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दिव्य जीवन
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पंडितजी भाई शान्तिलालके साथ भीमाणा ( आबू रोड ) पहुंचे। वहां गुरुदेवके दर्शन करके वे आत्मविभोर हो गये । शास्त्रचर्चा हुई ।
गुरुदेवने कहा : " धर्म में क्लेश, राग-द्वेषका कोई स्थान नहीं । धर्मं समभाव और प्राणिमात्रके लिये मैत्रीभाव सिखाता है। भगवान महावीरने अहिंसा और त्यागकी बहुमूल्य भेंट विश्वको दी है ।
"
गुरुदेव के शीतल एवं इक्षुरस तुल्य मधुर तथा हृदयस्पर्शी शब्दोंको, सुनकर पंडितजीकी हृदयवीणा झंकृत हुई । वीणाकी मधुर स्वरलहरी आज भी कानों में मिश्री घोल रही है । पंडितजीने कहा : " कृपालु ! आपका वचनामृत पीकर मैं धन्य धन्य हुआ । मैं द्वारका तो जा रहा हूं, परन्तु वास्तवमें मुझे यहां ही द्वारकाके दर्शन हो गये हैं । "
पंडितजीके मुखारविंद से जब ये शब्द सुने तो गुरुदेव ने कहा: “पंडितजी, ऐसा न कहिये । मैं तो धर्मका दीपक जलानेके लिए यह जीवन जी रहा हूं। इस शरीर से धर्म, साहित्य, देश और मानवताका कल्याण हो, यही मेरी कामना है, यही मेरी साधना है । '
"
पंडितजी मनमें जो प्रसन्नताका दीपक प्रज्वलित हो गया था, उसकी ज्योति निराली थी । उनके मुखमंडल पर वह प्रकाश चमक रहा था, उनके नेत्रों में वह दिव्यता स्पष्ट दिखाई दे रही थी । पंडितजीने प्रसन्नभावसे गुरुदेव - के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए कहा : " गुरुदेव ! मैंने आज तक किसीको अपना मस्तक नहीं नमाया, किन्तु इन चरणकमलोंमें सहज ही मस्तक झुक रहा है । अहा ! ये चरणकमल कितने शीतल हैं !
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भीमाणाके भाई-बहिन इस मिलनको देखकर आश्चर्यचकित हो गये । ऐसा लगा मानो राम-भरत मिलन हुआ हो । एक ओर प्रेम था, दूसरी ओर भक्ति । प्रेमकी शक्ति असीम है । भक्ति प्रेमकी ओर खिंची हुई आती है । राम प्रेमके प्रतीक है, भरत भक्तिके ।
थाणामें एक विशाल सभामें गुरुदेवका मानवधर्म पर अत्यन्त ही मर्मस्पर्शी प्रवचन हुआ । इस सभाकी अध्यक्षता श्री वामन अनंत रेगने की । इस सभा में बम्बई तथा आसपासके उपनगरोंसे हजारों भाई-बहिन आए थे । मानवधर्मकी सरस व्याख्या करते हुए गुरुदेव ने कहा : " मानवधर्मका अर्थ है - सबके प्रति प्रेमभावना । प्रेममें करुणाका वास है । जिसके हृदयमें करुणा होती है वही प्रेमको पहचानता है। भगवान प्रेम रूप हैं, क्योंकि वह करुणा
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