________________
दिव्य जीवन ---हे स्वामी, तुम चित्तरूपी घनमें चन्द्रमाके समान आनन्दकी चांदनी छिटका रहे हो। यहां रूपक-अलंकार द्वारा उस दिव्य छविका अंकन किया गया है।
प्रकृतिके विविध रूपोंमें कवि वल्लभकी आत्मा रमती हुई दिखाई देती है। प्रकृतिके सरस दृश्योंके द्वारा उस दिव्य तथा अलौकिक छविको कविने प्रदर्शित किया है। प्रकृतिकी रमणीयताने कविके हृदयको छू लिया है ऐसा लगता है। उस दिव्य मूर्तिके चित्रणमें कोमल कान्त पदावलीका प्रयोग हुआ है। एक उदाहरण यहां प्रस्तुत है : .
निर्मल पदधारा मल हरनारा वीर प्रभु भगवान। -- प्रभुके चरणकमलसे बहनेवाली करुणाकी जलधारासे हृदयके समस्त मलकषाय (काम, क्रोध, मद, मान, लोभ आदि) बह जाते हैं। हृदय शुद्ध हो जाता है, प्रभुका पावन मंदिर हो जाता है।
इसमें बहती हुई जलधाराका दृश्य आंखोंके सामने झूमने लगता है। कलकलनादिनी जलधाराका कर्णमधुर शब्द भी हम सुन सकते है, अन्तःश्रवण ही इस स्वरमधुका पान कर सकते हैं।
आचार्यश्रीने चारित्र पूजामें अलंकारोंका मनमोहक प्रयोग किया है। अलंकारप्रयोग भावप्रकाशनके लिए होता है । अलंकार कविताकामिनीका शृंगार करते हैं, उसका रूप निखार देते हैं।
थोड़ेसे शब्दोंमें गहन भाव भरनेकी कला कितने कवियोंमें होती है ? यह प्रतिभा थी आचायदेवमें। सघन भावसे युक्त इन पंक्तियोंको देखिये :
दर्शनथी दर्शन गुण प्रकट
जिन दर्शन बिन दर्शन नावे । यहां यमक-अलंकारका प्रयोग रसानुकूल हुआ है। दर्शन शब्दके अलग अलग स्थानोंमें अलग अलग अर्थ हैं। दर्शन अर्थात् देखना और दर्शन अर्थात् श्रद्धा या भक्ति (Faith) । प्रभुमूर्तिके दर्शनसे दर्शन या श्रद्धा विकसित होती है। बिना दर्शनके श्रद्धा या भक्ति भागती है। __आचार्यश्रीने भावप्रकाशनके लिए सरल एवं चलती भाषाका प्रयोग किया है। कविका उद्देश्य कवित्वका प्रदर्शन नहीं है, आत्मरंजन ही लक्ष्य रहा है। चलती भाषाका एक नमूना यह है :
___ तुम मूर्ति मुझ मन केमेरा, फोटू सम स्थिर एक विपल में।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org