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दिव्य जीवन बिठाया। लक्ष्मीपतियोंको मानवताका गुलाबजल पिलाया। जो अपने धनके नशेम कर्तव्य-भावना भूल गये थे, गुरुदेवने उनको अचेतनावस्थासे जगाया। गुरुदेवको समाजके प्रति सेवा स्वर्णाक्षरोंमें अंकित है। अनेक शिक्षणसंस्थायें आचार्यदेवके यशरूपी नन्दन-काननके कल्प-पुष्प है। ____ गुजराती भाषाभाषी होते हुए भी गुरुदेवने राष्ट्रकी एकताके लिये राष्ट्रभाषाके रूपमें हिन्दीका समर्थन किया। गुजराती एवं संस्कृतके विद्वान होते हुए भी आचार्यश्रीने लोकहितकी दृष्टिसे हिन्दी भाषामें साहित्य-सृजन किया तथा प्रवचन दिये। उनकी हिन्दी सरल है तथा शैली प्रभावशालिनी एवं सशक्त । उनकी काव्यकला सरस है और उनकी गद्यशैली रमणीय है। 'वल्लभ-प्रवचन' ग्रन्थोंमें उनके विविध निबन्ध हैं, जिनमें ईश्वर, धर्म, सेवा, मानवता, शिक्षा आदि विषयों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। आचार्य वल्लभकी साहित्यिक प्रतिभा उच्च कोटिकी है। सब धर्मों के प्रति आदरभाव एवं समन्वयदृष्टिसे वल्लभ जनमनरंजन बन गये।
गुरुदेवके मुखमंडल पर ब्रह्म तेज चमकता था। वह तेज था संयमका। उस तेजमें कर्मवीरका उत्साह चमकता था, साधकका तप दमकता था, परन्तु उस तेजस्वितामें भी चन्द्रकिरणके समान शीतलता थी। उस दिव्य चांदनी तुल्य सौम्यतासे दर्शकके कषाय (राग, द्वेष, काम, क्रोध, मान आदि) मिटने लगते थे। जैसे औषधि से रोग मिटते हैं, वैसे ही उनके दर्शनसे मन स्वस्थ हो जाता था।
आचार्यदेवकी करुणा विश्वव्यापिनी थी। वह प्राणिमात्रके लिये जीवनदायिनी थी। मनुष्य मनुष्यके बीचका भेद उन्हें अखरता था। उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी, जैन आदिको प्रेमसे रहनेकी सलाह दी। उन्होंने छुआछूतको समाजका क्षयरोग माना और हरिजनोंको समाजका प्रिय अंग समझा। उन्होंने सबको प्रेमके कोमल धागेसे बांधनेका जीवनभर प्रयास किया। वे कर्मवीरकी तरह अहर्निश कार्य करते रहे। मानवके भीतर जो प्रेमकी ज्योत जलती है उसे प्रज्वलित करने के लिये वे प्रयत्नशील रहे। अतप्रकाश या मानवताकी दीपावली जलाकर वे,मनुष्यको पशुसे ऊपर उठानेमें सफल हए । यही कारण है कि कितने ही पथभ्रष्ट व्यक्ति सत्यपथगामी हए। उन्होंने उबडखाबड कंटकाकीर्ण मार्ग पर भटकनेवालोंको हाथ पकड़कर मार्ग पर लगाया, कितने ही गहरी खाइयोंमें बिना सहारे अरण्यरुदन कर रहे थे, उनको प्रेमकी डोरीसे ऊपर उठाया। कितने ही ऊंचाई पर बैठकर
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