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दिव्य जोक्ल एक दिन जब व्याख्यान समाप्त हुआ तब बालक छगन महात्माजीके पास स्थिर भावसे बैठ गया। उसे न खानेकी सुध रही, न पीनेकी। उसके मनका पंछी आनन्दगगनमें ऊंची उडान भर रहा था।
गुरुदेवने उसको पूछा : “ वत्स ! इस तरह क्यों बैठा है ? उठ!"
बालकने महात्माजीके दोनों पांव पकड़ लिये। उसके नयनोंसे अश्रुगंगा बहने लगी। उस पावन जलधारासे उसने महात्माजीके चरण धोये।
गुरुदेवने स्नेहयुक्त स्वरमें पूछा : “भद्र ! क्या दुःख है ? धन चाहता
बालकने कहा: "हां" महात्माजी : “कितना?" बालक : “गिनती मैं नहीं बतला सकता।" महात्माजी : “अच्छा, किसीको आने दो।" बालक : “नहीं, मैं आपसे ही लेना चाहता हूं।"
महात्माजीने सोचा कि यह कैसी बालहठ है ! फिर समझाते हुए कहा : “ वत्स, हम पैसा-टका नहीं रखते।" .
बालकने स्थिर भावसे उत्तर दिया : “ मुझे उसकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो नश्वर है।"
गुरुदेवको विस्मय हुआ। उन्होंने बालकसे पूछा : “तब कौनसा धन चाहता है ?"
बालकने शान्त मावसे उत्तर दिया : “वह धन, जिससे अनन्त सुख मिले।"
बालकके उज्ज्वल भाल पर प्रकाशकी रेखायें चमक रही थीं। नेत्रोंमें दिव्य ज्योति थी। महात्माजी कुशल जौहरी थे। अमूल्य हीरेको परख गये। उन्होंने कहा : “इस महान आत्मा द्वारा समाजका कल्याण होगा। इसका जीवनदीप अन्धकारको दूर करेगा। व्यक्ति और समाज इससे प्रकाशित होंगे।" गुरुदेवकी वाणीने बालक छगनके मनमें सहस्र दीप प्रज्वलित कर दिये।
___ छगनकी दशा रस्सीसे बंधे हाथीके समान थी। वह बन्धन तोड़कर भागना चाहता था, परन्तु अनेक बाधायें थीं उसके मार्गमें। उसके बड़े भाई खीमचन्द यह चाहते थे कि वह व्यापारघंधेमें पड़कर घरकी प्रतिष्ठामें चार
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