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दिव्य जीवन
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'अहा, यह सोनेका संसार कितना सुहावना है ! मुझे यह आकर्षक लग
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रहा है ।
किन्तु भ्रमका पर्दा आंखों पर अधिक देर तक न रहा। थोड़े दिनोंके बाद मार्ग में झुर्रियोंवाले, हड्डीके ढांचेवाले तथा धनुषाकार झुकी पीठवाले एक वृद्धको देखकर राजकुमारको निराशा हुई। फिर एक दिन कुमारने स्मशानयात्राका दृश्य भी देख लिया । कुमारने कुतूहलवश अपने सारथिसे पूछा : 'क्या सभीका ऐसा ही अन्त होता है ?
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सारथिने कहा :
राजा शुद्धोदनके अनेक प्रयास, सुन्दरी यशोधराका आकर्षण, पुत्र राहुलका वात्सल्य, राजकुमार सिद्धार्थको संसारके क्षणिक सुखोंके जालम नहीं बांध सके और अन्तमें वह अमर सुखकी खोजके लिए घरसे निकल पड़ा ।
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सभीका यही अंत है शाक्यकुमार ।
बालक छगनकी दशा भी इसी प्रकारकी थी। न तो उसे भोजन अच्छा लगता था, न खेलकूद । मृग जालमें फंसा हुआ था; छुटकारा पानेके लिए वह व्याकुल था । छगनकी आयु अभी छोटी थी, परन्तु उसको तो अमर सुखकी धून सवार हो गई थी। प्रभातकी मुस्काती उषा आती और सोना बिखेर कर चलो जाती । संध्या हंसती हुई आती और सागरसरिता और विपशिखरों पर नाच कर चली जाती। इस तरह दिन बीतने लगे ।
arrat संसार अनाकर्षक लगने लगा । माताका अंतिम संदेश उसकी हृदयवीणा पर नित गूंजता । इस संदेशने छगनको जागृत कर दिया | साधुमुनिराजोंके उपदेशोंसे बालककी वैराग्यभावना विकसने लगी। भगवान्की पावन शरण में जीवनको अर्पण करनेकी इच्छा दिन-ब-दिन बलवती होने लगी ।
भाग्यसे संवत् १९४०में मुनि चन्द्रविजयजी महाराजका चातुर्मास बड़ौदा शहरके पीपलाशेरी उपाश्रयमें हुआ । पीपलाशेरीमें छगनजीका घर था । मुनिश्रीके उपदेशोंसे बालक छगनकी आत्मज्योति धीरे धीरे प्रकट होने लगी ।
संवत् १९४२ का वर्ष छगनके जीवनमें क्रान्ति ले आया । उस समय वह सातवीं कक्षा में पढता था । उस वर्ष आचार्य श्रीमद् विजयानन्दसूरीजी महाराज ( प्रसिद्ध नाम आत्मारामजी महाराज) बडौदा शहरमें पधारे। उनके उपदेशोंसे छगनकी भक्तिलता पुष्पित होकर फैलने लगी । किशोर छगनकी आयु उस समय १५ वर्षकी थी । छगनने दिव्य गुरु श्री आत्मारामजी महाराजको इस प्रकार देखा जैसे चकोर चन्द्रकी ओर देखता है । उस चन्द्र
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