकाल-बाढ़पीड़ितोंकी सहायता, संकटग्रस्तोंकी सेवा, विधवाओं, अनाश्रितों या असहायोंकी सहायता आदिका समावेश होता है। ___ गुरुदेवने क्रान्तिका संदेश दिया। समाज भाग्यवाद, जड़वाद एवं रुढ़िवादमें फंसा हुआ था। समाजरूपी गजराज निराशाके कीचड़में फंसा हुआ आलस्य रूपी ग्राहके मुखमें छटपटा रहा था। गुरु वल्लभकी समाजसेवा हमें गजराज-उद्धारकी कथाका स्मरण कराती है। गुरुदेवके पुरुषार्थसे जनतामें चेतना आई, समाजने नव जागरणमें अंगडाई ली और पीड़ित' तथा दलित जनताने आशाके सुनहले प्रकाशमें आंखें खोली। समाजमें जो नैराश्यका अन्धकार फैल गया था, जो कर्मवीरता मूछित हो गई थी, उसे गुरुवल्लभने समाजसेवाकी औषधि पिलाकर प्राणवान बना दिया। समाजसेवाकी भावना जनमानसमें विकसित होकर क्रीडा करने लगी। ___३. वल्लभप्रवचन, भाग २,. 'समाजोद्धारके मूल मंत्र' निबन्धसे उद्धृत । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृष्णपक्षकी भयानक रात्रि । चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार था । कुछ सूझता नहीं था । अन्धकारकी काली चादरने समस्त रंगबिरंगी वस्तुओंको ढक लिया था । उस अन्धकारमें दूर एक कुटिया में छोटासा दीपक टिमटिमा रहा था । दीपक छोटा था, परन्तु इससे क्या ? उसका काम था प्रकाश फैलाना | काम क्या ? प्रकाश देना उसका सहज स्वभाव था । अन्धकारमें उस नन्हेंसे दीपको देखकर सहसा मेरे स्मृति पर ये भाव विद्युतरेखाओंके समान चमक गये : १० शिक्षा और नवोदय " अन्धकारमें प्रकाश खोजो, निराशामें आशा देखो, मृत्युमें जीवनज्योतिके दर्शन करो। सभी प्रकाश चाहते हैं - तमसो मा ज्योतिर्गमय - मुझे अन्धकारसे प्रकाशमें ले जाओ। वह प्रकाश क्या है ? ज्ञान ही प्रकाश है ।" और योगिराज आनन्दघनजीकी गीतपंक्ति ओठों पर थिरकने लगी : 'मेरे घट ग्यानभानु भयो भोर । " ज्ञान अरुणोदयसे हृदय कली खिल जाती है, उसमेंसे नवीन विचारोंकी सुगन्ध बिखरने लगती है । विचारोंकी नवीनता वसन्त ऋतुके आगमन के समान है । वसन्तागमन पर वृक्षोंके पीले पत्ते झर जाते हैं । वसन्तकी शोमासे वन-उपवन उद्यान रम्य एवं भव्य बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ज्ञानके वासन्ती प्रकाशसे जन-मनम नवीन विचारोंका वसन्त खिल जाता है, समाजकी काया पलट जाती है । गुरुदेवने समाजकी नवरचना - अभ्युदयके लिए शिक्षाको अमूल्य साधन बताया । उन्होंने शिक्षाप्रचारको अपने जीवनका पावन लक्ष्य बना दिया ! गुरुदेवने देखा कि समाजमें अशिक्षाके कारण भयंकर पिछड़ापन है । उत्सवों में फिजूल खर्चीमें लाखों रुपये पानीकी तरह बहाये जाते हैं, परन्तु समाजके १. मृत्यु में जीवन झलकता है । अन्धकारमें प्रकाश चमकता है । असत्यम सत्य दमकता है। - महात्मा गांधी २. णाणं णरस्स सारो । ( ज्ञान मनुष्यजीवनका सार है । ) - आचार्य कुन्दकुन्द Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दिव्य जीवन कीमती रत्न ( बालक एवं बालिकायें ) धनाभाव के कारण शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते। शिक्षाके बिना राष्ट्र एवं समाजके ये बहुमूल्य हीरे धूलमें ही छिपे रह जाते हैं। उनकी चमक-दमक भूगर्भके अन्धकारमें छिपी रह जाती है । कैसी विडम्बना है ? गुरुदेवकी आत्मा तड़प उठी । गुरुदेवने सदा विश्वमानवको सामने रखा। मानवता अखंड है, उसमें भेदभाव नहीं, ऊंच-नीच, धनवान - गरीब तथा काले-गोरेका भेद दृष्टिकोणके कारण है । गुरुदेवने अपने को करुणासागर आनन्दधन सच्चिदानन्द वीतराग प्रभुके मार्ग पर चलनेवाला यात्री कहा। वे मनुष्यको मनुष्यता बतानेके लिये सतत प्रयत्नशील रहे । शिक्षाके बिना मनुष्य मनुष्यताको कैसे पहचानेगा ? - गुरुदेवने सोचा । शिक्षा समाजरूपी शरीरका टानिक है। इससे समाज पुष्ट एवं विकासोन्मुख बनता है । शिक्षाके संबंध में ये उनके विचार कितने स्पष्ट एवं तथ्यपूर्ण हैं : cc 'जैसे यंत्रवादके युगमें चाहे प्रकाश करना है, चाहे पंखा चलाना है, चाहे टेलीफोनसे बात करना है या किसी भी प्रकारकी मशीनको चलाना है तो बिजलीका प्रयोग करना आवश्यक समझा जाता है, वैसे ही चाहे सामाजिक, व्यावहारिक अथवा धार्मिक प्रगति साधना है तो शिक्षाके बिना कुछ भी नहीं हो सकता । 11 2 गुरुदेवने शिक्षाका उद्देश्य समझाते हुए विद्यार्थियोंको कहा था : “ शिक्षाका वास्तविक उद्देश्य है मनुष्यको पशु अवस्थासे मनुष्य अवस्थामें लाना और उसे सच्चा मनुष्य बनाना ।' 33 शिक्षासे मनुष्यता प्रस्फुटित होनी चाहिये । इसीलिए उन्होंने व्यावहारिक शिक्षाके साथ धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा पर जोर दिया। आज भी बड़े बड़े शिक्षाशास्त्री एवं दार्शनिक यह कहते हैं कि आधुनिक शिक्षामें नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षा न होनेसे अनुशासनहीनता, स्वार्थपरायणता एवं भौतिकवादके प्रति प्रेम पनप रहा है। मनुष्य आत्मप्रकाश व मानवताको भूल बैठा है। समाज में स्वार्थभावनाके विकासके साथ साथ हिंसा बढ़ रही है । नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षासे विनय और सदाचारके संस्कार विकसित होते हैं । इन संस्कारोंसे व्यक्ति में मानवता आ जाती है । मानवतामें दया, ३. आचार्य विजयवल्लभसूरि स्मारक ग्रंथ, 'पंजाबकेसरीका पंचामृत ' निबंध, लेखक श्री श्रीऋषभदासजी जैन । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन प्रेम, उदारता, त्याग आदि गुणोंका समावेश हो जाता है; विश्वमैत्रीकी भावना पुष्पित हो जाती है। विश्वशान्तिका मूल है यह विश्वमैत्रीकी भावना । विश्वमंत्रीरूपी वृक्षकी शीतल एवं सघन छाया है प्रेम। प्रम है भगवानका रूप । इसीलिये गुरुदेवने व्यावहारिक शिक्षाके विकासके लिये जहां एक ओर जोर दिया वहां नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षणको माताका दूध कहा । शिक्षासे जो संस्कार बालकमें आते हैं उनका उल्लेख करते हुए गुरुदेवने कहा : “शिक्षासे बालकमें सदाचरण, देशसेवा, समाज-सेवा आदि गुण आने चाहिये। शिक्षाको जीवनका दिया कहा है।" गुरुदेवने आधुनिक शिक्षाका प्रबल समर्थन किया। अब तक समाजमें शिक्षाके प्रति कोई रुचि नहीं थी। व्यावहारिक शिक्षाकी इतनी उपेक्षा थी कि इसे विकृतिका साधन माना जाने लगा था। गुरुदेवने समाजकी इस संकीर्ण विचारधाराको अच्छी तरह समझ लिया। उन्होंने देखा कि इस तरह अज्ञानके कारण समाज पतनके गर्तमें डूब जायेगा। समाजमें आलस्य, भौतिकवाद, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास एवं बेकारीके कारण दलदल फैला हुआ है, गाड़ी फंसी हुई है। शिक्षाके प्रबल धक्केसे इस फंसी हुई गाड़ीको निकाला जा सकता है। गुरुदेवने आधुनिक शिक्षाका महत्त्व इस प्रकार बताया : __"आज आधुनिक शिक्षासे लोग घबराते हैं और कहते हैं कि शिक्षासे संस्कृतिका नाश होता है। परन्तु मैं तो उसको वैसी ही भ्रांति मानता हूं जैसे कि बिजली जला देती है इसलिये बिजलीके उपयोगसे दूर रहना चाहिये। इस तरहसे यंत्रवादी घबराये होते तो सारे संसारमें यंत्रवादका साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाते। जिस कालमें जिस प्रकारकी शिक्षा प्रचलित हो, उसको प्राप्त किए बिना हम अपना हित साध ही नहीं सकते।" आधुनिक शिक्षाके इन दृढ़ विचारोंका गुरुदेवने प्रचार किया। इन विचारोंके शक्तिवर्धक इन्जेक्शनोंसे समाजमें नवचेतना आई। नव जागरणमें समाजके जागृत लोगोंने देखा कि हम अन्धकारमें भटक रहे हैं। समाज अशिक्षाके कारण अचेतनावस्थामें पड़ा हुआ है। गुरुदेवने शिक्षाकी भ्रांतियोंका: निराकरण करते हुए समाजके सामने यह सुझाव प्रस्तुत किया : "शिक्षाको दोष देना और उससे दूर रहना समाजकी उन्नतिमें बाधा पहुंचाना है, इसलिये शिक्षासे न घबराते हुए उसके लिये सुन्दर आयोजन करके आदर्श शिक्षणालय और शिक्षकालय (Training schools) स्थापित Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ दिव्य जीवन करके आदर्श शिक्षकोंको जीवन-भरणपोषणकी चिन्तासे मुक्त करने उनके द्वारा शिक्षाका प्रचार करना समाजोन्नतिके लिए अत्यन्त ही लाभकारी है।" गुरुदेवकी कल्पना आदर्श विद्यालयोंको स्थापित करनेकी थी। शिक्षासे बालकमें मनुष्यता खिल जाय, यह उनको कामना थी। गुरुदेवकी कल्पनामें शिक्षाभवनके तीन स्तम्भ थे : १. शिक्षालय, २. शिक्षक और ३. शिक्षार्थी । जहां उन्होंने आदर्श विद्यालयोंकी योजना समाजके सामने रखी थी वहां उन्होंने आदर्श शिक्षकोंकी सम्मानपूर्ण जीविका पर भी विचार किया था। शिक्षकजीवनके आर्थिक पहलू पर भी उन्होंने मानवीय दृष्टिसे सोचा था। गुरुदेवकी प्रेरणासे जैन समाजने सरस्वतोमंदिर खोले। श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई, श्री आत्मानन्द जैन कालेज अम्बाला, श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन कालेज' फालना, श्री