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ज्ञान स्थापना युगों-युगों तक, आप्तवाणी द्वारा!
'जगत् के बारे में जैसा है वैसा', सभी स्पष्ट हुआ है। सभी स्पष्ट हो जाने दो। जितनी वाणी निकल जाए, उतनी एक बार निकल जाने दो। लोग पूछते जाएंगे और नये-नये स्पष्टीकरण निकलते जाएंगे। रोजाना निकलते हैं। वह सभी छप जाएगा, तब फिर बाद में लोग उसमें से सारा निष्कर्ष निकालकर ज्ञान का स्थापन करेंगे। अत: आप्तवाणियों में तो आत्मा का अनुभव कहा गया है। इनमें सब कुछ आ जाता है।।
'मैं जो बोलता हूँ, उसमें से एक शब्द भी इन्होंने गवाया। नहीं है। सारे शब्द टेपरिकॉर्डर में संग्रह करके रखे हैं और यह तो विज्ञान है न! इस दुनिया में जितने भी शास्त्र हैं, जो पुस्तकें हैं, वे सारे ज्ञानमय हैं, यह अकेला विज्ञानमय है । विज्ञान अर्थात्। इटसेल्फ(स्वयं ) क्रियाकारी! शीघ्र फल देनेवाला है, तुरंत ही मोक्ष देता है!
- दादाश्री दादा भगवानना
श्रेणी
असीम जय जयकार हो
DON970-01-000-590
आप्तवाणी श्रेणी - १
Rs.40/
9788189-913sob
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दादा भगवान प्ररूपित
प्रकाशक : अजित सी. पटेल
महाविदेह फाउन्डेशन 'दादा दर्शन', 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - ३८००१४, गुजरात फोन - (०७९) २७५४०४०८, २७५४३९७९
All Rights reserved - Shri Deepakbhai Desai Trimandir, Simandhar City, Ahmedabad-Kalol Highway, Post - Adalaj, Dist.-Gandhinagar-382421, Gujarat, India.
आप्तवाणी श्रेणी-१
प्रथम संस्करण : प्रत ३०००,
दिसम्बर २००९
भाव मूल्य : 'परम विनय' और
'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव!
द्रव्य मूल्य : ४० रुपये
लेसर कम्पोझ : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद
मुद्रक
मूल गुजराती संकलन : डॉ. नीरूबहन अमीन
हिन्दी अनुवाद : महात्मागण
: महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नई रिज़र्व बैंक के पास, उस्मानपुरा, अहमदाबाद-३८० ०१४. फोन : (०७९) २७५४२९६४, ३०००४८२३
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समर्पण इस विकराल कलिकाल के संसार सागर में उठे अशांति के झंझावात में जागृतिक मानव-मन नैया को किनारे लगाने हेतु, मनशांति - बंदरगाह की खोज कर रहे जन सामान्य के लिए,
संसार कल्याण की भावना से प्रेरित, वात्सल्य मूर्ति ज्ञानी पुरुष 'दादा भगवान' के श्री मुख से प्रवाहित हुई यह ज्ञान सरिता रूपी आप्तवाणी,
निश्चय ही अलौकिक वरदान सिद्ध होगी। तूफान में फँसी उनकी जीवन नैया को यह दादाई कुतुबनुमा सही मंजिल का दिशा दर्शन कराएगा, इस भावना के साथ
आप्तवाणी श्रृंखला की यह प्रथम कड़ी दादाजी के आश्रित बने मुक्त स्वजनों के द्वारा विनम्र भाव से मुमुक्षु जनों को सादर समर्पित.
त्रिमंत्र
आप्त विज्ञापन
हे सुज्ञजन ! तेरा ही 'स्वरूप' आज मैं तेरे करकमलों में आ रहा हूँ। कृपा करके उसका परम विनय करना ताकि तूं अपने आप, अपने ही 'स्व' के परम विनय में रहकर स्व-सुखवाली, पराधीन नहीं ऐसी, स्वतंत्र आप्तता का अनुभव करेगा।
यही है सनातन आप्तता, अलौकिक पुरुष की आप्तवाणी की। यही है सनातन धर्म, अलौकिक आप्तता का।
जय सच्चिदानंद
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( दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित पुस्तकें
हिन्दी १. ज्ञानी पुरूष की पहचान
१३. प्रतिक्रमण २. सर्व दु:खों से मुक्ति
१४. दादा भगवान कौन? ३. कर्म का विज्ञान
१५. पैसों का व्यवहार ४. आत्मबोध
१६. अंत:करण का स्वरूप ५. मैं कौन हूँ?
१७. जगत कर्ता कौन? ६. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी १८. त्रिमंत्र ७. भूगते उसी की भूल
१९. भावना से सुधरे जन्मोजन्म ८. एडजस्ट एवरीव्हेयर
२०. पति-पत्नी का दीव्य व्यवहार ९. टकराव टालिए
२१. माता-पिता और बच्चों का व्यवहार १०. हुआ सो न्याय
२२. समज से प्राप्त ब्रह्मचर्य ११. चिंता
२३. आप्तवाणी-१ १२. क्रोध
English Adjust Everywhere
17. Money Ahimsa (Non-violence) 18. Noble Use of Money 3. Anger
19. Pratikraman Apatvani-1
20. Pure Love 5. Apatvani-2
21. Right Understanding to Help 6. Apatvani-6
Others 7. Apatvani-9
22. Shree Simandhar Swami 8. Avoid Clashes
23. Spirituality in Speech 9. Celibacy : Brahmcharya
24. The Essence of All Religion 10. Death : Before, During&After...25. The Fault of the Sufferer 11. Flawless Vision
26. The Science of Karma 12. Generation Gap
27. Trimantra 13. Gnani Purush Shri A.M.Patel 28. Whatever has happened is
Justice 14. Guru and Disciple
29. Who Am I? 15. Harmony in Marriage 16. Life Without Conflict
30. Worries दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा गुजराती भाषा में भी ५५ पुस्तकें प्रकाशित हुई है। वेबसाइट www.dadabhagwan.org पर से भी आप ये सभी पुस्तकें प्राप्त कर सकते हैं। दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा हर महीने हिन्दी, गुजराती तथा अंग्रेजी भाषा में "दादावाणी" मैगेज़ीन प्रकाशित होता है।
दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन, प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रकट हुए। और कुदरत ने सर्जित किया अध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्वदर्शन हुआ। 'मैं कौन? भगवान कौन? जगत कौन चलाता है? कर्म क्या? मुक्ति क्या?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, गुजरात के चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष! ___उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हए ज्ञानप्रयोग से। उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार ऊपर चढ़ना। अक्रम अर्थात् लिफ्ट मार्ग, शॉर्ट कट!
वे स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन?' का रहस्य बताते हुए कहते थे कि "यह जो आपको दिखाई देते है वे दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए.एम.पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं। दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं। वे आप में भी हैं, सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' हमारे भीतर संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं। दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" _ 'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया बल्कि अपनी कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे।
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आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रत्यक्ष लिंक 'मैं तो कुछ लोगों को अपने हाथों सिद्धि प्रदान करनेवाला हूँ। पीछे अनुगामी चाहिए कि नहीं चाहिए? पीछे लोगों को मार्ग तो चाहिए न?"
- दादाश्री परम पूज्य दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके मुमुक्षु जनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही पूज्य डॉ. नीरूबहन अमीन (नीरूमाँ) को आत्मज्ञान प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थीं। दादाश्री के देहविलय पश्चात् नीरूमाँ वैसे ही मुमुक्षुजनों को सत्संग और आत्मज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रही थी। पूज्य दीपकभाई देसाई को दादाश्री ने सत्संग करने की सिद्धि प्रदान की थी। नीरूमाँ की उपस्थिति में ही उनके आशीर्वाद से पूज्य दीपकभाई देश-विदेशो में कई जगहों पर जाकर मुमुक्षुओं को आत्मज्ञान करवा रहे थे, जो नीरूमाँ के देहविलय पश्चात् आज भी जारी है। इस आत्मज्ञानप्राप्ति के बाद हज़ारों मुमुक्षु संसार में रहते हुए, जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी मुक्त रहकर आत्मरमणता का अनुभव करते हैं।
ग्रंथ में मुद्रित वाणी मोक्षार्थी को मार्गदर्शन में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगी, लेकिन मोक्षप्राप्ति हेतु आत्मज्ञान प्राप्त करना ज़रूरी है। अक्रम मार्ग के द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का मार्ग आज भी खुला है। जैसे प्रज्वलित दीपक ही दूसरा दीपक प्रज्वलित कर सकता है, उसी प्रकार प्रत्यक्ष आत्मज्ञानी से आत्मज्ञान प्राप्त कर के ही स्वयं का आत्मा जागृत हो सकता
निवेदन आत्मविज्ञानी श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, जिन्हें लोग 'दादा भगवान' के नाम से भी जानते हैं, उनके श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहार ज्ञान संबंधी जो वाणी निकली, उसको रिकॉर्ड करके, संकलन तथा संपादन करके पुस्तकों के रूप में प्रकाशित किया जाता हैं।
ज्ञानी पुरुष संपूज्य दादा भगवान के श्रीमुख से अध्यात्म तथा व्यवहारज्ञान संबंधी विभिन्न विषयों पर निकली सरस्वती का अद्भुत संकलन इस आप्तवाणी में हुआ है, जो नये पाठकों के लिए वरदानरूप साबित होगी।
प्रस्तुत अनुवाद में यह विशेष ध्यान रखा गया है कि वाचक को दादाजी की ही वाणी सुनी जा रही है, ऐसा अनुभव हो। उनकी हिन्दी के बारे में उनके ही शब्द में कहें तो "हमारी हिन्दी याने गुजराती, हिन्दी और अंग्रेजी का मिक्सचर है, लेकिन जब 'टी' (चाय) बनेगी, तब अच्छी बनेगी।"
ज्ञानी की वाणी को हिन्दी भाषा में यथार्थ रूप से अनुवादित करने का प्रयत्न किया गया है किन्तु दादाश्री के आत्मज्ञान का सही आशय, ज्यों का त्यों तो, आपको गुजराती भाषा में ही अवगत होगा। जिन्हें ज्ञान की गहराई में जाना हो, ज्ञान का सही मर्म समझना हो, वह इस हेतु गुजराती भाषा सीखें, ऐसा हमारा अनुरोध है।
प्रस्तुत पुस्तक में कई जगहों पर कोष्ठक में दर्शाये गये शब्द या वाक्य परम पूज्य दादाश्री द्वारा बोले गये वाक्यों को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझाने के लिए लिखे गये हैं। जबकि कुछ जगहों पर अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी अर्थ के रूप में रखे गये हैं। दादाश्री के श्रीमुख से निकले कुछ गुजराती शब्द ज्यों के त्यों रखे गये हैं. क्योंकि उन शब्दों के लिए हिन्दी में ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो उसका पूर्ण अर्थ दे सके। हालांकि उन शब्दों के समानार्थी शब्द अर्थ के रूप में दिये गये हैं।
अनुवाद संबंधी कमियों के लिए आपसे क्षमाप्रार्थी हैं।
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'ये आप्तवाणियाँ एक से आठ छप गई हैं। दूसरी चौदह तक तैयार होनेवाली हैं, चौदह भाग। ये आप्तवाणियाँ हिन्दी में छप जाएँ तो सारे हिन्दुस्तान में फैल जाएँ । '
आप्तवाणियों के हिन्दी अनुवाद के लिए परम पूज्य दादाश्री की भावना
- दादाश्री
परम पूज्य दादा भगवान (दादाश्री) के श्रीमुख से आज से पचीस साल पहले निकली इस भावना फलित होने की यह शुरूआत है और आज आप्तवाणी - १ का हिन्दी अनुवाद आपके हाथों में है । भविष्य में और भी आप्तवाणीओं तथा ग्रंथो का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध होगा उसी भावना के साथ जय सच्चिदानंद ।
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पाठकों से.....
'आप्तवाणी' में मुद्रित पाठ्यसामग्री मूलत: गुजराती 'आप्तवाणी' श्रेणी - १ का हिन्दी रुपांतर है।
इस 'आप्तवाणी' में 'आत्मा' शब्द को संस्कृत और गुजराती भाषा की तरह पुल्लिंग में प्रयोग किया गया है।
जहाँ जहाँ पर चंदूलाल नाम का प्रयोग किया गया है, वहाँ वहाँ पर
पाठक स्वयं का नाम समझकर पठन करें।
'आप्तवाणी' में अगर कोई बात आप समझ न पायें तो प्रत्यक्ष सत्संग में पधार कर समाधान प्राप्त करें।
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संपादकीय
सर्वज्ञ 'दादा भगवान' की प्रकट सरस्वती स्वरूप, वाणी का यहाँ संकलन किया गया है।
जिनके सुचरणों में काल, कर्म और माया स्थिर हो जाएँ, ऐसे परमात्मा स्वरूप ज्ञानी पुरुष की हृदयस्पर्शी प्रकट वाणी ने कई लोगों को दिव्य चक्षु प्रदान किए हैं। आशा है कि जो कोई इस महाग्रंथ का, 'सत्य जानने की कामना' से पठन करेगा उसे अवश्य ही दिव्यचक्षु की प्राप्ति हो, ऐसा है, बशर्त उसके अंदर ऐसी दृढ़ भावना हो कि मुझे केवल 'परम सत्य' ही जानना है, और कुछ नहीं जानना । यदि दूसरा कुछ जानने की जरा-सी भी गुप्त आकांक्षा रही तो उसका कारण मताग्रह ही होगा। 'परम सत्य' जानने की एकमेव तमन्ना और मताग्रह ये दोनों विरोधाभास है। आग्रह और मतमतांतर के द्वारा कभी मुक्ति या मोक्ष संभव नहीं है। पूर्ण रूप से निराग्रही, निष्पक्षपात होने पर ही कार्य सफल होगा। मोक्ष तो ज्ञानी पुरुष के चरणों में ही है। ऐसे मोक्षदाता ज्ञानी पुरुष की यदि पहचान हो जाए, उनसे तार जुड़ जाए तो नकद मोक्ष हाथों में आ जाए। ऐसा नक़द मोक्ष अनेक लोगों ने प्राप्त किया है और वह भी केवल एक ही घंटे में ! मानने में नहीं आए, पहले कभी सुनने में नहीं आई हो ऐसी अभूतपूर्व बात है यह, फिर भी अनुभव की गई हक़ीक़त है !
मोक्ष अति अति सुलभ है, पर ज्ञानी पुरुष की भेंट होना अतिअति दुर्लभ है । भेंट होने पर उनकी पहचान होना, तो अति अति सौ बार दुर्लभ, दुर्लभ, दुर्लभ है।
परम सत्य जानने की कामना रखनेवाले के लिए ज्ञानी पुरुष का वर्णन, उनकी पहचान हेतु बहुत ही उपयोगी सिद्ध होता है। ज्ञानी पुरुष की पहचान कैसे करें? उन्हें कैसे पहचानें?
ज्ञानी पुरुष की पहचान केवल उनकी वीतराग वाणी के द्वारा संभव है। अन्य कोई साधन इस काल में नहीं है। प्रचीन काल के लोग आध्यात्मिक रूप से इतने विकसित थे कि ज्ञानी की आँखें देखकर ही
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उनकी वीतरागता पहचान लेते थे। ज्ञानी पुरुष एक क्षण के लिए भी वीतरागता से परे नहीं होते हैं।
ज्ञानी पुरुष की पहचान उनके गुणों से हो सकती है, पर आम आदमी के लिए उनके गुणों को पहचानना कठिन कार्य है।
ज्ञानी पुरुष में १००८ गुण होते हैं, जिनमें प्रधान चार गुण ऐसे होते हैं, जो अन्य किसी को प्राप्त नहीं होते।
जलने की संभावना हो वहाँ प्रथम तो हाथ ही नहीं डालते और भूल से यदि डाल दिया तो तुरंत हटा लेते हैं। देह भी सहज स्वभावी होती है। बाकी अंदरूनी ज्ञान स्थिरता गज़ब की होती है। किसी भी संयोग में अंदर का एक भी परमाणु विचलित नहीं हो, उसे असली स्थिरता कहते हैं। अंदर में जरा भी दख़ल नहीं हो, जरा-सी जलन नहीं हो उसी का नाम स्थिरता। बाहरी जलन तो देह के स्वभाविक गुणों का परिणाम होती है। उसका आंतररिक परिणिती से कोई संबंध नहीं है।
ज्ञानी में अपार करुणा होती है, करुणा के सागर होते हैं। उनमें दया का अंश तक नहीं होता। दया तो अहंकारी गुण, द्वंद्वगुण है। दया के प्रतिपक्ष में निर्दयता कहीं किसी कोने में पड़ी ही होती है। वह तो निकले तब पता चलता है। ज्ञानी द्वंद्वातीत होते हैं। ज्ञानी की आँखों में से निरंतर अमृतवर्षा होती रहती है। इस पेट्रोल की अग्नि में धूं-धूं करके जल रहे संसार के सारे जीवों को कैसे स्थायी ठंडक पहुचाऊँ यही भावना उनके दिल में निरंतर बहा करती है।
१) ज्ञानी में सूर्य जैसा प्रताप होता है। अत्यंत प्रतापी पुरुष होते हैं। प्रताप उनकी आँखों में ही झलकता है। यह प्रताप तो वे जब दिखाएँ तब ही पता चलता है।
२) उनमें चंद्रमा जैसी सौम्यता होती है। उनकी सौम्यता ऐसी होती है कि उसकी ठंडक के कारण किसी को भी ज्ञानी के पास से हटने को मन ही नहीं करता। उनकी यह सौम्यता तो सूर्य के ताप को भी ठंडा करने की क्षमता रखती है। कैसा भी आगबबूला हुआ मनुष्य आए, परंतु उनकी आँखों की सौम्यता देखकर बर्फ की तरह ठंडा हो जाता है। प्रताप और सौम्यता दोनों एक साथ केवल ज्ञानी में ही देखने को मिलते हैं। अन्यथा कुछ लोगों में अकेला प्रताप होता है, तो सौम्यता नहीं होती और सौम्यता होती है, तो प्रताप नहीं होता। पूर्ण ज्ञानी की एक आँख में प्रताप और दूसरी आँख में सौम्यता होती है।
३) सागर जैसी गंभीरता होती है। जिस किसी ने जो कुछ दिया उसे अपने में समा लेते हैं और ऊपर से आशीर्वाद देते हैं।
४) उनकी स्थिरता, अडिगता तो मेरु पर्वत जैसी होती है। एक भी बाह्य संयोग उनकी आंतरिक स्थिरता को हिला नहीं सकता। ऐसी अडिगता और संगी चेतना में बड़ा अंतर है। यदि कोई दीये की ज्योत पर, बिना हिलाए, हाथ रखता है तो वह स्थिरता नहीं कहलाती। वह तो हठाग्रह है। अहंकार है। ज्ञानी संपूर्ण रूप से निरहंकारी होते हैं, सहज होते हैं। देह के असर से उन्हें कोई लेना-देना नहीं होता। ज्ञानी तो, जहाँ
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ज्ञानी में शिशु समान निर्दोषता होती है। शिशु में नासमझी की निर्दोषता होती है, जब कि ज्ञानी संपूर्ण समझदारी के शिखर पर रहकर भी निर्दोष होते हैं। वे खुद, दृष्टि निर्दोष करके, स्वयं निर्दोष हुए होते हैं और सारे संसार को निर्दोष ही देखते हैं। आड़ापन तो नाममात्र को नहीं होता, ज्ञानी में। आड़ापन, अहंकार का प्रत्यक्ष गुण है। मोक्ष की गली बहुत संकड़ी है। उसमें आड़े रहकर जा पाना संभव नहीं है। सीधा होकर चलने पर ही उस पार जा सकें, ऐसा है। आड़ापन तो मोक्षमार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है। ज्ञानी की सरलता तो संसार की सभी ऊँचाईयों को छूकर ऊपर उठी हुई होती है। संपूर्ण निरहंकारी पद पर विराजमान होने के कारण जैसा कहें वे वैसा करने को तैयार होते हैं। कोई कहे, 'इस कुर्सी से उतर जाइए।' तो वे कहेंगे, 'चल भैया ऐसा करता हूँ।' कोई चाहे कैसी भी शरारत करे, पर ज्ञानी उसका प्रतिभाव नहीं देते। ज्ञानी के साथ कोई शरारत करे, तब ही पता चले कि उनमें कितनी वीतरागता है! शरारत करने पर नाग की तरह फन फैलाए, तो समझना
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योग्य समय (जरूरत हो तब) पर वापस प्रतिबोध के रूप में प्रकट होता है। ज्ञानी द्वारा बोया गया बोध बीज ठेठ मोक्ष तक ले जाता है। वह कभी भी व्यर्थ नहीं जाता। ज्ञानी का वचनबल तो गजब का होता है।
कि यह ज्ञानी नहीं हो सकते। ज्ञानी पुरुष में आग्रह का एक परमाणु भी नहीं होता। वे संपूर्ण निराग्रही होते हैं। आग्रह तो विग्रह है और निराग्रह से मोक्ष है। भगवान ने किसी भी बात का आग्रह रखने को मना किया है। केवल मोक्ष हेतु ही ज्ञानी पुरुष का आग्रह रखना, क्योंकि उनके चरणों में ही मोक्ष है। ज्ञानी मिलें और उनकी कृपादृष्टि प्राप्त हुई, तो सहज रूप से मोक्ष हाथों में आ जाए ऐसा है।
ज्ञानी पुरुष कौन कि जिन्हें संसार में जानने योग्य कुछ भी शेष नहीं रहा है। पुस्तकें पढ़ना या किसी भी श्रेणी में उत्तीर्ण होना शेष नहीं रहा है। उन्हें माला नहीं फेरनी पड़ती, कुछ भी करने को या जानने को बाकी नहीं है। वे तो सर्वज्ञ होते हैं और संसार में मुक्त मन से विचरते
ज्ञानी का प्रेम, शद्ध प्रेम है और वही परमार्थ प्रेम का अलौकिक झरना होता है। वह प्रेम-झरना सारे संसार की अग्नि शांत करता है।
सब से बड़ी बात तो यह है कि ज्ञानी पुरुष पूर्णतया निष्पक्ष होते हैं। पक्ष लेनेवाले तो मतांध कहलाते हैं। मतांध कभी सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। वह तो जब पूर्ण रूप से निष्पक्षता उत्पन्न हो, तभी सर्वज्ञ पद की प्राप्ति होती है। अरे! ज्ञानी तो अपने मन-वचन और काया का भी पक्ष नहीं लेते, तभी तो उन्हें सर्वज्ञ पद प्राप्त होता है। यदि एक भी पक्ष की बात रहे, तो वे एक पक्षीय कहलाएँगे, सर्वज्ञ नहीं कहलाएँगे। ज्ञानी पुरुष की सभा में तो क्रिश्चियन, मुस्लिम, वैष्णव, जैन, स्वामीनारायण, पारसी, खोजा आदि सभी अभेद भाव से बैठते हैं और हरएक को ज्ञानी पुरुष अपने धर्म के आप्त पुरुष प्रतीत होते हैं। एक अज्ञानी के लाख मत होते हैं और लाख ज्ञानियों का एक ही मत होता
ज्ञानी पुरुष की दशा अटपटी होती है। आम आदमी को उसका अंदाजा नहीं होता। ज्ञानी पुरुष को आश्रम का श्रम नहीं होता। उनकी न ध्वजा, न पंथ, न बाड़ा, न कोई बोर्ड होता है, न तो भगवा, न ही श्वेत वस्त्र होते हैं, वे सीधे-सादे भेष में घूमते हैं। फिर सामान्य जीव उन्हें कैसे पहचान पाएँ? फिर भी उनकी पहचान में भूल-चूक नहीं हो, इसलिए शास्त्र कहते हैं कि ज्ञानी पुरुष तो वही हैं कि जो निशदिन आत्मा के उपयोग में ही रहते हैं, उनकी वाणी अनुभव गम्य होती है। उन्हें कोई अतरंग स्पृहा नहीं होती, गर्व या गारवता (सांसारिक सुखों में डूबे रहना) नहीं होती। संसार की किसी चीज़ के वे भिखारी नहीं होते। मान, विषय, लक्ष्मी या शिष्य के भी भिखारी नहीं होते हैं। संपूर्णतया अयाचक पद की प्राप्ति के बाद ही ज्ञान-प्रकाश प्रकट होता है। जो पूर्णरूप से तरण तारणहार हुए हों, वे ही दूसरों को तारते हैं।
ज्ञानी पुरुष में तो कई उच्च सांयोगिक प्रमाण एकत्र हुए होते हैं, उच्च नामकर्म होता है, यशकर्म होता है। कुछ किए बगैर ही कार्य सिद्धि का यश अनायास ही उन्हें मिल जाता है। उनकी वाणी मनोहारी होती है। लोकपज्य पद होता है और ऐसे तो अनेकों गुण हों, तब ज्ञानी पुरुष प्रकट होते हैं।
ज्ञानी एक ओर सर्वज्ञ होते हैं, तो दूसरी ओर अबुध भी होते हैं, तनिक भी बुद्धि नहीं होती। बुद्धि प्रकाश पूर्णरूप से अस्त हो, तब सर्वज्ञ पद बाजे गाजे के साथ पुष्पमाला लेकर सामने से प्रकट होता है। ऐसा नियम ही है कि जो अबुध होता है वही सर्वज्ञ होता है।
ज्ञानी की वाणी, वर्तन और विनय मनोहारी होते हैं। उनकी वाणी, वर्तन और विनय तो कहीं देखने में नहीं आएँ ऐसे अनुपम होते हैं। संपूर्ण स्यादवाद वाणी कि जिससे किसी भी जीव के दृष्टिबिन्दु को जरा-सी भी ठेस न लगे ऐसी होती है। उनके वचन हृदय में उतर जाते हैं और
ज्ञानी पुरुष को पुस्तक नहीं पढ़नी होती, माला नहीं फेरनी पड़ती, वहाँ पर भक्त और भगवान का भेद नहीं होता। भगवान शब्द तो विशेषण
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है और जिन्हें भगवत् गुणों की प्राप्ति होती है, उनके लिए भगवान शब्द विशेषण के रूप में प्रयोग होता है।
जब तक भूल होती है, तब तक सिर पर भगवान होता है। भूल रहित हों, तो कोई भगवान भी ऊपरी नहीं। ज्ञानी पुरुष में एक भी भूल नहीं होती, इसलिए न तो कोई उनका ऊपरी होता है और न ही कोई अन्डरहैन्ड। खुद संपूर्ण स्वतंत्र होते हैं।
ज्ञानी का प्रत्येक कर्म दिव्यकर्म होता है। एक भी कर्म कहीं भी बंधनकर्ता नहीं होता। संसार के लौकिक कर्म अपने बीज डालकर जाते हैं जब कि ज्ञानी के कर्म मुक्ति देकर जाते हैं। अरे! वे तो मुक्त पुरुष ही होते हैं, इतना ही नहीं पर अनेकों को मुक्ति प्रदान करने का सामर्थ्य रखते हैं।
ज्ञानी निग्रंथ होते हैं। सारी ग्रंथियों का छेदन हो गया होता है। ज्ञानी पुरुष को त्यागात्याग संभव नहीं है। यह बात खुद भगवान ने ही प्रकट की है। ज्ञानी में नवीनता नहीं होती और जिस दशा में ज्ञान प्रकट हुआ हो वही दशा हमेशा के लिए होती है। इसलिए ही उनकी दशा अटपटी होती है। लोग त्याग के आधार पर ज्ञानी खोजने निकलें, तो पहचान कैसे होगी?
