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दिव्य जीवन ले पाठकके मनमें अच्छे विचारोंका अंकुरण होता है। शैलीकी रोचकताके कारण कहानी और नाटकका-सा आनन्द प्राप्त होता है। ज्ञानकी गरिमा एवं अनुभवके माधुर्यने शैलीको सुन्दर बना दिया है। वर्षा ऋतुकी प्रथम वृष्टिकी सौधी वायुका कोमल स्पर्श जैसे आनन्द प्रदान करता है वैसी ही आनन्दानुभूति इन निबन्धोंको पढ़नेसे होती है।
कुछ प्रेरक संस्मरण निर्भीक सन्त -- गुरुदेव उदयपुर पधारे। उनके प्रवचनोंकी धूम सारे नगरमें फैल गई थी। जनताकी विशाल मेदनी उनके व्याख्यान सुनने के लिये लालायित रहती थी। राज्यकर्मचारी भी उन व्याख्यानोंसे अत्यधिक प्रभावित हुए । उदयपुरके महाराणाजी श्री भोपालसिंहजीने जब गुरुदेवके प्रवचनोंके बारेमें सुना तब उनके मनमें उस अमृत तुल्य वाणीको सुननेकी उत्कंठा उत्पन्न हुई। महाराणाजीने अपने मंत्री द्वारा गुरुदेवको प्रार्थना की कि आपकी वाणी-सुधासे हमें भी तृप्त कीजिये। गुरुदेवने विनती स्वीकार की और गुलाबबाग राजमहलमें व्याख्यानका आयोजन किया गया, जिसमें राणाजीके साथ राज्यकर्मचारी एवं विशिष्ट गणमान्य नागरिक उपस्थित हुए थे। ____ व्याख्यानके अन्तर्गत कर्मवादका प्रसंग आया। गुरुदेवन कर्मसिद्धान्त पर अच्छा प्रकाश डाला। प्रसंगवश गुरुदेवने महाराणाजीकी ओर इशारा करते हुए कहा : “ देखिये, सामने बैठे हुए उदयपुरके महाराणाजीको। महाराणाजीका ऊपरका अंग अतीव सुन्दर दिखाई दे रहा है, परन्तु इनके पांव अपंग हैं। कर्मका कैसा प्रभाव है ! राजा-महाराजाको भी यह छोड़ता नहीं है । अतः मनुष्यको चाहिये कि वह अच्छे कामोंमें रस ले तथा बुरे कामोंकी ओर कभी भी प्रवृत्त न हो।"
गुरुदेवसे इस मिसालको सुनकर जनता गद्गद् हो गई। लोगोंने सन्तकी निर्भीकताकी भूरि भूरि प्रशंसा की।
विद्यार्थी-सम्मेलन --- गुरुदेव विद्यार्थियोंको राष्ट्रके दिव्य हीरे कहते थे। उनका कथन था: “जैसे : खानसे निकले हीरोंको तराशा जाता है, फिर उनकी दिव्यता फूटती है, वैसे ही उत्तम शिक्षासे ये हीरे निखरते हैं और अपने गुणोंकी चमकसे समाज और राष्ट्रको चमका देते हैं।"
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