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________________ दिव्य जीवन आज भी इन शब्दोंमें हो रहा है : “तुम भाग्यशाली हो। वाल्केश्वरके गगनचुम्बी महलोंमें रहते हो और ठंडी हवाका अनुभव करते हो। फल, मेवा, मिठाई आदि कीमती चीजें खाते हो। तुम्हारी मोटरें दौड़ती है, क्योंकि तुम लक्ष्मोवान् हो। मगर क्या तुम जानते हो कि तुम्हारा पड़ौसी बीमार है उसको दवा, इंजेक्शन और फलोंकी चिन्ता है, लड़केको कालेजमें भेजना है, परन्तु पासमें कालेजकी फीसका पैसा नहीं है, पुस्तकें पानका साधन नहीं है। बच्चोंको छटांकभर दूध पिलानेके तो सपने ही आते हैं ?" गुरुदेवके भाषणका समाजवादी स्वर आज भी गूंज रहा है। हमें शोषणहीन समाजकी रचना करनी है, जिसमें कोई भूखा-प्यासा नहीं रहने पाये। तुम्हारी लक्ष्मीमें उनका भी भाग है। फिर वे भूखे हैं। और भूखा कौन पाप नहीं कर सकता? इसलिये यदि आप उन्हें पापसे बचाये रखना चाहते हैं तो उनके लिये रोजी-रोटीकी व्यवस्था कीजिये। ___ गुरुदेवको मध्यम एवं निर्धन वर्गकी पीड़ा सताती रही। उन्होंने दादर (बम्बई)की विशाल सभामें प्रतिज्ञा की: "मेरे हृदयका दर्द सुनो। मैं जब तक बम्बईमें बैठा हूं, इस अरसेमें उत्कर्ष फंडमें यदि पांच लाख रुपये जमा नहीं होंगे तो मैं दूध और उससे बनी वस्तुओंका त्याग करूंगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।" ___ गुरुदेवको प्रतिज्ञासे पांच लाखकी राशि निश्चित अवधिके पहले ही एकत्रित हो गई। बहनोंने इस कोषमें अपने आभूषण भी दानमें दिये । यह धनराशि तो प्रतीक मात्रकी थी। गुरुदेव इस प्रतिज्ञा द्वारा समाजके पीड़ित भाई-बहनोंके लिये साधनसम्पन्न लोगोंमें स्नेह तथा कर्त्तव्यभावना विकसित करना चाहते थे। वे उन्हें बताना चाहते थे कि सम्पत्ति समाजकी है। वे तो केवल ट्रस्टी हैं। १. गुरुदेवकी प्रतिज्ञा पूर्ण करनेके लिये श्री खीमजीभाई छेडा तथा अन्य १०८ सज्जनोंने दृढ़ संकल्प किया था। भक्तिकी शक्तिने उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण की। 2. Sincere and unified efforts created a magic influence of unloosening the purse strings and the target amount was collected ahead of the scheduled hour. This has been a unique incident from which the posterity and pessimistic workers will derive a great lesson of zeal and will. -A dedicated soul: Shri K. D. Kora. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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