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दिव्य जीवन छगनकी दशा जहाजके पंछीके समान थी। जहाजका पंछी समुद्रके ऊपर इधर-उधर उड़कर फिर जहाज पर ही आता है, अन्यत्र कहीं उसका बसेरा नहीं। छगनका मन संसारसे ऊब गया था। वह अपने जहाज पर आना चाहता था। उसका जहाज था दिव्य गुरुदेवके चरणकमल । उसका मन गुरुचरणोंमें ही अटका हुआ था। संवत् १९४३में गुरुदेवका चौमासा पालीताणामें हुआ। छगनलाल भी अपने भाईकी आज्ञा लेकर गुरुदेवके दर्शनार्थ एवं यात्रार्थ पालीताणा पहुंचा। छगनलाल भी अपने भाईकी आज्ञा लेकर गुरुदेवके दर्शनार्थ एवं यात्रार्थ पालीताणा पहुंचा। पूज्य गुरुदेवकी शरण उसे अत्यन्त ही शीतल लगी। भक्तिभावकी बेलडी उसके तनमनमें पसर गई।
चातुर्मासके पश्चात् गुरुदेवने विहार किया और राधनपुर पधारे। छगन भी उनके साथ था। वहांसे छगनजीने अपने बन्धु खीमचन्दभाईको रजिस्टरी पत्र भेजा, जिसमें लिखा था : “ मेरी दीक्षा अमुक दिन होनेवाली है। आप दीक्षा महोत्सव पर अवश्य पधारें।"
पत्र पढ़कर खीमचन्दभाई व्याकुल हो गये, शीघ्र ही राधनपुर पहुंचे। वहां उन्हें पता लगा कि कोई दीक्षासमारोह नहीं है। छगनने उन्हें राधनपुर बुलानेके लिये ही यह पत्र भेजा है। जब सारे प्रयत्न निष्फल हुए तो खीमचन्दमाईने छगनको प्रेमपूर्वक गुरुचरणोंमें सौंपनेका पक्का विचार कर लिया। वे गुरुदेवके पास गये और विनय वाणीमें बोले : “मैं अपना प्यारा भाई आपको शरणमें छोड़ता हूं। यदि उससे कोई भूल हो जाय' तो क्षमा करना भगवंत ।"
इतना कहते ही उसके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु टपकने लगे। उन अनमोल मोतियोंको धरती अपने अंचलमें झेल लेने लगी। बन्धुविछोहका यह कारुणिक दृश्य बड़ा मार्मिक था, किन्तु समय देखकर खोमचन्दभाईने साहस बटोरा। वे गद्गद् स्वरमें बोले : "मेरा अनुज कितना भाग्यशाली है! यह पावन वेला धन्य है।"
___ करुणामूर्ति गुरुदेवने हर्षित होकर कहा: “खीमचन्दभाई ! तुमने बहादुरोका काम किया है, तुम भाग्यवान हो, तुम्हारा छगन समाजका उजाला होगा।" ___खीमचन्दभाईने छगनको गले लगाया और फिर उससे अश्रुभरे नेत्रोंसे विदाई लो। सभी दर्शकोंकी आंखोंमें आंसू छलछला रहे थे। .
वैशाख सुदी १३, संवत् १९४४ (गुजराती १९४३) का शुभ दिन आया। आचार्य श्रीमद् आत्मारामजीने राधनपुरमें छगनलालको दाक्षा दी।
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