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काव्यकला
[आचार्यश्री स्तवन-सज्झाय-संग्रह, श्री चारित्र पूजा, पंचतीर्थ पूजा, पंच परमेष्ठी पूजा, भीमज्ञानद्वात्रिंशिका, जैन भानु आदिके रचयिता हैं। उनकी कला और शैली मनोरंजनी है। उनकी रचनाओंकी समीक्षात्मक झांकी प्रस्तुत है।]
आचार्यश्रीको कविकी सरस प्रतिमा मिली थी। उनके गीतोंमें काव्यके दोनों पक्षोंका सुन्दर निर्वाह हुआ है। स्तवन-गीतोंमें हृदयगत भावोंकी अभिव्यक्ति रसानुकूल भाषामें हुई है । ऐसा लगता है कि एक एक शब्द हृदयरसमें भीगा हुआ है। प्रभुमूर्तिकी दिव्य झलक कविको कैसी लगी? एक मनमोहिनी झांकीको निहारिये :
शांत वदन प्रभु तुम दर्शनसे
मोद होवे शशी निकसे बादलसे। --- अहा कैसा दिव्य रूप है निर्मल प्रभुके शांत मुखका! जैसे बादलके आवरणसे चन्द्र बाहर निकलता है वैसे ही प्रभुका सौम्य मुखडा दिखाई देता है।
प्रकृति-चित्रणमें कविका मन रमा हुआ है, ऐसा लगता है। एक चित्रकारने अपनी मनोरम तूलिकासे चित्र चित्रित किया है। कविका मनमधुकर प्रभुके चरणकमलोंमें मकरंद पान करने में मस्त है :
सुख संपद प्रभु तुम पदपंकजमें विलसते मधुकर जेम
सेवक तुम गुण मकरंद कारण रहते निशदिन तेम।' -- चरणकमलकी मधुर सुगन्ध भौंरेको आकर्षित कर रही है। मकरंदपानके लिए मधुकरने समर्पण कर दिया है। यह मकरंद है - गुणोंका। कमलदल पर भ्रमर-मंडल रसपान कर रहा है। मनमधुकरका प्रभुचरणमें ध्यानका एक बेजोड़ दृश्य उपस्थित हो गया है।
१. आत्म-क्रान्ति-प्रकाश-स्तवन-गीतसे ।
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