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कृष्णपक्षकी भयानक रात्रि । चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार था । कुछ सूझता नहीं था । अन्धकारकी काली चादरने समस्त रंगबिरंगी वस्तुओंको ढक लिया था । उस अन्धकारमें दूर एक कुटिया में छोटासा दीपक टिमटिमा रहा था । दीपक छोटा था, परन्तु इससे क्या ? उसका काम था प्रकाश फैलाना | काम क्या ? प्रकाश देना उसका सहज स्वभाव था । अन्धकारमें उस नन्हेंसे दीपको देखकर सहसा मेरे स्मृति पर ये भाव विद्युतरेखाओंके समान चमक गये :
१० शिक्षा और नवोदय
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अन्धकारमें प्रकाश खोजो, निराशामें आशा देखो, मृत्युमें जीवनज्योतिके दर्शन करो। सभी प्रकाश चाहते हैं - तमसो मा ज्योतिर्गमय - मुझे अन्धकारसे प्रकाशमें ले जाओ। वह प्रकाश क्या है ? ज्ञान ही प्रकाश है ।" और योगिराज आनन्दघनजीकी गीतपंक्ति ओठों पर थिरकने लगी : 'मेरे घट ग्यानभानु भयो भोर । "
ज्ञान अरुणोदयसे हृदय कली खिल जाती है, उसमेंसे नवीन विचारोंकी सुगन्ध बिखरने लगती है ।
विचारोंकी नवीनता वसन्त ऋतुके आगमन के समान है । वसन्तागमन पर वृक्षोंके पीले पत्ते झर जाते हैं । वसन्तकी शोमासे वन-उपवन उद्यान रम्य एवं भव्य बन जाते हैं। ठीक इसी प्रकार ज्ञानके वासन्ती प्रकाशसे जन-मनम नवीन विचारोंका वसन्त खिल जाता है, समाजकी काया पलट जाती है ।
गुरुदेवने समाजकी नवरचना - अभ्युदयके लिए शिक्षाको अमूल्य साधन बताया । उन्होंने शिक्षाप्रचारको अपने जीवनका पावन लक्ष्य बना दिया ! गुरुदेवने देखा कि समाजमें अशिक्षाके कारण भयंकर पिछड़ापन है । उत्सवों में फिजूल खर्चीमें लाखों रुपये पानीकी तरह बहाये जाते हैं, परन्तु समाजके
१. मृत्यु में जीवन झलकता है । अन्धकारमें प्रकाश चमकता है । असत्यम सत्य दमकता है। - महात्मा गांधी
२. णाणं णरस्स सारो । ( ज्ञान मनुष्यजीवनका सार है । ) - आचार्य कुन्दकुन्द
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