ज्ञानी पुरुष के तीन गुण यदि कोई सीख ले, तो उसका काम बन जाए और मुक्ति पा जाए। वे तीन गुण हैं, कोम्प्रेसिबल, फ्लेक्सिबल और टेन्साइल।
ज्ञानी पुरुष गुरुतम-लघुत्तम होते हैं। ज्ञानी को यदि कोई गधा कहे, तो वे कहेंगे, 'उससे भी लघु हूँ भैया, लघुत्तम हूँ। तू पहुँच नहीं पाए उतना लघुतम हूँ।' और यदि कोई ज्ञानी पुरुष को आचार्य कहे, तो उसे कहेंगे, 'भैया, तू यदि उससे भी अधिक की प्राप्ति चाहता है, तो उससे भी ऊपर के पद में हैं, हम भगवान हैं।' जो जैसा पाना चाहे, वैसा समझे, तो उसका काम हो जाए। आत्मा स्वयं अगुरु-लघु स्वभाव का है।
संसार में 'आप्तपुरुष' केवल ज्ञानी पुरुष ही कहलाते हैं। आप्त यानी हर तरह से विश्वसनीय। सांसारिक बातों के लिए ही नहीं पर मोक्ष प्राप्ति हेतु भी अंत तक विश्वसनीय होते हैं। जब तक खुद को आत्मा का भान नहीं हुआ है, आत्मा की पहचान नहीं हई, तब तक ज्ञानी पुरुष ही खुद का आत्मा है। ज्ञानी पुरुष मूर्तिमान मोक्ष स्वरूप होते हैं। उन्हें देखकर अपना आत्मा प्रकट करना होता है। ज्ञानी पुरुष खुद पारसमणि कहलाते हैं और अज्ञानी तो लोहा है, जो उन्हें छूते ही सोना बन जाता है। पर यदि वे बीच में अंतरपट (पर्दा) नहीं रखें तो। ज्ञानी पुरुष अनंत बोधकला, अनंत ज्ञानकला और अनंत प्रज्ञाकला के स्वामी होते हैं, जिसे जो चाहिए वह ले जाओ और अपना काम निकाल लो।
आत्मज्ञान हेतु ज्ञानी पुरुष के पास जाना ही होगा। बिना जानकार के तो कोई साधारण चीज़ भी नहीं मिलती है, इसलिए निर्विकल्प समाधिस्थ ऐसे ज्ञानी पुरुष के पास जाना ही पड़ता है। ज्ञानी पुरुष 'शुद्ध चैतन्य' को हाथों में ही रख देते हैं। ज्ञानी पुरुष चाहें सो करें, पर फिर भी वे निमित्तभाव में ही रहते हैं। किसी भी वस्तु के कर्ता ज्ञानी नहीं होते हैं।
प्रत्येक शास्त्र अंत में तो यह कहकर रूक जाता है कि तुझे प्रकट आत्मा की प्राप्ति करनी है, तो तू ज्ञानी की शरण ले। प्रकट दीया ही दूसरा दीये प्रज्वलित कर सकता है, इसलिए 'गो टु ज्ञानी', क्योंकि 'ज्ञानी' सदेह आत्म स्वरूप हुए होते हैं अर्थात् तरण तारणहार होते हैं।
ज्ञानी निरंतर वर्तमान में ही विचरते हैं, भूत या भविष्यकाल में नहीं
कोम्प्रेसिबल यानी संकोचनशील, चाहे जितना दबाव आए, पर वे उसे सहन करने की क्षमता रखते हैं और तुरंत यथास्थित हो जाते हैं। फ्लेक्सिबल यानी जैसे मोड़ें वैसे मुड जाते हैं, पर कभी भी टूटते नहीं हैं! और टेन्साइल यानी चाहे जितना भी तनाव हो झेल सकते हैं!
इन तीन गुणों के कारण संसार व्यवहार में कहीं कोई मुश्किल नहीं आती और बिना किसी अंतराय के मोक्ष में पहुँचा जा सकता है।
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होते। निरंतर वर्तमान में ही बरतते हैं। उनकी दृष्टि में गिलास टूट गया वह भूतकाल और अब क्या होगा, उसके विचार और चिंता, वह भविष्यकाल। ज्ञानी काल के छोटे से छोटे अविभाज्य लघुतम अंश में ही रहते हैं। सारे ब्रह्मांड के प्रत्येक परमाणु से अवगत होते हैं। सारे ज्ञेयों के ज्ञाता-दृष्टा ही होते हैं। समय और परमाणु तक पहुँचना, वह तो ज्ञानी का ही काम!
'गत वस्तु का शोच नहीं, भविष्य की वांछना नहीं, वर्तमान में बरतें सो ही ज्ञानी।'
'परम विनय' और 'मैं कुछ भी नहीं जानता', इन दो ही चीज़ों के साथ जो ज्ञानी के पास पहुँचा, वह पार उतरा ही समझो। अरे! केवल एक ही बार यदि ज्ञानी के चरणों में सर्व भाव समर्पित करके परम विनय से जिसने सिर झुकाया, उसका भी मोक्ष हो जाए, ऐसा गज़ब का आश्चर्य
ज्ञानी के चरणों में ही है और वहीं सीधा नहीं रहा तो मोक्ष कैसे पाएगा?
__एक घर तो डायन तक छोड़ती है। इसलिए ज्ञानी को छोड़कर और कहीं भी बखेडा कर आया तो हल निकल आएगा, पर ज्ञानी के पास तो विनय में ही रहना, वर्ना भारी बंध पड़ जाएगा।
ज्ञानी का विरोध चलेगा पर विराधना नहीं चलेगी। ज्ञानी की आराधना यदि नहीं हो तो हर्ज नहीं पर विराधना तो भूलकर भी मत करना। इसका सदैव ध्यान रखना। ज्ञानी का पद तो आश्चर्य का पद कहलाता है उसकी विराधना में मत पड़ना।
ज्ञानी पुरुष के प्रति विभाव का पैदा होना ही विराधना कहलाती है। ज्ञानी पुरुष ही खुद का आत्मा है इसलिए ज्ञानी की विराधना यानी खुद के आत्मा की विराधना करने जैसा है। खुद 'खुद के' ही विराधक हुए।
स्वभाव से जो टेढ़ा है, उसे तो विशेष रूप से सावधान रहना होगा, क्योंकि ज्ञानी की एक विराधना असंख्य काल के लिए नर्कगति बँधवा देती है।
जिन्हें तीन लोक के नाथ वश में हैं, वहाँ पर यदि सरल नहीं हुआ तो और कहाँ पर सरल होगा? ज्ञानी पुरुष के पास तो पूर्ण सरलता हो, तभी काम होगा।
प्रस्तुत ज्ञानग्रंथ के प्रकाशन का प्रयोजन मुख्यतः सात्विक विचारकों, वैज्ञानिक मानसवाले वैचारिक वर्ग और संसारी ज्वाला से तप्त जनसमुदाय की आत्मशांति हो, वही है। ऐसी हार्दिक भावना है कि इस भयावह कलियुग के दावानल में सतयुग जैसी आत्मशांति की अनुभूति कराने में प्रस्तुत ग्रंथ एक प्रबल परम निमित्त सिद्ध होगा। शद्ध भाव से इसी प्रार्थना के साथ!
- डॉ. नीरूबहन अमीन
इन 'दादा भगवान' ने कभी सपने में भी किसी की विराधना नहीं की है, केवल आराधना ही की है। इसलिए 'दादा भगवान' का नाम लेकर सद्भाव से जो कुछ भी किया जाए, वह अवश्य फलदायी होगा ही!
ज्ञानी का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है, कलम रुक जाती है।
ज्ञानी तो अतुलनीय और नापे न जा सकें, ऐसे होते हैं। उन्हें नापना या तोलना मत। यदि ज्ञानी का तोल करने गए. तो कोई छडानेवाला नहीं मिलेगा, ऐसे चारों बंध पड़ेंगे। अपनी तराज से कहीं ज्ञानी को तोला जाता है? उन्हें नापने जाएगा तो तेरी मति का नाप निकल जाएगा! जिसका एक अक्षर भी मालूम नहीं हो, उसका तोल कैसे होगा? ज्ञानी बुद्धि से नहीं तोले जाते। ज्ञानी के पास तो अबुध हो जाना चाहिए। बुद्धि तो उलटा ही दिखाती है। यदि ज्ञानी की बात समझ में नहीं आती तो समझना कि उतना आड़ापन अंदर भरा पड़ा है। यदि ज्ञानी के पास भल से भी आड़ापन दिखाया तो कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। अरे! मोक्ष तो
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भूलें
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अनुक्रमणिका
पेज नं । कुदरती तंत्र संचालन भौतिक विज्ञान? ४८ धर्म का स्वरूप
भौतिक डेवलपमेन्ट-आध्यात्मिक संसार सर्जन
डेवलपमेन्ट? संसार एक पहेली
प्राकृतिक साहजिकता 'व्यवस्थित' शक्ति !
साधक दशा भगवान का एड्रेस
पुण्य और पाप भगवान ऊपरी और मोक्ष !
संकल्प-विकल्प रिलेटिव धर्म : रियल धर्म
सर्जन-विसर्जन क्रमिक मोक्षमार्ग : अक्रम मोक्षमार्ग!१०
पुरुष और प्रकृति कॉमनसेन्स
त्रिगुणात्मक प्रकृति सांसारिक संबंध !
आत्मा, सगुण-निर्गुण सुख और दुःख !
प्राकृत पूजा-पुरुष पूजा प्रारब्ध-पुरुषार्थ का विरोधाभासी प्रकृति धर्म- पुरुष धर्म अवलंबन
प्राकृत बगीचा अविरोधाभासी अवलंबन
वैराग्य के प्रकार आत्मा-अनात्मा
आत्मा का उपयोग दिव्यचक्षु से मोक्ष !
मनुष्यपन का डेवलपमेन्ट ! पुनर्जन्म
माया और मुक्ति ! मन-वचन-काया, इफेक्टिव
सुख के प्रकार! आधि - व्याधि - उपाधि
मल-विक्षेप-अज्ञानः राग-द्वेष-अज्ञान संसार और ब्रह्म !
वाणी का विज्ञान मन-वचन-काया का भूतावेश
मौन-परमार्थ मौन आगम-निगम
अंत:करण पूरण-गलन
मन कैसा है? विचार क्या है? सांसारिक विघ्न निवारक 'त्रिमंत्र'
कार्य प्रेरणा मन से है चिंता और अहंकार
ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध प्राप्त को भोगो
मन पर सवार हो जाइए ध्यान और अपध्यान
लक्ष्मीजी कहाँ बसती हैं? गतिफल-ध्यान और हेतु से
मन का संकोच-विकास बुद्धि के उपयोग की मर्यादा
मन के वक्र परिणाम अविरोध वाणी प्रमाण
| मन का स्वभाव ज्ञानी और धर्म का स्वरूप
मन की गाँठे कैसे पिघलें? निर्दोष दृष्टि
मन फिज़िकल है कैफ और मोक्ष
मन के प्रकार मन-वचन-काया की बला
| मन-आत्मा का ज्ञेय-ज्ञाता संबंध मोक्ष ही उपादेय है
४४ | बुद्धिप्रकाश- ज्ञानप्रकाश संसार महापोल
बुद्धि के प्रकार मनुष्यों को निराश्रितता
४७ | बुद्धि का आशय
गणपति : बुद्धि के अधिष्ठाता देव ९३ | हिताहित का भान बुद्धिजन्य अनुभव और ज्ञानजन्य अनुभव९४ लाइफ एडजस्टमेन्ट्स मतभेद क्यों?
टकराव चोखा व्यापार करें
१०० इकॉनोमी लक्ष्मीजी की कमी क्यों है? १०१ | विषय बुद्धिक्रिया और ज्ञानक्रिया १०२ | प्रेम और आसक्ति बुद्धिभेद वहाँ मतभेद १०४ | नैचुरल लॉ - भुगते उसीकी भूल १८२ अवधान की शक्ति
१०६ निजदोष दर्शन अंत:करण का तीसरा अंग : चित्त १०७ ज्ञानी ही शुद्ध आत्मा दे सकते हैं ११० आड़ापन-स्वच्छंदता चित्त प्रसन्नता
१११ शंका अहंकार
११३ मताग्रह त्याग किस का करना है
दृष्टिराग भुगतनेवाला कौन है ? ११५ बैरभाव अहंकार का रस खींच लो ११६ संसार-सागर के स्पंदन हँसते मुख जहर पीए ११८ क्लेश अदीठ तप क्या है?
१२० वास्तव में सुख-दुःख क्या है? मान-अपमान का खाता १२१ | दोष दृष्टि अहंकार का जहर
१२२ | स्मृति अहंकार का समाधान
१२४ असुविधा में सुविधा अटकाव और सेन्सिटिवनेस १२५ | चार्ज और डिस्चार्ज अंत:करण का संचालन
मोह का स्वरूप ऐच्छिक और अनिवार्य १२९ माया जगत् का अधिष्ठान
| क्रोध निश्चेतन चेतन
| लोभ मनुष्य देह मोक्ष का अधिकारी १४० कपट इच्छा
१४१ | क्रोध-मान-माया-लोभ की खुराक २३० भाव अर्थात् क्या?(भाव क्या है?)१४४ | होम डिपार्टमेन्ट फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट २३२ सज्जनता-दुजनता
१४५ | संयोग देह के तीन प्रकार
१४७ | प्राकृत संयोग देहाध्यास कब टूटे?
१५० | योग-एकाग्रता देह की तीन अवस्थाएँ १५१ | निर्विकल्प समाधि मनुष्य देह का प्रयोजन १५५ ध्याता-ध्येय-ध्यान आचार, विचार और उच्चार १५५ | गुरु किल्ली उद्वेग
१५७ | अक्रम ज्ञान - क्रमिक ज्ञान निद्रा
१६० | चौरासी लाख योनि-चार गति की स्वप्न
१६१ | भटकन क्यों? भय
१६५ | प्रज्ञा
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी श्रेणी - १
धर्म का स्वरूप धर्म अर्थात् क्या? वस्तु स्वगुणधर्म में परिणमित हो, वह धर्म। धर्म यानी वस्तु का स्वभाव और वही उसका धर्म कहलाता है।
उदाहरण के रूप में, सोना, सोना कब कहलाता है? जब उसके गुणधर्म सोने के दिखाई दें, तब। अंगर यदि कडवे लगें. तो क्या कहेंगे? अंगूर उसके गुणधर्म में नहीं है। पीतल को यदि बफिंग करके रखा हो, तो वह हूबहू सोने जैसा ही लगता है, पर सनार के पास ले जाकर परख करवाएँ, तब पता चलता है कि उसमें सोने के गुणधर्म नहीं हैं, इसलिए सोना नहीं हो सकता।
दो प्रकार के आम आपके सामने रखे हैं। उनमें से एक में से आम की खुशबू आती है, सूख जाने पर थोड़ी-सी सलवट पड़ती हैं, थोड़ी सड़न पैदा होती है और दूसरा आम भी हबह आम जैसा ही दिखता हो पर वह लकड़ी का हो, तो और सबकुछ होता है, पर सुगंध नहीं होती, कुम्हलाता नहीं, सड़ता भी नहीं। दोनों ही आम हैं, पर लकड़ी का आम केवल कहने को आम है। वह सच्चे आम के स्वभाव में नहीं है। जब कि सच्चा आम अपने स्वभाव में है, गणधर्म में है। वैसे ही वस्तु जब अपने स्वभाव में होती है, गुणधर्म में होती है, तभी वह वस्तु कहलाती
है। वह वस्तु अपने धर्म में है ऐसा कहलाता है। अनात्मा को, पुद्गल को, 'मैं' मानने में आता है, वह अवस्तु है, परधर्म है, स्वधर्म नहीं है। आत्मा को आत्मा माना जाए, तो वह वस्तु है, वही धर्म है, स्वधर्म है, आत्मधर्म है।
दादाश्री : आप कौन हैं? प्रश्नकर्ता : मैं चंदूलाल हूँ। दादाश्री: आपका नाम क्या है? प्रश्नकर्ता : मेरा नाम चंदूलाल है।
दादाश्री : 'मैं चंदूलाल' और 'मेरा नाम चंदूलाल', दोनों में कोई विरोधाभास लगता है क्या? नामधारी और नाम दोनों एक कैसे हो सकते हैं? नाम तो, जब अरथी उठती है, तब वापिस ले लिया जाता है। म्युनिसिपालिटी के रजिस्टर में से निकाल देते हैं।
यह हाथ किस का है? यह पैर किस का है? प्रश्नकर्ता : मेरा है।
दादाश्री : वे तो इस शरीर के स्पेयर पार्ट्स हैं। उसमें तेरा क्या है? तेरे भीतर जो मन है, वह किस का है?
प्रश्नकर्ता : मेरा है। दादाश्री : यह वाणी किस की है? प्रश्नकर्ता : मेरी है। दादाश्री : यह देह किस की है? प्रश्नकर्ता : मेरी है।
दादाश्री : 'मेरी है', कहते ही उसका मालिक उससे अलग है, ऐसा विचार आता है कि नहीं आता?
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
प्रश्नकर्ता : आता है।
दादाश्री : हाँ, तो आप खुद कौन हैं? इसके बारे में कभी सोचा है क्या?
मोक्ष होता होगा या नहीं? प्रश्नकर्ता: मोक्ष तो है ही न?
दादाश्री : यदि भगवान बनानेवाले हों और मोक्ष हो, तो वह संपूर्ण विरोधाभास है।
प्रश्नकर्ता : नहीं।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, यह विरोधाभास कैसे?
दादाश्री : यह घड़ी लाए, उसे रियलाइज़ करके (समझकर) लाए थे न कि ठीक है या नहीं? यह कपड़ा लाए थे, उसे भी रियलाइज़ करके लाए थे न? बीवी लाए उसे भी रियलाइज़ करके लाए थे न?
प्रश्नकर्ता : हाँ, दादाजी।
दादाश्री : तो फिर सेल्फ, खुद का ही रियलाइज़ेशन नहीं किया? ये सारी चीजें टेम्परेरी (विनाशी) होंगी या परमानेन्ट (अविनाशी)? ऑल दीज़ आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट । खुद परमानेन्ट है और टेम्परेरी वस्तुओं से उसको गुणा करते हैं, फिर जवाब कहाँ से आएगा? अरे! तू गलत, तेरी रकम गलत, अब जवाब सही कैसे आएगा?
सेल्फ रियलाइजेशन नहीं किया, यह छोटी गलती होगी या बड़ी? प्रश्नकर्ता : भयंकर बड़ी भूल! यह तो ब्लंडर कहलाएगा, दादाजी!
___ संसार सर्जन दादाश्री : इस संसार का सर्जन किस ने किया होगा? प्रश्नकर्ता : (मौन)
दादाश्री : तेरी कल्पना में जो है सो बता दे। हम यहाँ क्या किसी को अनुत्तीर्ण करने बैठे हैं?
प्रश्नकर्ता : भगवान ने बनाया होगा।
दादाश्री : भगवान के कौन-से बच्चे कुँवारे रह गए थे, जो उन्हें यह सब बनाना पड़ा? वे शादीशुदा है या कुँवारे? उनका पता क्या है?
दादाश्री : यदि भगवान ऊपरी हों और यदि वे ही मोक्ष में ले जाते हों, तो जब वे कहें कि उठ यहाँ से, तो आपको तुरंत उठना पड़ेगा। वह मोक्ष कैसे कहलाए? मोक्ष अर्थात संपूर्ण स्वतंत्रता। कोई ऊपरी नहीं और कोई अन्डरहैन्ड भी नहीं।
संसार एक पहेली ये अंग्रेज भी कहते हैं कि गॉड इज़ दी क्रिएटर ऑफ दिस वर्ल्ड (भगवान इस संसार के रचयिता हैं) मुस्लिम भी कहते हैं कि अल्लाह ने बनाया। हिन्दू भी कहते हैं कि भगवान ने बनाया। यह उनके दृष्टिबिन्दु से सही है मगर फैक्ट से (हक़ीक़त में) गलत है। यदि तुझे फैक्ट जानना है, तो वह मैं तुझे बताऊँ। जो ३६० डिग्रीयों का स्वीकार करे, उसे ज्ञान कहते हैं। हम सभी ३६० डिग्रियों को मान्य करते हैं, इसलिए हम ज्ञानी हैं। क्योंकि हम सेन्टर में बैठे हैं और इस कारण से हम फैक्ट बता सकते हैं। फैक्ट यह है कि गॉड इज नॉट एट ऑल क्रिएटर ऑफ दिस वर्ल्ड। यह संसार किसी ने बनाया ही नहीं है। तो बना कैसे? 'दी वर्ल्ड इज द पज़ल इटसेल्फ' संसार अपने आपमें एक पहेली है। पजलसम हो गया है इसलिए पज़ल कहना पड़ता है। बाकी तो संसार अपने आप बना है।
और यह हमने अपने ज्ञान में खुद देखा है। इस संसार का एक भी परमाणु ऐसा नहीं है कि जिसमें मैं विचरा नहीं हूँ। संसार में रहकर और उसके बाहर रहकर मैं यह कह रहा हूँ।
यह पज़ल (पहेली) जो सॉल्व (हल) करे, उसे परमात्मा पद की डिग्री मिलती है और जो सॉल्व नहीं कर पाते वे पज़ल में डिज़ोल्व
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आप्तवाणी - १
(पिघल) हो गए हैं। हम यह पज़ल सॉल्व करके बैठे हैं तथा परमात्मा पद की डिग्री प्राप्त की है। हमें यह चेतन और अचेतन दोनों भिन्न दिखते हैं। जिसे भिन्न नहीं दिखते वह खुद ही उसमें डिज़ोल्व हो गया है।
क्रिएटर भगवान है नहीं, था नहीं और होगा नहीं। क्रिएटर का अर्थ क्या होता है ? क्रिएटर का अर्थ कुम्हार होता है, उसे तो मेहनत करनी पड़ती है। भगवान क्या कोई मेहनती होंगे? अहमदाबाद के ये सेठ लोग बिना मेहनत के चार-चार मिलों के मालिक बने फिरते हैं, फिर भगवान तो मेहनत करते होंगे? मेहनती यानी मजदूर। भगवान वैसा नहीं है। यदि भगवान सबको गढ़ने बैठता, तो सभी के चेहरे एक समान होने चाहिए। जैसे एक ही डाई से बने हों, मगर ऐसा नहीं है। यदि भगवान को निष्पक्ष कहें, तो फिर एक मनुष्य जन्म से ही फुटपाथ पर और दूसरा महल में क्यों?
