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________________ २८ दिव्य जीवन गुणोंसे उनका शीलत्व निखर गया था। वे छह गुण मानवताके आभूषण है। गुरुदेवमें इन गुणोंको देखकर मुझे बहुमूल्य प्लैटिनम धातुसमूहके छह धातुओंका स्मरण हो आता है। प्राचीन शास्त्रोंमें जिस श्वेत स्वर्णका उल्लेख हुआ है वह प्लैटिनम ही है। गुरुदेवके व्यक्तित्वकी श्वेत स्वर्णता जनमानसको बरबस छू लेती थी। उनकी दिव्य स्वर्णता या शुभ्रता मनके अन्तर्प्रदेशमें छिपे राग-द्वेषादि कषायोंके मैलको गलानेमें सशक्त थी। वह दिव्य शुभ्रता मनुष्यता ही है। मनुष्यतासे ही मनुष्य, मनुष्य' कहलानेका अधिकारी बनता है। इसके बिना वह मनुष्यवेशधारी पशु ही माना जाता है। किन्तु मनुष्यताका विकास साधनाके द्वारा संभव है। साधना अथवा कर्मसे मनुष्य मनुष्योचित गुणोंको प्राप्त करता है । आचार्यदेवने साधनासे अपने जीवनको मनुष्यताके प्रकाशसे आलोकित किया था। यही कारण है कि उनका जीवनप्रकाश जनमानसको प्रकाशित कर देता था। ऐसी कितनी ही घटनायें हैं जो यह प्रदर्शित करती हैं कि उनका दिव्य आकर्षक जीवन व्यक्तियों, परिवारों एवं समाजमें शान्ति स्थापित करने में सफल हुआ। यह कोई जादू या टोना नहीं था, न कोई चमत्कार था। यह वह साधना थी जिससे कोई भी मनुष्य ऊंचा उठ सकता है। साधनाके द्वारा मनुष्य देवता बन सकता है। आत्माके भंडारमें कितने ही दिव्य रत्न ह, उनको प्राप्त करनेके लिये साधनाकी आवश्यकता है। आचार्यदेवका मिशन था, व्यक्तिको ऊंचा उठाया जाय । समाजकी उन्नति, सभ्यताका विकास, संस्कृतिकी उच्चता व्यक्तिके चरित्र पर निर्भर है। कुव्यसन व्यक्तिको पतित कर देते हैं। अज्ञान उसे अन्धकारमें भटकाता है। शुद्ध आहार, शुद्ध विहार एवं शुद्ध विचार मनुष्यजीवनभवनके तीन स्तम्भ है। आचार्यदेवने इसीलिये शाकाहार पर सदा जोर दिया। गुरुदेवने कहा था : “ रसनाके स्वादके लिये मनुष्य जीवोंकी हत्या करता है। सुनिये, उस आर्तनादको जिसे मूक पशु, पक्षी, जलचर तथा अन्य प्राणी मृत्युके भयके कारण करते हैं। इस आर्तनादको नेमिकुमारने सुना था और वे अपने रथको उन दुःखी प्राणियोंके पास ले गये थे। उन सबको उन्होंने मुक्त कर दिया था। सम्राट अकबर मुगल थे। वे जगद्गुरु श्रीमद् हीरविजयसूरिजीकी पवित्र वाणीको सुनकर अहिंसाकी ओर झुके थे और उन्होंने पिंजरोंसे पक्षियोंको मुक्त कर दिया था, सरोवरों में क्रीडा करती मछलियोंको पकड़ना बन्द करा दिया था और वर्षमें छः महीने पशुवध सारे साम्राज्यमें बंद करवा दिया था। जिस आर्तनादका गुरुदेवने उल्लेख किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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