पार्श्वनाथ जैन विद्यालय वरकाना, श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन विद्यालय फालना, पंजाबके लुधियाना, मालेरकोटला तथा अम्बाला शहरोंमें हाईस्कूल, मिडिल स्कूल एवं प्राथमिक पाठशालायें, अन्य प्रदेशोंकी संस्थायें तथा अनेक कन्यापाठशालायें ५ गुरुदेवके अमर यशके दीपक है। इन संस्थाओंमें पढ़कर हजारों विद्यार्थी विद्याप्रकाशसे प्रकाशित हो रहे हैं। इनसे समाजमें चेतना आईं। शिक्षाके बिना समाजकी कैसी दयनीय अवस्था हो सकती है इसकी कल्पना गुरुदेवने भली भांति की थी। ज्ञानकी ज्योतिसे समाजका प्रत्येक कोना जगमगा उठे, समाज क्रान्तिके प्रकाशमें चमक उठे, यह गुरुदेवकी अभिलाषा ४. श्री पार्श्वनाथ उम्मेद जैन कालेज फालना प्रारम्भमें मिडिल स्कूल, फिर हाईस्कूल, और इन्टर कालेज तथा सन् १९५८ में डिग्री कालेज बनी। संस्थाकी प्रारम्भिक अवस्थामें इस संस्थाकी गुरुदेवके शिष्यरत्न श्रीमद् विजयललितसूरीश्वरजी महाराजने कुशल बागबानकी तरह देखभाल की। उनके आशीर्वादका यह फल है कि संस्था निरन्तर विकासोन्मुख है । इन आचार्यश्रीका जन्म सं. १९३७ में हुआ था, दीक्षा सं. १९५४ में सम्पन्न हुई । आचार्य पदवीसे आपश्री सं. १९९३ में विभूषित हुए तथा आपका स्वर्गवास सं. २००६, महाशुद दशमके दिन खुडाला (जिला पाली) में हुआ। ५. गुरुदेवने समाजोत्थानके लिये कन्याशिक्षाको अत्यन्त ही आवश्यक बतलाया। आत्मविकासको दृष्टिसे भी उन्होंने कन्याशिक्षाको उपयोगी माना था। समाज में व्याप्त फिजूलखर्ची, दहेजप्रथा, रुढ़ियां, अन्धविश्वास आदिके उन्मूलनके लिये महिलाशिक्षा रामबाण औषधि है यह गुरुदेवकी मान्यता थी। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ दिव्य जीवन थी। इस अभिलाषाको पूरी करनेके लिये गुरुदेव जीवनभर कार्य करते रहे; इस कार्यको आगे बढ़ाना समाजका कर्तव्य है। एक ऐसी व्यवस्थाकी भी आवश्यकता है जो ये देखे कि करुणामूर्ति गुरुदेवकी ये फूलवारियां पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं या नहीं। धनरूपी जलके अभावमें ये मुरझा तो नहीं रही है ? 'अखिल भारतीय वल्लभ शिक्षा समिति' का निर्माण इन शिक्षाकी पुष्पवाटिकाओंके फलने-फूलनेके लिये नितान्त आवश्यक है। इस समितिके संरक्षणमें वल्लभकी ये पुष्पवाटिकायें हरीभरी रहे । गुरुदेवकी अभिलाषा थी जैन विश्वविद्यालयको स्थापना करना। उनकी अभिलाषा मधुर स्वप्न बनकर रह गई है, परन्तु उनके ये शब्द आज भी गूंज रहे हैं : “शिक्षाकी वृद्धिके लिये एक जैन विश्वविद्यालय नामक संस्था स्थापित होवे । फलस्वरूप सभी शिक्षित होवें और भूखसे पीड़ित न रहें।" इस अभिव्यक्तिमें दो दृष्टिकोण स्पष्ट हैं : प्रथम, सभी शिक्षित हों यह । इसमें शिक्षाकी व्यापकताकी ओर संकेत है। द्वितीय, कोई भूखसे पीड़ित न रहे। इसमें ऐसी व्यावसायिक एवं उद्योग-हुनरवाली शिक्षाका उल्लेख है, जो विद्यार्थीको स्वावलम्बी बनाती है। . जैन विश्वविद्यालयमें वे उच्च कोटिकी आधुनिक शिक्षाके साथ साथ जैन दर्शनकी पीठिका (chair) भी स्थापित करना चाहते थे। जैन दर्शनके ऊंचे स्तरीय अध्ययन एवं शोधकार्य (research) के साथ साथ अन्य दर्शनोंका तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक ज्ञान कराना उनका पुनीत उद्देश्य था। विद्यार्थीमें समन्वयदृष्टिका विकास हो यह उनकी भावना थी। उच्च शिक्षाके बिना आधुनिक युगमें विकास संभव नहीं। युगमूर्तिने इसीलिये जैन विश्वविद्यालयकी कल्पना की थी। गुरुदेवने जीवनके अंतिम समयमें भी बम्बईमें संवत्सरि-सन्देशमें यह कामना की थी : "आज इस महान पर्वके दिन में जैन संघसे आशा रखता हूं कि वह जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी जैन यूनिवर्सिटी कायम करे।" ____ क्या जैन विश्वविद्यालयकी कल्पना सजीव नहीं बन सकेगी ? समाजके उचस्तरीय व्यावहारिक एवं दार्शनिक अध्ययनकी व्यवस्था करनेवाला विश्वविद्यालय क्या रंगीन ही बना रहेगा। समाजके आकाशमें गुरुदेवका यह स्वप्न उषाकी लालिमाके समान छिटका हुआ है। हजारों बालक-बालिकाओंकी स्वप्निल आंखोंमें वह इन्द्रधनुषी कल्पना बसी हुई है। क्या समाज पर लक्ष्मी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ दिव्य जीवन देवीकी कृपा नहीं है ? मेरे विचारमें समाजमें धनकी कोई कमी नहीं, साधनोंका कोई अभाव नहीं, एक वस्तु की कमी है-- वह है समाजसेवाकी भावनाकी। गुरुदेवने विद्यार्थियोंको चरित्रवान बननेका उपदेश दिया। अपने एक भाषणमें उन्होंने कहा था : “विद्याध्ययनसे तुममें मानवसेवा, देशसेवा एवं करुणाके भाव उत्पन्न हो। तुम्हारे खान-पानमें शुद्धता हो, तुम्हारी वाणीमें संयम हो तथा तुम्हारे आचरणमें मानवता और प्रेम हो।" श्री महावीर जैनविद्यालयके विद्यार्थियोंको संबोधित करते हुए गुरुदेवने पुस्तकालयोंके उपयोगका उल्लेख किया था : “तुम्हारे पुस्तकालयमें जो ज्ञानका भंडार है उससे प्रेरणा प्राप्त करो। तुम उस ज्ञानसे अपने चरित्रका गठन करो और ऐसा जीवन बिताओ जिससे समाज और समस्त देशका कल्याण हो।" गुरुदेवके विविध प्रवचनोंसे यह स्पष्ट है कि वे विद्यार्थीको राष्ट्रके सुनागरिकके रूप में देखना चाहते थे। सुनागरिकमें चरित्रबल रहता है। आज चरित्रका अभाव सर्वत्र दिखाई दे रहा है, फलस्वरूप देशमें विषमता, भ्रष्टाचार एवं हिंसा पनप रही है। राष्ट्रीय चरित्रका अभाव अवनतिका लक्षण है। गुरुदेवने विद्यार्थीको राष्ट्रके खजानेका दिव्य हीरा कहा। दिव्य' हीरेकी कांति समाज और देशमें उजाला करती है। हीरेको तराशनेसे उसकी कांति फूटती है। शिक्षासे यह दिव्य कांति निकलती है। इसीलिये गुरुदेवने शिक्षाप्रचारके लिए अपने जीवनको समर्पित कर दिया। शिक्षाके प्रति उनकी आस्था इन शब्दोंमें अभिव्यक्त हुई है : " शिक्षा मुरझाई हुई समाजवाटिकाको खिलानेवाला बसन्त है।” ६. श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बईकी स्थापना सन् १९१५में हुई थी। बम्बईके अतिरिक्त इसकी अहमदाबाद, पूना, बडौदा, वल्लभविद्यानगर (आणंद) तथा भावनगरमें शाखायें सुचारु रूपसे चल रही हैं । इन सुव्यवस्थित छात्रालयोंमें समाजके निर्धन एवं प्रतिभासम्पन्न विद्यार्थियोंको लोन-सहायता प्रदान कर प्रवेश दिया जाता है। इनमें रहकर छात्र संबद्ध विश्वविद्यालयोंमें उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं। इनमें पुस्तकालयोंको भी सुव्यवस्था है। महावीर जैन विद्यालय बम्बईके तत्त्वावधानमें आगमसूत्रोंका संशोधन एवं संपादनकार्य भी सम्पन्न हो रहा है। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यकला [आचार्यश्री स्तवन-सज्झाय-संग्रह, श्री चारित्र पूजा, पंचतीर्थ पूजा, पंच परमेष्ठी पूजा, भीमज्ञानद्वात्रिंशिका, जैन भानु आदिके रचयिता हैं। उनकी कला और शैली मनोरंजनी है। उनकी रचनाओंकी समीक्षात्मक झांकी प्रस्तुत है।] आचार्यश्रीको कविकी सरस प्रतिमा मिली थी। उनके गीतोंमें काव्यके दोनों पक्षोंका सुन्दर निर्वाह हुआ है। स्तवन-गीतोंमें हृदयगत भावोंकी अभिव्यक्ति रसानुकूल भाषामें हुई है । ऐसा लगता है कि एक एक शब्द हृदयरसमें भीगा हुआ है। प्रभुमूर्तिकी दिव्य झलक कविको कैसी लगी? एक मनमोहिनी झांकीको निहारिये : शांत वदन प्रभु तुम दर्शनसे मोद होवे शशी निकसे बादलसे। --- अहा कैसा दिव्य रूप है निर्मल प्रभुके शांत मुखका! जैसे बादलके आवरणसे चन्द्र बाहर निकलता है वैसे ही प्रभुका सौम्य मुखडा दिखाई देता है। प्रकृति-चित्रणमें कविका मन रमा हुआ है, ऐसा लगता है। एक चित्रकारने अपनी मनोरम तूलिकासे चित्र चित्रित किया है। कविका मनमधुकर प्रभुके चरणकमलोंमें मकरंद पान करने में मस्त है : सुख संपद प्रभु तुम पदपंकजमें विलसते मधुकर जेम सेवक तुम गुण मकरंद कारण रहते निशदिन तेम।' -- चरणकमलकी मधुर सुगन्ध भौंरेको आकर्षित कर रही है। मकरंदपानके लिए मधुकरने समर्पण कर दिया है। यह मकरंद है - गुणोंका। कमलदल पर भ्रमर-मंडल रसपान कर रहा है। मनमधुकरका प्रभुचरणमें ध्यानका एक बेजोड़ दृश्य उपस्थित हो गया है। १. आत्म-क्रान्ति-प्रकाश-स्तवन-गीतसे । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन सत्-चित्-आनन्द स्वामीकी अलौकिक रूप-छटाको अवलोक कर मन सुधबुध खो गया है। भक्त सोच रहा है कि प्रियतम तो जन्म-जन्मान्तरका सखा है, मित्र है । मायाके भ्रममें बीचमें साथ छूट गया तो भी क्या हुआ ? मैं कदापि अपने प्रिय मित्रका स्नेह नहीं छोडूंगा यही मेरी टेक है ४८ मित्र अनादिके बने आखिर में भी एक बिचमें छूटा पड़ गए तो भी न छोड़ो टेक | --- • सन्त कवि सूरदासकी तरह कवि वल्लभका प्रियतम सखाके प्रति सख्य भाव यहां दर्शनीय है । स्नेहमें किसी प्रकारका पर्दा नहीं है । मित्रसे क्या छिपाना ? स्नेहसे स्नेहका आकर्षण होता है । स्नेहमूर्ति स्नेही जनको चुम्बकी तरह खींचती है । 