फिर यह सब किस प्रकार चल रहा है, इसका मैं आपको एक वाक्य में उत्तर देता हूँ, आप विस्तार से खोज लेना । यह संसार 'साइंटिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' से चलता है। जिसे हम 'व्यवस्थित शक्ति' कहते हैं, जो सभी को व्यवस्थित ही रखती है ! चलानेवाला कोई बाप भी ऊपर नहीं बैठा है। सबेरे आप जागते हैं या जागना हो जाता है?
प्रश्नकर्ता: वह तो मैं ही उठता हूँ न ?
दादाश्री : कभी ऐसा नहीं होता कि सोना है फिर भी सो नहीं पाते? सुबह चार बजे जगना हो तब अलार्म क्यों लगाते हैं? निश्चय किया हो कि पाँच बजकर दस मिनट पर उठना हो, तो ठीक समय पर उठ ही जाना चाहिए, मगर ऐसा होता है क्या?
'व्यवस्थित' शक्ति
खुद करता नहीं है, वहाँ आरोप करता है कि मैंने किया। इसे सिद्धांत कैसे कहें? यह तो विरोधाभास है। फिर कौन जगाता है आपको?
आप्तवाणी - १
'व्यवस्थित' नाम की शक्ति आपको जगाती है। यह सूर्य, चंद्र, तारे सभी 'व्यवस्थित' के नियम के आधार पर चलते हैं। ये मिलें सारी धुएँ के बादल छोड़ती ही रहती है और 'व्यवस्थित शक्ति' उसे बिखराकर वातावरण को स्वच्छ बना देती है और सब 'व्यवस्थित' कर देती है। यदि ऐसा नहीं होता, तो अहमदाबाद की जनता मारे घुटन के कब की मर गई होती। यह बरसात जो होती है, तो वहाँ ऊपर पानी बनाने कौन जाता है? वह तो नैचुरल एडजस्टमेन्ट होता है। दो 'एच' (हाईड्रोजन) और एक 'ओ (ओक्सीजन)' परमाणु इकट्ठे होते हैं और दूसरे कितने ही संयोग जैसे कि हवा आदि के मेल से पानी बनता है और बरसात के रूप में बरसता है। यह वैज्ञानिक क्या कहता है ? देख, मैं पानी बनाता हूँ। अरे ! मैं तुझे दो 'एच' के परमाणु के बजाय एक ही 'एच' का परमाणु देता हूँ, अब बना पानी । तब वह कहेगा, 'नहीं वैसे तो कैसे बन पाएगा?' अरे! तू भी इनमें से एक एविडेन्स है। तू क्या बनानेवाला है? इस संसार में कोई 'मेकर' (बनानेवाला) है ही नहीं, कोई कर्त्ता है ही नहीं, निमित्त हैं सभी। भगवान भी कर्त्ता नहीं हैं। कर्त्ता बने, तो भोक्ता बनना पड़ेगा न? भगवान तो ज्ञाता - दृष्टा और परमानंदी हैं। स्वयं के अपार सुख में ही मगन रहते हैं।
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भगवान का एड्रेस
भगवान कहाँ रहते होंगे? उनका एड्रेस क्या है? कभी खत वत लिखना चाहें तो? वे कौन से मुहल्ले में रहते हैं? उनका स्ट्रीट नंबर क्या है ?
प्रश्नकर्ता : यह तो मालूम नहीं है, पर सभी कहते हैं, ऊपर रहते
दादाश्री : सब कहते हैं, और आपने भी मान लिया? हमें पता लगाना चाहिए न ? देखिए मैं आपको भगवान का सही ठिकाना बताता हूँ। गॉड इज इन एवरी क्रीचर व्हेदर विजिबल और इनविजिबल (भगवान सभी जीवों में रहते हैं, फिर भले ही वे आँख से दिखनेवाले या न
हैं।
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
दिखनेवाले जीव हों।) आपके और मेरे बीच में दूरबीन (सूक्ष्मदर्शी) से भी दिखाई नहीं दें, ऐसे अनंत जीव हैं। उनमें भी भगवान बैठे हुए हैं। इन सभी में शक्ति के रूप में हैं और हमारे अंदर व्यक्त हो गए हैं। संपूर्ण प्रकाशमान हो गए हैं। इसलिए हम प्रकट परमात्मा हो गए हैं! गज़ब का प्रकाश हुआ है!! यह जो आपको दिखाई देते हैं, वे तो अंबालाल मूलजीभाई, भादरण के पाटीदार हैं और कोन्ट्रेक्ट का व्यवसाय करते हैं, पर भीतर जो प्रकट हो गए हैं, वे तो गज़ब का आश्चर्य हैं। वे 'दादा भगवान' हैं। पर आपको समझ में कैसे आए? यह देह तो पैकिंग (खोखा) है। भीतर बैठे हैं, वे भगवान हैं। यह आपका भी चंदूलाल रूपी पैकिंग है और भीतर भगवान विराजे हैं। यह गधा है, तो यह भी गधे का पैकिंग है और भीतर भगवान विराजे हैं। पर इन अभागों की समझ में नहीं आता, इसलिए गधा सामने आए, तो गाली देते हैं, जिसे भीतर बैठे भगवान नोट करते हैं और कहते हैं, 'हम्म्... मुझे गधा कहता है, जा अब तुझे भी एक जन्म गधे का मिलेगा।' यह पैकिंग तो कैसा भी हो सकता है। कोई सागवान का होता है, कोई आम की लकड़ी का होता है। ये व्यापारी पैकिंग देखते हैं या भीतर का माल देखते हैं?
प्रश्नकर्ता : माल देखते हैं।
दादाश्री : हाँ, पैकिंग का क्या करना है? काम तो माल से ही है न? कोई पैकिंग सड़ा हुआ हो, टूटा-फूटा हो पर माल तो अच्छा है न?
हमने इस अंबालाल मूलजीभाई के साथ पलभर के लिए भी तन्मयता नहीं की है। जब से हमें ज्ञान उपजा तब से दिस इज माई फर्स्ट नेबर (ये मेरे प्रथम पड़ौसी हैं) पड़ौसी की तरह ही रहते हैं हम।
भगवान ऊपरी और मोक्ष तेरह वर्ष की उम्र में मुझे विचार आया था कि मुझे कोई ऊपरी नहीं चाहिए। भगवान भी ऊपरी नहीं चाहिए. यह मझे नहीं जमेगा। ऐसा मैं अपना डेवलमेन्ट (विकास) साथ में लाया था और अनंत जन्म की इच्छाओं का फल मुझे इस जन्म में मिला। यदि सिर पर भगवान ऊपरी
हों और वही मोक्ष में ले जानेवाला हो, तो जहाँ कहीं बैठे हों, वहाँ से खड़ा कर दे और हमें खड़ा होना पड़े। यह रास नहीं आएगा। वह मोक्ष कहलाए ही कैसे? मोक्ष यानी 'मुक्त भाव' सिर पर कोई ऊपरी भी नहीं और कोई अंडरहैन्ड भी नहीं।
यहाँ जीते जी ही मोक्ष का अनुभव किया जा सकता है। एक भी चिंता मुसीबत नहीं हो। इन्कमटैक्सवालों का नोटिस आए, तब भी समाधि नहीं जाए, वही मोक्ष। फिर ऊपर का मोक्ष तो इसके बाद देखेंगे। पर पहले यहाँ मुक्त होने के बाद ही वह मुक्ति मिलेगी।
मेरी सोलह साल की उम्र में शादी हुई तब सिर पर से साफा जरा खिसक गया, तब मुझे विचार आया कि हम दोनों में से किसी एक को विधवा या विधुर होना ही है, यह तो निश्चित ही है न?
अनंत जन्मों से सभी यही का यही पढ़ते हैं और फिर उस पर आवरण आ जाता है। अज्ञान पढ़ाना नहीं पड़ता, अज्ञान तो सहज ही आता है। ज्ञान पढ़ाना पड़ता है। मुझे आवरण कम था, इसलिए तेरहवें साल में ही प्रकाश हुआ था। स्कूल में मास्टरजी. लघतम समापवर्त्य सिखलाते समय कहते थे कि ऐसी संख्या खोजो, जो छोटी से छोटी हो और सभी में अविभाज्य रूप से रही हो। मैंने इस पर से तुरंत ही भगवान खोज निकाले। ये सभी (मनुष्य) संख्याएँ ही हैं न? उनमें भगवान अविभाज्य रूप से रहे हुए हैं!
मैं जो वाणी बोलता हूँ, उस वाणी से आपका आवरण टूटता है और अंदर प्रकाश होता है, इसलिए मेरी बात आपकी समझ में आती है। बाकी एक भी शब्द समझने की आपकी ताकत नहीं है। बुद्धि काम ही न करे। ये, जो सभी जो बुद्धिमान कहलाते हैं, वे सभी रोग बिलीफ़ (गलत मान्यता) से है। हम अबुध हैं। हमारे पास बद्धि नाम मात्र को भी नहीं होती। बुद्धि क्या है? सारे संसार के अनंत सब्जेक्टस (विषयों) को जानें, तो भी उनका समावेश बुद्धि में ही होता है। ज्ञान क्या है? 'मैं कौन हूँ?' उतना ही जानें, वह ज्ञान। इसके अलावा तेरा सभी जाना हुआ
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
कुछ काम आनेवाला नहीं है। अहंकारी ज्ञान यानी बुद्धि, और निरंहकारी ज्ञान यानी ज्ञान। स्वरूप का ज्ञान, वही ज्ञान।
मतभेद टालने का मार्ग क्या है? जीवन कैसे जीना? करोड़ों रुपये हों, फिर भी मतभेद होते है और मतभेद से अनंत दुःख पैदा होते हैं।
रिलेटिव धर्म : रियल धर्म वृत्त (सर्किल) में ३६० डिग्री होते हैं। अंग्रेज ११० डिग्री पर, मुस्लिम १२० डिग्री पर, पारसी १४० डिग्री पर, हिन्दु २२० डिग्री पर होते हैं। वे सभी अपने अपने दृष्टि बिन्दु से देखते हैं, इसलिए सब अपने देखे हुए को सही बताते हैं। १२० डिग्री पर बैठे हुए को मैं ८० डिग्री पर लाकर पूछं कि कौन सही है? सभी व्य पोइन्ट पर, डिग्री पर बैठे हुए होते हैं। ३६० डिग्री पूरी करके हम सेन्टर (मध्य बिन्द) में बैठे हुए पूर्ण पुरुष हैं। ज्ञानी पुरुष सेन्टर में स्थित होने के कारण वस्तु को यथार्थ रूप में देख सकते हैं, समझ सकते हैं और आपको यथार्थ ज्ञान दे सकते हैं । ये सभी धर्म सही हैं, पर वे रिलेटिव धर्म हैं, व्यू पोइन्ट के अनुसार हैं। यदि फैक्ट जानना हो, तो सेन्टर (केन्द्र) में आना होगा। रियल धर्म, आत्मधर्म सेन्टर में ही होता है। जो सेन्टर में बैठा है, वही सभी के व्यू पोइन्ट को देख सकता है। इसलिए उसका किसी धर्म से मतभेद नहीं होता है। इस कारण ही हम कहते हैं कि जैनों के हम महावीर हैं, वैष्णवों के हम कृष्ण हैं, स्वामीनारायण के सहजानंद हैं, क्रिश्चियनों के क्राइस्ट हैं, पारसियों के जरथुस्ट हैं, मुस्लिमों के खुदा हैं। जिसे जो चाहिए वह ले जाए। हम संगमेश्वर भगवान हैं। तू अपना काम निकाल ले। एक घंटे में तुम्हें परमात्म पद देता हूँ, पर तुम्हारी तैयारी चाहिए। बस तुम आओ उतनी ही देरी है। घंटेभर में सारा केवलज्ञान' दे देता हूँ। मगर तुम्हें पचनेवाला नहीं। हमारे ही 356 डिग्री पर आकर अटक गया है, काल की वजह से। पर तुम्हें देते हैं, संपूर्ण 'केवलज्ञान'!
शक्करकंद को यदि भट्ठी में डालें, तो कितनी ओर से भुन जाएगा? चारों ओर से। उसी प्रकार यह सारा संसार भुन रहा है। अरे! पेट्रोल की
अग्नि में जलता हुआ हमें हमारे ज्ञान में दिखता है। इसलिए लोगों का कल्याण कैसे हो, यही हमें देखना है। इसलिए ही हमारा जन्म हुआ है, आधे विश्व का कल्याण हमारे हाथों होगा और शेष आधे विश्व का कल्याण हमारे इन फॉलोअर्स (अनुयायिओं) के हाथों होगा। हम इसमें कर्ता नहीं हैं, निमित्त हैं।
जर्मनीवाले एब्सोल्युटिजम (परम तत्त्व) की खोज में हैं। इसलिए यहाँ से बहुत सारे शास्त्र उठा ले गए हैं और खोज में लगे हैं। अरे! वह ऐसे मिलनेवाला नहीं है। आज हम खद ही प्रत्यक्ष एब्सोल्युटिजम में हैं। संसार सारा थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी में है। ये हमारे 'महात्मा' थ्योरी ऑफ रियलिटी में हैं। हम खुद थ्योरी ऑफ एब्सोल्युटिज़म में हैं। केवल थ्योरी नहीं, पर थ्योरम में हैं। हम जब जर्मनी जाएंगे, तब कहेंगे कि तुझे जो चाहिए वह ले जा। यह हम खुद ही आए हैं।
दिस इज कैश बैंक इन दी वर्ल्ड (संसार में यह नक़द बैंक है) एक घंटे में नक़द तेरे हाथ में थमा देता हूँ। रियल में बिठा देता हूँ। और सब जगह उधार है। किश्ते भरते रहो। अनंत जन्मों से तू किश्ते भरता आया है, फिर भी हल क्यों नहीं निकलता है? क्योंकि नक़द किसी जन्म में मिला ही नहीं है।
क्रमिक मोक्षमार्ग : अक्रम मोक्षमार्ग मोक्ष प्राप्ति के दो मार्ग : एक मुख्य मार्ग, जो स्टेप बाय स्टेप, सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ने का है। सत्संग मिले, तो पाँच सौ सीढ़ियाँ चढ़ जाए और कुसंग मिले किसी जन्म में, तो पाँच हजार सीढ़ियाँ उतार दे। बड़ा कठिन मार्ग है! जप-तप-त्याग करते हुए चढ़ना पड़े, फिर भी पता नहीं कि कब गिरा दे? दूसरा अक्रम मार्ग, लिफ्ट मार्ग मतलब सीढ़ियाँ नहीं चढ़नी हैं, सीधे ही लिफ्ट में चढ़कर, बीवी-बच्चों के साथ, बेटे-बेटियों की शादियाँ रचाते हुए, सबकुछ करके फिर, मोक्ष प्रयाण करना। यह सब करते हुए भी, आपका मोक्ष चला नहीं जाता। ऐसा अक्रम मार्ग अपवाद मार्ग भी कहलाता है। अक्रम मार्ग प्रति दस लाख वर्षों में एक बार प्रकट
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
होता है। अकेले भरत राजा को यह ज्ञान मिला था। ऋषभदेव दादा भगवान ने अपने सौ पुत्रों में से अकेले भरत को ही यह अक्रम ज्ञान दिया था। उनके सौ पुत्रों में से अठ्ठानवे पुत्रों ने दीक्षा ली थी। रहे बाहबलीजी
और भरत। उन दोनों को राज्य सौंपा। फिर बाहबलीजी बैरागी होकर निकल पड़े और उन्होंने भी दीक्षा ली, इसलिए भरत के सिर पर राज्य का भार आया। भरत की फिर रानियाँ कितनी थीं, मालूम है? तेरह सौ रानियाँ थीं। वे ऊब गए थे। आजकल तो एक ही बीवी से तौबा करते हैं लोग! भरत राजा को तो बहुत दुःख था। रानिवास में जाते, तो पचास का मुँह हँसता हुआ दिखाई देता और पाँच सौ का मुँह चढ़ा हुआ । ऊपर से राज्य की चिंता, लड़ाइयाँ लड़ना, तो वे बड़े परेशान रहते थे, इसलिए भगवान से जाकर बोले, 'भगवान! मुझे राज्य नहीं चाहिए, और किसी को सौंप दीजिए और मुझे दीक्षा दीजिए। मुझे भी मोक्ष में ही जाना है।' तब भगवान ने कहा कि तू यह राज्य चलाने का निमित्त है। यदि नहीं चलाया तो राज्य में झगड़े, मारकाट और अराजकता फैल जाएगी। जा, हम तुझे ऐसा ज्ञान देते हैं कि तुझे राज्य भी बाधक नहीं होगा, तेरह सौ रानियाँ भी बाधक नहीं होंगी और लड़ाइयाँ भी बाधक नहीं होंगी। ऋषभदेव भगवान ने भरत को ऐसा ज्ञान दिया था। और वही यह 'अक्रम ज्ञान', जो हम तुम्हें यहाँ देते है, एक घंटे में। अरे ! भरत राजा को तो ज्ञान हट नहीं जाए, इसके लिए चौबीसों घंटे नौकर को रखने पड़ते थे। जो हर पंद्रह मिनट पर बारी-बारी से घंटनाद करके बोला करते थे, 'भरत चेत, चेत, चेत!' पर अभी तो आप ही डेढ़ सौ की नौकरी करते हैं, तो नौकर कैसे रख पाएँगे? इसलिए हम भीतर ही ऐसी व्यवस्था कर देते हैं कि प्रतिक्षण भीतर से ही 'चेत, चेत, चेत' की गूंज उठती रहती है।
ऐसा अद्भुत ज्ञान तो किसी काल में न सुनने में आया, न ही देखने में। यह तो ग्यारहवाँ आश्चर्य है इस काल का!
कॉमनसेन्स कॉमनसेन्स क्या है? उसकी परिभाषा क्या है?
कॉमनसेन्स अर्थात् एवरीव्हेयर एप्लिकेबल, थ्योरिटिकली एज वेल एज प्रैक्टिकली। (व्यावहारिक समझ जो सर्वत्र लागू की जा सके, सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों प्रकार से)
कॉमनसेन्स बड़ी ऊँची वस्तु है। उसे जहाँ ज़रूरत हो वहाँ काम में ले सकते हैं। हममें सौ प्रतिशत कॉमनसेन्स है। आपमें एक प्रतिशत भी नहीं होता। उलझने पर बिना तोड़े धागा सुलझाना वही कॉमनसेन्स है। लोग तो एक उलझन सुलझाते-सुलझाते, दूसरी पाँच उलझनें खड़ी करते हैं, उन्हें कोमनसेन्स के मार्क कैसे दिए जाएँ? अरे! बड़े-बड़े विद्वानो में विद्वत्ता होती है पर कोमनसेन्स नहीं होता। हम में बुद्धि नाममात्र को नहीं है, हम अबुध हुए हैं। हम में बुद्धि पूर्ण रूप से प्रकाशमान हुई होती है, पर हमारे ज्ञान प्रकाश के आगे वह कोने में जाकर बैठी रहती है। एक किनारे पर अबुध पद प्राप्त होते ही सामनेवाले किनारे पर सर्वज्ञ पद माला लेकर नियम से सामने आकर खड़ा ही होता है। 'हम अबुध हैं, सर्वज्ञ हैं।'
सांसारिक संबंध यह आपके अपने पिताजी से, माँ से, बीवी के साथ जो संबंध हैं, वे रियल संबंध हैं क्या?
प्रश्नकर्ता : हाँ जी, रियल संबंध ही हैं न?
दादाश्री : फिर तो बाप मर जाए, तो नियम से आपको भी मर जाना चाहिए। मुंबई में ऐसे कितने होंगे जो बाप के पीछे मर गए? देखिए मैं आपको समझाता हूँ। माँ-बाप, भाई बहन, बीवी-बच्चे उनके बीच जो संबंध हैं, वे सही हैं, पर रियल नहीं हैं, रिलेटिव संबंध हैं। यदि रियल हो, तो किसी का बाप के साथ संबंध टूटता ही नहीं। यह तो यदि बाप से कहा हो कि आपमें अक्ल नहीं है, तो बस खतम। बाप कहेगा, 'जा अपना मुँह सारी जिंदगी मत दिखाना। मैं तेरा बाप नहीं और त मेरा बेटा नहीं आज से।' आपने बीवी को भी रिश्तेदार माना, पर डाइवॉर्स होता है कि नहीं? ऐसा है यह संसार। ऑल दीज़ आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
हकीकत में इस संसार में दुःख जैसी कोई वस्तु ही नहीं है। दुःख अवस्तु है। कल्पना से पैदा किया है। जलेबी में दुःख है, ऐसी कल्पना करें, तो उसे उसमें दुःख लगता है और सुख है ऐसी कल्पना करें, तो सुख लगता है। इसलिए वह यथार्थ नहीं है। जो सच्चा सुख है, वह सभी को स्वीकार्य होना ही चाहिए। यूनिवर्सल ट्रथ (सत्य) होना चाहिए। पर तू जिसमें सुख मानता है उसमें औरों को अपार दुःख का अनुभव हो ऐसा यह संसार
प्रारब्ध-पुरुषार्थ का विरोधाभासी अवलंबन
(सारे अल्पकालिक समायोजन हैं)। अरे! यह देह भी आपकी सगी नहीं है न? वह भी दगा दे देती है। यदि तय किया हो कि आज इतने समय सामायिक करनी है, तो या तो सिर दु:खने लगता है या पेट दुःखने लगता है। वह सामायिक भी नहीं करने देती। खुद परमानेन्ट (शाश्वत) और यह सब टेम्परेरी (अस्थायी), दोनों का मेल कैसे हो? इसलिए ही सारा संसार उलझन में फँसा है। रिलेशन में तो रिलेशन के आधार पर ही व्यवहार करना चाहिए। सत्य-असत्य के लिए बहुत आग्रह नहीं रखना चाहिए। ज्यादा खींचने पर टूट जाता है। सामनेवाला यदि संबंध तोड डाले और हमें संबंध की ज़रूरत हो, तो हम सिल दें, तभी संबंध बना रहेगा। क्योकि सारे संबंध रिलेटिव हैं। उदाहरण के लिए, यदि बीवी कहे कि आज पूनम है, आप कहें कि नहीं अमावस्या है। फिर दोनों में खींचातानी होगी और सारी रात बिगड़ेगी और सुबह में वह चाय का कप पटक कर देगी, ताँता बना रहता है। उसके बजाय हम समझ लें कि इसने खींचना शुरू किया है, तो टूट जाएगा, अतः धीरे से पंचाग (केलेन्डर) के पन्ने इधर-उधर पलट कर कहो, 'हाँ तेरी बात सही है, आज पूनम है।' ऐसे थोड़ा नाटक करने के बाद ही उसकी बात सही ठहराना, वर्ना क्या होगा? डोर बहुत खींची हई हो और एकदम से आप छोड दो, तो वह गिर पड़ेगी। इसलिए डोर धीरे-धीरे सामनेवाला गिर नहीं पड़े, ऐसे संभलकर छोड़ना, वर्ना वह गिर जाए, तो उसका दोष लगता है।
सुख और दुःख संसार में सभी सुख की खोज में हैं पर सुख की परिभाषा ही तय नहीं करते। 'सुख ऐसा होना चाहिए कि उसके बाद कभी भी दु:ख नहीं आए।' ऐसा एक भी सुख संसार में हो, तो खोज निकाल. जा। शाश्वत सुख खुद के 'स्व' में अंदर ही है। खद अनंत सख धाम है और लोग नाशवंत चीजों में सुख खोजने निकले हैं। इन संसारियों के सुख कैसे हैं? जाड़े का दिन और छत का मेहमान, कड़ाके की सर्दी की शुरुआत, छोटी रजाई और खुद लंबू। यदि सिर ढंके, तो पैर खुले रहें और पैर ढंके, तो सिर खुला रहे। भैया सारी रात परशान रहे ऐसा यह संसारी सुख है।
लोग प्रारब्ध को पुरुषार्थ कहते हैं। पीसे हुए को फिर से पीसते हैं और उलटे आधा सेर आटा उड़ा देते हैं। कुछ लोग प्रारब्ध-प्रारब्ध की रट लगाते हैं और कुछ पुरुषार्थ-पुरुषार्थ करते रहते हैं, पर वे दोनों निराधार अवलंबन हैं। ये मज़दूर सारा दिन मिलों में पुरुषार्थ करते हैं, तो वे क्या पाते हैं? रोटी और दाल या और कुछ ज्यादा? प्रारब्धवादी यदि हाथ जोड़कर बैठे रहें, तो?
