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दिव्य जीवन ऐसे ही प्रकाशसे प्रकाशित था आचार्यदेव श्रीमद् विजयवल्लभसूरिजीका जीवन । उनका जीवन प्रकाशका ही रूपान्तर था। रविकिरणकी तरह उनका जीवन समाजोद्यानको प्रकाशित करता रहा और व्यक्तिको पुष्पित-पल्लवित करता रहा।
सर्वप्रथम आचार्य वल्लभने अपने जीवनको विद्याके प्रकाशसे प्रकाशित किया। अपने दिव्य गुरु आचार्य श्रीमद् आत्मारामजी महाराज (श्रीमद् विजयानन्दसूरिजी महाराज)के जीवनप्रकाशसे वे इतने आकर्षित हुए कि उन्होंने सत्रह वर्षकी अल्पायुमे ही दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा (संन्यास) ग्रहण करने के पश्चात् वल्लभने दत्तचित्त होकर विद्याध्ययन किया। विद्याके अनेक मधुर फलोंसे उनका जीवनविटप सुशोभित होकर झुक गया। उनमें विनम्रता आ गई और सघनता भी। सघनतामें शीतलता निवास करती है। शीतलता आनन्ददात्री है। वृक्ष जब फलोंसे लद जाता है, तब वह झुक जाता है। उसकी छाया भी सघन एवं शीतल हो जाती है। थका हुआ यात्री जब उस द्रुम-छाया तले बैठ कर घड़ीभर विश्राम करता है, तब उसकी सारी थकान मिट जाती है। वह ताजगी प्राप्त कर स्वस्थ बन जाता है। आचार्य वल्लभका जीवनवृक्ष ऐसा ही था ।
पूज्य गुरुदेव वल्लभने षड्दर्शनोंका विशद अध्ययन किया : न्याय, सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा तथा वेदान्त । षड्दर्शनके अतिरिक्त उन्होंने जैनदर्शनका सूक्ष्म अध्ययन किया। विद्याके प्रतापसे उनकी दृष्टि निर्मल हो गई। निर्मलता उनके मनमें बस गई, निर्मलता उनके आचरणमें छा गई, निर्मलता उनके तनमें रम गई। निर्मलता थी उनके व्यवहारमें, निर्मलता थी उनको वाणीमें। निर्मलताने उनके जीवनको आकर्षक बना दिया। निर्मलताकी गंगाधारामें उनका जीवन निखर गया। निर्मलतासे उनकी मानवता खिल गई। मानवतासे समभावका मधुर प्रकाश उनके मनमें छिटक गया।
श्रीमान् स० का० पाटिलकी अध्यक्षतामें वि. संवत् २०१० कार्तिक शुक्ला २को मनाई गई आचार्य वल्लभकी ८४वीं जन्मजयन्तीके पावन प्रसंग पर गुरुदेवने ये उद्गार प्रकट किये थे :
__ "मैं न जैन हूं, न बौद्ध, न वैष्णव हूं, न शैव, न हिन्दू हूं, न मुसलमान । मैं तो शांतिपथको खोजने के मार्ग पर चलनेवाला एक मानव हूं, यात्री हूं।"
ये शब्द आचार्य वल्लभकी 'वसुधैव कुटुंबकम्' (समस्त संसार एक कुटुम्ब है)की भावनाके द्योतक हैं। इनमें उनका समभाव स्पष्ट झलकता
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