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________________ १४ दिव्य जोल गुरुदेवकी प्रशंसामें संस्कृतमें कविता लिखी है, जिसका छायानुवाद यहां प्रस्तुत है: “आप रविप्रकाशके समान अज्ञानरूपी अन्धकार दूर करते हो, आप मानवमें सद्भावोंकी अमृतवर्षा करते हो। आप जैन दर्शनमें निदित १८ पापोंकी कालिमासे रहित हो। आप ज्योतिपुंज हो। आप साक्षात् आनन्दघन हो, आप दिव्य आत्मप्रकाश हो। आपने मेरे समस्त संशयोंको अपने ज्ञानके दिव्य प्रकाशसे मिटा दिया है, अतः अत्यन्त ही श्रद्धा तथा कृतज्ञभावसे मैं अपना यह ग्रंथपुष्प आपको अर्पित करता हूं।" बालक छगनलालकी मानसवीणाके तार इन व्याख्यानोंसे भक्तिरागसे गूंज उठे। संसारकी क्षणभंगुरता उसे व्यथित करने लगी। भूल्यो भमत कहाँ बे अजान । आलपंपाल सकल तज मूरख, कर अनुभवरसपान। आप कृतांग गहेगो इक दिन, हरि मग जेम अचान। होयगो तन-धनथी तुं न्यारो, जेम पाको तरुपान। -चिदानन्द छगन सोचने लगा कि संसारके सुख मायाजाल हैं। एक दिन कालका ग्रास बनना होगा। जिस प्रकार सिंह मृग पर झपटता है वैसे ही हे मूर्ख मनुष्य! तुझ पर भी काल झपटेगा। पीले पत्तेके समान तुझे टूटना है। तेरा शरीर और धनमाया रहनेवाले नहीं हैं। गुरुदेवके व्याख्यानोंकी कथायें, उदाहरण, महापुरुषोंके जीवन आदि उसके सामने इसी प्रकार दिनरात झूमते, जिस प्रकार कि चित्रपट पर चित्र। तब सहसा उसके स्मृतिपट पर नेमिकुमारका चित्र अंकित हो गया। गुरुदेवने उस कथाको कितनी सरस एवं भावपूर्ण शैलीमें कही थी! भावमग्न वह उस दृश्यमें खो गया : २. अठारह पापस्थानक-१) हिंसा, २) झूठ बोलना, ३) चोरी, ४) मैथुन (अब्रह्म), ५) धनदौलत पर मोह, ६) क्रोध, ७) गर्व, मद, ८) माया, ९) लोभ, १०) राग, ११) द्वेष, १२) क्लेश, १३) दोषारोपण (व्यर्थ ही किसी पर लांछन लगाना), १४) चुगली, १५) हर्ष और उद्वेग, १६) दूसरेको बुरा कहना और अपनी प्रशंसा करना, १७) प्रवंचना-ठगाई, १८) मिथ्या दृष्टिकोण। ये १८ पाप आत्माको मली करते हैं, परिणामस्वरूप जीवको ८४ लाख जीवयोनियोंके जन्ममरणके चक्करमें भटकना पड़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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