मुआ! लाख कमाए तो कहता है, 'मैंने कमाया' और घाटा हो जाए तो कहता है, 'भगवान ने किया, मेरे ग्रह खराब थे, साझीदार बदमाश मिला।' ऊपर से कहता है, 'मैं क्या करू?' अरे! तू जीवित है या मरा हुआ है? अच्छा हुआ तब कहता है, 'मैंने किया', तो अब क्यों नहीं कहता कि मैंने किया है? अब कहता है, भगवान ने किया। ऐसा कहकर भगवान को बदनाम क्यों करता है? और ग्रह भी कुछ करते-धरते नहीं हैं। तेरे 'ग्रह' ही तुझे परेशान करते हैं। तेरे भीतर ही नौ के नौ ग्रह भरे पड़े हैं। वे ही तुझे परेशान करते हैं। हठाग्रह, कदाग्रह, दुराग्रह, मताग्रह, सत्याग्रह सभी तुझ में हैं, तेरे हैं। हम निराग्रही हए हैं। जहाँ आग्रह होता है, वहीं विग्रह होता है। हमें आग्रह नहीं है, तो विग्रह कहाँ से होगा? यह तो अनुकूल में आता है तब सफल होता है और प्रतिकूल आने पर भगवान पर उँडेल देते हैं। अनुकूल और प्रतिकूल की इन दो कड़ियों को लोग पुरुषार्थ कहते हैं। यदि खुद पुरुषार्थ करता होता, तो कभी भी घाटा
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
नहीं होता। पुरुषार्थ वह है कि निष्फलता हो ही नहीं। यह तो विरोधाभास है। तू खुद ही पुरुष नहीं हुआ है, तब पुरुषार्थ कैसे करेगा भैया? सही पुरुषार्थ तो वही है जो स्वपराक्रम सहित हो। यह तो प्रकृति नचाती है, वैसे नाचता है और कहता है कि मैं नाचा!
कृष्ण भगवान ने क्या कहा कि ऊद्धवजी, अबला तो क्या साधन करे? जैनों के सबसे बड़े आचार्य महाराज आनंदधनजी भी अपने को अबला बताते हैं, क्योंकि पुरुष किसे कहते है? जिसने क्रोध-मान-मायालोभ जीत लिए हों, उसे। यहाँ तो क्रोध-मान-माया-लोभ ने ही जिसे जीत लिया हो, वह तो अबला ही कहलाएगा न?
__ मैं पुरुष हुआ हूँ, पुरुषार्थ और स्वपराक्रम सहित हूँ। ज्योतिष और पुरुषार्थ दोनों ही विरोधाभास है। ज्योतिष सही है. मगर जिसे परुषार्थ मानते हैं, वह भ्राँति है। घाटा हो तब ज्योतिषी के पास क्यों जाता है? कर न पुरुषार्थ ! यह पुरुषार्थ तो अगले जन्म के बीज डालता हैं।
इस एलेम्बिक के कारखाने में अनेकों लोग काम करते हैं, तब केमिकल्स तैयार होते हैं और वह भी फिर एक ही कारखाना। यह देह तो अनेक कारखानों की बनी हुई है। लाख 'एलेम्बिक' के कारखानों की बनी हुई है, जो अपने आप चलते हैं। अरे! रात खाना खाकर सो गया, फिर अंदर कितना पाचकरस पड़ा, कितना पित्त पड़ा, कितना बॉइल पड़ा, उसका पता लगाने जाता है तू? वहाँ तू कितना एलर्ट (सावधान) रहता है? वहाँ तो अपने आप सारी क्रियाएँ हो कर सुबह पानी, पानी की जगह और संडास. संडास की जगह अलग होकर बाहर निकल जाता है और सारे तत्त्व रक्त में इखच जाते हैं। तो क्या वह सब तू चलना गया था? अरे! अंदर का जब अपने आप चलता रहता है, तो क्या बाहर का नहीं चलेगा? ऐसा क्यों मानते हैं कि मैं करता हूँ? वह तो चलता रहेगा। रात को नींद में शरीर सहज होता है। पर ये तो असहज! दिन में क्या कहता है, 'मैं सांस लेता हूँ, ठीक से लेता हूँ, ऊँची सांस लेता हूँ और नीची भी लेता हूँ' तब भैया रात में कौन लेता है? रात में जो श्वासोच्छवास चलते हैं, वे नोर्मल होते हैं। उससे अच्छी तरह से सब पाचन होता है।
मनुष्य मात्र लटू है। मैं ज्ञानी हूँ पर यह देह लटू है? ये लटू जो हैं, वे सांस से ही चलते हैं। सांस की तरह डोरी लिपटने से लट्ट घूमता है। घूमते-घूमते कभी पल्टी मारता है तब हमें लगता है कि 'गया, गया' मगर फिर सीधा होकर घूमने लगता है, ऐसा है यह सब !
नीम का पत्ता-पत्ता, डाल-डाल कड़वे होते हैं। उसमें उसका क्या पुरुषार्थ? वह तो बीज में जो पड़ा है, वह प्रकट होता है। वैसे ही मनुष्य अपने प्राकृत स्वभाव से व्यवहार करता है और 'मैंने किया' का अहंकार करता है। उसमें उसने क्या किया?
संसार में लोग जिसे पुरुषार्थ कहते हैं, वह तो भ्राँत भाषा है। रिलेटिव भाषा है। उदयकर्म के अनुसार होता है, उसे 'मैंने किया' कहता है, जो गर्व है, अहंकार है। रियल भाषा का पुरुषार्थ, जो यथार्थ पुरुषार्थ है वह पुरुष होने के बाद ही, स्वरूप का भान होने के बाद ही शुरू होता है। उसमें 'मैंने किया' यह भाव ही सारा उड़ गया होता है। संपूर्ण अकर्ता पद होता है। रिलेटिव सब प्रकृति है और रियल खुद पुरुष है। रियल पुरुषार्थ किसे कहते है? कोई हमारा हाथ काट रहा हो, तब हम 'खुद' ज्ञाता-दृष्टा पद में रहें, उसे। ज्ञानक्रिया और दर्शनक्रिया ही आत्मा की क्रियाएँ हैं। अन्य सब जगह आत्मा अक्रिय है। आत्मा की और कोई क्रिया नहीं है और 'आत्मा' ज्ञान-दर्शन में रहे, वही पुरुषार्थ है।
कबीरजी की बीवी को बच्चा होनेवाला था। उससे पहले तो आंचल दूध से भर गया और बच्चा होते ही दूध की धारा बह निकली उसे देखकर कबीरजी बोले,
'प्रारब्ध पहले बना, पीछे बना शरीर, कबीर, अचंभा ये है, मन नहीं बांधे धीर।'
अविरोधाभासी अवलंबन प्रारब्ध की रट लगाकर बैठे रह सकें ऐसा नहीं है, क्योंकि अकेले प्रारब्ध का अवलंबन लेकर बैठ जाएँ, तो बिल्कुल निष्क्रिय हो जाएँगे।
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हैं। निमित्त को कभी काटते नहीं। निमित्त को काटकर तू अपना भयंकर अहित कर रहा है। जरा मूल रूट कॉज़ (मूल कारण) का पता लगा न? तो तुझे हल मिलेगा।
मैं बचपन में जरा शरारती था। तो शरारत बहुत करता था। एक सेठ अपने पिल्ले के साथ बहुत खेलते थे। उस समय मैं पीछे जाकर, उन्हें पता नहीं चले ऐसे, कुत्ते की पूंछ जोर से दबा देता था। कुत्ता आगे सेठ को देखता और फटाक से उसे काट लेता। सेठ शोर मचाता। इसको कहते हैं, निमित्त को काटना।
आत्मा-अनात्मा
उस अवलंबन से मन चैन से बैठने ही नहीं देता। यदि आपका प्रारब्ध का अवलंबन सही है, तो आपको एक भी चिंता नहीं होनी चाहिए। मगर चिंता का तो कारखाना बनाया है। इसलिए सभी मार खाते हैं। ऐसे खोटे अवलंबन लोगों को दिए गए हैं, इसलिए तो हिन्दुस्तान की अवदशा हुई है। उसकी प्रगति कुंठित हो गई है। हम कोटि जन्मों की खोज के बाद संसार को एक्जैक्ट (यथार्थ) जैसा है वैसा, बता रहे हैं कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों ही पंगु अवलंबन हैं। एक 'व्यवस्थित' ही सही अवलंबन है, फैक्ट बात है, साइन्टिफिक है। 'व्यवस्थित' अर्थात् क्या? साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स के आधार पर जो जो होता है, वह 'व्यवस्थित' है। 'व्यवस्थित' का ज्ञान सभी अवस्थाओं में संपूर्ण समाधानकारी ज्ञान है। इसका आपको एक सादा उदाहरण देता हूँ। एक काँच का गिलास आपके हाथ से छूटने लगा, उसे बचाने के लिए आपने हाथ को ऊपर-नीचे करके अंत तक बचाने का प्रयत्न किया, फिर भी वह गिर पड़ा और टूट गया, तब उसे फोड़ा किस ने? आपकी तनिक भी इच्छा नहीं थी कि गिलास टूटे उलटे आपने तो उसे अंत तक बचाने का प्रयत्न किया। तब क्या गिलास की खुद की इच्छा थी टूटने की? नहीं, उसको तो ऐसा हो ही नहीं सकता। और कोई हाजिर नहीं है फोडनेवाला. तो फिर फोड़ा किस ने? 'व्यवस्थित ने'। 'व्यवस्थित' एक्जेक्ट नियमानुसार चलता है। वहाँ अँधेरनगरी नहीं है। यदि 'व्यवस्थित' के नियम में वह गिलास टूटनेवाला ही नहीं होता, तो ये काँच के गिलास के कारखाने कैसे चलते? 'व्यवस्थित' को तो आपका भी चलाना है और कारखाने भी चलाने हैं और हजारों मजदूरों का पेट भी पालना है। अतः नियम से गिलास टूटेगा ही, टूटे बिना रहता ही नहीं। तब अभागा, टूटे तब दुःखी होता है, गुस्सा करता है। अरे! नौकर के हाथों यदि टूट जाए और दो-चार मेहमान बैठे हों, तो मन में सोचता है कि कब मेहमान जाएँ और कब मैं नौकर को चार थप्पड़ जड़ दूँ? और मुआ, ऐसा करता भी है! पर यदि उसकी समझ में आ जाए कि नौकर ने नहीं तोड़ा पर 'व्यवस्थित' ने तोड़ा है, तो होगा कुछ? संपूर्ण समाधान रहेगा कि नहीं रहेगा? वास्तव में नौकर बेचारा निमित्त है। उसे ये सेठ लोग काटने दौड़ते
आपके शरीर में आत्मा है वह तो निश्चित है न? प्रश्नकर्ता : हाँ जी।
दादाश्री : तो वह किस स्वरूप में होगा? मिक्सचर या कम्पाउन्ड? ये आत्मा और अनात्मा मिक्सचर स्वरूप में होंगे कि कम्पाउन्ड स्वरूप में?
प्रश्नकर्ता : कम्पाउन्ड!
दादाश्री : यदि कम्पाउन्ड स्वरूप में हों, तो तीसरा नया ही गुणधर्मवाला पदार्थ उत्पन्न हो जाएगा, और आत्मा व अनात्मा उनके अपने गुणधर्म ही खो देंगे। तब तो कोई आत्मा अपने मूलधर्म में आ ही नहीं सकता, और कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। देखो मैं तुम्हें समझाता हूँ। यह आत्मा जो है, वह मिक्सचर स्वरूप में रहा है और आत्मा व
अनात्मा दोनों ही अपने-अपने गुणधर्म समेत रहे हए हैं। उन्हें अलग किया जा सकता है। सोने में तांबा, पीतल, चाँदी आदि धातुओं का मिश्रण हो गया हो, तो कोई साइन्टिस्ट उनके गुणधर्मों के आधार पर उन्हें अलग कर सकता है कि नहीं? तुरंत ही अलग कर सकता है। उसी प्रकार आत्मा, अनात्मा के गुणधर्मों को जो पूर्ण रूप से जानते हैं. और अनंत सिद्धिवाले सर्वज्ञ ऐसे ज्ञानी हैं, वे उनका पृथक्करण करके, उन्हें अलग कर सकते हैं। हम संसार के सबसे बड़े साइन्टिस्ट हैं। आत्मा और
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
अनात्मा के सारे परमाणुओ का पृथक्करण करके, दोनों को अलग करके, एक ही घंटे में आपके हाथों में शुद्ध आत्मा दे देते हैं। ज्ञानी की प्रगट वाणी के अलावा बाहर जो 'आत्मा, आत्मा' बोलते हैं या पढ़ते हैं, वह मिलावटी आत्मा है। शब्द ब्रह्म! हाँ, पर शुद्ध नहीं।
ये सभी जो धर्म पालते हैं वे अनात्मा के धर्म पालते हैं। वे रिलेटीव धर्म हैं, शुद्ध आत्मा के धर्म नहीं। आत्मा का एक भी गणधर्म यदि जाना नहीं है, तो आत्मधर्म कैसे पाल सकते हैं? वह तो ज्ञानी पुरुष आपको थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी में से जब तक रियालिटी में नहीं लाते, तब तक रियल धर्म नहीं पाल सकते। ये हमारे 'महात्मा' आपके अंदर के भगवान को देख सकते हैं। क्योंकि हमने उन्हें दिव्यचक्ष दिए हैं। आपके जो चक्षु हैं वे चर्मचक्ष हैं, उनसे सारी विनाशी चीजें दिखेंगी। अविनाशी भगवान तो दिव्यचक्षु से ही दिखेंगे।
दिव्यचक्षु से मोक्ष श्रीकृष्ण भगवान ने महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन को दिव्यचक्षु दिए थे। पर केवल पाँच ही मिनट के लिए, उसका वैराग्य टालने के लिए फिर वापस ले लिए थे। हम आपको परमानेन्ट दिव्यचक्षु देते हैं। फिर जहाँ देखेंगे वहाँ भगवान दिखेंगे। हममें दिखेंगे, इनमें दिखेंगे, पेड में दिखेंगे और गधे में भी दिखेंगे। प्रत्येक जीव में दिखेंगे, सब जगह आत्मवत् सर्व भूतेषु ही दिखाई देंगे, फिर है कोई झंझट?
तीन सौ साल पहले हुए, जैनों के सबसे बड़े आचार्य महाराज आनंदघनजी क्या कह गए हैं, 'इस काल में दिव्यचक्षु का, निश्चय से वियोग हो गया है।' इसलिए सभी ने दरवाजे बंद कर लिए। यह तो कुदरती ही गज़ब का ज्ञान उत्पन्न हो गया है, नैचुरल एडजस्टमेन्ट है। जिससे घंटे भर में ही दिव्यचक्षु प्राप्त हो जाते हैं।
भगवान क्या कहते हैं? मोक्षमार्ग अति अति अति (सौ दफा) दुर्लभ दुर्लभ दुर्लभ है, पर यदि ज्ञानी पुरुष मिलें तो खिचड़ी बनाने से भी अधिक सरल है।
हमारी यह बात आपका आत्मा ही कबूल करेगा, यदि आपमें आड़ापन नहीं रहा तो, क्योंकि आपके अंदर, मैं ही बैठा हुआ हूँ। हमें आपमें और हमारे में कोई भेद नहीं लगता। ये सब लोग 'श्रद्धा रखो, श्रद्धा रखो' ऐसे कहते हैं। मगर भैया मुझे श्रद्धा नहीं बैठती इसका क्या? व्याख्यान या प्रवचन में से नीचे उतरा कि धोती झाड़कर सोचता है कि आज बैंगन बहुत सस्ते हो गए हैं। (संसार ही लक्ष्य मे रहता है) हमारे पास श्रद्धा नहीं रखनी होती। यदि तेरे भीतर आत्मा है और आडापन नहीं है, तो तुझे श्रद्धा अवश्य बैठनी ही चाहिए, क्योंकि यह तो ज्ञानी की डाइरेक्ट ज्ञानवाणी है, जो तेरे सारे आवरणों को तोड़कर सीधे तेरे आत्मा को पहुँचती है और इसलिए तेरे आत्मा को कबूल करनी ही पड़ती है। हमारी बात तेरी समझ में आ ही जाती है!
श्रद्धापूर्वक की बात और समझपूर्वक की बात में अंतर है। समझपूर्वक की बात हो, तभी सामनेवाला मानता है।
पुनर्जन्म हम औरंगाबाद से प्लेन में आ रहे थे। एक फ्रेन्च साइन्टिस्ट मिला जो माइक्रोबायोलॉजिस्ट था। वह हम से पूछने लगा, 'आप इन्डियन लोग 'रीबर्थ' में विश्वास करते हैं, वैसा हम लोग नहीं मानते। आप मुझे इसके बारे में समझाएंगे कि ऐसा किस प्रकार से है? आप कहें उतना समय मैं आपके साथ इन्डिया में रहने को तैयार हूँ।' हमने पूछा, 'कितना समय आप रह सकते हैं?' फ्रेन्च साइन्टिस्ट ने बताया, 'पाँच साल, दस साल।' मैंने कहा, 'नहीं, नहीं, इतना सारा टाइम हमारे पास नहीं है।' इस पर उसने कहा, 'छह महीने में?' हमने कहा, भैया, हम बेकार थोड़े बैठे हैं? हमें बहुत काम हैं। सारे संसार का कल्याण करना है। उसके हम निमित्त हैं। ऐसा कीजिए, घंटेभर में हम सान्ताक्रुज एयरपोर्ट पर उतरेंगे, तब आप पुनर्जन्म में मानने लगेंगे। हमने उसे प्लेन में ही साइन्टिफिकली समझा दिया और वह सच में समझ गया। और सान्ताक्रुज जब उतरे तब 'सच्चिदानंद सच्चिदानंद' बोलने लगा। अरे !
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आप्तवाणी-१
कॉजेज़ और इफेक्ट्स, इफेक्ट्स और कॉज़ेज़ की परंपरा चलती ही रहती
अपनी लेडी को भी भूल गया। हमारे फोटो खींचकर साथ ले गया।
मन-वचन-काया, इफेक्टिव ये मन-वचन-काया इफेक्टिव हैं या अन्इफेक्टिव? इफेक्टिव हैं। जन्म से ही इफेक्टिव हैं। गर्भ में भी इफेक्टिव हैं। इफेक्टिव कैसे? यदि सवेरे किसी ने कह दिया कि तुम कमअक्ल हो, तो रात दस बजे भी मन सोने नहीं देता और इफेक्ट चालू हो जाता है, ऐसा क्यों? तब कहे, मन इफेक्टिव है इसलिए? बाकी वाणी तो प्रत्यक्ष रूप से इफेक्टिव है। यदि किसी को एक गाली सुनाई, तो पता चल जाएगा तुरंत ही और तीसरे यह देह भी इफेक्टिव है, सर्दी में ठंड लगती है, गरमी में गरमी लगती है। नवजात शिशु को ठंड में ओढ़ाया गया कपड़ा यदि हट जाए, तो तुरंत रोने लगता है और फिर ओढ़ाने पर चुप हो जाता है। मुँह में मीठा देने पर चाटने लगता है और कड़वा रखने पर मुँह बिगाड़ता है। ये सारे इफेक्ट्स (असर) ही हैं केवल। अरे, गर्भ में भी इफेक्टिव होता हैं। इसका मेरा खुद का देखा हुआ दृष्टांत बताता हूँ। पचास साल पहले की बात है। हमारे भादरण गाँव में एक महिला को आठवाँ महीना चल रहा था। राह चलते उसे गाय ने सींग मारा और सींग गर्भाशय में लगा
और बच्चे की ऊँगली बाहर निकल आई, जरा-सी। डॉक्टरों को बुलाया गया। उस वक्त मिशनरी के उन डॉक्टरों के लिए बहुत बड़ी समस्या खड़ी हो गई। महिला की स्थिति गंभीर होती जा रही थी। उतने में गाँव की एक सत्तर-अस्सी साल की बुढ़िया को इसका पता चला, तो वह लाठी ठोकती ठोकती वहाँ आ पहुँची। उसने सबको कहा कि तुम सब दूर हट जाओ और आराम से बैठ जाओ भगवान का नाम लो और देखो कि क्या होता है। उसने एक सूई ली और उसकी नोक को गरम किया और बाहर निकली ऊँगली को जरा-सा छुआया कि पट्ट से ऊँगली अंदर चली गई। अंदर बच्चे को इफेक्ट हुआ और उसने ऊँगली अंदर खींच ली!
इफेक्ट है, तो कॉज अवश्य होना ही चाहिए। कॉज़ेज हैं, तो इफेक्टस हैं, और इफेक्टस हैं, तो कॉजेज होने ही चाहिए। इस प्रकार
कारण के बिना कार्य नहीं होता और कार्य हो, तो कारण होना ही चाहिए। पूर्वजन्म के कारण को लेकर आज की देह है, वह कार्यस्वरूप की देह है। जन्म होता है, तब स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर, ऐसे दो शरीर साथ होते हैं। पर बाद में उनसे जो इफेक्ट होता है, उसमें राग-द्वेष करके दूसरे नये कारण पैदा करता है और अलगे जन्म के बीज बोता है, ऐसे अंतत: मरते दम तक 'कारण शरीर' उत्पन्न करता रहता है। मरता है तब कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर के साथ आत्मा छूटता है
और स्थूल शरीर यहाँ पड़ा रहता है। उस कारण शरीर में से. फिर से. कार्य शरीर मिल ही जाता है, ऑन द वेरी मॉमेन्ट (तत्काल)।
यदि पुनर्जन्म नहीं होता और सभी को भगवान ने गढ़े होते, तो सभी एक सरीखे होते। एक ही साँचे में से निकले हों वैसे एक सरीखे ही होते। पर यह तो एक बड़ा और एक छोटा, एक लम्बा और एक नाटा, एक गोरा, एक काला, एक गरीब, एक श्रीमंत ऐसे होते हैं। भगवान ने बनाया होता, तो वैसा नहीं होता। उन सभी में जो फर्क दिखता है, वह उनके पूर्वजन्म के आधार पर है। पूर्व के कॉजेज के आधार पर आज के ये अलग-अलग इफेक्ट्स हैं केवल। प्रत्येक के कॉजेज़ अलग इसलिए इफेक्ट्स भी अलग-अलग। यदि पुनर्जन्म नहीं है, तो एक भी ऐसा सबूत दिखाइए कि जो उसका समर्थन करता हो। ये अंग्रेज लकी और अनलकी बोलते हैं, वह क्या है? मुस्लिम तकदीर और तदबीर कहते हैं, वह क्या सूचित करता है? इन सबकी भाषा पूर्ण है, पर बिलीफ़ (मान्यता) अपूर्ण है। ऐसे शब्द जहाँ पुनर्जन्म होता है, वही प्रयोग में लाए जाते हैं।
जैसे कॉज़ेज़ उत्पन्न किए हों, वैसे ही इफेक्ट्स आते हैं। अच्छों का अच्छा और बुरों का बुरा। पर अंत तक छट तो सकते ही नहीं। वह तो कॉजेज का होना बंद होगा, तो ही इफेक्ट्स बंद होंगे। पर जब तक 'मैं चंदूभाई हूँ' ऐसा है, तब तक कॉज़ेज़ बंद होंगे ही नहीं। वह तो ज्ञानी पुरुष झकझोरकर जगाएँ और स्वरूप का भान कराएँ, तब कॉजेज़ होने
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
मन में घबराहट होती है कि नहीं? होती ही है। अभी कोई निकाल बाहर करेगा, धमकाएगा', ऐसा भय निरंतर रहा ही करता है। पर यदि अपने ही घर में बैठे है, तो है कोई चिंता? शांति ही होगी न अपने घर में तो? वैसा ही है यह। 'चंदूलाल', आपका घर नहीं हो सकता। आप खुद क्षेत्रज्ञ पुरुष हैं और भ्राँति से पराये क्षेत्र में क्षेत्राकार हो गए हैं। 'पर' के स्वामी बन बैठे हैं और ऊपर से, पर के भोक्ता बन बैठे हैं। इसलिए निरंतर चिंता, उपाधि, आकुलता और व्याकुलता रहा करती है। पानी से बाहर निकाली गई मछली की तरह छटपटाहट, छटपटाहट रहती है। ये सेठ लोग डनलप के गढ्दों में सोते हैं, मच्छरदानी लगाते हैं और एक-एक खटमल को हटवाकर सो जाते हैं, फिर भी सारी रात करवटें बदलते रहते हैं। ढाई मन का बोरा (शरीर) इधर घुमाए, उधर घुमाए। रातभर अंदर चुन-चुन होती रहती है, करे भी तो क्या करे बेचारा? क्या खटिया से ऊपर हवा में सोएगा?
