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विव्य
सिधारे और फिर माता इच्छाबाई भी अपने पुत्ररत्नको प्रभुशरणमें सौंप दिव्य धाम सिधारी ।
माता इच्छाबाईने अपने हृदयवल्लभ को अमर सुख प्राप्त करनेका अंतिम संदेश दिया था । वह संदेश धीरे धीरे अंकुरित हुआ और अन्तमें वल्लभको वह अमर धन प्राप्त हुआ ।
माता-पिताका सात्त्विक जीवन बालकके जीवनका सुषुप्त निर्माण करता है । छगनके बाल्यकालमें सद्जीवनके जो संस्कार आए वे माता - पिताकी अमर देन थी । बाल्यकालके उन संस्कारोंने छगनको विश्ववल्लभ बना दिया ।
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जागृति
संध्या ढल रही थी। रविकी अंतिम किरणें सोना बिखेर कर चली गई । पश्चिम दिशाकी लालिमाको देख मनका मोर नाचने लगा: अहा ! कितनी सुहावनी है यह लालिमा, यह रूप-रंग ! धीरे धीरे संध्याका रूप सरिता - जल में प्रतिबिम्बित हुआ- • जैसे कोई नायिका जलदर्पणमें अपना रूप निहार रही हो ।
उस समय मैं अपनी वाटिकामें बैठा हुआ आदर्श जीवन का वह हृदय - द्रावक प्रसंग पढ़ रहा था जिसमें बालक छगन अपनी मरणासन्न माताकी शैयाके पास बैठा हुआ फूट फूट कर रो रहा है । सहसा मांकी आंखें खुलीं और उसने अपने लाडले पुत्रको आंसू टपकाते देखा। मांने बोलनेका प्रयत्न किया । धीमे स्वरमें वह बोली : छगन ! तू भी इतना दुर्बल ! मांकी वाणी सुनते ही बालक छगनकी आंखोंसे गंगा-यमुना बहने लगीं । बालकने दयनीय नेत्रोंसे मरणोन्मुख ममतालु माताको देखा और करुण स्वरमें बोला : माँ ! हमें किसके भरोसे छोड़ जाती हो ?
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मौन माताका स्वर सहसा फूट पड़ा : "बेटा, अमर सुखको प्राप्त करने में अपना जीवन बिताना । मैं तुम्हें करुणासागर परम परमात्माकी शरणमें सौंपकर इस नश्वर संसारसे विदा हो रही हूं ।
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माता इच्छाबाईका जीवनदीप बुझ गया । बालकके सामने अन्धकार ही अन्धकार था । आदर्श जीवनके इस कारुणिक प्रसंगको मैंने समाप्त किया
१. 'आदर्श जीवन', रचयिता : श्री कृष्णलाल वर्मा, श्री फूलचन्द हरिचन्द्र ।
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