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________________ ७३ दिव्य जीवन के सुख उसे विषमय लगने लगते हैं। अमृत फलको चखनेके बाद करील फलोंको कौन बावला चखेगा? प्रभु दयाके रूपमें रमते हैं। जहां दया है, रहम है, वहां राम, रहीम, कृष्ण, करीम निवास करते है। - धर्म हृदयमें घुसी हुई दानवी वृत्ति, स्वार्थलिप्साको निकालता है और उसमें मानवताकी प्राणप्रतिष्ठा करता है। जबकि अधर्म मानवके हृदयमें स्वार्थवृत्ति, राक्षसी प्रवृत्ति, संग्रहखोरी और दूसरोंको हानि पहुंचानेवाली दानवी वृत्तिकी ओर प्रेरित करता है। ___ गुलाबके फूलकी खुशबूसे आपका दिल बाग-बाग हो जाता है। पता है, गुलाबने इतनी खुशबू कैसे पाई ? कांटोंके बीच उसकी शय्या रहती है और दूसरोंके हृदयको आकर्षित करनेके लिये भी वह अपनी खुशबू लुटाता रहता है। वैदिक धर्म जिसे निरंजन, निराकार ईश्वर कहता है, जैन धर्ममें उसे सिद्ध परमात्मा कहा है। ईसाई धर्म में उसे गौड (God) और मुस्लिम धर्ममें खुदा कहा है। सिक्ख लोग उसे कर्तार कहते हैं, कबीरपंथी उसे सांई कहते हैं, कोई उसे राम कहते हैं, कोई हरि या विष्णु कहते हैं। पारसी धर्ममें उसे अशोजरथुस्त कहा है। समन्वयदृष्टिमें समभाव बसता है। समभावमें सबके प्रति प्रेम झलकता है। प्रेमभावना पत्थरको भी मोम बना देती है। ईश्वरका समस्त प्राणियोंमें वास है, यह समझकर अपने अन्दर सोये हुए ईश्वरको व्यक्त करनेका पुरुषार्थ करो। उस विराट ईश्वरको घट घटमें देखो और अपने हृदयके ईश्वरत्वको सुरक्षित रखो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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