बंद होते है। हम, कारण शरीर का नाश कर देते हैं। फिर इस 'चंदूलाल' के जितने भी इफेक्ट्स हैं, उनका निपटारा कर देना, फिर उन इफेक्ट्स का निपटारा करते समय आपको राग-द्वेष नहीं होते, इसलिए नये बीज नहीं पड़ते। हाँ, इफेक्ट्स तो भुगतने ही होंगे। इफेक्ट्स तो इस संसार में कोई बदल ही नहीं सकता। यह कम्पलीट साइन्टिफिक वस्तु है। अच्छेअच्छे साइन्टिस्टों को भी मेरी बात कबूल करनी ही पड़ेगी।
इस कलियुग में, दूषमकाल में गज़ब का आश्चर्यज्ञान प्रकट हुआ है। इस आश्चर्यकाल के हम अक्रम ज्ञानी हैं और ऐसा हमें खुद बोलना पड़ता है। हीरे को खुद की पहचान कराने, खुद को बोलना पड़े ऐसा यह वर्तमान आश्चर्यकाल है।
आधि - व्याधि - उपाधि सारा संसार त्रिविध ताप से सुलग रहा है। अरे! पेट्रोल की अग्नि से धाँय-धाँय जल रहा है। वे तीन ताप कौन से? आधि, व्याधि और उपाधि।
पेट में दुखता हो उसका नाम व्याधि। भूख लगे उसका नाम व्याधि। आँखें दुखती हों वह व्याधि। शारीरिक दुःख व्याधि कहलाते हैं।
मानसिक दुःख आधि कहलाते हैं। सारा दिन चिंता करते रहें, वह आधि। और बाहर से आ धमके वह उपाधि है। इस समय यहाँ बैठे हैं और कोई पत्थर मारे वह उपाधि। कोई हमें बुलाने आया वह उपाधि। उपाधि बाहर से आती है, वह अंदर से नहीं होती।
___सारा संसार, फिर चाहे वह साधु हो या सन्यासी हो, तो भी त्रिविध ताप से सुलग रहे हैं। हमने जिन्हें ज्ञान दिया है, उन्हें तो निरंतर समाधि रहती है। जिन्हें शुद्धात्मा पद प्राप्त है, वे निरंतर स्वरूप में ही रहते हैं, उन्हें हर अवस्था में समाधि रहती है, क्योंकि वे तो प्रत्येक अवस्था को 'देखते' हैं और 'जानते' हैं।
यह कैसा है कि यदि आप अन्य किसी के घर में घुस जाएँ, तो
संसार और ब्रह्म यह संसार सत्य होगा या इल्यूजन (मिथ्या)? प्रश्नकर्ता : इल्यूजन।
दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। देखिए, मैं आपको समझाता हूँ कि इल्यूजन क्या है? इल्यूजन यानी पानी दिखाई दे, और धोती ऊपर करके चले, पर धोती भीगे नहीं, चारों और आग ही आग दिखाई दे, पर जले नहीं। वह इल्यूजन कहलाता है। कुछ कहते हैं, 'ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या'। यदि मिथ्या है, तो अंगारों में हाथ डालकर देख न? तुरंत ही मालूम हो जाएगा कि मिथ्या है कि नहीं? यदि मिथ्या होता, तो यदि किसी ने कहा हो, 'चंदूलाल में अक्ल नहीं है, तो वह बात वहीं की वहीं मिथ्या सिद्ध हो जानी चाहिए। मिथ्या किसे कहते हैं कि वही की वही, उसी क्षण उसका असर, इफेक्ट साबित हो जाए। उदाहरण के तौर पर, दीवार पर ईंट फेंकी, तो तुरंत ही दीवार पर असर के रूप में गड्ढा होगा या लाल निशान तो बन ही जाएगा। इसी प्रकार रात दो बजे
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आप्तवाणी - १
'चंदूलाल' के जागते ही इफेक्ट शुरू हो जाता है 'मुझे ऐसा कहा था, ' तो फिर उसे मिथ्या कैसे कहा जाए? हम कहते हैं कि संसार भी सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। संसार रिलेटिव सत्य है और ब्रह्म रियल सत्य है। यह हमारी त्रिकाल सत्वाणी है। संसार का यह रिलेटिव, सत्य कब असत्य हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता। ऑल दीज रिलेटिव्ज़ आर टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट्स और ब्रह्म रियल सत्य है, परमानेन्ट है, शाश्वत है। मन-वचन-काया का भूतावेश
प्रत्येक मनुष्य को मन-वनच काया, इन तीनों का भूतावेश है। इसलिए वह बोलता है, 'मैं चंदूलाल हूँ, कलक्टर हूँ, इसका इसका स्वामी हूँ, इसका बाप हूँ।' भैया ! क्या सदा का कलेक्टर है? तब कहे, 'नहीं रिटायर होनेवाला हूँ न ?' तो यह नया भूतावेश. कोई शराबी शराब पीकर गटर में लुढ़ककर क्या बोलता है, 'मैं सयाजीराव गायकवाड़ हूँ, मैं राजा हूँ, महाराजा हूँ।' इस पर हम समझ जाते हैं कि वह नहीं बोल रहा है। पर यह शराब का नशा बोल रहा है। वैसे ही मन वचन काया के तीन भूतों का भूतावेश है। इसलिए उनका अमल (नशा) बोल रहा है, 'मैं चंदूलाल हूँ, कलक्टर हूँ' और उसके नशे में वह झूमता है।
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एक सत्य घटना बताता हूँ। काशी नाम की एक महिला थी जो पड़ोसनों के साथ हँसी-ठिठोली कर रही थी और फिर एकदम से वह आवेश में हिलने लगी और विचित्र रूप से आँखें घुमाने लगी। इससे सभी घबरा गए। उनमें से एक ने कहा, 'इसे तो भूतावेश है, ओझा को बुलाइए।' उसका पति फिर ओझा को बुला लाया। ओझा ने तो देखते ही भाँप लिया कि इसे भूतावेश है। इसलिए उसने तो सट सट चाबुक मारना शुरू कर दिया। वह महिला चिल्लाने लगी। तब ओझा ने पूछा, 'कौन है तू?' काशी ने जवाब दिया, 'आई एम चंचल, आई एम चंचल ।' ओझा समझ गया। उसने पूछा, 'क्यों आई है तू?' इस पर काशी बोली, 'इस काशी ने मेरे पति को अपने रूप में फँसाया है।' अरे! काशी को तो अंग्रेजी की ए-बी-सी-डी तक नहीं आती और यह फर्राटे से अंग्रेजी
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आप्तवाणी - १
कैसे बोल रही है, 'आई एम चंचल, आई एम चंचल।' फिर जाँचपड़ताल करने पर पता चला कि चंचल अंग्रेजी पढ़ी-लिखी थी और अच्छी अंग्रेजी बोलती थी। फिर ओझा ने उसे मारा, बहलाया, फुसलाया और फिर उसके बताए अनुसार चीजें गाँव के सीमावर्ती बरगद के पेड़ के कोटर में छोड़ आया और चंचल को भूतावेश से मुक्ति दिलाई।
ऐसा है यह भूतावेश। चंचल तो चली गई, पर वह साँटे बनी रहीं । मार के निशान बने रहे काशी के शरीर पर उस बेचारी को जलन और पीड़ा होती रही, घाव भरने तक ।
ये मन-वचन-काया के तीन भूत जो आपको लगे हैं, उनके हम ओझा हैं। उन तीनों के भूतावेश से हम आपको मुक्त करा देते हैं। हाँ, जब तक घाव भरेंगे नहीं, तब तक उनका असर रहेगा, पर भूतों से आप सदा के लिए मुक्त हो जाएँगे।
ये मन-वचन-काया भूतावेश हैं, इतना यदि तू समझ गया, तो पैंतालीस में से पच्चीस आगम (जैनों के शास्त्र) तूने पढ़ लिए।
घर-गृहस्थी, बीवी-बच्चे या कपड़े छोड़ना ज़रूरी नहीं है। इन तीनों भूतों का भूतावेश है, उनसे ही छूटने की ज़रूरत है।
आगम निगम
आगम (शास्त्र) तो बिना गुरु के पढ़े ही नहीं जाने चाहिए। आगम की गम ( समझ), ज्ञानी को ही होती है। खुद अगम, उसे आगम की थाह कैसे मिले? हमें तो आगम निगम सब सुगम ही होते हैं।
पूरण- गलन
रिअल 'मैं' को खोज निकाल। 'मैं, मैं क्या करता है? यह बकरी भी 'मैं-मैं' करती है और तू भी 'मैं हूँ, मैं हूँ' करता है। ऐसा किसे कहता है ? इस देह को, देह तो पूरण- गलन है। चढ़ना-उतरना तो संसार का स्वभाव है। हर किसी का मानना है कि पैसे जमा करने चाहिए। पर वह
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
२७ भी तो पूरण-गलन ही है। बैंक में दो अकाउन्ट होते हैं या एक? दो, ! क्रेडिट और डेबिट ! तब भैया तू अकेला क्रेडिट ही क्यों नहीं रखता? नहीं रख सकते। नियम से ही, जिस-जिसका पूरण होता है, उसका गलन होना ही है। हम जो खाते हैं, वह पूरण है और संडास जाते हैं, वह गलन है। पानी पीते हैं, वह पूरण है और बाथरूम जाते हैं, वह गलन है। मन में विचारों का आना-जाना भी पूरण-गलन ही है। ___भोजनालय-शौचालय, पूरण-गलन और शुद्धात्मा ! इसके अलावा ज्ञानी को इस संसार में कुछ दिखता ही नहीं। भोजना यानी भोगने की. इस्तेमाल करने की वस्तु, शौचालय यानी भोगने के बाद छोड़ देने की वस्तु। शेष रहा, वह पूरण-गलन और शुद्धात्मा। इसमें सभी का समावेश हो जाता है।
यह तो अकर्मी खाता ही रहता है, और फिर जुलाब हो जाता है। यदि इस प्रकार उसका गलन नहीं हो तो? गैस और अपच। वैसा ही हाल पैसों का होनेवाला है, इसका किसी को भी भान नहीं है। किसी भी प्रकार का गलन नहीं हुआ हो, ऐसा कोई हो, तो उसे खोज निकालिए। महीसागर नदी भी नर्मदा से कहती है, मेरे यहाँ जल खूब आता है और जाता है। पर गरमी का मौसम आते ही वहाँ भी आरपार (सूखा)। मैंने कईं डॉक्टरों से पूछा हुआ है कि ये जो नाखून बढ़ते हैं, उनका क्या कारण है? इस पर वे चाहे जो कहते हैं, कैल्शियम के कारण आदि। मगर ऐसा नहीं है। सही अर्थों में तो वह गलन ही है। आहार में हड्डियों के सांयोगिक प्रदार्थ आ मिलते हैं। जिससे हड्डियों का पूरण होता रहता है। उसका नाखूनों के जरिए फिर गलन होता है। जो निरुपयोगी होता है, उसका गलन नियम से ही हो जाता है। वैसे ही इस देह में भी परमाणुओं का पूरण-गलन होता ही रहता है। मनुष्य दस साल का था, तब उस देह में जो परमाणु थे, उनमें से एक भी परमाणु पच्चीसवें साल के देह में नहीं होते। पुराने परमाणुओं का गलन होता है और नये का पूरण होता है। पूरण-गलन की परंपरा अविरत रूप से चलती ही रहती है।
पाप का पूरण करते हैं, फिर जब उसका गलन होगा, तब पता चलेगा। तब तुम्हारे छक्के छूट जाएँगे। अंगारों पर बैठे हों ऐसा अनुभव होगा। पुण्य का पूरण करेगा और जब उसका गलन होगा, तब जानोगे कि कैसा अनोखा आनंद आता है? अतः जिस-जिसका पूरण करो, तब सोच-विचारकर करना कि गलन होने पर परिणाम क्या होगा! पूरण करते समय निरंतर ख्याल रखना। पाप करते समय, किसी से धोखा करके पैसा जमा करते समय निरंतर ख्याल रखना कि उसका भी गलन होनेवाला है। वह पैसा बैंक में रखोगे, तो वह भी जानेवाला तो है ही। उसका भी गलन तो होगा ही, परन्तु वह पैसा जमा करते समय जो पाप किया, जो रौद्रध्यान किया, वह उसकी दफाओं के साथ आनेवाला है। जब उसका गलन होगा, तब तुम्हारा क्या हाल होगा? किसी के रोकने से लक्ष्मीजी रुकनेवाली नहीं हैं। लक्ष्मीजी तो भगवान की पत्नी हैं। उन्हें भी रोककर रखने में लगे हो? पहले गौने के लिए आई बहू को यदि ससुराल से वापस मायके नहीं जाने दें, तो क्या हाल होगा उस बेचारी का? ऐसा व्यवहार लोग लक्ष्मीजी के साथ करने लगे हैं। इसलिए लक्ष्मीजी भी अब ऊब गईं हैं। बड़ौदा के स्टेशन पर जब लक्ष्मीजी हमें मिलती हैं, तब हाथ जोड़कर कहते हैं कि मामा की पोल और छठा घर, जब पधारना चाहें पधारिए और जब जाना चाहें तब चले जाना। वे हमसे कहती हैं कि मैं सेठ लोगों से अब बहुत ही त्रस्त हो गई हूँ इसलिए अब मैं आपके महात्माओं के घर ही जाऊँगी, क्योंकि आपके महात्माओं के वहाँ जाती हँ, तब फूलमाला से मेरा स्वागत करते हैं और वापस लौटती हैं, तब भी फूलमाला पहनाकर बिदा करते हैं। जो-जो लोग मुझे रोककर रखते हैं, अब मैं वहाँ नहीं जाऊँगी और जो लोग मेरा तिरस्कार करते हैं, वहाँ पर तो आगे कितने ही जन्मों तक मैं पैर तक नहीं रखंगी। रुपये तो आते हैं और जाते हैं। दस साल के बाद वह लक्ष्मी नहीं रहती। वह तो परिवर्तित होती ही रहती है।
सारा का सारा संसार आकुलता और व्याकुलता में ही फँसा हुआ है। फिर चाहे वह त्यागी हो या संसारी, निराकुलता किसी जीव को होती
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
दुःख दे दें, तो हमारे पास क्या बचेगा? पर उसे खुद मालूम नहीं कि वह खुद ही अनंत सुख का कंद है। अत: द:ख अर्पण कर देगा, तो निरा अपार सुख ही बचेगा, पर किसी को दु:ख अर्पण करना भी नहीं आता।
ही नहीं है। निराकुलता तो 'स्वरूप' का भान होने के बाद ही उत्पन्न होती है। क्रमिकमार्ग में निराकुलता की प्राप्ति अर्थात् सारा संसार रूपी समुद्र पार करके सामनेवाले किनारे पर पहुंचे, तब निराकुलता का किनारा आता है, कितनी मेहनत करनी पड़ती है? इस अक्रममार्ग में तो, यहाँ हमने आपके सिर पर हाथ रख दिया कि सदा के लिए निराकुलता उत्पन्न हो जाती है।
सांसारिक विघ्न निवारक 'त्रिमंत्र' मंत्र के सही अर्थ क्या है? मन को शांत रखे, वह । भगवान की भक्ति करते हुए संसार में विघ्न न आएँ, इसलिए भगवान ने तीन मंत्र दिए थे। १. नवकार मंत्र २. ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ३. ॐ नमः शिवाय। उसमें भी अहंकारी लोगों ने नये-नये संप्रदाय रूपी बाड़ बनाकर, मंत्रों को भी बाँट लिया। भगवान ने कहा था कि तुम अपनी सहूलियत के लिए चाहो, तो मंदिर-जिनालय बाँट लेना, पर मंत्रों को तो साथ ही रखना। पर उन्हें भी इन लोगों ने बाँट लिया। अरे! ये लोग तो यहाँ तक पहुँचे कि एकादशी भी बाँट ली। शिव की अलग और वैष्णवों की अलग। इसमें भगवान कैसे राजी रहें? जहाँ मतभेद और कलह होता हो, वहाँ भगवान नहीं होते। हमारे द्वारा दिए गए इस त्रिमंत्र में तो गज़ब की शक्ति है। माँगे तो मेह बरसे, ऐसा है। सभी देवी-देवता राजी रहते हैं और विघ्न नहीं आते। सूली का घाव सूई जैसा लगता है। संपूर्ण रूप से निष्पक्षपाती
__'मनुष्य रूपेण मृगाश्चरंति' ऐसा कहीं लिखा है। इसमें मारे डर के मृग शब्द का प्रयोग किया गया है, अब ३२ अंक पर गधा होता है और ३३ अंक मनुष्य होता है। तो एक अंक तो देह में खर्च हो गया, फिर रहा क्या शेष? गुण तो गधे के ही न? दिखता मनुष्य है, पर भीतरी गुण पाशवी होते हैं, मतलब वह पशु ही है। हम साफ कह देते हैं. क्योंकि हमें न तो कुछ चाहिए, न कोई लालच है। हमें तो केवल आपका हित ही देखना है। आपके ऊपर हमारी अपार करुणा होती है, इसलिए हम नग्न सत्य बता देते हैं। इस दुनिया में हम अकेले ही नग्न सत्य बताते
चिंता और अहंकार श्रीकृष्ण कहते हैं:
जीव तू शीदने शोचना करे, (जीव तू काहे शोच करे,) कृष्णने करवू होय ते करे। (कृष्ण को करना हो सो करे।)
तब ये लोग क्या कहते हैं? कृष्ण को तो जो कहना हो सो कहा करें, पर हमें यह संसार चलाना है, इसलिए बिना चिंता किए थोड़े ही काम होगा? लोगों ने चिंता के कारखाने निकाले हैं। पर माल भी बिकता नहीं है, कैसे बिकेगा? जहाँ बेचने जाएँ वहाँ भी चिंता का ही कारखाना होता है न? इस संसार में ऐसा एक भी मनुष्य खोज लाइए कि जिसे चिंता नहीं होती हो।
यह हमारा दिया हुआ त्रिमंत्र, सुबह में हमारा चेहरा (दादाजी का) याद करके पाँच बार बोलोगे, तो कभी डबोगे नहीं और धीरे-धीरे मोक्ष भी मिलेगा। इसकी हम जिम्मेदारी लेते हैं।
हम तो कहते हैं कि सारे संसार के दु:ख हमें हों। आपकी यदि शक्ति है, तो जरा-सा भी अंतरपट रखे बगैर, आपके सारे दु:ख हमारे चरणों में अर्पण कर जाइए। फिर यदि दु:ख आए, तो हमसे कहना। पर इस काल में मुझे ऐसे भी लोग मिले हैं, जो कहते हैं कि आपको यदि
एक ओर कहते है 'श्री कृष्ण शरणं ममः' और दूसरी ओर कहते हैं, 'हे कृष्ण ! मैं तेरी शरण में हूँ।' यदि कृष्ण की शरण ली है, तो फिर चिंता क्यों? महावीर भगवान ने भी चिंता करने को मना किया है। उन्होंने तो एक चिंता का फल तिर्यंचगति बताया है। चिंता तो सबसे बड़ा अहंकार
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
नाशवंत चीज़ मत माँगना। सदैव रहे ऐसा सुख माँग लेना।
परसत्ता के उपयोग करने से चिंता होती है। परदेश की कमाई परदेश में ही रहेगी। ये मोटर, बंगले, मिलें, बीवी-बच्चे सब यहीं छोड़कर जाना हैं। अंतिम स्टेशन पर तो किसी के बाप का भी चलनेवाला नहीं है न? मात्र पुण्य और पाप साथ में ले जाने देंगे। दूसरी सादी भाषा में तुझे समझाऊँ, तो तूने यहाँ जो-जो गुनाह किए होंगे, उनकी धाराएँ साथ जाएँगी। गुनाहों की कमाई यहीं रहेगी और फिर मुकदमा चलेगा। उन धाराओं के आधार पर नई देह प्राप्त करके, फिर से नये सिरे से कमाई करके कर्ज चुकाना होगा। इसलिए, पहले से ही सावधान हो जा न! स्वदेश में (आत्मा में) तो बहुत ही सुख है, पर स्वदेश देखा ही नहीं है न?
