________________
२०
दिव्य जीवन
रोग है, न शोक, न मोह है न ममता, केवल अखंड आनन्द है । उनका मनहंस उस आनन्द स्वरूप मानसरोवरमें क्रीडा करनेके लिये आतुर था। सर मान हंस चाहे, चातक मेघ पानी । जगनाथ ऐसे हरदम, तुमरी सरणमें आऊं ॥ मोहनमूर्ति तारी, मुझ मनमें आ खडी हो । दृष्टि वहां पडी हो, नहीं बौर जन्म पाउं ॥ आतम लक्ष्मी स्वामी, आतमलक्ष्मी दीजै ।
'वल्लभ' हर्ष होवे, नहीं और तुमसे चाउं ॥ '
6
हंसको मानसरोवरकी चाहना थी, चातकको आनन्दघनके जलकी । वल्लभके जीवनका लक्ष्य था : स्वयं प्रकाशवान बनकर समाजको प्रकाशित करना । उनके स्मृतिपट पर कृपालु माता इच्छाबाई के पावन शब्द अंकित थे : अमर सुखधनकी खोज करना, छगन !
44
"1
मुनि वल्लभका मार्ग साफ-सुथरा था, लक्ष्य स्पष्ट था । आत्मोद्धार और समाजोत्थान उनके जीवनके लक्ष्य बन गये ।
मुनि वल्लभविजयने सर्वप्रथम विद्यादेवीकी शरण ली । कृपालु विद्यादेवी तो कांचको भी हीरा बना देती है । कविकुलभूषण कालिदास कितने मूढ थे, परन्तु विद्याकी साधनासे कविशिरोमणि बन गये । आचार्य हेमचन्द्रने विद्याकी साधना से जो ज्ञानामृत प्राप्त किया, वह कितना मधुर है ! उस अमृतको प्राप्त कर आचार्य हेमचन्द्रने न केवल अपने को ही तृप्त किया वरन् जगत्को भी सुखमय बनानेकी पावन चेष्टा की ।
मुनि वल्लभविजयजीने विद्याध्ययनमें पूरा मन लगाया। प्रारम्भमें आपने अनेक पुस्तकें पढ़ी। उनकी बुद्धि कुशाग्र थी । स्कूलमें भी वे सदा आगे रहते थे और उन्हें कई पुरस्कार भी मिले थे । आपने चंद्रिका, अमरकोष, अभिधानचिंतामणि, दशवैकालिक, आचारप्रदीप, न्यायशास्त्रकी न्यायबोधिनी आदि ग्रंथोंका अध्ययन किया; तत्पश्चात् आपने कल्पसूत्र, श्री सूत्रकृतांग आदि ग्रंथोंका सूक्ष्म अध्ययन किया। इसके अतिरिक्त आपने गीता, रामायण, महाभारत, वेद, उपनिषद् आदिका परिचय प्राप्त किया । श्रीमद् आत्मारामजी महाराज के सान्निध्य में आपने जैन दर्शनका ज्ञान प्राप्त किया । पूज्य गुरुदेव आत्मारामजी महाराज उत्कट विद्वान थे । उन्होंने सरल हिंदीमें जैन दर्शन पर अनेक पुस्तकें लिखीं हैं । उनमेंसे उल्लेखनीय हैं : जैन तत्त्वादर्श, अज्ञान१. आचार्य विजयवल्लभसूरिजी रचित स्तवन से उद्धृत ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org