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दिव्य जीवन ___इस अधिवेशनमें जनता आचार्य वल्लभकी समाजसेवासे प्रेरित होकर उन्हें शासनसम्राट, युगप्रधान, शासनदीपक आदि पदवियोंसे विभूषित करना चाहती थी। इसके लिये विनम्र आग्रह किया गया। भारतके समस्त प्रान्तोंके प्रतिनिधियोंने मिलकर गुरुदेवको राजी करनेका अथक प्रयत्न किया, परन्तु दिव्य संतने कहा :
"भाग्यशाली प्रतिनिधि बंधुओं! आप लोगोंके प्रेमभरे शब्द सुनकर मैं रोमांचित हुआ। समाजकी कैसी दयनीय दशा है ! मध्यमवर्गके भाईबहिनोंकी दर्दभरी दशा है। आज देशके कोने कोनेमें नवनिर्माणकी आवश्यकता है। आजादीकी सुनहली किरणें ग्राम ग्राममें पहुंचानी हैं। इसके लिए हम सबको रात-दिन काम करना होगा। स्थान स्थान पर उद्योगधंधे खुले, शिक्षाके प्याऊ ज्ञानजल पिलावें-- यह मेरी अभिलाषा है।
क्षमा करना। आज देशकी दशाको ओर दृष्टिपात करो। पीड़ित भाई-बहिनोंकी ओर देखो। देश और समाजकी इस विषम दशामें मुझे आचार्य पदवी भी भारी पड़ रही है। इस विकट दशामें मैं कोई भी अलंकरण कैसे धारण कर सकता हूं?
___ "भाग्यशालियों, समयका संदेश सुनो। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका विचार करो। स्वर्णिम अतीतकी ओर देखिये। जगडुशाह, विमलशाह, वस्तुपाल, तेजपाल, समराशाह और भामाशाहने समाजोत्थानके लिये क्या नहीं किया ? आज लक्ष्मीके भंडार भरपूर हैं परन्तु कहां है वह पीडा। जब दुखियोंके प्रति पीड़ा ही नहीं है, फिर धर्म कहां रहा, मानवता कहां रही? जीवन खोखला बन गया है-- केवल कंकाल मात्र ।
" मुझे किसी अलंकरण या पदवीकी आवश्यकता नहीं। मुझे पद नहीं काम दो। मैं पदवीसे अधिक कीमती वस्तु आपसे मांग रहा हूं। मैं भिक्षु हूं और सदा रहूंगा। आप लोग एकतामें रहो। शिक्षण संस्थाओंके लिए अपनी तिजोरियां खोल दो। आप लोग लक्ष्मीके ट्रस्टी हो। लक्ष्मी समाजकी है। गरीब भाई-बहिनोंकी सुध लो। उनकी पीड़ाको समझो।"
गुरुदेवकी मर्मभरी वाणी सुनकर सबकी आंखोंमें आंसू रमने लग। सभी मौन थे--चित्रलिखे-से दीख रहे थे। किन्तु वाणीका प्रभाव गहरा था। उनकी वाणी जनमानसमें क्रीडा करने लगी।
गुरुदेवकी निस्पृहताका यह दिव्य उदाहरण है। उन्होंने कभी भी अपनी प्रशंसा नहीं चाही। वे समाज और व्यक्तिको ऊंचा उठाना चाहते थे। यह था उनका पुनीत लक्ष्य ।
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