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________________ दिव्य जीवन उस समय उसकी आयु सत्रह वर्षकी थी। छगनलालका नाम वल्लभविजय रखा। मुनि वल्लभविजय श्री हर्षविजयजीके शिष्यरत्न हुए। दिव्य गुरुदेवकी पावन एवं शीतल शरण पाकर मुनि वल्लभविजयको ऐसी अनुभूति हुई जैसी कि शिशुको अपनी खोई हुई माताकी शान्तिदायिनी गोदमें बैठनेसे होती है। जैसे आम्रकुंजमें कोयल मधुर गीत गाती है वैसी ही आनन्दकी रागिनी वल्लभके मानस कुंजमें गूंज उठी। दिव्य गुरुके चरणकमल शीतल चंद्रिकाके समान उज्ज्वल थे। वल्लभके हृदयसरोवरमें चरणचन्द्रकी चंचल किरणें नाचने लगी। जैसे धूपसे थका हुआ यात्री शीतल मन्द एवं सुगंधित पवनके कोमल स्पर्शसे प्रफुल्लित हो जाता है, वैसी ही आनन्दानुभूति संसार त्यागने पर मुक्तिपथके पथिक वल्लभको हुई। : संसारके मोहबन्धन तोडकर वल्लभ अमर सुख रूपी चिंतामणि रत्नको प्राप्त करनेकी भूमिका बनाने लगे। अमर सुखकी अमृतधारामें वे अपनेको तथा समस्त जगतको रसमग्न करना चाहते थे। दिव्य पथिक कृष्णपक्षकी रात्रि भयावनी लगती है, किन्तु प्रभातवेलामें जब अरुणोदय होता है तब दृश्य कितना सुहावना लगता है ! कितना अन्तर है अंधकार और प्रकाशमें ! जब मनुष्य अंधकारमें रहता है तब वह पथभ्रष्ट यात्रीकी तरह अंधकारमें ही चलता है। किन्तु जब उसके मार्गमें कोई दीपकवाला मिल जाता है तब उसको स्पष्ट दीखने लगता है कि वह अपने पथसे भटक गया है। फिर उस प्रकाशके सहारे वह 'प्रकाशपथ पर आ जाता है। और जब एक बार पथिक प्रकाशमें आता है तब वह अंधकारमें नहीं जाना चाहता। प्रकाशपथ ही सत्पथ है। ___ मुनि वल्लभविजयजीको प्रकाश मिला आचार्य श्रीमद् आत्मारामजी महाराजसे। उनके गुरु मुनि श्री हर्षविजयजी विद्वान्, सहृदय एवं कृपालु सन्त महात्मा थे। उनकी छत्रछायामें वल्लभका जीवन-बिरवा विकसने लगा। मुनि वल्लभका पथ आलोकमय था। पथिककी तरह अब उन्हें आलोकपथ पर चलना था और उन्हें पहुंचना था उस शाश्वत सुखधाम पर जहां न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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