1 कविकी आत्मा प्रियतमा है, करुणामूर्ति प्रियतम । प्रियतमा मीठा उपालम्भ देती है : आनन्द धारी प्रभु सुखकारी पार उतारी, तुम निज रूप रम रहे, हम दलते संसार । - संसारकी मायामें भटकती प्रेयसीका अपने प्रेम पर पूर्ण विश्वास है । उसे विश्वास है कि वे अवश्य सुध लेंगे । यह आत्मजागृति होने पर जीवात्माका उद्धार होने लगता है । वह प्रेममूर्तिको पानेके लिये भक्तिका अवलम्ब लेती है । भक्तिभाव आने पर संसारके सुख उसे विषमय लगने लगते हैं । अमृत फलको चखनेके बाद करील फलोंको कौन बावला चखेगा ? हम रुलते संसारमें अपने प्रति झुंझलाहट प्रियके प्रति स्नेहभरा उलाहना तथा अपने जीवनके प्रति क्षेम - सभी एकसाथ प्रकट हुए हैं। इसे भावोंका गुलदस्ता कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । कवि-कला-कौशलका यह अनोखा उदाहरण है । कवि वल्लभने आनन्दघन करुणामूर्तिकी असीम करुणाका गुणगान किया है । करुणाघनकी शान्त एवं सुधादृष्टि करुणाकी अमृतवर्षा करती है । वे सबका कल्याण करते हैं । वे देश और धर्मके अवलम्ब हैं । वे परम हितैषी एवं लोकनाथ हैं । वे प्राणिमात्रका भ्रम हरण करनेवाले स्वामी हैं : लोकनाथ नायक हितकर्ता देशक धर्मके भवभयहर्ता । - भक्तको अपने भगवानको निवेदन करना पड़ा। वह स्वामीके द्वार पर पड़ा है, पर स्वामीने सेवककी सुध क्यों न ली ? सेवकको कहना पड़ा : Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन अपने जन सब तुमने तारे मौन किया प्रभु सेवक तारे ऐसा नाथ न चाहिये आप विचारना रे । - इस आत्मनिवेदन में स्वामीके प्रति सेवककी अपार श्रद्धा झलकती है । भक्तको ज्ञात हुआ कि देह-देवालय में ही स्वामी पधारेंगे। शुद्ध और पवित्र मन प्रभुका सिंहासन है : में कामी प्रभु तुम निष्कामी । कामना मुज तुजमें जगस्वामी करो अकाम वंछित दातार । - स्वामीके प्रति भक्ति से भक्तहृदय निष्कामी एवं पवित्र बन सकेगा । कविने करुणाघनका रूप इस प्रकार बतलाया है । राम रमे निज रूपमें रहम करे सो रहीम । --- - प्रभु दयाके रूपमें रमता है। जहां दया है, रहम है, वहां राम, रहीम, कृष्ण, करीम निवास करते हैं । रिये : इस पंक्ति अनुप्रास अलंकारका कैसा सरस प्रयोग हुआ है ! कवि वल्लभने ' विविध पूजा संग्रह ' में मानस - रंजिनी काव्यकलाका परिचय दिया है | विविध राग-रागिनियोंसे गीतों में संगीतात्मकता आ गई हैं,। ललित कलाओंम संगीतकी मधुरता श्रवणपुटोंमें सुधा घोलती है, हृदय - वीणाके तारोंको झंकृत कर देती है तथा उससे रोम रोम पुलकमें नाचने लगते हैं । बात्रिोंकी ध्वनि भी इन गीतोंमें सुनाई देती है। दि. -४ त्रों त्रों त्रिक त्रिक वीणा बाजे, धौं धौं मप धुन ढक्कारी, दगड दडं दगड दडं दुर्बुभि गाजे, ता यह ता थेई जय जय कारी । - नादसौन्दर्यका कैसा सरस नमूना है यह ! ऐसा लगता है कि संगीत - मंडली में हम बैठे बैठे विविध वाद्य यंत्रोंकी संगीतध्वनियोंका रसास्वादन कर रहे हों । गीतोंमें सजीवता एवं चित्रोपमता देखते ही बनती है । ४९ सच्चिदानन्द हृदयाकाशमें कैसे दिखाई देते हैं. -- तुम चिदघन चंद आनंद नाथ । - एक रम्य रूप निहा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ---हे स्वामी, तुम चित्तरूपी घनमें चन्द्रमाके समान आनन्दकी चांदनी छिटका रहे हो। यहां रूपक-अलंकार द्वारा उस दिव्य छविका अंकन किया गया है। प्रकृतिके विविध रूपोंमें कवि वल्लभकी आत्मा रमती हुई दिखाई देती है। प्रकृतिके सरस दृश्योंके द्वारा उस दिव्य तथा अलौकिक छविको कविने प्रदर्शित किया है। प्रकृतिकी रमणीयताने कविके हृदयको छू लिया है ऐसा लगता है। उस दिव्य मूर्तिके चित्रणमें कोमल कान्त पदावलीका प्रयोग हुआ है। एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है : . निर्मल पदधारा मल हरनारा वीर प्रभु भगवान। -- प्रभुके चरणकमलसे बहनेवाली करुणाकी जलधारासे हृदयके समस्त मलकषाय (काम, क्रोध, मद, मान, लोभ आदि) बह जाते हैं। हृदय शुद्ध हो जाता है, प्रभुका पावन मंदिर हो जाता है। इसमें बहती हुई जलधाराका दृश्य आंखोंके सामने झूमने लगता है। कलकलनादिनी जलधाराका कर्णमधुर शब्द भी हम सुन सकते है, अन्तःश्रवण ही इस स्वरमधुका पान कर सकते हैं। आचार्यश्रीने चारित्र पूजामें अलंकारोंका मनमोहक प्रयोग किया है। अलंकारप्रयोग भावप्रकाशनके लिए होता है । अलंकार कविताकामिनीका शृंगार करते हैं, उसका रूप निखार देते हैं। थोड़ेसे शब्दोंमें गहन भाव भरनेकी कला कितने कवियोंमें होती है ? यह प्रतिभा थी आचायदेवमें। सघन भावसे युक्त इन पंक्तियोंको देखिये : दर्शनथी दर्शन गुण प्रकट जिन दर्शन बिन दर्शन नावे । यहां यमक-अलंकारका प्रयोग रसानुकूल हुआ है। दर्शन शब्दके अलग अलग स्थानोंमें अलग अलग अर्थ हैं। दर्शन अर्थात् देखना और दर्शन अर्थात् श्रद्धा या भक्ति (Faith) । प्रभुमूर्तिके दर्शनसे दर्शन या श्रद्धा विकसित होती है। बिना दर्शनके श्रद्धा या भक्ति भागती है। __आचार्यश्रीने भावप्रकाशनके लिए सरल एवं चलती भाषाका प्रयोग किया है। कविका उद्देश्य कवित्वका प्रदर्शन नहीं है, आत्मरंजन ही लक्ष्य रहा है। चलती भाषाका एक नमूना यह है : ___ तुम मूर्ति मुझ मन केमेरा, फोटू सम स्थिर एक विपल में। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ५१ -- - केमेरेके क्लिकके साथ फोटूके खिचे जाने और प्रभुमूर्तिको देखकर हृदय पर अंकित हो जानेमें समानता दिखाई देती है । केमेरा और फोटू शब्दों का प्रयोग बोधगम्य है । भाषा में वैज्ञानिक शब्दावलीका समावेश होना चाहिये तथा उसमें जनजीवनकी झाँकी रहना चाहिये । होलीका एक भावपूर्ण वर्णन पढ़कर मीराकी याद हो आती है : ज्ञान रंग समता पिचकारी छांटो सुमता नार रे, ज्ञान ध्यान तय जप आगीमें अष्ट कर्मको जार रे । दिव्य तेज चिन्मय सिद्ध प्रगटे आवागमन निवार रे, आत्म लक्ष्मी होरी खेली 'वल्लभ' हर्ष अपार रे ।। मीराबाईने भी गाया है : फागुन के दिन चार रे होरी खेल मना रे, सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे । उडत गुलाल लाल भयो अंबर बरहत रंग अपार रे, घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे । होरी खेल पिव घर आये सोइ प्यारी पिय प्यार रे, मीराके प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे ॥ इस प्रकार भक्तिकी पिचकारी में प्रेमका रंग भरकर सन्तोंने होली खेली है । [ गुरुदेव के निबन्धसंग्रह, वल्लभप्रवचन प्रथम एवं द्वितीय भागोंका समीक्षात्मक अध्ययन ] १२ गद्य - शैली आचायदेवके भाषण वल्लभप्रवचन' में संकलित हैं । इन भाषणोंकी शैली प्रभावशालिनी तथा बोधगम्य है । सरल शब्दोंमें गहन भावोंको समझानेकी गुरुदेवकी क्षमताको देखकर उन्हें उच्च कोटिका गद्यलेखक मानना उपयुक्त होगा । " धर्मकी व्याख्या करते हुए गुरुदेव कहते हैं : " धर्म हृदयमें घुसी हुई दानवी वृत्ति, स्वार्थलिप्साको निकालता है और उसमें मानवताकी प्राण Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन प्रतिष्ठा करता है । जबकि अधर्म मानवके हृदयमें स्वार्थवृत्ति, राक्षसी प्रवृत्ति, संग्रहखोरी और दूसरोंको हानि पहुंचानेवाली दानवी वृत्तिका ओर प्रेरित करता है।" -- धर्मका प्रकाश 'शीलका प्रभाव' निबन्धमें गुरुदेव प्रारम्भमें लिखते हैं : “शील जीवनका भूषण है। शील उत्तम चरित्रको कहते हैं।" थोड़ेसे शब्दोंमें कितनी गूढ़ बात कह दी ! इसे कहते हैं सूक्तिशैली। अंग्रेजी साहित्यम निबन्धकार बेकन महोदयकी ऐसी ही शैली है। हिन्दीमें आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीकी शैलीमें इसी प्रकारकी गरिमा है। गुरुदेवकी शैली पाठकों एवं श्रोताओंको स्नेहके धागेसे बांधती तथा मनको छूती हुई नदीकी अबाध धाराकी तरह प्रवाहित होती है। एक नमूना प्रस्तुत है : "तपका नाम सुनकर आप घबराइये मत । क्योंकि तपका अर्थ केवल खाना-पीना बन्द करना ही नहीं है; तपस्या जीवनको बुराइयोंकी ओर जानेसे रोकती है। “विनय धर्मका मूल है। विनम्रतामें लचीलापन होता है, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि विनम्र व्यक्ति गंगा गये गंगादास, जमना गये जमुनादास हो जाय । लचीलापन होने पर भी विनम्र व्यक्ति सिद्धान्तपालनमें दृढ़ होता है। विनय जीवनरूपी सोनेको लचीला बना देता है। जबतक सोना नरम नहीं होता तबतक उसमें नग भी नहीं जडा जा सकता। सद्गुणोंके नग जड़नेके लिये पहले जीवनरूपी स्वर्णको नरम बनाना होगा।" इन शब्दोंमें गुरुदेवने आलंकारिक शैलीमें विनयकी सरस व्याख्या की है। शब्दोंमें अर्थ इसी प्रकार प्रतिबिम्बित होता है कि जिस प्रकार दर्पणमें परछाई । अर्थ कितना स्पष्ट है ! शैलीकी विशेषता देखते ही बनती है ! प्रकृतिकी सुरम्य छटामें गुरुदेवकी लेखनी क्रीडा करती हुई दिखाई देती है । गुलाबके पुष्पोंको आप और हम सदा देखते हैं, परन्तु साहित्यकारकी दृष्टि अनूठी होती है। वह उसमें से जो भाव ग्रहण करता है उसका कारण है उसकी प्रतिभा। 