है। 'मैं ही यह सब चलाता हूँ' ऐसा भीतर रहा करता है, उसके फल स्वरूप चिंता खड़ी होती हैं।
भगवान का सच्चा भक्त तो चिंता होने पर भगवान को भी डाँटे कि आप ना कहते हैं, फिर भी मुझे चिंता क्यों होती है? जो भगवान से लड़ता नहीं, वह भगवान का सच्चा भक्त नहीं है। यदि कोई झंझट पैदा हो, तो आपके भीतर के भगवान से लड़ना, झगड़ना। भगवान को भी डाँटे वह सच्चा प्रेम है। आज तो भगवान का सच्चा भक्त मिलना ही मुश्किल है। सभी अपनी-अपनी ताक में लगे हैं।
मैं ही करता हूँ, मैं ही करता हूँ' ऐसा किया करते हैं, इसलिए चिंता होती है। नरसिंह महेता क्या कहते हैं। 'हुं कई, हुं करुं ए ज अज्ञानता, शकटनो भार ज्यम श्वान ताणे,
सृष्टि मंडाण छे सर्व एणी पेरे, जोगी जोगेश्वरा कोक जाणे।' मैं करता हूँ, मैं करता हूँ' यही अज्ञानता, शकट (बैलगाड़ी) का भार
ज्यों श्वान (कुत्ता) ढोए, सृष्टि प्रारंभ हुई सर्व उसी तरह, योगी योगेश्वरा कोई ही जानें।)
यह पढ़कर योगी फूले नहीं समाए। मगर भैया, यह तो आत्मयोगी और आत्मयोगेश्वर के लिए कहा गया है। आत्म-योगेश्वर तो हजारों-लाखों वर्षों में एक प्रकट होता है। वह अकेला ही सारे ब्रह्मांड के प्रत्येक परमाणु में घूम आया होता है और ब्रह्मांड में और ब्रह्मांड के बाहर रहकर प्रत्येक परमाणु से अवगत होकर, देखकर बोलता है। वह अकेला ही जानता है कि यह संसार किस ने बनाया. कैसे बना और कैसे चल रहा है? 'हम इस काल के योगेश्वर हैं।' इसलिए तू अपना काम निकाल ले। एक घंटे में तो तेरी सारी की सारी चिंताएँ मैं ले लेता हैं और गारन्टी देता हूँ कि एक भी चिंता हो, तो वकील रखकर मेरे ऊपर कोर्ट में केस चलाना। ऐसे चौदह सौ महात्माओं को हमने चिंतारहित किया है। अरे ! तू माँग, माँगे सो दे सकता हूँ, पर ज़रा सीधा माँगना। ऐसा माँगना कि जो कभी तेरे पास से जाए नहीं। कोई
ये हमारे बाल तक हमारे नहीं हुए, तो और क्या होगा हमारा? फिर भी अकर्मी सारा दिन सिर पर हाथ फेरता रहता है।
चिंता ही अहंकार है। किसी बच्चे को चिंता क्यों नहीं होती? क्योंकि वह जानता है कि मैं नहीं चलाता। कौन चला रहा है, इसकी उसे परवाह भी नहीं है। और ये सारे चिंता करते हैं, वह भी पड़ोसी को देखकर। पड़ोसी के घर गाड़ी और अपने घर में नहीं! जीवन निर्वाह के लिए कितना चाहिए? तू एक बार निश्चित कर ले कि इतनी इतनी मेरी आवश्यकताएँ है। उदाहरणार्थ, घर में खाना-पीना पर्याप्त होना चाहिए, रहने को घर चाहिए, घर चलाने के लिए पर्याप्त मात्रा में धन चाहिए। फिर उतना तो तुझे मिल ही जाएगा। पर यदि पड़ोसी के बैंक में दस हजार जमा हो, तो तुझे अंदर चुभता रहता है। इससे तो दु:ख पैदा होते हैं। तू खुद ही दुःख को न्यौता देता है।
एक जमींदार मेरे पास आया और मुझसे पूछने लगा कि जीवन जीने के लिए कितना चाहिए? मेरी हजार बीघा जमीन है, बंगला है, दो कारें है और बैंक बैलेन्स भी खासा है। इसमें से मुझे कितना रखना चाहिए? मैंने कहा, 'देख भैया प्रत्येक की ज़रूरत कितनी होनी चाहिए
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
ध्यान-अपध्यान : जो चारों ध्यान में नहीं समाए, वह अपध्यान। पहले लोगों को अपध्यान रहते थे, पर अब तो चपरासी तक को अपध्यान रहता है। इन लोगों को यदि आज नहीं, तो फिर मेरे जाने के बाद मेरे वाक्य थरथराएंगे (चेतावन रूप बनेंगे)।
अपध्यान तो दुर्ध्यान से भी निम्न कक्षा का है। अपध्यान इस काल में ही उत्पन्न हुआ है। जो ध्यान रौद्र, आर्त और धर्मध्यान में समाविष्ट नहीं होता, वह अपध्यान।
इसका ख्याल उसके जन्म के समय कितना वैभव था, इस पर से आता है। इसके आधार पर तू सारी जिन्दगी का प्रमाण तय करना। यही नियम है, दरअसल। बाकी तो सब एक्सेस (ज़रुरत से ज्यादा) में जाता है और एक्सेस तो ज़हर है, मर जाएगा।'
प्राप्त को भोगो कृष्ण भगवान ने क्या कहा है, 'प्राप्त को भोग, अप्राप्त की चिंता मत करना।' मैं एक बार अहमदाबाद में एक सेठ के घर गया। सेठानी ने मिष्ठान के साथ सुंदर रसोई बनाई। फिर मैं और सेठ भोजन करने बैठे। सेठानी सेठ से कहने लगी, 'आज तो ठीक से भोजन कीजिए।' मैंने पूछा, 'क्यों ऐसा कहती हो?' तब सेठानी बोली, 'अरे! यह तो यहाँ जो भोजन कर रहा है वह तो शरीर है और 'सेठजी' तो मिल में गए होते हैं! कभी भी ठीक से भोजन नहीं करते।' ऐसा क्या! अरे, यह थाली इस समय जो प्राप्त हुई है, उसे आराम से भोगो न? मिल अभी अप्राप्त है उसकी चिंता क्यों? भूत और भविष्य दोनों ही अप्राप्त हैं। वर्तमान प्राप्त है, उसे आराम से भोगो। अरे! ये लोग तो इस हद तक पहुँचे हैं कि चार साल की लड़की के ब्याह की चिंता आज से करते हैं। यहाँ तक कि वह मृत्युशैय्या पर पड़ा हो, और घरवालों ने दिया वगैरह जला रखा हो, और वह खुद अंतिम साँस ले रहा हो, तब बेचारी बिटिया भी आकर कह जाती है कि पिताजी आप चैन से जाइए, मेरी चिंता मत करना। तब वह कहता है, 'तू क्या समझेगी इसमें?' मन में ऐसा समझता है कि अभी बच्ची है, नादान है इसलिए ऐसा कहती है। लीजिए, यह मूर्ख! बुद्धि का बोरा ! बाजार में बेचने जाएँ तो कोई चार आने भी न दे।
आत्मा जैसा चिंतन करें, वैसा तुरंत ही फल तुरंत मिलता है। एकएक अवस्था में एक-एक जन्म बाँधे, ऐसा है यह सब।
ध्यान और अपध्यान
शुक्लध्यान तो इस काल में है ही नहीं, ऐसा शास्त्रों का कथन है। इन चारों ध्यानों में जो नहीं समाता, वह अपध्यान।
छूटने हेतु किए गए ध्यान को पद्धति अनुसार नहीं किया. वह अपध्यान में गया। सामयिक करते समय ध्यान रहता है कि 'मैंने किया,' कहता भी है कि 'मैंने किया और फिर बार-बार घड़ी देखता रहता है। ऐसे बार-बार घड़ी देखा करे, वह ध्यान कैसे कहलाए?
रौद्रध्यान : रौद्रध्यान किसे कहते हैं? ये व्यापारी एक मीटर के बीस रुपये बताते हैं। यदि पूछे कि यह कपडा कौन-सा है? तब वे जवाब देते है, 'टेरेलीन'। ग्राहक को उसका भाव बीस रुपये प्रति मीटर बताते हैं और फिर कपड़ा नापते समय क्या करते हैं? कपड़ा खींचकर नापते हैं। यह जो 'व्यायाम' किया, वह रौद्रध्यान है। ग्राहक को नाप से थोड़ासा भी कम देकर, सामनेवाले के साथ बनावट करके, उसके हिस्से का हथिया लेना, वह रौद्रध्यान है। ज़रूरत से ज्यादा लेना या फिर नापतोल में गड़बड़ करके हथियाना, यह सब रौद्रध्यान ही है। ये जो मिलावट करते हैं, वह भी रौद्रध्यान ही है। अपने सुख के लिए दूसरे का किंचित् मात्र सुख ले लेना, छीन लेने का विचार करना, रौद्रध्यान है। नियम क्या कहता है? तू पहले से ही पंद्रह या बीस प्रतिशत मुनाफा चढ़ाकर व्यापार करना। इसके उपरांत भी यदि तू कपड़ा खींचकर नापता है, वह गुनाह है। भयंकर गुनाह है। सच्चे जैन को तो रौद्रध्यान होता ही नहीं है।
जैसे एक्सीडेन्ट रोज़ नहीं होता, वैसे ही रौद्रध्यान भी कभी कभार
भगवान ने कहा है कि जीव मात्र चार प्रकार के ध्यान में ही रहा करते हैं। रौद्रध्यान, आर्तध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
ही होना चाहिए। यह क्रोध करना, गालियाँ देना, क्लेश करना वह सब रौद्रध्यान ही है। भगवान ने (केवली भगवंतो ने) रौद्रध्यान बहुत ही कम से कम करने को कहा है। जब कि आज तो यही मुख्य व्यापार है। आचार्य, गुरुजन, अपने से कम अक्लवाले शिष्यों पर चिढ़ते रहते हैं, वह भी रौद्रध्यान है। मन में चिढ़ना भी रौद्रध्यान है। तब आज तो बात-बात में मुँह से अपशब्द निकालते हैं!
रौद्रध्यान का फल क्या? नर्कगति!
आर्तध्यान : आर्तध्यान अर्थात् खुद के ही आत्मा को पीड़ादायक ध्यान। बाहर के किसी जीव को असर नहीं करे, मगर खुद अपने लिए अग्रशोच किया करे, चिंता करे, वह आर्तध्यान। रौद्रध्यान की तुलना में फिर भी कुछ अच्छा कहलाता है। सामनेवाले को तनिक भी असर नहीं करे। आर्तध्यान में क्रोध-मान-माया-लोभ नहीं होते। पर इस काल में आर्तध्यान नहीं होता। इस काल में मुख्य रूप से रौद्रध्यान ही होता है। सत्युग में पाँच प्रतिशत होता है। दस साल की बेटी के ब्याह की चिंता करे, वह आर्तध्यान। अप्रिय महेमान आएँ, और भीतर भाव बिगड़ें कि ये जाएँ तो अच्छा, वह आर्तध्यान। और यदि 'प्रिय व्यक्ति' अर्थात् अर्थ संबंध या विषय संबंध हो, ऐसा कोई आए और 'वह नहीं जाए' ऐसी इच्छा करे, वह भी आर्तध्यान। शिष्य अच्छा नहीं मिला हो, और गुरु उस पर अंदर ही अंदर अकुलाया करे, वह भी आर्तध्यान।
आर्तध्यान का फल क्या? तिर्यंचगति।
धर्मध्यान : सारा दिन चिंता नहीं हो और अंतरक्लेश शमित रहे, वह धर्मध्यान। धर्मध्यान अर्थात् रौद्रध्यान या आर्तध्यान में वे कभी भी न रहे और निरंतर शुभ में ही रहे। वे निडर, धीरजवान, चिंतारहित होते हैं और कभी भी अभिप्राय नहीं बदलते। स्वरूप का भान भले ही न हो, उस पर भगवान को आपत्ति नहीं है, पर सदा क्लेश रहित रहो, अंदर (भीतर) और बाहर (व्यवहार)।
इस काल में धर्मध्यान बहुत ही कम लोगों को होता है। सौ में
से दो-पाँच मिलेंगे ऐसे। क्योंकि आज के इस विकराल कलियुग में चिंता-झंझट अकेले संसारी वर्ग को ही नहीं, पर साधु-साध्वी, आचार्यों, बाबाओं आदि सभी को रहा ही करती है। अरे! कुछ न हो, तो शिष्यों पर भी अकुलाते रहते हैं।
धर्मध्यान का फल क्या? सिर्फ धर्मध्यान रहा. तो उसका फल देवगति, और धर्मध्यान के साथ आर्तध्यान हो, तब उसका फल मनुष्यगति।
शक्लध्यान : शुक्लध्यान के चार चरण। आत्मा का अस्पष्ट वेदन रहे, वह पहला चरण। दूसरे चरण में आत्मा का स्पष्ट वेदन रहता है। 'हमारा' पद वह दूसरे चरण का शुक्लध्यान है। केवली भगवान का पद, तीसरे चरण का शुक्लध्यान है और चौथे चरण में मोक्ष ।
स्पष्ट वेदन यानी परमात्मा संपूर्ण जान लिया, पर सारे ज्ञेय नहीं झलकते। संपूर्ण केवलज्ञान में सारे ज्ञेय झलकते हैं।
अस्पष्ट वेदन यानी, इस कमरे में, अंधेरे में बर्फ पड़ी हो और उसे छूकर पवन आती हो, तो पवन ठंडी लगती है। इससे पता चलता है कि यहाँ बर्फ है और आत्मा का स्पष्ट वेदन का मतलब तो, बर्फ को कर ही बैठे हों, ऐसा अनुभव होता है।
हमने आपके, हमारे और केवली भगवान के बीच में ज्यादा अंतर नहीं रखा है। कालवश हमारा केवलज्ञान रुका है, इसलिए चार डिग्री शेष रह गया। ३५६ डिग्री पर अटका हुआ है, पर हम आपको देते हैं 'संपूर्ण केवलज्ञान'।
शुक्लध्यान का फल क्या? मोक्ष।
हम खटपटिया वीतराग हैं, संपूर्ण वीतराग (राग-द्वेष से मुक्त) नहीं हैं। हम एक ही ओर वीतराग नहीं हैं। अन्य सभी ओर से संपूर्ण वीतराग हैं। हम 'खटपटिया', यानी फलाँ से कहेंगे कि आइए आपको मोक्ष दें। मोक्ष देने हेतु सभी तरह की खटपट कर लेते है।
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गतिफल - ध्यान और हेतु से भगवान क्या कहते हैं? हम तेरी क्रियाओं को नहीं देखते हैं। वह तो उदयकर्म ही करवाता है। किन्तु सामायिक करते, प्रतिक्रमण करते, तेरा ध्यान कहाँ रहता है, उसको ही देखा जाता है। सामायिक करता हो मगर ध्यान तो घड़ी पर हो या शिष्य के ऊपर चिढ़ता रहता हो और ऊपर से कहता है कि मैंने सामायिक किया।
भगवान महावीर के सामने आचार्य महाराज बैठे थे। उन्हें ज्ञान (आत्मज्ञान) दिया था। केवल एक 'व्यवस्थित' का ही ज्ञान नहीं दिया था। वे महाराज सामायिक में बैठे थे। तब अन्य महात्माओं ने पूछा, 'महाराज, इन आचार्य की क्या गति होगी?'
भगवान बोले, 'इस समय देवगति में जाएँगे।'
थोड़ी देर बाद फिर से किसी ने पूछा 'महाराज, अब इस समय ये आचार्य को कौन-सी गति होगी?'
यदि उसमें 'खद' तन्मयाकार हुआ. तो वहाँ हस्ताक्षर कर दिए। पर तन्मयाकार नहीं हो और जागृति रखें और जो चित्रीकरण होता हो, उसे केवल देखा करता है और जाने तो उस चित्रीकरण से मुक्त ही है।
एक व्यापारी कपड़ा खींचकर नापता है और ऊपर से खुश होता है कि मैं व्यापार में कितना होशियार हूँ, मैं कितना कमाता हूँ। पर उसे मालूम नहीं कि वह नर्कगति बाँध रहा है, क्योंकि यह उसका रौद्रध्यान है। अब दूसरा व्यापारी भी कपड़ा खींचकर देता है, उसी ही ध्यान से। पर मन में उसे अपार पश्चाताप रहता है कि यह गलत करता हूँ। महावीर का भक्त ऐसा नहीं करता। वह तिर्यंच गति बाँधता है। क्रियाएँ समान हैं, पर ध्यान अलग-अलग होने से गति अलग-अलग होती है।
इस काल में स्वरूप का ज्ञान तो किसी को है ही नहीं। यदि कोई धर्म समझता होता, तो भी धर्मध्यान रहता, अथवा तो धर्मध्यान हो सकता था। आज जो ये लौकिक धर्म हैं, वे भी मूल नींव (सिद्धांत) पर नहीं है। इसलिए संसार के लोगों को धर्मध्यान भी नहीं है। केवल आर्त और रौद्रध्यान में ही हैं। संसार के लोग कहते हैं कि सेठ ने तो पचास हजार का दान किया, बहुत अच्छा किया। पर सेठ के मन में क्या होता है कि यदि यह नगरसेठ के दबाव में नहीं आया होता, तो हमें देना नहीं पड़ता। यह तो ज़बरदस्ती देने पड़े। इस तरह रौद्रध्यान करता है, नर्कगति बाँधता है। दूसरे मनुष्य के पास पैसा नहीं है फिर भी ऐसा ध्यान धरता है कि कब मेरे पास पैसे आएँ, और कब धर्म में दो पैसे खर्च करूँ? अतः वह बिना दान किए ऊर्ध्वगति बाँधता है। और उस मुर्ख ने तो पचास हजार देकर भी नर्कगति का ध्यान किया।
बुद्धि के उपयोग की मर्यादा ये लोग बुद्धि का गलत उपयोग करके, ट्रिक-चालाकी करके जो पैसा कमाते हैं, वह तो बहुत बड़ा गुनाह है। जितनी ट्रिकें (दांव-पेच) करीं, उतना हार्ड (भारी) रौद्रध्यान। ट्रिक यानी सामनेवाले की कम बुद्धि का अपनी अधिक बुद्धि से फायदा उठाना।
तब भगवान बोले, 'अधोगति में जाएँगे।'
उसके पंद्रह मिनिट बाद फिर पूछा, 'इस समय अब कौन-सी गति में जाएँगे?'
तब भगवान ने कहा, 'अब मोक्ष में जानेवाले है।'
'ऐसा क्यों भगवान? यह संपूर्ण ध्यान में हैं, फिर ऐसा क्यों?' तब भगवान ने कहा, 'हमें जो दिखाई देता है, वह तुम्हें दिखाई नहीं देता और तुम्हें जो दिखाई देता है, उसे हम देखते नहीं है। देखो, वह सामायिक में बैठा तो था, पर उसका ध्यान कहाँ बरतता है, उसे हम ही देख सकते हैं। पहले ध्यान में देवगति का चित्रीकरण (चिंतनधारा) था। दूसरी बार नर्कगति का चित्रीकरण था। फिर उसने संदर चित्रित करना (चिंतन करना) शुरू किया। भीतर फ़ोटो अच्छी निकलने लगी, जो मोक्ष में जाए ऐसी थी।' ध्यान पर फल का आधार है। चित्रित करता है पुद्गल, परंतु
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बुद्धि तो संसारानुगामी है, कभी भी मोक्ष में जाने नहीं देगी। कृष्ण भगवान ने भी बुद्धि को 'व्यभिचारिणी' बताया है। बुद्धि संसार में ही खूपाकर रखती है, निकलने नहीं देती। 'स्व' का संपूर्ण अहित करती है। जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती है वैसे-वैसे संताप बढ़ता जाता है। दो साल के बच्चे की माँ मर जाए, तो उसे कुछ होगा? और बाईस साल के लड़के की माँ मर जाए, तो उसे कितना दु:ख होता है? ऐसा क्यों? बुद्धि बढ़ी इसलिए।
भगवान ने क्या कहा कि संसार में बुद्धि का उपयोग ही नहीं करना होता और यदि खर्च करनी पड़े, तो उसकी लिमिट (सीमा) बाँध दी है। कितनी लिमिट कि यदि बड़े पथ्थर के नीचे तेरा हाथ दब गया हो, तो उसे युक्तिपूर्वक निकाल लेना और फिर से नहीं दबे, उतनी ही बुद्धि उपयोग में लानी है। मगर लोगों ने तो पैसा कमाने हेतु, कालाबाजारी करने के लिए बुद्धि का उपयोग करना शुरू कर दिया। लोगों को ठगने के लिए बुद्धि का प्रयोग करने लगे। इतना ही नहीं, पर लोगों ने ट्रिकें आजमाना सीख लिया। ट्रिक अर्थात् सामनेवाले को पता नहीं चले, उस तरह उससे बनावट करके, उससे हड़प लेना वह। यह तो भयंकर रौद्रध्यान है। सातवें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।
अविरोध वाणी प्रमाण 'स्याद्वाद' किसे कहते हैं? किसी का भी विरोध सहन नहीं कर पाए, वह स्याद्वाद कहलाए ही कैसे? विरोध लगता है, वह तो सामनेवाले का व्यू पोइन्ट (दृष्टिबिंदु) है। किसी के भी व्यू पोइन्ट को गलत नहीं कहे, किसी का भी प्रमाण नहीं दु:खे, वह स्याद्वाद। ज्ञानी पुरुष को सारे व्यू पोइन्ट मान्य होते हैं। क्योंकि खुद सेन्टर(केन्द्र) में बैठे होते हैं। हम स्याद्वाद हैं। सेन्टर में बैठे हैं।
भगवान ने कहा है कि सामायिक. प्रतिक्रमण. प्रत्याख्यान-जो आत्मिक क्रियाएँ हैं, उन्हें हमारी आज्ञानुसार सरल रहकर करना।
तात्विक दृष्टि से देखा जाए, तो दोष किसी का भी नहीं है। संयोग
ऐसे हैं, इसलिए हमें ऐसा कड़क बोलना पड़ता है। वह भी, सामनेवाले के लिए संपूर्ण करुणाभाव होने के कारण, उसका रोग निकालने के लिए ऐसी वाणी बोलते हैं।
ज्ञानी और धर्म का स्वरूप इस संसार में कितने ही लोग ऐसा कहते हैं कि उनका व्यवहार धर्म है। जब तक निश्चय धर्म प्राप्त नहीं होता, तब तक ऐसा नहीं कह सकते। शुद्धात्मा को पहचाना नहीं है, तब तक व्यवहार धर्म है, ऐसा कैसे कह सकते हैं? निश्चयधर्म और व्यवहारधर्म कब अलग पड़ते हैं कि जब ज्ञानी पुरुष अपनी अनंत सिद्धियाँ खर्च करके, आत्मा और अनात्मा के बीच लाइन ऑफ डिमार्केशन (भेदरेखा) डाल देते हैं, और निरंतर अलग ही रखते हैं, तभी समझ में आता है। यह खुद का क्षेत्र और यह पराया क्षेत्र, ऐसा अलग कर देते हैं। होम और फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट अलग कर देते हैं। जब तक निश्चय धर्म प्राप्त नहीं किया, तब तक व्यवहारधर्म के बारे में कैसे बोल सकते हैं। तब फिर वह क्या कहलाता है? वह तो लौकिक धर्म कहलाता है।
लौकिक धर्म अर्थात् लोगों की मान्यता का धर्म। लोकोत्तर धर्म नहीं। यह धर्म क्या करता है? बुरी आदतें हटाता है और अच्छी आदतें डालता है। लौकिक धर्म तो क्या कहता है कि अच्छा हो वह अपनाना
और अनुचित हो उसे मत अपनाना। वह क्या सिखलाता है कि चोरी नहीं करना, झूठ मत बोलना, जीवन में सुख मिले, अनुकूलता प्राप्त हो ऐसा करना। सारे संसार ने सत्कार्यों को ही सही धर्म माना है। हम उसे लौकिक धर्म कहते हैं। उससे चतुर्गति ही मिलती है। अशुभ में से शुभ में आना, वह लौकिक धर्म-रिलेटिव धर्म है और शुभ में से शुद्ध में आना, वह अलौकिक धर्म है। मोक्ष चाहते हो, तो अलौकिक धर्म में आना ही होगा। अलौकिक धर्म में तो अच्छी आदतें और बुरी आदतें, अनुकूल और प्रतिकूल, अच्छा-बुरा इन सभी से छुटकारा मिलता है और तभी मोक्ष होता है। 'स्वधर्म' ही सच्चा धर्म है, वही आत्मा का धर्म है, वही
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अलौकिक धर्म है। शेष सभी देहधर्म हैं, जो परधर्म, रिलेटिव धर्मलौकिक धर्म कहलाते हैं। रियल धर्म में-अलौकिक धर्म में कहीं संप्रदाय नहीं होते, पंथ नहीं होते, ध्वजा नहीं होती, ग्रहण-त्याग नहीं होता, मतभेद नहीं होते, अलौकिक धर्म निष्पक्षपाती होता है। पक्षपात से कभी मोक्ष नहीं होता।
लोगों को मोक्ष में जाना है और दूसरी ओर मतमतांतर में पड़े रहना है, पक्ष लेना है। मेरा सही है, ऐसा कहकर विपक्षी को गलत ठहरा देते हैं। किसी को भी गलत कहकर तू कभी भी मोक्ष में नहीं जा पाएगा। मतमतांतर छोड़कर, पक्षपोषण छोड़कर संप्रदायों की बाडाबंदी तोड़कर, जब तू सेन्टर (केन्द्र) में आएगा, तभी अभेद चेतन के धाम को प्राप्त करेगा। ऐसा करने के बजाय तूने तो यहाँ पक्ष में पड़कर पक्ष की नींव मजबूत कर दी और उसमें तेरा अनंत जन्मों का संसार बंधन गठित कर दिया। तुझे मोक्ष में जाना है या पक्ष में ही पड़े रहना है? एक ही धर्म में कितने संप्रदाय खड़े हो गए हैं? झगड़े पैदा हो गए! जहाँ कषाय वहाँ मोक्ष नहीं और कषाय को धर्म नहीं कहते। मगर यह तो पक्ष को मजबूत करने हेतु कषाय किए। धर्म को ही रेसकोर्स बना दिया? शिष्यों की स्पर्धा में पड़े! उसके पाँच शिष्य हैं, तो मेरे ग्यारह तो होने ही चाहिए। घर पर बीवी और बच्चे मिलाकर तीन घंट थे, उन्हें छोड़ा और यहाँ ग्यारह घंट लटकाए? फिर सारा दिन शिष्यों के ऊपर चिढ़ता रहता है, अब इसे मोक्ष का साधन कैसे कहें?
