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दिव्य जीवन
सत्-चित्-आनन्द स्वामीकी अलौकिक रूप-छटाको अवलोक कर मन सुधबुध खो गया है। भक्त सोच रहा है कि प्रियतम तो जन्म-जन्मान्तरका सखा है, मित्र है । मायाके भ्रममें बीचमें साथ छूट गया तो भी क्या हुआ ? मैं कदापि अपने प्रिय मित्रका स्नेह नहीं छोडूंगा यही मेरी टेक है
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मित्र अनादिके बने आखिर में भी एक
बिचमें छूटा पड़ गए तो भी न छोड़ो टेक |
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• सन्त कवि सूरदासकी तरह कवि वल्लभका प्रियतम सखाके प्रति सख्य भाव यहां दर्शनीय है । स्नेहमें किसी प्रकारका पर्दा नहीं है । मित्रसे क्या छिपाना ? स्नेहसे स्नेहका आकर्षण होता है । स्नेहमूर्ति स्नेही जनको चुम्बकी तरह खींचती है ।
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कविकी आत्मा प्रियतमा है, करुणामूर्ति प्रियतम । प्रियतमा मीठा उपालम्भ देती है :
आनन्द धारी प्रभु सुखकारी पार उतारी, तुम निज रूप रम रहे, हम दलते संसार । - संसारकी मायामें भटकती प्रेयसीका अपने प्रेम पर पूर्ण विश्वास है । उसे विश्वास है कि वे अवश्य सुध लेंगे ।
यह आत्मजागृति होने पर जीवात्माका उद्धार होने लगता है । वह प्रेममूर्तिको पानेके लिये भक्तिका अवलम्ब लेती है । भक्तिभाव आने पर संसारके सुख उसे विषमय लगने लगते हैं । अमृत फलको चखनेके बाद करील फलोंको कौन बावला चखेगा ? हम रुलते संसारमें अपने प्रति झुंझलाहट प्रियके प्रति स्नेहभरा उलाहना तथा अपने जीवनके प्रति क्षेम - सभी एकसाथ प्रकट हुए हैं। इसे भावोंका गुलदस्ता कहें तो अतिशयोक्ति न होगी । कवि-कला-कौशलका यह अनोखा उदाहरण है ।
कवि वल्लभने आनन्दघन करुणामूर्तिकी असीम करुणाका गुणगान किया है । करुणाघनकी शान्त एवं सुधादृष्टि करुणाकी अमृतवर्षा करती है । वे सबका कल्याण करते हैं । वे देश और धर्मके अवलम्ब हैं । वे परम हितैषी एवं लोकनाथ हैं । वे प्राणिमात्रका भ्रम हरण करनेवाले स्वामी हैं :
लोकनाथ नायक हितकर्ता देशक धर्मके भवभयहर्ता ।
- भक्तको अपने भगवानको निवेदन करना पड़ा। वह स्वामीके द्वार पर पड़ा है, पर स्वामीने सेवककी सुध क्यों न ली ? सेवकको कहना पड़ा :
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