'सेवाकी सौरभ' शीर्षक निबन्धमें गलाब पुष्पको देखकर गुरुदेव क्या सोचते हैं ? -- "गुलाबके फूलकी खुशबूसे आपका दिल बाग बाग हो जाता है। पता है, गुलाबने इतनी खुशबू कैसे पाई ? कांटोंके बीच उसकी शय्या रहती है Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन और दूसरोंके हृदयको आकर्षित करनेके लिये भी वह अपनी खुशबू लुटाता रहता है।" ___ गुरुदेवका चिन्तन मौलिक है। उसमें नवीनता है। वसन्तके फूलोंकी ताजगी जैसे मनको मोहित कर देती है वैसे ही गुरुदेवकी मौलिकता मनको मुग्ध कर देता है। ___ त्यागका महत्त्व क्या है ? -- गुरुदेवके इस कथनमें सारा निचोड़ है : "जीवन अगरबत्तोके समान स्वयं जलकर दूसरोंको सुगन्ध प्रदान करता है, आसपासके वातावरणको सुरभित बना देता है।" त्यागमय जीवनकी तुलना अगरबत्तीसे करके गुरुदेवने सब कुछ समझा दिया। जीवन अगरबत्तीकी तरह सुगन्ध बिखेरता रहे इसीमें उसकी सफलता है। वह सुगन्ध है अच्छाईकी। 'ईश्वरका स्वरूप 'में गुरुदेव' लिखते हैं : “वैदिक धर्म जिसे निरंजन, निराकार ईश्वर कहता है, जैनधर्ममें उसे सिद्ध परमात्मा कहा है। ईसाई धर्ममें उसे गोड (God) और मुस्लिम धर्ममें खुदा कहा है। सिक्ख लोग उसे कर्तार कहते है, कबीरपंथी उसे सांई कहते हैं। कोई उसे राम कहते है कोई हरि या विष्णु कहते हैं। पारसीधर्म में उसे अशोजरथुस्त कहा है।" कैसी समन्वयदृष्टि है गुरुदेवकी ! इसी समन्वयदृष्टिमें समभाव बसता है। समभावमें सबके प्रति प्रेम झलकता है। गुरुदेवकी प्रेमभावना पत्थरको भी मोम बना देती थी। __'ईश्वर कहां है' निबन्धमें गुरुदेव कहते हैं : “ईश्वरका सर्वत्र वास है यह समझ कर अपने अंदर सोये हुए ईश्वरको व्यक्त करनेका पुरुषार्थ करो। उस विराट ईश्वरको घट घटमें देखो और अपने हृदयमें ईश्वरत्वको सुरक्षित रखो।" गुरुदेव हास्यके छींटे बिखेरते हुए पाठकों एवं श्रोताओंको अपने विश्वासमें लेते हुए अपनी बात कहते है। 'धर्म क्या है' निबन्ध, गुरुदेवकी विनोदी प्रकृतिका एक रूप निहारिये: __ “धर्मको फर्नीचर मत बनाओ। जैसे कोई शोभा या प्रतिष्ठाके लिए मकानमें टेबल, कुर्सी, सोफासेट, पलंग, झाडफानूस, कांचकी आलमारियां आदि फर्नीचर बढ़ा लेता है, इसी तरह बहुतसे लोग ऐसा सोचते हैं कि Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन दुनियादारीके सब काम तो करते ही है, लेकिन दिखावेके लिये थोडासा दान नहीं देंगे, कुछ व्रत नहीं लेंगे तो लोग अच्छा नहीं कहेंगे।" कैसी मीठी चुटकी भरी है इन शब्दोंमें ! पुण्य और पापकी व्याख्या थोड़ेसे शब्दोंमें कितनी स्पष्ट बन पड़ी है : “जो शुभ कार्यके जरिये आत्माको पावन करता है वह पुण्य है और जो अशुभ कार्योंके द्वारा आत्माको नीचे गिरा देता है, वह पाप है।" 'व्यसनोंसे राष्ट्रको बचाइये' शीर्षक भाषणमें गुरुदेवका देशप्रेम झलकता है : “शत्रुराष्ट्रोंकी अपेक्षा ये व्यसनरूपी दुश्मन अधिक जबर्दस्त है। जुआ, चोरी, मांसाहार, मद्य, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन और शिकार --ये सप्त व्यसन मनुष्यको पतनके गर्तमें गिरा देते हैं।" गुरुदेवकी तीखी एवं चुभती शैलीका एक उदाहरण प्रस्तुत है : “व्यसन और मृत्यु दोनों कष्टकर है, लेकिन व्यसन मृत्युसे भी बढ़कर कष्टकर है।" · गुरुदेवको शैलीकी विशेषता यह है कि वे बीच बीचमें कथा, संस्मरण एवं रोचक प्रसंगोंका उल्लेख भी करते हैं। धूम्रपानके विषयमें गुरुदेवने कच्छके एक युवककी कथा कही है : ___ “कच्छके एक युवकको बीड़ी पीनेका व्यसन लग गया था। अत्यधिक धूम्रपानसे उसके फेफड़े खराब हो गये, खांसी होने लगी। उसे डाक्टरको दिखाया गया। डाक्टरने उसके शरीरकी जांच करके कहा-- तुम्हारे फेफड़े खराब हो गये हैं। तुम्हें टी० बी० (क्षय)की बीमारी हो गई है। धूम्रपानकी आदतने उसे इतना जर्जर बना दिया कि दवाका उसके शरीर पर कोई असर न हुआ। आखिर एक दिन वह युवक इस संसारसे चल बसा। बीड़ीका व्यसन उसके दुख व मरणका कारण बना।" ____ गुरुदेवकी कथात्मक शैलोमें सजीवता है। गुरुदेवने विद्यार्थियोंकी एक सभामें सिगरेटको मृत्युकी बांसुरी कहा था। गुरुदेव कहते हैं : “हमारे राष्ट्रका उत्थान सादे जीवन और उच्च विचारसे हुआ था, लेकिन अब अनेक व्यसनोंमें फंस जानेके कारण विलासिता, आलस्य, दरिद्रता, फैशन और चरित्रहीनता आदि बुराइयोंके जड़ जमानेसे पतन हो रहा है।" गुरुदेवके प्रवचनमें एक सरस एवं प्राणवान साहित्यकारकी सशक्त भाषाके दर्शन होते हैं । वल्लभप्रवचन' प्रथम एवं द्वितीय भागोंके निबन्धों Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ले पाठकके मनमें अच्छे विचारोंका अंकुरण होता है। शैलीकी रोचकताके कारण कहानी और नाटकका-सा आनन्द प्राप्त होता है। ज्ञानकी गरिमा एवं अनुभवके माधुर्यने शैलीको सुन्दर बना दिया है। वर्षा ऋतुकी प्रथम वृष्टिकी सौधी वायुका कोमल स्पर्श जैसे आनन्द प्रदान करता है वैसी ही आनन्दानुभूति इन निबन्धोंको पढ़नेसे होती है। कुछ प्रेरक संस्मरण निर्भीक सन्त -- गुरुदेव उदयपुर पधारे। उनके प्रवचनोंकी धूम सारे नगरमें फैल गई थी। जनताकी विशाल मेदनी उनके व्याख्यान सुनने के लिये लालायित रहती थी। राज्यकर्मचारी भी उन व्याख्यानोंसे अत्यधिक प्रभावित हुए । उदयपुरके महाराणाजी श्री भोपालसिंहजीने जब गुरुदेवके प्रवचनोंके बारेमें सुना तब उनके मनमें उस अमृत तुल्य वाणीको सुननेकी उत्कंठा उत्पन्न हुई। महाराणाजीने अपने मंत्री द्वारा गुरुदेवको प्रार्थना की कि आपकी वाणी-सुधासे हमें भी तृप्त कीजिये। गुरुदेवने विनती स्वीकार की और गुलाबबाग राजमहलमें व्याख्यानका आयोजन किया गया, जिसमें राणाजीके साथ राज्यकर्मचारी एवं विशिष्ट गणमान्य नागरिक उपस्थित हुए थे। ____ व्याख्यानके अन्तर्गत कर्मवादका प्रसंग आया। गुरुदेवन कर्मसिद्धान्त पर अच्छा प्रकाश डाला। प्रसंगवश गुरुदेवने महाराणाजीकी ओर इशारा करते हुए कहा : “ देखिये, सामने बैठे हुए उदयपुरके महाराणाजीको। महाराणाजीका ऊपरका अंग अतीव सुन्दर दिखाई दे रहा है, परन्तु इनके पांव अपंग हैं। कर्मका कैसा प्रभाव है ! राजा-महाराजाको भी यह छोड़ता नहीं है । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह अच्छे कामोंमें रस ले तथा बुरे कामोंकी ओर कभी भी प्रवृत्त न हो।" गुरुदेवसे इस मिसालको सुनकर जनता गद्गद् हो गई। लोगोंने सन्तकी निर्भीकताकी भूरि भूरि प्रशंसा की। विद्यार्थी-सम्मेलन --- गुरुदेव विद्यार्थियोंको राष्ट्रके दिव्य हीरे कहते थे। उनका कथन था: “जैसे : खानसे निकले हीरोंको तराशा जाता है, फिर उनकी दिव्यता फूटती है, वैसे ही उत्तम शिक्षासे ये हीरे निखरते हैं और अपने गुणोंकी चमकसे समाज और राष्ट्रको चमका देते हैं।" Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन " संवत् १९८४ में पाटणके पंचासरा पार्श्वनाथ मंदिरके प्रांगण में गुरुदेवकी निश्रामें एक विशाल विद्यार्थी सम्मेलन आयोजित हुआ था । इस सम्मेलन में पंजाब, गुजरात, राजस्थान आदि प्रदेशोंके विद्यार्थी सम्मिलित हुए थे । गुरुदेवने विद्यार्थियोंको उद्बोधन करते हुए कहा : अपना चरित्रबल विकसित करो । राष्ट्रके सुनागरिक बनो । राष्ट्र और समाज तुम्हें आशाभरी दृष्टिसे देख रहा है । देशप्रेम, मानवता, प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभाव रखते हुए अच्छे कामोंकी सुगन्ध संसारमें फैलाओ ।" ५६ महावीर जैन विद्यालय के सम्मेलनमें गुरुदेवने विद्यार्थियोंको चरित्रवान नागरिक बननेका सदुपदेश दिया था । गुरुदेवने विद्यार्थियोंको जागृत किया तथा सद्जीवनकी ओर उन्हें उन्मुख किया। उनका शिक्षाप्रेम विद्यार्थियोंके प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है । गुरुदेवने राजस्थान, पंजाब, उत्तरप्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र में अनेक सभाओं में विद्यार्थियोंको उद्बोधन किया । इन प्रवचनोंका यह प्रभाव हुआ कि विद्यार्थीजगत् में जागृति आई और उनमें देशप्रेम, मानवता एवं सुनागरिकताके भाव पनपे और वे सेवापथ पर बढ़ने लगे । आज भी उस स्वरकी आवश्यकता है। आजको विषम परिस्थितिमें गुरुदेवका स्मरण हो आता है। गुरुदेव विद्यार्थी मित्रके रूपमें सदा स्मरणीय रहेंगे । मानवताकी मूर्ति -- गुरुदेव संवत् १९५४में मालेरकोटला पधारे। वहां काल पड़ गया । गुरुदेवने जनताके कष्टसे पीड़ित होकर राहतफंड स्थापित करवाया। वहां अन्न और जलके कष्टसे पीड़ित भाई-बहनोंको गुरुदेवने बिना किसी भेदभाव के सहायता पहुंचवाई। ऐसे थे महामानव गुरुदेव -- मानवताकी प्रतिमा। ऐसे कितने ही प्रसंग हैं जब कि गुरुदेवने पीड़ितोंको सहायता एवं राहत पहुंचवाई थी । गुरुदेवने पीड़ित प्राणियोंकी सेवामें जीवन बिताया । जहां कहीं दुष्कालसे पीड़ित मानव, पशु