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________________ दिव्य जीवन प्रेम, उदारता, त्याग आदि गुणोंका समावेश हो जाता है; विश्वमैत्रीकी भावना पुष्पित हो जाती है। विश्वशान्तिका मूल है यह विश्वमैत्रीकी भावना । विश्वमंत्रीरूपी वृक्षकी शीतल एवं सघन छाया है प्रेम। प्रम है भगवानका रूप । इसीलिये गुरुदेवने व्यावहारिक शिक्षाके विकासके लिये जहां एक ओर जोर दिया वहां नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षणको माताका दूध कहा । शिक्षासे जो संस्कार बालकमें आते हैं उनका उल्लेख करते हुए गुरुदेवने कहा : “शिक्षासे बालकमें सदाचरण, देशसेवा, समाज-सेवा आदि गुण आने चाहिये। शिक्षाको जीवनका दिया कहा है।" गुरुदेवने आधुनिक शिक्षाका प्रबल समर्थन किया। अब तक समाजमें शिक्षाके प्रति कोई रुचि नहीं थी। व्यावहारिक शिक्षाकी इतनी उपेक्षा थी कि इसे विकृतिका साधन माना जाने लगा था। गुरुदेवने समाजकी इस संकीर्ण विचारधाराको अच्छी तरह समझ लिया। उन्होंने देखा कि इस तरह अज्ञानके कारण समाज पतनके गर्तमें डूब जायेगा। समाजमें आलस्य, भौतिकवाद, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास एवं बेकारीके कारण दलदल फैला हुआ है, गाड़ी फंसी हुई है। शिक्षाके प्रबल धक्केसे इस फंसी हुई गाड़ीको निकाला जा सकता है। गुरुदेवने आधुनिक शिक्षाका महत्त्व इस प्रकार बताया : __"आज आधुनिक शिक्षासे लोग घबराते हैं और कहते हैं कि शिक्षासे संस्कृतिका नाश होता है। परन्तु मैं तो उसको वैसी ही भ्रांति मानता हूं जैसे कि बिजली जला देती है इसलिये बिजलीके उपयोगसे दूर रहना चाहिये। इस तरहसे यंत्रवादी घबराये होते तो सारे संसारमें यंत्रवादका साम्राज्य स्थापित नहीं कर पाते। जिस कालमें जिस प्रकारकी शिक्षा प्रचलित हो, उसको प्राप्त किए बिना हम अपना हित साध ही नहीं सकते।" आधुनिक शिक्षाके इन दृढ़ विचारोंका गुरुदेवने प्रचार किया। इन विचारोंके शक्तिवर्धक इन्जेक्शनोंसे समाजमें नवचेतना आई। नव जागरणमें समाजके जागृत लोगोंने देखा कि हम अन्धकारमें भटक रहे हैं। समाज अशिक्षाके कारण अचेतनावस्थामें पड़ा हुआ है। गुरुदेवने शिक्षाकी भ्रांतियोंका: निराकरण करते हुए समाजके सामने यह सुझाव प्रस्तुत किया : "शिक्षाको दोष देना और उससे दूर रहना समाजकी उन्नतिमें बाधा पहुंचाना है, इसलिये शिक्षासे न घबराते हुए उसके लिये सुन्दर आयोजन करके आदर्श शिक्षणालय और शिक्षकालय (Training schools) स्थापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002669
Book TitleDivya Jivan Vijay Vallabhsuriji
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharchandra Patni
PublisherVijay Vallabhsuriji Janmashatabdi Samiti
Publication Year1971
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size4 MB
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