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दिव्य जीवन
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ही था कि मेरी दृष्टि पश्चिमी आकाश पर पड़ी। संध्याकी लालिमा फीकी पड़ रही थी । धीरे धीरे रात्रिकी काली चादर धरती पर बिछने लगी । मैंने सोचा, कहां हैं वह सांध्य लालिमा ? सब कुछ समाप्त हो गया । संसारका सौन्दर्य, वैभव सब कुछ नश्वर है । परन्तु इस क्षणिक सुखमें मनुष्य किस प्रकार खो जाता है ?
बालक छगनके मनमें हलचल मच गई। वह सोचने लगा कि माताने अमर सुख प्राप्त करनेका अंतिम संदेश दिया है । वह अंतिम संदेश उसके मनप्रदेश में अमृतजलके समान रम गया । संसारके सुख उसे संध्याके रंगबिरंगे बादलोंके समान क्षणिक लगने लगे ।
बालक छगनकी मनोदशा इस प्रकार थी :
किन गुन भयो रे उदासी, ममरा ।
पंख तेरी कारी, मुख तेरा पीरा, सब फूलनको वासी ॥ सब कलियनको रस तुम लीना, सो क्यूं जाय निरासी । 'आनन्दधन' प्रभु तुमारे मिलनकुं, जाय करवत ल्यू कासी ।
मनभ्रमर अब विषयवासनाके फूलोंका रस पीना नहीं चाहता । उसे तो प्रभुभक्तिका अमर पुष्परस पीना है, अतः ये सब रस फीके लग रहे हैं।
मैं छगनकी पीड़ाको समझ गया । उसी क्षण मुझे ऐसे ही सुखके अभिलाषी एक राजकुमारकी कथा स्मरण हो आई । 'दि लाइट आफ एशिया 'के रचनाकार श्री एडविन अरनाल्डने राजकुमार सिद्धार्थको मनोदशाका कैसा सजीव शब्दचित्र अंकित किया है ! यह अविस्मरणीय प्रसंग मैंने हाल में ही पढ़ा था। वह मेरे सामने झूमने लगा । छगन हो या राजकुमार सिद्धार्थ, अमर रसका पान करनेवालोंकी समान दशा होती है । उस सरस काव्यकी जो झांकी मेरे सामने नाचने लगी वह यह थी कि राजकुमार सिद्धार्थ रथमें बैठकर कपिलवस्तु नगरी में सैर-सपाटेके लिए निकल पड़े। राजा शुद्धोदनने इसके पहले समस्त नगरीको सजानेकी आज्ञा दी : अरे नगरवासियों ! राजाका यह आदेश है कि आज किसी प्रकारका अप्रिय दृश्य नगर मार्ग में देखने को नहीं मिले। कोई अंधा, लूला, लंगडा या अपाहिज व्यक्ति मार्ग में न रहे। न कोई बीमार ही रहे और न वृद्ध ही । कोई कोढी या निर्बल व्यक्ति राजपथ पर न आने पाये ।
शाक्यकुमार सिद्धार्थने जब कपिलवस्तु नगरीको नववधूके समान बनावसिंगारमें देखा तो उसके मनकी कली खिल गई । वह अपने सारथिसे बोला :
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