ऐसी कड़क वाणी, हमारी वीतरागों की नहीं होती, पर क्या करें? उनके रोग को निकालने के लिए भीतर गहरी वीतरागता के साथ, संपूर्ण करुणाभरी वाणी निकल जाती है! उसमें उनका भी दोष नहीं है, उनकी इच्छा तो मोक्ष में जाने की है पर नासमझी के कारण उलटा हो जाता है। काल ही बड़ा विचित्र आया है। उसकी आँधी की लपेट में सभी आ गए हैं।
हमें तो अपार करुणा होती है। हमें सभी निर्दोष ही दिखाई देते है, क्योंकि हम खुद निर्दोष दृष्टि करके सारे के सारे संसार को निर्दोष देखते हैं।
निर्दोष दृष्टि भगवान महावीर की सभा में एक आचार्य महाराज बैठे थे। उनके मन में ऐसा कैफ़ हो गया कि मैं बहुत ज्ञान जानता हूँ और मैं कुछ जानता हूँ। इसलिए उन्होंने भगवान से पूछा, 'भगवन् आपमें और मुझमें अब क्या अंतर है? मेरे अभी कितने जन्म शेष रहे?' आचार्य महाराज के मन में ऐसा था कि तीन जन्मों में मोक्ष हो जाएगा। भगवान तो ठहरे वीतराग पर अंदर से आचार्य महाराज की बात समझ गए। बोले कि प्रश्न तो अच्छा है, पर दो-पाँच का पुण्योदय हुआ है उन्हें भी बुला लें। गाँव के नगरसेठ, सती, वेश्या, जेबकतरे को बुलाइए और वहाँ एक गधा बाहर खड़ा है उसके बारे में भी आपको बताता हैं। 'हे आचार्य महाराज! मेरे में, आपमें, इस नगरसेठ में, सती में, वेश्या में, जेबकतरे में और उस गधे में जरा-सा भी अंतर नहीं है।' महाराज बोल उठे, 'क्या कहा भगवन् ! आपमें और मुझमें कोई अंतर नहीं? अंतर तो बहुत बड़ा दिखाई पड़ता है न?'
तब भगवान बोले, 'देखिए वह अंतर आपको अपनी दृष्टि से दिखता है। हम आज से तीन जन्म पूर्व ज्ञानी पुरुष के शिष्य हुए थे। उन्होंने हमारी दृष्टि निर्दोष कर दी थी। उस दृष्टि का हमने दो जन्मों में उपयोग किया और इस जन्म में संपूर्ण निर्दोष हुए। दृष्टि संपूर्ण निर्दोष की
और सभी को संपूर्ण निर्दोष देखा। उस निर्दोष दृष्टि से हम कहते हैं कि आपमें, हम में और इन सभी में कोई भी अंतर नहीं है।' आचार्य महाराजने कहा, 'पर प्रभु! हमें तो बड़ा अंतर लगता है। आप सती को
और वेश्या को, नगरसेठ को और जेबकतरे को, मुझे और उस गधे को सभी को एक समान कैसे कहते हैं? हमारी समझ में नहीं आता। यह बात मानने में नहीं आती।' भगवान ने कहा, 'देखिए, आचार्य महाराज ! आपमें, हममें, नगरसेठ में, सती में, वेश्या में, जेबकतरे में और उस गधे में माल एक ही सरीखा है। सभी में एक सौ बीस काउन्ट का एक तोला भर सूत और वह भी एक ही मिल का है। सभी में सरीखा ही है। अंतर केवल इतना ही है कि आप सभी का उलझा हुआ है और मेरी गुत्थियाँ
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सुलझ गई हैं। इन सभी में सबसे कम जन्म उस गधे के होनेवाले हैं, ऐसा हम अपने ज्ञान में देखकर कहते हैं। क्योंकि, आचार्य महाराज, आपने अनेक शास्त्र पढ़े हैं, उनका मानसिक बोझ उतारने में आपके कई जन्म लग जाएँगे और उस गधे को तो अगले जन्म में ज्ञानी पुरुष की भेंट होगी और उसका मोक्ष हो जाएगा।
कैफ़ और मोक्ष मानसिक बोझ कैफ़ (नशा) है। जितना कैफ़ कम होगा, उतना जल्दी मोक्ष होगा।
कैफ़ी का मोक्ष कभी भी नहीं होता। मैं कुछ जानता हूँ' यह तो बड़ा भारी कैफ़ है। नींद में भी वह कैफ़ रहेगा। मोक्ष तो निष्कैफी का होता है। कैफ़ी का कभी भी नहीं होनेवाला। ये शास्त्र पढ़े, धारण किए वह मोक्ष के साधन हेतु है या कैफ़ बढ़ाकर, भवचक्र में भटकने का साधन किया? शराबी का कैफ़ तो पानी छिड़कते ही तुरंत उतर जाता है, पर 'मैं कुछ जानता हूँ', ऐसा, शास्त्रों के पठन का कैफ़ कभी भी नहीं उतरता।
मन-वचन-काया की बला चेहरे पर यदि एक बाजरे के दाने जितनी फुसी हुई हो, तो वह मुर्ख, बार-बार आईने में चेहरा देखा करता है, क्योंकि वह मानता है कि मैं ही 'चंदूलाल' हूँ। यानी देह को भी 'मैं ही हूँ', मानता है। इसलिए वह, शीशा देखता रहता है। पर यह देह तुम्हारी नहीं है। देह तो बला है। कोई लड़का, किसी लड़की को लेकर घूमता हो और बाप कहे कि यह बला कहाँ से लगाई है? इस पर लड़का कहता है, 'क्या कहते हैं? वह क्या बला है? आप क्या समझें इसमें?' पर थोड़े दिनों बाद उस लड़की के साथ अनबन हो जाए और वह लड़की दूसरे के साथ घूमती नज़र आए, तब उसकी समझ में आता है कि वह तो बला थी। वैसे ही. यह देह भी बला है। देह का अनुभव गया, तो बस बला भी गई। बला भरोसे के लायक होती ही नहीं, दगा ही देती है। यह मन-वाणी और
देह का कैसा बंधन है? बंधन यानी? जिनसे छूटना चाहें, तो भी नहीं छुट पाएँ। दूसरे शब्दों में बंधन ही बला है। जब से जान लिया कि यह बला है, तब से छूटने का उपाय खोजता है। पर यदि बला को ही प्रिय माना तब? तब वह और ज्यादा लिपटती जाती है और फिर बहत बरी तरह फँस जाता है। बला, राग-द्वेष के अधीन है। उसे मार-पीटकर थोड़े ही निकालना है? वीतरागता से निकालना है, अहिंसा से निकालना है। यह मन-वचन-काया बला जैसे ही हैं। उसे पूर्णरूप से 'देखा और जाना' कि वह अपने आप छूटते चले जाते हैं।
मोक्ष ही उपादेय है मोक्ष का ही आग्रह रखने जैसा है। और सब जगह निराग्रही हो जा। वस्तु जहर नहीं है, पर तेरा आग्रह ही जहर है। हम यह स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जितने भी मेहनत के मार्ग हैं, वे सभी संसारमार्ग हैं। मोक्ष की ही इच्छा करने योग्य है। मोक्ष का विचार यदि एक बार भी आया हो, तो लाख जन्म में भी ज्ञानी पुरुष आ मिलेंगे और तेरा मोक्ष होगा। मोक्ष अर्थात् 'मुक्तभाव' सभी सांसारिक दुःखों से मुक्ति । मेहनत तो संसार के लिए होती है, मोक्ष के लिए नहीं होती। मोक्ष तो खुद का स्वभाव ही है। आत्मा का स्वभाव ही मोक्ष स्वरूप है। जैसे पानी का स्वभाव ठंडा है। उसे गरम करने में मेहनत करनी पड़ती है, पर क्या ठंडा करने में मेहनत करनी पड़ती है? नहीं करनी पड़ती, वह तो अपने आप ही, उसके स्वभाव से ही ठंडा हो जाएगा। मगर यह बात समझ में कैसे आए? खुद का स्वभाव ही मोक्ष स्वरूप है, यह नहीं समझने का कारण यही है कि बड़ी ज़बरदस्त भ्राँति बरतती है। वह भ्राँति किसी काल में जाए ऐसी नहीं है। वह तो ज्ञानी पुरुष की भेंट हो तो पार आए। इसलिए ज्ञानी पुरुष को खोजना! सजीवन मूर्ति को खोजना!
जो खुद छूट चुके हैं, उन्हें खोजना। खुद तरे हैं और अनेकों को तारने का सामर्थ्य जिनमें है, ऐसे तरणतारण ज्ञानी पुरुष को खोजना और उनके पीछे-पीछे निर्भय होकर चले जाना। इस काल के हम अकेले ही तरणतारण हैं। गज़ब का ज्ञानावतार है। घंटेभर में मोक्ष दे दें, ऐसे हैं। तुझे
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कुछ भी करना नहीं है। कुछ भी देना नहीं है, क्योंकि हम किसी चीज के भिखारी नहीं हैं। जिनका भिखारीपन संपूर्ण रूप से खत्म हो गया हो, उन्हीं में भगवान प्रकट होते हैं। लक्ष्मीजी के भिखारी नहीं हों, ऐसे कुछ साधु मिलेंगे, विषयों के भिखारी नहीं हो, ऐसे भी मिलेंगे, तब वे मान के भिखारी होंगे या कीर्ति के भिखारी होंगे, नहीं तो शिष्यों के भिखारी होंगे। किसी न किसी कोने में भिखारीपन पड़ा ही होता है। जहाँ संपूर्ण अयाचकता प्राप्त होती है, वहीं परमात्म स्वरूप प्रकट होता है। हम लक्ष्मी के, विषयों के, शिष्य के, या कीर्ति के, उनमें से किसी चीज़ के भिखारी नहीं हैं। हम किसी चीज़ के भिखारी नहीं हैं। हमें कुछ नहीं चाहिए। हाँ, तुझे हमारे पास से जो चाहिए, वह ले जा। पर जरा सीधा माँगना, ताकि फिर से माँगना नहीं पड़े।
संसार के भौतिक सुख तो बाइ-प्रोडक्ट हैं और आत्मा प्राप्त करना, वह मेन प्रोडक्शन है। मेन प्रोडक्शन का कारखाना छोड़ लोगों ने बाय प्रोडक्शन के लिए कारखाने लगाए हैं। इससे दिन कैसे फिरेंगे। मोक्षमार्ग नहीं जानने के कारण सारा संसार भटकता रहता है और जहाँ जाए, वहाँ खो जाता है। यदि मोक्ष चाहिए तो आखिरकार ज्ञानी के पास ही जाना होगा। अरे! दादर स्टेशन पर पहुँचना हो, तो भी तुझे उस रास्ते के ज्ञानी से पूछना पड़ेगा। तब यह मोक्ष की गली तो पतली, अटपटी और भूलभुलैयावाली है। खुद पार करने गया, तो कहीं का कहीं भटक जाएगा। इसलिए ज्ञानी को खोज निकाल और उनके पदचिन्हों पर, पीछे पीछे चला जा। हम मोक्षदाता हैं। मोक्ष देने के लाइसन्स सहित हैं। अंत तक का दे सकें, ऐसे हैं। यह तो अक्रम ज्ञानावतार है ! एक घंटे में हम तुझे भगवान पद दे सकते हैं! पर तेरी पूर्ण तैयारी चाहिए।
हमारे पास दो ही वस्तुएँ लेकर आना। एक 'मैं कुछ जानता नहीं' और 'परम विनय'। मैं कुछ जानता हूँ', यह तो कैफ़ है और यदि यथार्थ जान लिया हो, तब वह तो प्रकाश कहलाता है और प्रकाश होगा वहाँ ठोकर नहीं लगती। जब कि अभी तो जगह-जगह पर ठोकरें लगती हैं। उसे जान लिया' कैसे कहें? एक भी चिंता कम हुई? सही जाना होता,
तो एक भी चिंता नहीं होनी चाहिए। यदि 'मैं कुछ जानता हूँ', ऐसा तेरा मानना है, तो फिर मैं तेरे अधूरे घड़े में क्या डालूँ? तेरा घड़ा खाली हो, तो मैं उसमें अमृत भर दूं। फिर तू जहाँ जाना चाहे, वहाँ जाना। बालबच्चे ब्याहना, संसार चलाना, पर मेरी आज्ञा में रहना।
यह बात अपूर्व है। पहले सुनी नहीं हो, पढ़ी नहीं हो ऐसी। सारे संसार का कल्याण करने के हम निमित्त हैं, कर्ता नहीं।
संसार महापोल यह सारा संसार पोलपोल है। यह हम अपने ज्ञान में देखकर बताते हैं। तू यदि संसार को सच्चा मानकर चलता है, तो यह तेरी ही भूल है। पोलंपोल अर्थात् अवकाश-आकाश।
एक वैद्य था। उसने अपने मरीज को बहुत अच्छी दवाई दी। उसने मात्र मिर्ची से परहेज करने को कहा था, क्योंकि वह रोग ही अधिक मिर्च खाने से उत्पन्न होता था। बेचारे वैद्य ने बडी मेहतन की, अच्छी से अच्छी दवाई दी। दवाईयाँ बदलता रहा, पर महीना दो महीना होने पर भी रोग में कोई फर्क नहीं पड़ा। एक दिन अचानक वैद्य रोगी के घर जा पहुँचा। वहाँ उसने क्या देखा? मरीज़ भोजन ले रहा था और थाली में दो बड़ी हरी मिर्च रखी हुई थीं। इस पर वैद्य रोष से भर गया और एकदम से इमोशनल (भावुक) हो जाने से वहीं का वहीं उसका हार्ट फेल हो गया! इसमें दोष किस का? अरे, मरीज़ ने तो जहर पीया मगर तूने क्यों जहर पी लिया? यह तो महापोल है। किसी स्टेशन पर डेरा डालने जैसा नहीं है। वर्ना फंस गए समझो। यह तो, मरीज मिर्च खाए और दिमाग का पारा चढ़ने से नस फट जाए वैद्य की! यह तो देखा उसीका जहर है न? यदि चाय में कुछ कचरा गिरा देखे, तो जहर चढ़ता है, पर जिसे पता नहीं है, वह तो आराम से पी जाता हैं। यह तो देखे तभी लगता है कि गलत हुआ, उसीका नाम पोलंपोल। सच्ची बात जानें तब भड़कते हैं और नहीं जाना, तो कुछ भी नहीं।
एक व्यक्ति मेरे पास आया करता था। उसकी एक लड़की थी।
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उसे मैंने पहले से समझा दिया था कि यह तो कलियुग है। कलियुग का असर बेटी पर भी होता है, इसलिए सावधान रहना। यह बात वह अच्छी तरह समझ गया और जब उसकी बेटी घर छोड़कर किसी के साथ भाग गई, तब उस आदमी ने मुझे याद किया। मेरे पास आकर मुझसे कहने लगा, 'जो बात आपने कही थी वह सही थी, यदि आपने मुझे सावधान नहीं किया होता, तो मुझे जहर ही पीना पडता।' ऐसा है यह संसार! पोलंपोल। जो हो उसका स्वीकार करना पड़ता है। तब जहर थोडे पीया जाता है? ऐसा करने पर लोग तुझे पागल कहेंगे। यह लोग तो कपड़े पहनकर आबरू ढंकते हैं और कहते हैं कि हम खानदानी हैं!
जब कि ज्ञानी पुरुष बड़े सयाने होते हैं। पूरा सड़े, उससे पहले ही काट डालते है। इस संसार को कम्प्लीटली पोलंपोल देखना (अनुभव करना) कोई ऐसी-वैसी बात है?
ये चरवाहे क्या करते हैं? भेड़ों को पुचकारकर बाड़े में बाँधते हैं, एक भी भेड़ को छटकने नहीं देते। भेड़ें समझती हैं कि बाघ से हमारी रक्षा करते हैं और चरवाहा कहता भी है कि मैं भेड़ों की रक्षा करता हूँ। पर चरवाहे उन भेड़ों का क्या-क्या उपयोग कर लेते हैं, यह भेड़ों की समझ में कैसे आए? रोज़ाना दुह लेते है। भेड़ों के बाल, जो ठंड से उनकी रक्षा करते हैं, उन्हें उतार लेते हैं और आखिर में कोई मेहमान आएँ, तो उसका साग बनाकर खा जाते है! इसका नाम पोलंपोल!
मनुष्यों की निराश्रितता इस कलियुग के सभी मनुष्य निराश्रित कहलाते है। ये सारे जानवर आश्रित कहलाते हैं। इन मनुष्यों को तो किसी का आसरा तक नहीं है। जिस किसी का आसरा लिया हो, वह खुद ही निराश्रित होता है। तब फिर तेरा क्या भला होगा? अब निराश्रित किस प्रकार, वह मैं तुम्हें भगवान की भाषा में समझाता हूँ।
एक सेठ, एक साधु और उनका पालतू कुत्ता तीनों प्रवास पर निकले। रास्ते में एक घना जंगल आया और चार लुटेरे बरछे-बंदूक के
साथ सामने आ गए। इसका तीनों पर क्या असर होता है? सेठ सोचता है, 'मेरे पास दस हजार की गठरी है जो ये मुए ले लेंगे, तो मेरा क्या होगा? यदि मुझे मार डालेंगे तो क्या होगा' साध को होता है, 'हमारे पास से तो उन्हें कुछ मिलनेवाला नहीं है। यह लोटा-वोटा है उसे ले लिया, तो देखा जाएगा। पर मुए टॅगड़ी तोड़ देंगे, तो मेरा क्या होगा? मेरी सेवा कौन करेगा? सदा के लिए लंगड़ा हो गया, तो मेरा क्या होगा?' जब कि वह कुत्ता एक बार लुटेरो पर भौंकेगा। यदि लटेरों ने उसे डंडा जमाया, तो क्याऊँ-क्यांऊँ करते हुए, अपने मालिक को मार पड़ते हुए देखता रहेगा। पर उसे ऐसा नहीं होता कि मेरा क्या होगा? क्योंकि वह आश्रित है और बाकी दोनों निराश्रित हैं। 'अब मेरा क्या होगा?' ऐसा एक बार भी विचार में आए, तो वह निराश्रित है। भगवान क्या कहते हैं? 'जब तक प्रकट के दर्शन नहीं किए, तब तक तुम निराश्रित हो, और प्रकट के दर्शन हो गए, तो तुम आश्रित हो।'
प्रकट के दर्शन हो जाने के बाद बाहर के या अंदर के, कैसे भी संयोग आने पर, मेरा क्या होगा, ऐसा नहीं होता।
हमारा आसरा जिसने लिया, उसकी अनंतकाल की निराश्रितता खतम हो जाती है।
चाहे कैसे भी विपरीत संयोग क्यों नहीं हों, मगर ज्ञानी पुरुष के आश्रित को, मेरा क्या होगा, ऐसा नहीं होता। क्योंकि वहाँ 'हम' और 'हमारा ज्ञान' दोनों ही हाज़िर हो ही जाते हैं और आपका हर तरह से रक्षण करते हैं!
कुदरती तंत्र संचालन-भौतिक विज्ञान आज फ़ॉरेन में सब जगह भौतिक साइंस आवश्यकता से अधिक हो गया है, अबव नॉर्मल हो गया है। उसमें नॉर्मेलिटी चाहिए, वस्तु में नॉर्मेलिटी होगी, तो ही तू सुखी होगा। सत्तानवे फरेनहाइट इज़ बिलो नॉर्मल फ़ीवर, और निन्नानवे इज़ अबव नॉर्मल फ़ीवर। अट्ठानवे इज़ दी नॉर्मालिटी। अमरिका और अन्य फ़ॉरेन के देश अबव नॉर्मल फीवर के
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गए हैं कि फिर लोग ही ऐसा कहेंगे कि हमें ये साइंटिस्ट नहीं चाहिए। ये सभी क्रांति की तैयारियाँ हो रही हैं।
जहाँ-जहाँ एक्सेस हुआ, उन सभी से थक जाते हैं। अधिक बैठना हुआ, तो उससे भी थकान होती है। अधिक सोने से भी थकान होती है। दुःख और सुख रिलेटीव(सापेक्ष) हैं। कोई सेठ धूप में घूम रहा हो, फिर बबूल मिले, तब उसकी छाँव में भी ठंडक लेने बैठेगा। यदि उसे वहीं चार घंटे बैठने को कहें, तब वह मना करेगा, क्योंकि बैठे-बैठे थक जाते
है।
शिकार हैं और भारत देश बिलो नॉर्मल फ़ीवर से ग्रस्त है। नॉर्मालिटी चाहिए। ये फ़ॉरेनवालों की खोजबीन अबव नॉर्मल हो रही है पर उन्हें जो चाहिए वह मिलता नहीं है। यह क्या निर्देश करता है कि वे भटक गए हैं। अभी तो वे इतने अबव नॉर्मल हो गए हैं कि अड़सठ मील और तीन फ़लाग पर कार पंक्चर हो जाए, तो उसकी खबर देने के साधन वहाँ होते हैं। अरे, देह को जिसकी ज़रूरत है, ऐसे साधन खोज निकाल न? ये मर्दो को रोजाना दाढ़ी बनानी पड़ती है, इसलिए दाढी उगे नहीं ऐसा कुछ खोज निकाल न! देह विषयवाली है, इसलिए देह को जिसकी ज़रूरत है, वह उसे देना चाहिए। एक साथ बहुत बरसात होती रहे, तो क्या होगा? सर्वत्र नुकसान ही होगा न? अबव नॉर्मल से नुकसान होता है। लोग तो जरा-सी गर्मी ज्यादा पड़े, तो शोर मचाते है। मेरा एक मित्र एक दिन शोर मचा रहा था कि बहुत गर्मी है, बहुत गर्मी है। इस पर मैंने उससे पूछा, 'यदि ताप के कंट्रोल स्टेशन पर तुम्हें कंट्रोलर के रूप में रखें, तो आज तुम कितना ताप रखते?' वह कहता है, 'इतना ही रखता।' तब मूर्ख! तू भी इतनी ही गर्मी रखता, तो शोर क्यों मचाता है? वह तो नैचुरल है। जब जितनी ज़रूरत हो, उतना सहजरूप से मिलता रहता है, अपने आप ही। पर ये लोग उसे बदुआ देकर उसमें बाधा डालते हैं। एक आदमी अच्छे कपड़े पहनकर बाहर गया हो और रास्ते में बरसात आई, तो वह बरसात को खरी-खोटी सनाता है। कुछ कहते है, आज बेटी की शादी है, बरसात नहीं आए, तो अच्छा और वहाँ खेतों में बेचारा किसान चातक दृष्टि से बरसात की राह देख रहा होता है। ऐसा विरोधाभास उत्पन्न होने पर तो कुदरत को भी बाधा पहुँचेगी। आपके भाव
और नेचर का ऐडजस्टमेन्ट दोनों के आधार पर तो सारा तंत्र चल रहा है, इसलिए नेचर (प्रकृति) में दखलंदाजी मत करना। अपने आप नेचरली (प्राकृतिक रूप से) सब आ मिलेगा। कल सबेरे सूरज नहीं निकलेगा, तो क्या होगा?' ऐसा विचार किसी को आता है? ऐसा विचार आए तब भी क्या हो? निरी दखलंदाजी, इसलिए नेचर में दखलंदाजी मत करना।
ये सभी बाह्य विज्ञान में इतने आगे बढ़ गए हैं, अबव नॉर्मल हो
हिन्दुस्तान में साढ़े सात फीट ऊँचा मनुष्य आए, तो वह लम्बा लगता है। पर यदि हम सात फीट ऊँचाईवालों के देश में जाएँ, तो नाटे लगेंगे। यह तो सब रिलेटिव है। एक के आधार पर दूसरा लम्बा-नाटा लगता है।
कोई मनुष्य पचपन साल तक पढ़ाई करता रहे, तो लोग क्या कहेंगे? अरे! तू पढ़ाई ही करता रहेगा, तो शादी कब करेगा? वह अबव नॉर्मल। जब कि दो साल के बालक का ब्याह रचाए, तो वह बिलो नॉर्मल।
भौतिक डेवलपमेन्ट-आध्यात्मिक डेवलपमेन्ट हिन्दुस्तानी लोगों को, फ़ॉरेनवाले तिरस्कृत करते हैं। उन्हें अन्डरडेवलप्ड (पिछड़ा) कहते हैं। तब मुझे कहना पड़ता है कि तू अन्डरडेवलप्ड है। अध्यात्म में तू अन्डरडेवलप्ड है और भौतिक में त फुल्ली डेवलप्ड है। भौतिक में तुम्हारा देश फल्ली डेवलप्ड है। जब कि भारत देश, भौतिक में अन्डरडेवलप्ड (अविकसित) है और अध्यात्म में फुल्ली डेवलप्ड (पूर्ण विकसित) प्रजा है। यहाँ के जेबकतरे को भी मैं एक घंटे में भगवान बना सकता हूँ। बाहर की सारी की सारी प्रजा आंतर्विज्ञान में अन्डरडेवलप्ड है, यह बात तुम्हें कैसे समझाऊँ?