आदि देखे, वहां राहतफंड स्थापित करवा कर सहायता पहुंचाई। जहां असहाय विधवा या भाईबहन देखें वहां उन्होंने सहायताफंड स्थापित करवाये और शिक्षाके अभाव में जहां विद्यार्थियोंकी बाधायें देखी वहां उन्होंने छात्रवृत्तियां और आर्थिक सहायता देकर विद्याकी ओर उन्हें प्रवृत्त किया । निमोह वृत्ति व उदार दृष्टि -- संवत् २००१ का बीकानेर चातुर्मासका प्रसंग हैं । गुरुदेवके प्रवचनोंका प्रभाव समस्त जनता पर पड़ गया था । बीकानेरकी महारानी साहिबाने श्रद्धा-भक्तिसे गुरुदेवके पास अपने प्राइवेट सेक्रेटरी पं० दशरथजी शर्मा एम० ए०के साथ कुछ रुपये और दो नारियेल Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन भेंट स्वरूप भेजे। गुरुदेवने सेक्रेटरी महोदयको कहा : “महारानी साहिबासे निवेदन कीजिये कि मैं आपके शुभ भक्तिभावका आदर करता हूं, परन्तु हम जैन साधु कोई चीज नहीं लेते। हमारे लिये पैसा अस्पृश्य है और दूसरी चीजें भी, जो हमारे निमित्तसे लाई गई हों, अग्राह्य हैं।" महारानीजी इस उत्तरसे अत्यन्त ही प्रभावित हुई और गुरुदेवका व्याख्यान सुननेके लिये उत्कंठित हई । गंगा थियेटरमें व्याख्यानकी व्यवस्था की गई। व्याख्यानमें रानी साहिबा, पर्देकी पूर्ण व्यवस्थाके साथ बिराजी। अनेक पर्देवाली महिलायें, राज्याधिकारी एवं नगरके गणमान्य लोग भी आये थे। यह व्याख्यान ५ नवम्बर १९४४के दिन सबेरे दस बजे हुआ था। गुरुदेवका प्रवचन इतना प्रभावशाली था कि महारानी साहिबा अत्यन्त ही सन्तुष्ट हो गई। ___ इस प्रकार गुरुदेवने राजा-महाराजाओं, रानी साहिबा तथा पंडितोंको अपने विद्वत्तापूर्ण सारगर्भित प्रवचनोंसे प्रभावित किया था और उनको सत्यपथगामी बनाया था। गुरुदेवकी सभामें सभी जातिके लोग सम्मिलित होते थे। उनकी व्याख्यानशैलीकी विशेषता यह थी कि वे कुरान, बाइबल, गीता, उपनिषद् तथा सभी धर्मग्रन्थोंके उद्धरणों एवं उदाहरणोंसे धर्मके रहस्यको समझाते थे। गुरुदेवमें विश्व-संतका दिव्य रूप था। उनका व्यक्तित्व प्राचीन मानवताके दिव्य प्रकाशसे आलोकित था और उनका आचरण साधुताकी सुगन्धसे सुवासित था। खादीधारण व राष्ट्रभावना -- आचार्यश्रीने संवत् १९७६से लेकर आजीवन हाथसे कते-बुने शुद्ध खादीके वस्त्रका प्रयोग किया। उन्होंने अन्य साधु-सन्तोंको तथा लोगोंको भी खादी पहिननेका उपदेश दिया। गुरुदेवने आचार्य पदवी-प्रसंग पर पंडित हीरालाल शर्मा द्वारा कते हुए सूतसे निर्मित खादीकी चादर धारण की। एक प्रसंग तो ऐसा भी था जिसमें गुरुदेवका स्वागत करनेवाले सभी भाई-बहनोंने खादीके वस्त्र पहने थे। इस प्रकार गुरुदेवने राष्ट्रीय भावनाको अपनाया था। गांधीजी द्वारा संचालित शराबबन्दी आन्दोलनमें उन्होंने स्थान स्थान पर दारुबन्दी पर भाषण दिये तथा अनेक राजा-महाराजा तथा जमींदारोंको मदिरासेवन न करनेकी शपथ दिलवाई थी। साधारण जनता तो उनके मद्यनिषेध संबंधी भाषणोंको सुनकर मुग्ध हो जाती थी और मदिराका सदा-सर्वदा परित्याग कर देती थी। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ऐसे थे पूज्य गुरुदेव -- जिन्होंने समाज और व्यक्तिको ऊंचा उठानेका जीवनपर्यन्त सत्प्रयास किया । ५८ www.www.c भव्य अभिनन्दन - - गुरुदेवका शुभागमन संवत् २००२ मार्गशीर्ष शुक्ला ३को मालेरकोटला में हुआ । गुरुदेवका भाव- मीना स्वागत किया गया । मुस्लिम बन्धुओंने, सिक्ख भाइयोंने तथा नगरनिवासियोंने गुरुदेवके स्वागत में गीत गाये, अभिनन्दन पत्र पढ़े । " गुरुदेवने गद्गद् होकर कहा : आपके अभिनन्दनोंके भारसे मैं दब रहा हूं। मुझ जैसे जैन साधुको आप अभिनन्दन पत्र दे रहे हैं, इसका क्या अभिप्राय है ? मेरा धर्म, मेरा कर्त्तव्य, मेरी साधुता, समाज, देश और प्राणिमात्रकी सेवाके लिये है । मेरा यह सन्देश है : भारतकी आजादीमें हम सबका कल्याण है । और आजादी तभी मिल सकती है जब हिन्दू, मुसल - मान, सिक्ख आदि सभी एक हों । हरएक तरहका बलिदान देकर हमें एकता कायम रखनी होगी । यदि प्रत्येक गांव और शहरमें एकता कायम हो जायेगी तो भारतवर्षका विश्वशांतिके काम में महत्त्वपूर्ण स्थान रहेगा । हम सब एक हैं। हम सबको हिलमिल कर रहना चाहिये । हम जब अपने पड़ौसीके दुःखसे दुःखी और सुखसे सुखी होना सीखेंगे तभी हम खुदाके सच्चे बंदे तथा ईश्वरके सच्चे भक्त हो सकेंगे । 33 -- इस भाषणका गहरा प्रभाव था। सभी लोगोंने गुरुदेवकी विशालताकी प्रशंसा की। उनमें प्रेम जागृत हो गया । अनेक मांसभोजी व्यक्तियोंने जिनमें हिन्दू, सिख और मुसलमान भाई भी शामिल थे. - मांसभोजन सदासर्वदा के लिये त्यागने की समामें प्रतिज्ञा की । ऐसे थे महान् गुरुदेव, जिन्होंने समाज और मानवमें अहिंसाके प्रति प्रेम जागृत किया और उन्हें ऊंचा उठाया । जनताने भी जाति और सम्प्रदायके भेदको भूलकर गुरुदेवको अपना सच्चा गुरु माना । - बाणीका अमृत - संवत् १९९८की बात है । गुरुदेव पंजाबके अनेक नगरों एवं गांवों में विहार करते हुए नारोवाल पहुंचे । नारोवाल नगर सजाया गया। गुरुदेव के स्वागत के लिये अनेक बैंड बाजे थे तथा अनेक द्वार रचे गये थे । गुरुदेव के स्वागत के लिये आसपास के गांवोंके लोग आये थे । सार्वजनिक सभामें सभी जातियों के लोग उपस्थित थे । गुरुदेवने सप्त व्यसनों पर भाषण दिया । गुरुदेवके भाषणका सार था : "मदिरापान, मांसभक्षण, शिकार आदिका शौक मनुष्यमात्रके लिये घातक है । इससे मनुष्य अपने तन और ―― Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ५९ मतको कलंकित करता है। तनका नूर ( कांति) समाप्त हो जाता है, मन भी काला बन जाता है । फिर काला मन भगवान या अल्लाहका पावन मंदिर कैसे बन सकता है ? यह मन तो ईश्वरका पावन मंदिर है । फिर राष्ट्रकी अपार हानिकी ओर निगाह डालिये । शराब, बिडी, सिगरेट आदि पर कितना धन नष्ट होता है ! इस धनसे कितने विद्यालय खोले जा सकते हैं, कितने अस्पताल बन सकते हैं तथा कितने उद्योग खुल सकते हैं ? मांसभक्षण तथा शिकार आदिसे हिंसाकी प्रवृत्ति बढ़ती है । इससे बात बात में खून हो जाते हैं तथा राष्ट्र में कलहको बढ़ावा मिलता है । राष्ट्र राष्ट्रके बीच संघर्षो में भी यही हिंसाकी प्रवृत्ति है । अतः प्राणिमात्रके लिये प्रम भाव रखो। " गुरुदेव के भाषण से नारोवालके कप्तान करतारसिंहने गद्गद् होकर कहा : " आचार्यजी ! कृपा करके आप यहां पधारे इसके लिये हम अपनेको भाग्यशाली मानते हैं । मैंने सैकड़ों व्याख्यान सुने हैं, परन्तु ऐसा सुन्दर और तत्त्वयुक्त भाषण तो मैंने आज तक नहीं सुना । मेरे हृदय के अन्तरतममें गुरुदेव - की वाणीका अमृत प्रवाहित हो रहा है । मेरा रोम रोम खुल गया है । " सरदार करतारसिंहजी अपने उद्गार प्रकट करके बैठे ही थे कि वृद्ध मौलवी साहब गुरुदेव के पास पहुंचे और उनके हाथोंको चूम लिया । उन्होंने कहा : सच्चा खुदाका बन्दा आज मिला है। यह फकीर सचमुच औलिया हैं । " ऐसे दिव्य संत थे आचार्यश्री | "1 एकताकी भिक्षा -- संवत् १९८८में गुरुदेव बुरहानपुर पधारे। गुरुदेवके एकता एवं प्रेमके उपदेशसे समाजमें चेतना आई और आनन्दोल्लास छा गया। क्यों न हो? महात्माजीकी चरणधूलके प्रभावसे क्या नहीं हो सकता ? फिर गुरुदेव जहां भी जाते थे, वहां करुणाकी गंगाधारा प्रवाहित हो जाती थी, प्रेमका प्रकाश छिटक जाता था। वहां उन्हें किसीने कहा कि यहां माता-पुत्र के बीच कुसम्प है । वे एकदूसरेसे बोलते तक नहीं और मन-मुटाव - के कारण अलग अलग रहते हैं । गुरुदेव तो प्रेमके पुजारी थे । वे व्यक्तिके दुःखको मिटाकर उसमें प्रेमका प्रकाश जगानेके लिये सदा प्रयत्नशील रहते थे। अतः उन्होंने कहा : मैं माता-पुत्र के बीच प्रेम स्थापित करनेका प्रयत्न " करूंगा । " दूसरे दिन प्रातःकाल एक मुनिके साथ गुरुदेव माताजीके घरमें पहुंचे । उसे धर्मलाभ ( आशीर्वाद ) दिया। माताजीने गुरुदेवको देखकर गद्गद् होकर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन कहा : “गुरुदेव, आज मेरा भाग्य खुल गया है। गोचरी (भिक्षा) लेकर मुझे कृतार्थ कीजिये।" माताजीने गुरुदेवको विनती की ही थी कि समीपके घरसे पुत्र भी गुरुदेवको भिक्षाके लिये विनती करने आ पहुंचा। उसने गुरुदेवको पुलकित होकर कहा : “पूज्य गुरुदेव! आज मुझे भी कृतार्थ कीजिये। यह घर तो मेरी माताजीका है, मैं पासके घरमें रहता हूं। कृपालु, पधारनेकी कृपा कीजिये।" माता-पुत्र दोनोंकी विनतीमें आग्रह और भक्ति थी। गुरुदेवने कहा : “ मुझे तुम दोनोंसे एक वस्तु लेनी है, जिसकी मुझे आवश्यकता है।" दोनोंने गुरुदेवके प्रति भक्ति प्रदर्शित करते हुए कहा : "आप जो चाहेंगे, वह हम भेंट करेंगे। आपके दर्शनसे हमारा जीवन धन्य हो गया है, हमारी कुटिया पवित्र हो गई है। गुरुदेव, फरमाइये।" ___गुरुदेव माता और पुत्रकी मनोदशाको परख गये थे। वाणीका अमृत पिलाकर उनके मनका मैल दूर करने में वे प्रवीण थे, बोले : “तुम्हारी भक्तिभावना श्रेष्ठ है, परन्तु मैं तभी तुमसे इच्छित वस्तुकी भिक्षा मांगूंगा जब कि तुम गुरुआज्ञा माननेका वचन दोगे।" दोनोंने कहा : “गुरुदेव, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, आप जो आदेश देंगे, उसका हम पालन करेंगे।" उस समयका दृश्य अत्यन्त ही आकर्षक एवं सजीव था। माता-पुत्र दोनों गुरुदेवकी ओर आशाभरी आंखोंसे देख रहे थे और गुरुदेव उनके अन्तर्प्रदेशमें झांक रहे थे कि उनमें कितनी भक्ति और कितनी मनुष्यता है ? गुरुदेवने फिर पूछा : “आप लोग सच कह रहे हैं ? आज्ञा मानोगे? मेरी मनोकामना पूर्ण करोगे?" इन शब्दोंने उन दोनोंके हृदयको झकझोर कर दिया : एक नवीन प्रकाश उनमें चमक उठा। दोनोंने पुनः कहा : “गुरुदेव, हम आपके चरणसेवक है, आपकी आज्ञा मान्य है, फरमाइये।" गुरुदेवने उपदेश दिया : “आप लोग भगवान महावीरके उपासक हों, जिन्होंने प्रेमका सन्देश दिया था। आपका खानदान कितना अच्छा है, जिसमें सदा दान और त्यागका महत्त्व रहा है। फिर मुझे यह जानकर आश्चर्य हो रहा है कि माता-पुत्रके बीच वैमनस्य है, अलगाव है। क्या पुत्र माताके मधुर संबंधको भूल गया है ? और क्या माताने पुत्र-स्नेहको त्याग दिया है ? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ६१ माता-पुत्रका स्नेह तो जगतप्रसिद्ध है, फिर मैं यह क्या देख रहा हूं ? अब मेरा वचन मानकर इस वैमनस्यको भूल जाओ और अभी ही दोनों प्रेमसे मिलकर गुरुआज्ञा का पालन करो । प्रेममें शांतिका वास है और शान्तिसे आत्मोद्धार होता है । दोनों प्रेमसे मिलकर अपना और समाजका कल्याण करो। " गुरुदेव वाणी औषधि तुल्य थी । उसने उनके हृदयोंमें प्रवेश करके उनमें प्रेमकी धारा बहा दी । उसने मां-बेटे के अन्तःकरणमें सोते हुए स्नेहभावको जगा दिया। मांने बेटा कहकर हाथ पसारे और बेटेने मां कहकर मांकी छाती मुंह छिपा लिया । यह अद्वितीय दृश्य था । दोनोंकी आंखों से गंगाधारा बहने लगी । इस प्रकार गुरुदेवने मां-बेटे दोनोंसे गोचरी ( भिक्षा ) लेकर प्रेमपूर्वक विदा ली । सारे शहर में यह समाचार फैल गया कि एक संत पुरुषके प्रयत्नसे मां-बेटेका वैमनस्य मिट गया है । सच है -- पारस परसि कुधातु सुहाई ।' (पारसमणि लोहेको भी सोना बना देती है ।) ऐसे थे परोपकारी गुरुदेव । वे स्नेहके स्पर्शसे मानवमनको जीत लेते थे । १४ अमर ज्योति मीत है । यह विदा वेला कि मन के गा चलो आनन्द के अब गीत हे । झर रहा आलोक है आकाश में । झर रहा सौन्दर्य है, रे में ॥ राह ―――― - गीताज्जलि आचार्यदेवका जीवनदीप सितंबर २२, सन् १९५४की रात्रिमें लगभग २- ३० बजे बम्बई में बुझ गया । परन्तु वह दीप बुझा नहीं । उसका दिव्य प्रकाश अमर है । वह प्रकाश मनुष्य के जीवनमें चमक रहा है, समाजके प्रागंण में उसकी दिव्य आभा छिटकी हुई है। उसने मनुष्यमें मनुष्यता जगाई, मुरझाई हुई समाजकी फुलवारीको अपने सेवाजलसे सींचकर हरीभरी बनाई तथा जो पीड़ित, दलित एवं शोषित थे, उनको अपने स्नेहकी शीतल छाया में Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ दिव्य जीवन बिठाया। लक्ष्मीपतियोंको मानवताका गुलाबजल पिलाया। जो अपने धनके नशेम कर्तव्य-भावना भूल गये थे, गुरुदेवने उनको अचेतनावस्थासे जगाया। गुरुदेवको समाजके प्रति सेवा स्वर्णाक्षरोंमें अंकित है। अनेक शिक्षणसंस्थायें आचार्यदेवके यशरूपी नन्दन-काननके कल्प-पुष्प है। ____ गुजराती भाषाभाषी होते हुए भी गुरुदेवने राष्ट्रकी एकताके लिये राष्ट्रभाषाके रूपमें हिन्दीका समर्थन किया। गुजराती एवं संस्कृतके विद्वान होते हुए भी आचार्यश्रीने लोकहितकी दृष्टिसे हिन्दी भाषामें साहित्य-सृजन किया तथा प्रवचन दिये। उनकी हिन्दी सरल है तथा शैली प्रभावशालिनी एवं सशक्त । उनकी काव्यकला सरस है और उनकी गद्यशैली रमणीय है। 'वल्लभ-प्रवचन' ग्रन्थोंमें उनके विविध निबन्ध हैं, जिनमें ईश्वर, धर्म, सेवा, मानवता, शिक्षा आदि विषयों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। आचार्य वल्लभकी साहित्यिक प्रतिभा उच्च कोटिकी है। सब धर्मों के प्रति आदरभाव एवं समन्वयदृष्टिसे वल्लभ जनमनरंजन बन गये। गुरुदेवके मुखमंडल पर ब्रह्म तेज चमकता था। वह तेज था संयमका। उस तेजमें कर्मवीरका उत्साह चमकता था, साधकका तप दमकता था, परन्तु उस तेजस्वितामें भी चन्द्रकिरणके समान शीतलता थी। उस दिव्य चांदनी तुल्य सौम्यतासे दर्शकके कषाय (राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान आदि) मिटने लगते थे। जैसे औषधि से रोग मिटते हैं, वैसे ही उनके दर्शनसे मन स्वस्थ हो जाता था। आचार्यदेवकी करुणा विश्वव्यापिनी थी। वह प्राणिमात्रके लिये जीवनदायिनी थी। मनुष्य मनुष्यके बीचका भेद उन्हें अखरता था। उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी, जैन आदिको प्रेमसे रहनेकी सलाह दी। उन्होंने छुआछूतको समाजका क्षयरोग माना और हरिजनोंको समाजका प्रिय अंग समझा। उन्होंने सबको प्रेमके कोमल धागेसे बांधनेका जीवनभर प्रयास किया। वे कर्मवीरकी तरह अहर्निश कार्य करते रहे। मानवके भीतर जो प्रेमकी ज्योत जलती है उसे प्रज्वलित करने के लिये वे प्रयत्नशील रहे। अतप्रकाश या मानवताकी दीपावली जलाकर वे,मनुष्यको पशुसे ऊपर उठानेमें सफल हए । यही कारण है कि कितने ही पथभ्रष्ट व्यक्ति सत्यपथगामी हए। उन्होंने उबडखाबड कंटकाकीर्ण मार्ग पर भटकनेवालोंको हाथ पकड़कर मार्ग पर लगाया, कितने ही गहरी खाइयोंमें बिना सहारे अरण्यरुदन कर रहे थे, उनको प्रेमकी डोरीसे ऊपर उठाया। कितने ही ऊंचाई पर बैठकर Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन गर्वमें फल गये थे उन्हें विनम्रताकी हरी दूब पर उतार दिया। गुरुदेवने समानताका गीत सुनाकर, प्रेमका शरबत पिलाकर, मैत्रीकी मिठाई खिलाकर और सेवाका शीतल जल पिलाकर जनमनको तृप्त किया। स्वार्थके अंधेरेमें लड़खड़ानेवाले कितने ही मनुष्योंको मानवताकी टार्चलाइट दिखाकर गुरुदेवने मार्ग दिखाया, मायाकी चकाचौंधमें चकित जनोंको अमर सुखकी राह बताई । गुरुदेवका प्रेम सबको समान रूपसे मिला । पंजाबी बन्धुओंने उनको अपना समझा, राजस्थानी भाइयोंने उनको अपना कृपालु माना, उत्तर प्रदेशकी जनताने उन्हें अपना परम सखा समझा और महाराष्ट्र तथा अन्य प्रदेशोंके भाईबहनोंने उनको अपना उपकारी कहा। परन्तु वास्तविकता तो यह है कि गुरुदेवने अपने प्रेमसे सबको अपनी ओर आकर्षित किया, सबको अपने स्नेह-जलसे भिगो दिया ? उनके स्नेहका गुलाल जनताकी आंखोंमें रमा हुआ है, मनसरोवरमें वह गुलाल धुल गया है। उषाकी लालिमामें वह गुलाल दिखाई देता है, फूलोंके गुलाबी रंगमें वही रंग है, शिशुके मुख पर वही लालिमा मुस्कानके रूपमें क्रीडा कर रही है। मेरे नेत्रोंमें वह गुलाल छा गया है, रोम रोममें पुलकके रूप में वह लिपटा हुआ है। उनका यह गुलाल मुझे सर्वत्र छिटका हुआ दिखाई देता है। लाली मेरे लालको जित देखो तित लाल । लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। चन्द्र आकाशसे अपनी चांदनी सबको देता है। सरोवरके उरमें चन्द्रबिम्ब प्रतिबिम्बित होती है। सरोवरको ऐसा आभास होता है कि चन्द्र मेरा ही है। सरिताको ऐसा लगता है कि चन्द्र उसका ही है, और किसीका नहीं। परन्तु चन्द्र तो सबको अपने प्यारकी चांदनीसे स्नान कराता है। यही बात गुरुदेवके लिये कही जा सकती है। पुष्प जीवनभर सुगन्ध बिखेरता रहा। उसने व्यक्तिमें सद्भावोंकी सुगन्ध बिखेरी, समाजको सेवाकी सुगन्ध प्रदान की, देशको प्रेमकी सुगन्ध दी। वह सुगन्ध उस दिन अनन्त, सुगन्धमें समा गई। दीपज्योति शाश्वत अमर ज्योतिमें अन्तर्लीन हो गई। अब वह ज्योति और भी दिव्य बनकर जनमनमें जगमगा रही है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धांजलियां गुरुदेवकी अन्तिम यात्राका जुलूस अत्यन्त ही विशाल था। लाखों लोगोंने अन्तिम दर्शन करके अपनको भाग्यशाली बनाया। सबकी आंखोंमें प्रेमाश्रु थे। विश्वभरके समाचारपत्रोंमें दिव्य संतके देहावसानके समाचार प्रकाशित हुए और आकाशवाणीसे दिव्यात्माको भावभीनी श्रद्धांजलियां अर्पित की गई। गुरुदेवको विश्वका महान संत, देशप्रेमी, विश्वमित्र, दरिद्रनारायण तथा महान विभूति कहा गया। वे वास्तवमें पुरुषोत्तम थे। आचार्यदेवका समाधि-मंदिर भायखला (बम्बई) के जैन मंदिरके प्रांगणमें स्थित है। वास्तविक मंदिर तो जनमनमें निर्मित है। जर्मन विद्वान डा०फेलिक्ष (Felix Vayli): “आधुनिक समयके सबसे महान जैन गुरु स्वर्गीय श्री विजयवल्लभसूरि, जिनका कुछ मास पूर्व बम्बईमें स्वर्गवास हुआ, मेरी जानकारीमें एक ही ऐसे जैन साधु थे, जिन्होंने सांप्रदायिकताका अन्त करनेका प्रयास किया।" (Times of India, 22-6-1955) आगमप्रभाकर मुनिराज पुण्यविजयजी : “ऐसे युगावतारी पुरुष संसारमें जन्म लेकर सतत कर्तव्यपरायण जीवन पूर्ण कर स्वर्ग सिधारते है तथा समस्त विश्वको कर्तव्यके प्रति जागृत करते हैं।" भारतके वित्तमंत्री श्री यशवंतराव चव्हाण : “सद्गत आचार्यश्रीकी समाज व राष्ट्रकल्याण-कामनाको देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है।" ___ आचार्य तुलसी : “ उनकी समन्वयमूलक भावना मेरे हृदयमें ज्यादा गहरी बनी और उनके प्रति मेरी जो आदरभावना थी उसमें वृद्धि हुई।" श्री मोरारजी देसाई : भूतपूर्व उपप्रधानमंत्री : “आचार्य वल्लभसूरिजीके जीवनकी मुझ पर उत्तम छाप पड़ी है। जैनोंको दानवृत्तिको आचार्यश्रीने शिक्षाक्षेत्रमें मोड़ दी। उन्होंने जाति और धर्मका भेदभाव नहीं माना। उनकी समाजसुधारकी प्रवृत्ति अत्यन्त ही प्रगतिशील थी। इन्होंने खादीके वस्त्र पहिने और दारुबंदीके कार्यक्रम में पूर्ण सहकार दिया।" . Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन श्री स० का० पाटिल : “भारतमें दो वल्लभ हो गये हैं-एकने धर्मक्षेत्रको केन्द्रमें रखकर कार्य किया और दूसरेने राजनीतिक क्षेत्रको।" रावबहादुर जीवतलाल प्रतापसी : “पूज्य गुरुदेवने बालअवस्थामें दीक्षा लेकर ६८ वर्ष तक संयम पाल कर त्याग एवं सेवाधर्मको सुन्दर रीतिसे अपनाया।" विश्वधर्मके प्रेरक मुनि श्री सुशीलकुमारजी : “इस शताब्दीकी संतपरम्परामें युगपुरुष तथा असाधारण सर्वोत्तमसेवी संत थे। एकता, समाजसंगठन, मध्यमवर्गकी स्थितिसुधार आदि पवित्र कार्य ही उनके जीवनके उद्देश्य थे।" अखिल भारतवर्षीय जैन श्वेतांबर संघ : " समाज व देशने एक महान् मार्गदर्शक खो दिया है।" ___श्री केदारनाथजी : “समाजसुधार और शिक्षणको महत्त्व देनेवाली और उसके वास्ते सदैव प्रयत्नशील रहनेवाली उनके जैसी विभूतियां साधुसम्प्रदायमें क्वचित् मिलेंगी। वे सम्प्रदायका अभिमान न रखकर सबके प्रति समभाव रखते थे।" दिगम्बर सम्प्रदायके अग्रणी शाहू श्री शान्तिप्रसादजी जैन : “आचार्यश्री समाजके लिये उज्ज्वल प्रकाश और सत्प्रेरणाके दिव्य स्रोत थे।" पंचामृत गुरुदेवका पंचामृत आज भी हमें उपलब्ध है। गुरुदेवका यह रसायन पंचामृत मृतजीवन में प्राण-संचार करने वाला है। यह पंचामृत पांच दुर्लभ वस्तुओंसे बना है। ये कीमती वस्तुएं हैं : संयम (आत्मशुद्धि), शिक्षा, सेवा, साहित्य एवं एकता। १. संयम-शील -- संयम या आत्मशुद्धिको गुरुदेवने जीवनका आधार माना । संयम रूपी सिक्केकी दूसरी बाजू है शील । गुरुदेवने शीलके संबंध कहा : _ "व्यापक और शुद्ध धर्मका दूसरा अंग शील है। शील मानवजीवनका अमूल्य आभूषण है। सोना-चांदी और हीरे-मोतीके गहनोंसे शरीरको सजानेसंवारनेकी अपेक्षा शीलके गहनोंसे आत्मा सजाना-संवारना मनुष्यका प्रथम दि.-५ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन कर्तव्य है। सोने-चांदीके आभूषणोंके चुराये जाने, लूटे जाने और लड़ाईझगड़े एवं ईर्ष्याका बहुत ही खतरा है। और फिर जिस शरीरको शृंगारित करने के लिए ये गहने बनाये जाते हैं, वह शरीर तो एक दिन नष्ट होकर मिट्टीमें मिल जाने वाला है।" गुरुदेवने शील, संयम और आत्मशुद्धि द्वारा मनको प्रभुका पावन मंदिर बनानेके लिए उपदेश दिया। गुरुदेवने बताया कि जब तक मनमें मैल भरा हुआ है तबतक कोई भी दूसरोंको उपदेश या शिक्षा देनेका अधिकारी नहीं है। आत्मशुद्धि या शीलको गुरुदेवने उज्ज्वल जीवनभवनकी नींव कहा। २. शिक्षा --- गुरुदेवके पंचामृतका दूसरा रस है शिक्षा । शिक्षासे मनकी आंखें खुलती हैं। प्रकाशपथ पर चलनेके लिये शिक्षारूपी ट्यूबलाइटकी रोशनी अत्यन्त ही उपयोगी होती है। फिर इधरउधर भटकनेकी संभावना नहीं रहती। शिक्षासे व्यक्ति चमकता है, समाज चमकता है और विश्व चमकता है। गुरुदेवकी दृष्टि वैज्ञानिक थी। वे आधुनिक शिक्षाको समाजोत्थानके लिए उपयोगी मानते थे, परन्तु इसके साथ साथ उन्होंने मानवीय मूल्योंको पुष्पित एवं पल्लवित करनेके लिए नैतिक या धार्मिक शिक्षाको नितान्त उपयोगी माना। और धार्मिक शिक्षाको, (क्षणभंगुर) भौतिक सुखकी ज्वालामें जलनेवालोंके लिए, शीतल जलधाराके समान कहा। व्यावहारिक शिक्षाकी उपादेयता पर बोलते हुए गुरुदेवने ठीक ही कहा था : “व्यावहारिक शिक्षासे जीवनोपार्जनके मार्ग खुल जाते हैं। बिना इसके समाज पिछड़ेपनके दलदलमें फंस कर लड़खड़ाकर गिर पड़ेगा। शिक्षा बालकको संस्कारी तथा स्वावलम्बी बनावें।" गुरुदेवने इन सिद्धान्तों पर केवल उपदेश ही नहीं दिया वरन् अनेक शिक्षण संस्थाएं खुलवाकर अपने कर्तव्यका पालन किया। ३. सेवा--सेवाको दुग्धधारासे मानवमन पुष्ट बनता है। करुणाकी दुग्धधारा सेवारूपी कामधेनु को दुहनेसे ही प्राप्त होती है। सेवा दो प्रकारकी है : गुरुदेवने कहा : “एक सेवा है प्रभुसेवा, दूसरी, समाजसेवा । सेवासे मनुष्यमें प्रेम उत्पन्न होता है। प्रेम प्रभुका प्रकाश है।" गुरुदेवने एकान्त साधनामें लीन रहनेवाले महात्माओंको समाजसेवाके मार्ग पर चलने के लिए कहा, क्योंकि समाज प्रकाश चाहता है, अंधकारको मिटाने के लिए अनेक दीपोंकी आवश्यकता है। साधु-संतोंका जीवन दीप तुल्य Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ६७ हैं। इस प्रकार गुरुदेवने महात्माओंको समाजसेवा द्वारा विश्वमें आलोक फैलानेका कर्त्तव्य सुझाया । मानवकी उदासी मिटानके लिए सेवाके शीतल जलकी आवश्यकता है | भटकन वाले दिशाहीन ( पूजा श्रद्धा विहीन) व्यक्तिको मार्ग कौन दिखाएगा ? क्या महात्माओं का यह उत्तरदायित्व नहीं है ? गुरुदेवने मानवताकी ज्योति जलाने के लिए, प्रेमका प्रकाश छिटकानेके लिए तथा स्वार्थका अंधकार मिटाने के लिए सेवाधर्मसे अपने जीवनका शृंगार किया था । ४. साहित्य -- साहित्यके लेखन और प्रकाशनको गुरुदेवने महत्त्वपूर्ण माना था । 'साहित्य प्रकाशका रूपान्तर है' । साहित्यसे प्रकाश फैलता है । मानवमनमें अच्छे विचारोंकी उत्पत्ति साहित्य द्वारा होती है। यदि महान् दार्शनिकों एवं साहित्यकारोंके विचार हमें पुस्तकोंमें पढ़ने को नहीं मिलते, यदि उज्ज्वल और पवित्र जीवनियां हमें प्राप्त नहीं होती, तो हम न जाने कहाँ पर अन्धकारमें भटकते । गुरुदेव स्वयं उच्च कोटिके साहित्यकार थे । उनका कवि-रूप कोमल एवं दिव्य था, उनका निबन्धकारका व्यक्तित्व वैज्ञानिक एवं स्वच्छ था । साफ़-सुथरी शैलीमें आत्माकी बात कहनेवाले बिरले ही होते हैं । कवि अथवा साहित्यकार में दिव्य प्रतिभा होती है । गुरुदेवमें वह प्रतिभा थी । उनका साहित्य मानवताके प्रकाशसे प्रकाशित है । परन्तु उस प्रकाशको देखनेकी इच्छा रखनवाले बिरले ही हैं । गुरुदेवने नवोदित साहित्यकारोंको प्रोत्साहित किया। उन्होंने उनको स्नेह और सम्मान दिया । उनके दिव्य गुरु श्रीमद् आत्मारामजी महाराज साहबने विद्वानोंको स्नहसे अपनी ओर आकर्षित किया था और कितने ही साहित्यकार उनके चरणों में बैठकर पावन प्रेरणाका शीतल इक्षुरस पी कर स्फूर्ति एवं उत्साह प्राप्त करते थे। गुरुदेव स्वयं साहित्यकारोंको अपने स्नेहके स्पर्शसे अपनी ओर खींच लेते थे । वे साहित्यके मर्मज्ञ थे, क्योंकि वे साहित्यको प्रकाशका ही एक रूप मानते थे । 'साहित्यकार यदि तृप्त होगा, सम्मानित होगा, तो वह उत्तम एवं सत्साहित्यरचनासे समाज और व्यक्तिको बदल देगा ।" यह गुरुदेव ने कहा. 1 "L wxxxcomp " गुरुदेवने ईश्वरसेवा, समाजसेवा तथा साहित्यसेवाके लिए अपने जीवनको न्योछावर कर दिया। गुरुदेवका मिशन था - साहित्यका व्यापक रूपसे प्रचार और प्रसार करना । 'जनता अच्छी पुस्तकें पढ़ें, ग्राम ग्राममें पुस्तकालयोंकी स्थापना हो, सत्साहित्यनिर्माण हेतु लेखक आगे बढ़े। " येथे गुरुदेव के उद्गार | Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ दिव्य जी ५. एकता--गुरुदेवने एकता पर विशेष जोर दिया। 'एकता विहीन समाज टूटी हुई वीणाके समान है, जिस पर कोई गीत नहीं गूंजता।' जीवन बेसूरा हो जाता है एकताके बिना । एकताकी भावनाके बिना संगठन असंभव है। जहां स्वार्थका बोलबाला हो, जहां मनुष्य अपनी सुविधाओं और समृद्धिके लिए दिनरात मशीनकी तरह काममें लगा हुआ है, वहां पर मनुष्य समाजके लिए क्या सोचेगा? गुरुदेवने इसीलिए कहा था : हे माग्यशालियों! आप सुखी हैं, आपके पास नौकर-चाकर हैं, कारे हैं और बंगले हैं, परन्तु यह याद रखना कि ये सब यहां ही रह जायंगे। समाजके लिए कुछ सोचो। भूखों और पीड़ितोंके दर्दको सुनो, दुःखियोंके आर्तनादको सुनो।" इन शब्दोंमें गुरुदेवकी पीड़ा बोल रही है। वे एकताके लिए, संगठनके लिए सदा उपदेश देते थे। एकताकी भावना आने पर ऊंच और नीचका भेद नहीं रहता, धनवान और गरीबका भेदभाव नहीं रहता, यह गुरुदेवने बताया। एकताकी भावना जब तक नहीं आती तब तक धर्मकी डींग हांकना व्यर्थ है। धर्म समभाव सिखाता है। समभाव एकताकी वेल पर खिला हुआ सुन्दर फूल है। १७ वल्लभ-वाणी [आचार्यदेवके प्रवचनों एवं ग्रंथोंसे चुने हुए सारवाक्य] मानवजीवनका प्रकाश है मानवता। मैं न जैन हूं, न बौद्ध; न वैष्णव हूं, न शैव; न हिन्दू हूं, न मसलमान । मैं तो वीतरागदेव परमात्माको खोजनेके मार्ग पर चलनेवाला मानव हूं, यात्री हूं।" शद्धाचरण द्वारा जीवनको मंदिरके समान पवित्र बनाओ। पावन मंदिरमें ही करुणामूर्ति आनन्दधन प्रभु बिराजमान होंगे। