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दिव्य जीवन
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प्रकाशसे उसके हृदयकी कुमुदिनी खिल गई । छगन सोचने लगा : इस आनन्दलोक में मैं सदा-सर्वदाके लिये बस जाऊं ।
ऐसा था गुरुदेव आत्मारामजीके जीवनमें आकर्षण । भ्रमर चरणकमल पर मंडरानेके लिए आतुर हो उठा। गुरुदेवकी आनंदमूर्ति हृदयमें बस गई ।
चिदानन्द आनन्द मूरति ।
निरख प्रेम भर बुद्धि ठगी री ।
मुक्तिपथ
दिव्य महात्मा मेघगम्भीर वाणीमें उपदेशामृत पिला रहे हैं। जनसमुदाय मंत्रमुग्ध होकर उस अमृतका पान कर रहा है। दिव्य महात्माके मुख पर ब्रह्मतेज झलक रहा है । उनके मुखारविन्दसे निकला हुआ एक एक शब्द जनमनमें रम रहा है ।
दिव्य सन्तने कहा :
सुख मृगतृष्णा हैं ।' अमर सुखकी कुमार एवं जंबुकुमारने यौवनके थे।"
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अपने मनके अंधकारको दूर करो । संसारके खोज करो । नेमिकुमार, वर्द्धमान, शाक्यवसन्तमें ही संसारके बन्धन तोड़ दिये
ये शब्द शान्त भावसे सुन रहा था प्रन्द्रहवर्षीय बालक छगन । दिव्य महात्मा थे श्रीमद् आत्मारामजी महाराज, जो संवत् १९४२में बडौदा नगरमें पधारे थे । बडौदा नगरके जानीशेरी उपाश्रयमें दिव्य गुरुदेवके व्याख्यान सुनने के लिये जनताकी अपार भीड़ रहती थी । श्रीमद् आत्मारामजी प्रकांड विद्वान तथा समभाववाले महात्मा थे। उनके समभावने सभी जाति एवं धर्मके लोगोंको आकर्षित कर दिया था । हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, जैन, पारसी आदि उनकी सभाओंमें आते और हर्षित होकर जाते । विदेशी विद्वान् भी उनसे विशेष प्रभावित थे । प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान डा० ए० एफ० रुडाल्फ हार्नल पूज्य गुरुदेवकी विद्वत्ता एवं सहृदयतासे आकर्षित होकर उनके दर्शनार्थ अमृतसर आये थे । वे गुरुदेवके सदैव प्रशंसक बने रहे । डा० हार्नल महोदयने अपना उपासकदशांग ग्रंथ गुरुदेवको समर्पित किया । समर्पण में उन्होंने १. तृषित निरखि रविकर भव बारी ।
फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी । - तुलसी : रामचरितमानस ।
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