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________________ दिव्य जीवन और दूसरोंके हृदयको आकर्षित करनेके लिये भी वह अपनी खुशबू लुटाता रहता है।" ___ गुरुदेवका चिन्तन मौलिक है। उसमें नवीनता है। वसन्तके फूलोंकी ताजगी जैसे मनको मोहित कर देती है वैसे ही गुरुदेवकी मौलिकता मनको मुग्ध कर देता है। ___ त्यागका महत्त्व क्या है ? -- गुरुदेवके इस कथनमें सारा निचोड़ है : "जीवन अगरबत्तोके समान स्वयं जलकर दूसरोंको सुगन्ध प्रदान करता है, आसपासके वातावरणको सुरभित बना देता है।" त्यागमय जीवनकी तुलना अगरबत्तीसे करके गुरुदेवने सब कुछ समझा दिया। जीवन अगरबत्तीकी तरह सुगन्ध बिखेरता रहे इसीमें उसकी सफलता है। वह सुगन्ध है अच्छाईकी। 'ईश्वरका स्वरूप 'में गुरुदेव' लिखते हैं : “वैदिक धर्म जिसे निरंजन, निराकार ईश्वर कहता है, जैनधर्ममें उसे सिद्ध परमात्मा कहा है। ईसाई धर्ममें उसे गोड (God) और मुस्लिम धर्ममें खुदा कहा है। सिक्ख लोग उसे कर्तार कहते है, कबीरपंथी उसे सांई कहते हैं। कोई उसे राम कहते है कोई हरि या विष्णु कहते हैं। पारसीधर्म में उसे अशोजरथुस्त कहा है।" कैसी समन्वयदृष्टि है गुरुदेवकी ! इसी समन्वयदृष्टिमें समभाव बसता है। समभावमें सबके प्रति प्रेम झलकता है। गुरुदेवकी प्रेमभावना पत्थरको भी मोम बना देती थी। __'ईश्वर कहां है' निबन्धमें गुरुदेव कहते हैं : “ईश्वरका सर्वत्र वास है यह समझ कर अपने अंदर सोये हुए ईश्वरको व्यक्त करनेका पुरुषार्थ करो। उस विराट ईश्वरको घट घटमें देखो और अपने हृदयमें ईश्वरत्वको सुरक्षित रखो।" गुरुदेव हास्यके छींटे बिखेरते हुए पाठकों एवं श्रोताओंको अपने विश्वासमें लेते हुए अपनी बात कहते है। 'धर्म क्या है' निबन्ध, गुरुदेवकी विनोदी प्रकृतिका एक रूप निहारिये: __ “धर्मको फर्नीचर मत बनाओ। जैसे कोई शोभा या प्रतिष्ठाके लिए मकानमें टेबल, कुर्सी, सोफासेट, पलंग, झाडफानूस, कांचकी आलमारियां आदि फर्नीचर बढ़ा लेता है, इसी तरह बहुतसे लोग ऐसा सोचते हैं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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