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन धर्म प्रेम सिखाता है, वैरभाव नहीं। धर्म पुष्प है, कांटा नहीं। तुम प्राणिमात्रके लिए प्रेमभाव रखो। खुदाका बंदा - ईश्वरका भक्त- वही है जो समस्त प्राणियोंको अपने समान समझे। आजादी ही जीवन है, गुलामी ही मृत्यु है। अहंकारका परम मित्र है अज्ञान । अज्ञान-अन्धकारमें भटकता हुआ मनुष्य धर्म के नाम पर लड़ता है, जातिभेद पर रक्तपात करता है। समाजमें सुगन्ध बिखेरनेके पहले अपनेमें सुगन्ध भरो। प्रत्येक प्राणो में ईश्वर विद्यमान है। शुद्धाचरणसे व्यक्ति अपने मनको प्रभुका पावन मंदिर बना ले। ___ राष्ट्रका गौरव गगनचुंबी अट्टालिकाओं एवं विशाल भवनोंसे कदापि नहीं बढ़ता; वह बढ़ता है सुशील नागरिकोंसे । समाज उद्यान है; नर-नारी पुष्प-पौधे हैं। इस समाजोद्यानके बागबान हैं साधु-संत तथा समाजके अग्रणी। यदि इसे सुजलसे नहीं सींचा गया और आवश्यकतानुसार पेड़-पौधोंकी कांट-छांट और देखभाल नहीं की गई तो उद्यान कुरूप होकर उजड़ जाएगा। _ जैसे अरुणोदय होने पर प्रकृतिमें सरस परिवर्तन हो जाता है, पुष्प खिलकर सुगन्ध बिखेरते है, ओस बिन्दु मोती बन जाते हैं, सारी वनस्पति मधुर हासमें मुस्कराने लगती है, उसी प्रकार संतजनकी तेजस्वितासे मानव Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन मनमें अरुणोदय हो जाता है । उसमें मनुष्यताका प्रकाश छिटकने लगता है मनुष्यता से ही मनुष्य, मनुष्य कहलानेका अधिकारी बनता है । ७० ० रसना - स्वाद के लिए मनुष्य जीवोंकी हत्या करता है । सुनिये, उस आर्तनादको जिसे मूक पशु, पक्षी, जलचर तथा अन्य प्राणी मृत्युके भयके कारण करते हैं। हिंसा दुःखकी जननी है । शिक्षाका उद्देश्य चरित्रका निर्माण करना है । शिक्षासे विद्यार्थी शुद्ध एवं आदर्श जीवनवाला बने । उसमें मानवता, करुणा और प्राणिमात्र के लिये मैत्रीभावना हो । ऐसे विद्यार्थी ही समाजके हीरे होते हैं । हीरोंकी कीमत उनकी चमकके कारण होती है, मनुष्यकी कीमत उसके चरित्रके कारण होती है । हमारा धर्मं समस्त जीवों पर दया करना है । जब हम छोटे छोटे प्राणियों पर दया करते हैं तब मनुष्य पर दया करना तो हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य हो जाता है । प्राणिमात्रके लिए प्रेम रखो। यही अमर सुखकी सीढ़ी है। हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, आर्यसमाजी आदि भारतकी संतान हैं। सबको एक विशाल कुटुम्बके समान समझना और उनकी सेवा करना यही प्रत्येक भारतवासीका धर्म है । सेवा ही आज की सच्ची पूजा, सच्ची नमाज और सच्ची गुरुवाणी है । ० आज लक्ष्मीके भंडार भरपूर हैं, परन्तु दुखियोंके प्रति पीड़ा ही नहीं है फिर धर्म रही ? जीवन खोखला बन गया है, केवल कंकाल मात्र । O कहां है वह पीड़ा ? जब कहां रहां ? मानवता कहां Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिव्य जीवन ७१ ज्ञान दीपक है, प्रेम उसका प्रकाश है। ज्ञान और प्रेमयुक्त जीवन में जो ज्योति जलती है उसकी चमक सरलता है । धर्ममें क्लेश, राग, द्वेषका कोई स्थान नहीं । धर्म समभाव और प्राणिमात्रके लिए मैत्रीभाव सिखाता है । भगवान् महावीरने अहिंसा और त्यागकी बहुमूल्य भेंट विश्वको दी है। जिसके पास वे अमूल्य रत्न हैं वह धनवान है । इन रत्नोंसे वंचित गरीब है । मानवधर्मका अर्थ है - सबके प्रति प्रेमभावना । प्रेममें करुणाका वास है । जिसके हृदय में करुणा होती है वही प्रेमको पहिचानता है । भगवान् प्रेम रूप है, क्योंकि वह करुणासागर है । प्रेमपुजारी भगवानका सच्चा भक्त होता है, क्योंकि उसके मनमें सबके प्रति मैत्रीभाव रहता है । ० भगवान महावीरने एकताका संदेश दिया था । उनका दिव्य संदेश आजके खंडित, बिखरे हुए और दुःखी विश्वके लिए अमृतांजन है । ० हमें शोषणहीन समाजकी रचना करनी है, जिसमें कोई भूखा-प्यासा नहीं रहने पाये । तुम्हारी लक्ष्मीमें उनका भी भाग है । ०. आज तो वरविक्रयका रोग लगा हुआ है । यह रोग इतना चेपी है कि समाज इस भयंकर टी. बी. के रोगके कारण मृतप्रायः बन रहा है । जहां देखो वहां लड़कोंका नीलाम हो रहा है । लड़कीवालोंसे बड़ी बड़ी कमें, तिलक-बीटीके रूपमें मांगी जाती हैं, सोना या सोने के जेवर मांगे जाते हैं; घड़ी, रेडियो, सोफासेट, स्कूटर या अन्य फर्नीचरकी मांग तो मामूली बात है । विदेश जाने और पढ़ाईका खर्च तक मांगा जाता है । इस प्रकार पराये और बिना मेहनतके धन पर गुलछर्रे उडाये जाते हैं । युवकोंके लिये तो यह बेहद शर्मकी बात है । ० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ दिव्य जीवन मानवता अखंड है, उसमें भेदभाव नहीं, ऊंच-नीच, धनवान-गरीब, तथा काले-गोरेका भेद दृष्टिकोणके कारण है। जैसे यंत्रवादके युगमें चाहे प्रकाश करना है, चाहे पंखा चलाना है, चाहे टेलीफोनसे बात करना है या किसी भी प्रकारकी मशीनको चलाना है, तो बिजलीका प्रयोग करना आवश्यक समझा जाता है, वैसे ही चाहे सामाजिक अथवा धार्मिक प्रगति साधना है तो शिक्षाके बिना कुछ भी नहीं हो सकता। शिक्षाका वास्तविक उद्देश्य है मनुष्यको पशु अवस्थासे मनुष्य अवस्थामें लाना और उसे सच्चा मनुष्य बनाना। आज आधुनिक शिक्षासे लोग घबराते हैं और कहते हैं कि शिक्षासे संस्कृतिका नाश होता है। परन्तु मैं तो उसको वैसी ही भ्रांति मानता हूं जैसे कि बिजली जला देती है इसलिये बिजलीके उपयोगसे दूर रहना चाहिये। इस तरहसे यंत्रवादी घबराये होते तो सारे संसारमें यंत्रवादका साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाते। जिस कालमें जिस प्रकारकी शिक्षा प्रचलित हो, उसको प्राप्त किए बिना हम अपना हित साध ही नहीं सकते। मूर्तिकार अनगढ़ कुरूप पत्थरको अपनी कलासे मूर्तिका रूप प्रदान करता है। कलाकारकी छेनीकी करामात देखिये -- जो अनगढ़ पत्थर किसीको आकर्षित नहीं कर पाता था, सुन्दर मूर्ति बनकर वह मन में बस जाता है, आंखोंमें रम जाता है। शिक्षा भी अद्वितीय कला है। इससे बालकरूपी अनगढ़ पत्थर मानवताकी मूर्ति बनकर सबकी आंखोंमें रम जाता है। आत्मजागृति होने पर जीवात्माका उद्धार होने लगता है। वह प्रेममतिको पानेके लिये भक्तिका अवलम्ब लेती है। भक्तिभाव आने पर संसार Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ दिव्य जीवन के सुख उसे विषमय लगने लगते हैं। अमृत फलको चखनेके बाद करील फलोंको कौन बावला चखेगा? प्रभु दयाके रूपमें रमते हैं। जहां दया है, रहम है, वहां राम, रहीम, कृष्ण, करीम निवास करते है। - धर्म हृदयमें घुसी हुई दानवी वृत्ति, स्वार्थलिप्साको निकालता है और उसमें मानवताकी प्राणप्रतिष्ठा करता है। जबकि अधर्म मानवके हृदयमें स्वार्थवृत्ति, राक्षसी प्रवृत्ति, संग्रहखोरी और दूसरोंको हानि पहुंचानेवाली दानवी वृत्तिकी ओर प्रेरित करता है। ___ गुलाबके फूलकी खुशबूसे आपका दिल बाग-बाग हो जाता है। पता है, गुलाबने इतनी खुशबू कैसे पाई ? कांटोंके बीच उसकी शय्या रहती है और दूसरोंके हृदयको आकर्षित करनेके लिये भी वह अपनी खुशबू लुटाता रहता है। वैदिक धर्म जिसे निरंजन, निराकार ईश्वर कहता है, जैन धर्ममें उसे सिद्ध परमात्मा कहा है। ईसाई धर्म में उसे गौड (God) और मुस्लिम धर्ममें खुदा कहा है। सिक्ख लोग उसे कर्तार कहते हैं, कबीरपंथी उसे सांई कहते हैं, कोई उसे राम कहते हैं, कोई हरि या विष्णु कहते हैं। पारसी धर्ममें उसे अशोजरथुस्त कहा है। समन्वयदृष्टिमें समभाव बसता है। समभावमें सबके प्रति प्रेम झलकता है। प्रेमभावना पत्थरको भी मोम बना देती है। ईश्वरका समस्त प्राणियोंमें वास है, यह समझकर अपने अन्दर सोये हुए ईश्वरको व्यक्त करनेका पुरुषार्थ करो। उस विराट ईश्वरको घट घटमें देखो और अपने हृदयके ईश्वरत्वको सुरक्षित रखो। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ७४ दिव्य जीवन स्नेहमें किसी प्रकारका पर्दा नहीं है। मित्रसे क्या छिपाना? स्नेहसे स्नेहका आकर्षण होता है । स्नेहमूर्ति स्नेहीजनको चुम्बककी तरह खींचती है। तुम्हारी सबसे बड़ी शोभा मनुष्यता है। मनुष्यतासे जीवनका श्रृंगार करो। जहां आकृतिसे भी मनुष्य हो, प्रकृतिसे भी, वहीं मनुष्यताका निवास होता है। ऐसी मानवता पैसेसे, सत्तासे, बलसे या बुद्धिसे नहीं मिलती, ऐसी मानवता मिलती है देश, वेश, धर्म, सम्प्रदाय, जाति, कौम, प्रान्त, भाषा आदिकी दीवारोंको लांघकर दुनियाके हरमानवके साथ मानवताका व्यवहार करनेसे ही। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www rary.org