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दिव्य जीवन उल्लेख है कि हम ही खुद अपने स्वामी हैं और आत्माके सिवा हमें तारनेवाला कोई दूसरा नहीं है। इसलिये जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने उत्तम घोड़ेका संयमन आप ही करता है, हमें अपना संयमन आप ही भली भांति करना चाहिये। निष्काम भक्तिकी व्याख्या अत्यन्त ही सरल रूपसे समझाते हुए महात्माजीने फरमाया कि बिना फलको कामनाके इस संसारमें अच्छे कार्य करते चलो, कल्याण होगा। परमेश्वर न तो किसीके पापको लेता है, न पुण्यको । कर्मके स्वभावका चक्र चल रहा है, जिससे प्राणिमात्रको अपने अपने कर्मानुसार सुख-दुख भोगने पड़ते हैं।"
इस प्रकार गुरुदेवकी वाणी जनमानसमें क्रीडा करती थी। उस वाणीका प्रभाव औषधि तुल्य होता था।
सियालकोटमें चातुर्मासके अन्तर्गत गुरुदेवका उपदेशामृत पीनेके लिये आर्यसमाजी, सिख, ईसाई, मुसलमान आदि सभामें बड़ी संख्यामें पहुंचते। गुरुदेव बड़ी सरल एवं सरस वाणीमें उनकी शंकाओंका समाधान करते। चार्तुमासकी समाप्तिके पश्चात् आचार्यदेव विहार कर आगा गांव पधारे। आप एक जीर्णशीर्ण गुरुद्वाराम ठहरे। गुरुद्वाराको खंडहर रूपमें देखकर गुरुदेवको दुःख हुआ। उन्होंने गुरुद्वाराके जीर्णोद्धारका उत्तरदायित्व स्वीकार किया। गुरुदेवके समभावका यह ज्वलन्त उदाहरण है।
गुरुदेवका विशाल दृष्टिकोण उनकी विश्वमैत्रीभावनाका द्योतक है। उनकी विश्वमैत्रीमें करुणाकी सहज चमक थी। उस चमकसे दर्शकके चित्त पर एक दिव्य चित्र अंकित हो जाता था। वह ऐसी चमक थी जो सहज आनन्द प्रदान करती थी।
पूज्य गुरुदेवमें ऐसी करुणा थी कि जिससे मनुष्योंके दुष्ट विचार समाप्त हो जाते थे; उनके मनका मैल धुल जाता था और मनमें मानवताका प्रकाश शनैः शनैः खिलने लगता था। वह करुणा प्रेमका प्रकाश थी, जिसके लिए महान् नाटककार शेक्सपियरने अपने प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय नाटक 'दि मर्चेन्ट आफ वेनिस में लिखा है :
It is an attribute to God himself; Any earthly power doth then show likest God's
When mercy seasons justioe. (Act IV, Sc. i) ३. अत्ता हि अत्तनो नाथो अत्ता हि अत्तनो गति।।
तस्मा सञ्जमयत्ताणं अस्सं भदं व वाणिजो॥-धम्मपद ४. नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः॥- गीता
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