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________________ ३३ दिव्य जीवन "हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, आर्यसमाजी आदि भारतकी संतान हैं। सबको एक विशाल कुटुम्बके समान समझना और उनकी सेवा करना यही प्रत्येक भारतवासीका धर्म है। सेवा ही आजकी सच्ची पूजा, सच्ची नमाज और सच्ची गुरुवाणी है। मनुष्यसमाज जीवित रहा तो धर्म भी जीवित रहेगा। यदि समाज सुदृढ़ एवं समृद्ध, बलवान और प्राणवान होगा तो धर्म भी प्राणवान होगा।" ता० १७-१०-४७ के अमृतसरके उर्दू पत्र ‘वीर भारत में आचार्यश्रीने देशवासियोंके प्रति एक दर्दभरी अपील प्रकाशित कराई थी। अपीलके कुछ शब्द यहाँ उद्धृत हैं -- “भारतके तमाम जैनोंसे अपील है कि जो हिन्दू, सिक्ख और जैन भाई और अन्य भाई-बहिन पाकिस्तानसे दुःखी होकर आये हैं, वे सब तुम्हारी सहायताके योग्य हैं। उनको तुम अपने भाई-बहिन समझो और यह मानो कि उनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है।" इस अपीलका यह प्रभाव पड़ा कि श्रीमन्तोंने रुपयोंकी थैलियां खोल दीं। अमृतसरमें कपड़ोंकी गांठे आईं, भोजनालय खुल गये। सभी एकताके सूत्रमें बंध गये। मानवता जाग गई। गुरुदेवकी यह अपील भारतके कोने कोनेमें प्रसारित हुई। बम्बई, मद्रास, गुजरात, राजस्थान एवं पंजाबके सहृदय नगरवासियोंने गुरुदेवकी अपील पढ़कर राहत समितियां बनाई तथा धन एकत्रित कर पंजाबके दुःखी भाईबहिनोंकी सहायताके लिये भेज दिया। हिन्दू, सिक्ख, जैन तथा अन्य पीड़ितोंको इस राहतसे शान्ति मिली। सहस्र कंठोंसे पुण्यश्लोक गुरुदेवके लिये मधुर गीतकी तरह ये शब्द फूट पड़े : तारणहार, पीड़ितोंकी वाणी, मानवताका मोती।। सचमुच मानवताका मोती अपनी अनोखी चमकसे आज भी हमारे मनके अन्धकारको दूर कर रहा है। वह दिव्य चमक सदा-सर्वदा मेरे मनमें क्रीडा करती रहे। दि.-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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