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________________ दिव्य जीवन फूल जहां खिलते हैं, सुगन्ध स्वतः बिखरती है। पूज्य वल्लभके सत्कर्मोंकी, सदजीवनकी, सद्भावोंकी तथा सत्प्रयासोंकी सुगन्ध बिखर गई । जनमानस सुवासित हुआ। जनताने अपने वल्लभको अलंकरणोंसे विभूषित करना चाहा। यह तो जनताका अपने गुरुदेवके प्रति श्रद्धाका उपहार था। संवत् १९८१में लाहौर चौमासेमें पंजाब श्रीसंघके बारंबार विनंती करने पर आपने आचार्यपद स्वीकार किया । पहिले भी श्रीसंघने आपको कई बार आचार्यपद देनेका प्रस्ताव रखा था। आपने कई बार पदों, उपाधियों और अलंकरणोंको विनम्रतासे टाल दिया था। इसके बाद वैशाख शुक्ला तृतीया, संवत १९९० गुरुवारको श्री बामणवाडाजी तीर्थस्थल पर पोरवाल सम्मेलनमें आपको 'कलिकालकल्पतरु' तथा 'अज्ञानतिमिरतरणि की उपाधियोंसे अलंकृत किया। आचार्य वल्लभको इन अलंकरणोंमें रुचि नहीं थी। आपको जनताने 'पंजाबकेसरी' तथा 'भारतदिवाकर'की पदवियोंसे भी विभूषित किया। यह जनताका प्यार था, उनके प्रति श्रद्धा थी, परन्तु गुरुदेव तो जनवल्लभ ही रहना चाहते थे, जनमानसमें प्रेमप्रकाशकी तरह बसना चाहते थे। वे व्यक्ति और समाजकी उन्नतिके इच्छुक थे। वे कहते थे: "प्रत्येक प्राणीमें ईश्वर विद्यमान है। शुद्धाचरणसे व्यक्ति अपने मनको प्रभुका पावन मंदिर बना ले।" गुरुदेवने सोचा : व्यक्तियोंसे ही समाजका निर्माण होता है। यदि व्यक्ति' सच्चरित्र, निष्ठावान, मानवतावादी तथा देशभक्त होंगे तो राष्ट्र विकासोन्मुख होगा। गुरुदेवने व्यक्तिके शुद्ध खानपान एवं आचरणशुद्धि पर विशेष महत्त्व दिया। उन्होंने मद्यनिषेध अभियानमें राष्ट्रपिता पूज्य महात्मा गांधीको हार्दिक सहयोग प्रदान किया। गुरुदेवने मद्यनिषेध पर बंबई, पंजाब, गुजरात एवं राजस्थानमें अनेक भाषण दिये। उनके भाषण सारगर्मित होते थे। संवत् २००९ चैत्र वदी १४ को बम्बईकी विशाल सभामें गुरुदेवने मदिरासेवनके दुष्परिणामों पर टिप्पणी करते हुए कहा था : “मदिरापानसे मनुष्य आत्महीन, निस्तेज एवं निराश बन जाता है। वह स्वयंका, परिवारका, राष्ट्रका तथा समाजका बोझ बन जाता है। वह विनाशके गर्त में अपने आपको पटक देता है।" __ पसरूर (पंजाब) की एक समामें आचार्यश्रीने कहा था : “शराबी आत्मप्रकाश खो देता है। उसके शरीरका तेज व स्वास्थ्य मंद पड़ जाता है और अन्त वह मृत्युकी गोदमें लेट जाता है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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