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________________ अपनी बात 'दिव्य जीवन' लिखनेकी अभिलाषा बहुत समय पहलेसे थी। गुरुदेव आचार्य श्री विजयवल्लभसूरिजी महाराजके साहित्यको पढ़नेसे मनमें एक ऐसा दिव्य चित्र अंकित हो गया जो सद्जीवनकी उज्ज्वल रेखाओं और मानवताके रंगसे बना था। सर्वप्रथम मैंने दिव्य मूर्तिके दर्शन पालोतानामें १८-१९ वर्ष पूर्व किये थे, तब मैंने उनके मुखको तेजस्विता देखकर यह सहज ही अनुमान लगा लिया था कि यह वही प्रकाश है, जिसको भौतिक माया-जालमें फंसा हुआ मनुष्य देखनेके लिए छटपटा रहा है। उन उज्ज्वल प्रकाशकिरणोंमें मानवता, उदारता, करुणा, स्नेह, ज्ञानकी गरिमा, सौम्यता तथा शीतलताके रंग स्पष्ट देखे जा सकते थे। यह सप्तरंगी व्यक्तित्व इन्द्रधनुषके समान मेरे हृदयगगनमें अंकित हो गया। - उनकी वाणोमें मधुरता एवं प्रभावशीलता थी। एक एक शब्द अन्तरसे निकल कर कानोंमें मानो मिश्री घोलता था। हृदयवीणाके तार झंकृत होकर मधुर गीत-स्वरोंको गुंजायमान कर देते थे। फिर श्रोता आत्मविभोर होकर सांसारिक क्षणभंगुर सुखोंकी मायावी चकाचौंधको भूल कर अमर सुखको खोजके लिए व्याकुल हो जाता था। ऐसी थी गुरुदेवकी मधुर एवं अमर वाणी। गुरुदेवके बाह्य जीवनकी चमकती रेखाओंके भीतर चमकते हुए आत्मिक प्रकाशको देखनेकी मैने कोशिश की है। यह आत्मिक या भीतरका प्रकाश 'मनकी आंख से ही देखा जा सकता है। गुरुदेवके प्रति भक्तिने मेरे अन्तर्चक्षु खोलकर उनके आन्तरिक सौन्दर्यको देखनेके लिए मुझे प्रेरित किया। यदि भक्तिकी शक्ति न होती तो ऐसे दिव्य जीवनके दर्शन भी न हो पाते। गुरुदेवने अपने साहित्यके माध्यमसे तथा प्रवचनोंके द्वारा जो विचार प्रकट किये हैं, वे अत्यन्त ही उपयोगी है। मैन उनका साहित्यिक रूप भी जनता-जनार्दनके सामने रखा है। उनका काव्य, उनका गद्य, उनकी शैली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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