फ़ॉरेन के लोगों में क्रोध-मान-माया-लोभ अभी डेवलप हो रहे
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
हैं। जब कि हिन्दुस्तान के लोगों के क्रोध-मान-माया-लोभ फुल्ली डेवलप हो गए हैं, टॉप (शिखर) पर जा पहुँचे हैं।
___ फ़ॉरेन में आपकी जान-पहचानवाला कोई हो और आप उनसे कहें कि यहाँ से पचास मील दूर जाना है, तो वह आपको अपनी कार (गाड़ी) में ले जाएगा, वापस लाएगा और ऊपर से रास्ते में होटल का बिल भी वही चुकाएगा। जब कि यहाँ आपके चाचा के लड़के से कार माँगेंगे, तो वह हिसाब लगाएगा कि पचास मील जाने के और पचास मील आने के, कुल मिलाकर सौ मील हुए। पेट्रोल का खर्च इतना, ऑइल-पानी का खर्च इतना और ऊपर से कार की घिसाई का हिसाब लगाकर फिर झूठ बोलेगा कि कल तो मेरे साहब आनेवाले हैं!
ऐसा क्यों है? पहलेवाले का लोभ ही डेवलप नहीं हुआ और इसका फुल्ली डेवलप हो गया है। सात पुश्तों तक का डेवलप हो गया है। जब कि वहाँ की प्रजा का लोभ कितना डेवलप हुआ होता है? खुद तक ही सीमित। पति और पत्नी तक ही सीमित । बेटा अट्ठारह साल का हुआ कि तू अलग और हम अलग। और यदि पत्नी के साथ जरा-सा टकराव हुआ, तो फिर, तू अलग और मैं अलग, तुरंत ही डायवोर्स। जब कि हमारे यहाँ तो ममता ठेठ तक डेवलप हुई होती है। एक अस्सी साल की बुढ़िया और पचासी साल का बुड्ढा सारी जिंदगी रोज़ लड़ते-झगड़ते थे, रोजाना किटकिट चलती थी और एक दिन बुड्ढा मर गया तब बुढ़िया ने तेरहवीं के दिन उत्तरक्रिया में शैय्यादान करते समय, तेरे चाचा को यह भाता था और तेरे चाचा को वह पसंद था, ऐसा याद करके रखवाया। मैंने कहा, 'क्यों चाचीजी आप तो रोज लड़ती थीं न? तब चाची बोलीं. 'ऐसा ही होता है। मगर तेरे चाचाजी जैसे मुझे फिर नहीं मिलेंगे। मुझे तो हर जन्म में वही चाहिए।' ममता भी टोप पर पहुँची हुई होती है।
प्राकृतिक साहजिकता फ़ॉरन की प्रजा साहजिक होती है। साहजिक अर्थात्, यदि नहीं मारनेवाली गाय हो, तब अगर छोटा बच्चा भी उसका सींग पकड़े, तो भी
नहीं मारेगी और मारनेवाली गाय रही, तो उसे कुछ न करें, तो भी वह मारेगी। इस प्रकार उन लोगों का ऐसा साहजिक होता है। उसे. आपको ले जाना हो, तो तुरंत हाँ कर देगा और न ले जाना हो, तो तुरंत मना भी कर देगा। पर झूठ-वूठ नहीं बोलेंगे। उनमें दोनों ओर का होता है। सीधे, तो एकदम सीधे और टेढ़े, तो हर ओर से उतने ही टेढ़े। भारतीय लोग असहज। हिन्दुस्तान में साहजिकता थी, पर वह सतयुग के समय में थी। और वह सही मानों में आदर्श साहजिकता थी। भारत में पहले लोग चार वर्ग में बँटे थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, जो कि डेवलपमेन्ट दर्शाते थे। अब तो डेवलपमेन्ट टोप पर गया है। सुतार के बेटे भी उतने ही कुशल। साहजिकता उन दिनों परिपूर्ण थी, इसलिए देश इतना ऊपर उठ गया था। फिर वहाँ से धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा। यही नियम है। जो चार वर्ग थे, उनका लोगों ने दरुपयोग किया. जैसे कि हरिजनों का तिरस्कार किया। बुद्धि का इतना ज्यादा, तीक्ष्ण दुरुपयोग किया कि वे असहज होते गए और भारत का सूरज अस्त हो गया। भयंकर दुराग्रही हो गए। निम्नतम कोटि के, राक्षसी कोटि के आचार हो गए थे। अरे! कोई बीस साल की विधवा मिले, तो बेचारी को शांति देने के बजाय अपशकुन हुए, ऐसा कहते ! मुए, विधवा अर्थात् गंगास्वरूप! उससे अपशकुन कैसे हो सकते हैं? बाद में फिर अंग्रेज आए। इसलिए उनकी सहजता का मिश्रण हुआ। परिणाम स्वरूप यहाँ के लोगों को कुछ ठंडक हुई।
यह तो सब एक्सेस हो गया था, उसके परिणाम थे। अब भारत का सूर्य उग रहा है। इस समय फ़ॉरेन में सब जगह संध्या के पाँच बजे हैं और यहाँ भारत में प्रातः के पाँच बजे हैं। हम १९४२ से कहते आए हैं कि २००५ के साल में हिन्दुस्तान संसार का केन्द्र हो गया होगा। इस समय हो रहा है। फिर फ़ॉरेन से प्रजा यहाँ यह पढ़ने आएगी कि जीवन कैसे जीना? नोर्मेलिटी किसे कहते हैं? वे इस हद तक ऐबनोर्मल हो गए हैं कि जीवन जीना तक नहीं आता। भौतिक सुखों की इतनी भरमार हो गई है कि रात में नींद की गोलियाँ खाकर सोना पड़ता हैं। अरे! ज़हर
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खाते हो तुम! इस हद तक एक्सेस हो गए हैं कि नींद जो एक कुदरती भेंट है, उसे भी खो बैठे हैं। इसे जीवन कैसे कहें? भले ही चंद्र तक पहुँचे, पर उसमें खुद का क्या लाभ हुआ? क्या नींद की गोलियाँ खाना बंद हुआ तुम्हारा?
साधक दशा साधु कौन कहलाता है? आत्मदशा साधे वह साधु। साधु तो साधक ही होता है। जब कि आज कलियुग में साधु तो 'साधक-बाधक' दशा में ही रहते है। जब सामयिक-प्रतिक्रमण या ध्यान करते हैं, तब सौ कमाते हैं और शिष्य पर कुढ़ते-चिढ़ते हैं, तब एक सौ पचास का घाटा कर लेते हैं ! निरंतर साधक दशा तो 'स्वरूप' का भान (ज्ञान) होने के बाद ही उत्पन्न होती है। साधक दशा यानी सिद्ध दशा, उत्पन्न होती ही जाती है। सिद्ध दशा से मोक्ष और साधक-बाधक दशा से संसार। इसमें किसी का दोष नहीं है। नासमझी का फँसाव है यह। उनकी भी इच्छा तो साधक दशा की ही होती है न?
पुण्य और पाप संसार में आत्मा और परमाणु दो ही हैं। किसी को शांति दी हो, सुख पहुँचाया हो, तो पुण्य के परमाणु इकट्ठा होते हैं। किसी को दुःख पहुँचाया हो, तो पाप के परमाणु इकट्ठा होते हैं और फिर वे ही काटते हैं। इच्छानुसार होता है वह पुण्य का उदय और इच्छा के विपरीत होता है वह पाप का उदय। पाप के दो प्रकार हैं और पुण्य के दो प्रकार हैं:
१) पापानुबंधी पापः वर्तमान में पाप (दःख) भगतता है और (बदले में किसी को दुःख देकर) फिर नया पाप का अनुबंध बाँधता है। किसी को दु:ख पहुँचाता है और ऊपर से खुश होता है।
२) पुण्यानुबंधी पापः पूर्व के पाप को लेकर आज दुःख भुगतता है, पर नीति और अच्छे संस्कार से नया अनुबंध पुण्य का बाँधता है।
३) पापानुबंधी पुण्यः पूर्व के पुण्य से आज सुख भोगता है, पर
भयंकर पाप का नया अनुबंध बाँधता है। आजकल सब जगह पापानुबंधी पुण्य है। किसी अमीर का बहुत बड़ा बंगला हो, मगर चैन से बंगले में रह नहीं पाता। सेठ सारा दिन पैसों के लिए बाहर होते हैं। जब कि सेठानी मोह के बाजार में सुंदर साड़ी के पीछे लगी होती है और सेठ की पुत्री कार लेकर घूमने निकली होती है। घर पर नौकर ही होते हैं और इस तरह सारा बंगला औरों के हवाले होता है। पुण्य के आधार पर, बंगला मिला, कार मिली, सब मिला। ऐसा पुण्य होता है, पर फिर भी अनुबंध पाप का बाँधे, ऐसे करतूत होते हैं। लोभ में, मोह में समय गुजरता है और भोग भी नहीं सकते हैं। पापानुबंधी पुण्यवाले लोग तो विषय की लूट ही करते हैं।
४) पुण्यानुबंधी पुण्यः पुण्य भोगते हैं और साथ ही आत्मकल्याण हेतु अभ्यास-क्रिया करते है। पुण्य भोगते हैं और नया पुण्य बांधते हैं, जिससे अभ्युदय से मोक्षफल मिलता है।
हठ से किए गए सारे कार्यों से, हठाग्रही तप से, हठाग्रही क्रियाओं से पापानुबंधी पुण्य बंधता है। जब कि समझदारी के साथ किए गए तप, क्रियाएँ, अपने आत्मकल्याण हेतु किए गए कर्मों से पुण्यानुबंधी पुण्य बंधता है और कभी किसी काल में ज्ञानी पुरुष से भेंट हो जाती है और मोक्ष में जाते है।
पुण्य के बिना लक्ष्मी नहीं मिलती।
इस संसार में सबसे अधिक पुण्यवान कौन? जिसे ज़रा-सा विचार आने पर तय करे और सालों तक बिना इच्छा किए मिलता ही रहे वह।
दूसरे नंबर पर, इच्छा हो और बार-बार तय करे और फिर शाम तक सहज रूप से मिल जाए, वह।
तीसरे नंबरवाला, इच्छा होने पर प्रयत्न करता है और उसे प्राप्त होता है। चौथे नंबरवाले को इच्छा होती है और अत्यधिक प्रयत्नों के बाद प्राप्ति होती है और पाँचवे को इच्छा होने के बाद अत्यधिक प्रयत्नों के
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आप्तवाणी-१
बावजूद भी प्राप्ति नहीं होती। इन मज़दूरों को कठोर महेनत करनी पड़ती है, ऊपर से गालियाँ सुनते हैं, फिर भी पैसे नहीं मिलते। मिलें, तो भी घर जाकर खाना मिलेगा या नही इसका कोई ठिकाना नहीं होता। वे सबसे ज्यादा प्रयत्न करते हैं फिर भी प्राप्ति नहीं होती।
कितने ही लोग कहते हैं कि अनजाने में पाप हो जाएँ, तो उसका फल कुछ भी नहीं आता। नहीं क्यों आता? अरे. अनजाने में अंगारों पर हाथ रख दें, तब पता चलेगा कि फल आता है या नहीं? जान-बूझकर किया गया पाप और अनजाने में किया गया पाप, दोनों समान हैं। पर अनजाने में किए गए पाप का फल अनजाने में, और जान-बूझकर किए गए पाप का फल जानते हुए भुगतना पड़ता है। दोनो में इतना ही अंतर है। उदाहरणार्थ, दो भाई हैं। एक सोलह साल का और दूसरा दो साल का। उनकी माँ मर गई। अत: दोनों को पाप का फल भुगतना पड़ा, पर बड़े को जानकर भुगतना पड़ा और छोटे ने अनजाने में भुगत लिया।
अनजाने में पुण्य भी होता है। उदाहरणार्थ, आप राशन में चार घंटे लाइन में खड़े रहकर कंट्रोल की शक्कर लेकर घर जाते हैं। पर थैली में ज़रा-सा छेद हो, तो रास्ते में शक्कर गिरती जाती है और चींटियों का भला हो जाता है। वह अनजाने का पुण्य। उसका फल अनजाने में भुगता जाएगा।
पुण्य और पाप, पाप और पुण्य, उसके अनुबंध में ही प्रत्येक मनुष्य भटका करता है। इसलिए कभी भी उनसे मुक्ति नहीं मिलती। बहुत पुण्य करे, तब बहुत हुआ, तो देवगति मिलती है, पर मोक्ष तो मिलता ही नहीं। मोक्ष तो, ज्ञानी पुरुष मिलें, और आपके अनंत काल के पापों को जलाकर भस्म करके आपके हाथों में शुद्धात्मा रख दें, तब होता है। तब तक तो चार गतियों में भटकते ही रहना है।
आत्मा के ऊपर ऐसी परतें हैं, आवरण हैं कि एक मनुष्य को अंधेरी घुप्प कोठरी में बंद करके, उसे केवल दो वक्त का खाना दें, तब उसे जो दुःख का अनुभव होता है, ऐसे अपार दुःखो का अनुभव ये पेड़पौधे आदि एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों को होता है। इन पाँच
इन्द्रियवाले मनुष्यों को इतना दुःख है, तो जिनकी कम इन्द्रियाँ हैं उन्हें कितना दु:ख होगा? पाँच से ज्यादा छठी इन्द्रियोंवाला कोई नहीं है। ये पैड़-पौधे और जानवरों की तिर्यंचगति है। वह सख़्त कैद की सजा है। मनुष्यगति में सामान्य कैदवाले और नर्कगति में तो भयंकर दुःख, उसका यथातथ्य वर्णन करूँ, तो सुनते ही मनुष्य मर जाए। चावल को उबालें, तब उछलते हैं, उससे लाख गुना अधिक दु:ख होता है। एक जन्म में पाँच-पाँच बार मृत्यु वेदना और फिर भी मृत्यु नहीं होती। उनके अंगअंग विच्छेद होते और फिर जुड़ जाते हैं। वेदना भोगनी ही पड़ती है। नर्कगति यानी उम्रकैद की सजा।
देवताओं को नजरकैद जैसा है, पर उन्हें भी मोक्ष तो नहीं होता। आप किसी की शादी में गए हों, तो आप सब भूल जाते हैं। मोह में पूर्णरूप से तन्मय हो जाते हैं। आइसक्रीम खाएँ, तब जीभ खाने में लगी होती है। बैन्ड बजता है, तब कानों को प्रिय लगता है। आँखें दुल्हेराजा की राह देखती हैं। नाक, अगरबत्ती और इत्र की गंध में जाती है। पाँचों इन्द्रियाँ व्यस्त होती हैं। मन झमेले में होता है। यह सब हो, वहाँ आत्मा की याद नहीं आती। देवलोक में सदा ऐसा ही माहौल होता है। इससे भी अनेक गुना, अधिक सुख होता है। इसलिए वे भान में ही नहीं होते। उन्हें आत्मा का लक्ष्य ही नहीं होता। पर देवगति में भी कुढन, बेकरारी और ईर्ष्या होते हैं। देवता भी फिर इतने सुखों से ऊब जाते हैं। वह कैसे? शादी में चार दिनों तक लड्डू रोज आएँ, तो पाँचवे दिन खिचड़ी की याद आती है, वैसा है। उन लोगों की भी इच्छा होती है कि कब मनुष्य देह मिले और भरतक्षेत्र में अच्छे परिवार में जन्म हो और ज्ञानी पुरुष की भेंट हो जाए। ज्ञानी पुरुष के मिलने पर ही हल निकलनेवाला है, वर्ना चतुर्गति की भटकन तो है ही।
संकल्प-विकल्प विकल्प यानी 'मैं' और संकल्प यानी 'मेरा'। 'मैं चंदूलाल' यह विकल्प, सबसे बड़ा विकल्प और 'यह मेरी बीवी, ये मेरे बच्चे और यह मेरा बंगला, मोटर आदि,' वह सब संकल्प।
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आप्तवाणी - १
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सर्जन - विसर्जन
खुद ब्रह्म, और रात में चद्दर ओढ़कर सो गया ! फिर तरह-तरह की योजना बनाता हैं। उस समय ब्रह्मा होकर सर्जन करता है। विसर्जन उसके हाथों में नहीं है। विसर्जन नेचर के हाथों में है। विसर्जन होता है, तब वह भ्रमित पद में आता है, और बावला और व्याकुल हो जाता है। योजना बनाई, विचार आया, और उसमें तन्मयाकार हुआ, वह सर्जन, और रूपक में आए, वह विसर्जन । विसर्जन को कोई बाप भी बदल नहीं सकता। यदि विसर्जन खुद के हाथों में होता, तो कोई अपनी पसंद बिना का होने ही नहीं देता । पसंद ही रूपक में लाता। पर विसर्जन परसत्ता में है, व्यवस्थित के हाथों में है। वहाँ किसी की नहीं चलती। इसलिए सर्जन सीधा रहकर करना । यदि एक बार ब्रह्मा बन बैठा, तो कभी भी ब्रह्मपद नहीं मिलनेवाला । हाँ, ज्ञानी से मिले, तब ज्ञानी पुरुष उसकी जगत्निष्ठा छुड़ाकर एक ही घंटे में उसे ब्रह्मनिष्ठा में स्थित कर दें। वे ब्रह्मनिष्ठ बना दें, फिर तो वह ब्रह्मपद में ही निरंतर रहा करता हैं । अतः वह नया सर्जन नहीं करता, और जो देह है, उसका विसर्जन हो जाता है ।
मनुष्य जन्म सर्जनात्मक है। उसमें से ही सारी गतियों का सर्जन होता है और मोक्ष भी यहीं से प्राप्त हो सके ऐसा है।
पुरुष और प्रकृति
सारा संसार प्रकृति को समझने में फँसा है।
पुरुष और प्रकृति को तो अनादि से खोजते आए हैं। पर वे ऐसे हाथ में आएँ, ऐसे नहीं हैं। क्रमिकमार्ग में पूरी प्रकृति को पहचानें, उसके बाद में पुरुष की पहचान होती है। उसका तो अनंत जन्मों के बाद भी हल निकले ऐसा नहीं है। जब कि अक्रममार्ग में ज्ञानी पुरुष सिर पर हाथ रखें, तो खुद पुरुष होकर सारी प्रकृति को समझ जाता है। फिर दोनों सदा के लिए अलग-अलग ही रहते हैं। प्रकृति की भूलभूलैया में अच्छे-अच्छे फँसे हुए हैं, और वे करते भी क्या ? प्रकृति के द्वारा प्रकृति को पहचानने
आप्तवाणी - १
जाते हैं न, इसलिए कैसे पार पाएँ? पुरुष होकर प्रकृति को पहचानना है, तभी प्रकृति का हर एक परमाणु पहचाना जाता है।
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प्रकृति अर्थात् क्या? प्र= विशेष और कृति = किया गया। स्वाभाविक की गई वस्तु नहीं। पर विभाव में जाकर, विशेष रूप से की गई वस्तु, वही प्रकृति है ।
प्रकृति तो स्त्री है, स्त्री का स्वरूप है और 'खुद' (सेल्फ) पुरुष है। कृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि त्रिगुणात्मक से परे हो जा, अर्थात् त्रिगुण, प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त ऐसा, 'तू' पुरुष हो जा। क्योंकि प्रकृति के गुणों में रहेगा, तो 'तू' अबला है और पुरुष के गुण में रहा, तो 'तू' पुरुष है।
'प्रकृति लट्टू स्वरूप है।' लट्टू यानी क्या? डोरी लिपटती है, वह सर्जन, डोरी खुले, तब घूमता है, वह प्रकृति । डोरी लिपटती है, तब कलात्मक ढंग से लिपटती है, इसलिए खुलते समय भी कलात्मक ढंग से ही खुलेगी । बालक हो, तब भी खाते समय निवाला मुँह में डालने के बजाय कान में डालता है? सॉपिन मर गई हो, तब भी उसके अंडे टूटने पर उनमें से निकलनेवाले बच्चे निकलते ही फन फैलाकर मारना शुरू कर देंगे, तुरंत ही । इसके पीछे क्या है? यह तो प्रकृति का अजूबा है। प्रकृति का कलामय कार्य, एक अजूबा है। प्रकृति इधर-उधर कब तक होती है? उसकी शुरूआत से ज्यादा से ज्यादा इधर-उधर होने की लिमिट है। लट्टू का घूमना भी उसकी लिमिट में ही होता है। जैसे कि, विचार उतनी ही लिमिट में आते है। मोह होता है, वह भी उतनी लिमिट में ही होता है। इसलिए प्रत्येक जीव की नाभि, सेन्टर है और वहाँ आत्मा आवृत्त नहीं है। वहाँ शुद्ध ज्ञानप्रकाश रहा हुआ है। यदि प्रकृति लिमिट के बाहर जाए, तो वह प्रकाश आवृत्त हो जाता है और पत्थर हो जाता है, जड़ हो जाता है। पर ऐसा होता ही नहीं है। लिमिट में ही रहता है। यह मोह होता है, इसलिए उसका आवरण छा जाता है। चाहे जितना मोह टॉप पर पहुँचा हो, पर उसकी लिमिट आते ही फिर नीचे उतर जाता है। यह सब नियम से ही होता है। नियम के बाहर नहीं होता।
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आप्तवाणी - १
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त्रिगुणात्मक प्रकृति
ब्रह्मा, विष्णु और महेश, वे तीन गुणों के अधिपति देवता हैं। सत्त्व, रजस् और तमस्। तमस् गुणवाले, महादेव को भजते है। सत्त्व गुणवाले, ब्रह्मा को भजते है और रजस् गुणवाले, विष्णु को भजते है। जो जिसे भजे, उसे वह गुण प्राप्त होते हैं। इन्डिया में रजसगुणवाले अधिक होते. हैं, पर संसार तमस् गुण में पड़ा है। ये तीनों ही गुणों के देवता हैं। वे जन्में नहीं हैं, रूपक रखे हैं। वेद भी इन तीन गुणों से मुक्त होकर, तू पुरुष बन, ऐसा कहते हैं।
यह तो प्रकृति नाच नचाती है, तब यह मूर्ख कहता है कि मैं नाचा! लट्टू घूम रहा है, उसमें उसका क्या पुरुषार्थ ? लाख कमाए तब कहता है कि मैंने कमाया, फिर घाटा होने पर ऐसा क्यो नहीं कहता कि मैंने घाटा किया? तब तो सारा दोष भगवान पर उँडेल देता है, कहेगा भगवान ने घाटा किया। भगवान बेचारे का कोई बाप नहीं, कोई तरफदारी करनेवाला नहीं, इसलिए ये लोग भगवान पर गलत आरोप लगाते हैं।
यह तो प्रकृति जबरन करवाती है, और कहता है कि मैं करता हूँ । दान करना, जप-तप, धर्मध्यान, दया, अहिंसा, सत्य आदि सभी प्राकृत गुण हैं। अच्छी आदतें और बुरी आदतें भी प्राकृत गुण हैं। प्राकृत चाहे कैसा भी स्वरूपवान क्यों नहीं हो, पर कब भेष बनाए या फ़जीहत करवाए, कह नहीं सकते। एक राजा हो, बड़ा धर्मनिष्ठ और दानेश्वरी हो पर जंगल में भटक गया हो और चार दिनों तक खाना नसीब नहीं हुआ हो, तो जंगल में भील के पास से माँगकर खाने में उसे शरम आएगी? नहीं । तब कहाँ गई उसकी दानशीलता? कहाँ गई उसकी राजस्विता ? अंदर से प्रकृति चिल्लाकर माँगती है, अतः संयोगों के शिकंजे में आता है, उस समय राजा भी भिखारी बन जाता है। वहाँ फिर औरों की तो बिसात ही क्या? यह तो प्रकृति दान करवाती है और प्रकृति भीख मँगवाती है, उसमें तेरा क्या? एक चोर बीस रुपयों की चोरी करता है और होटल में चाय-नाश्ता करके मजे लूटता है। पर जाते-जाते दस रुपये का नोट कोढ़ी को दे देता है, यह क्या है? यह
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आप्तवाणी - १
तो प्रकृति की माया है। समझ में आए ऐसी नहीं है।
कोई कहेगा कि आज मैंने चार सामयिक किए और प्रतिक्रमण किया और दो घंटे शास्त्र पढ़े। यह भी प्रकृति करवाती है और तू कहता है कि मैंने किया । यदि तू ही सामयिक का कर्त्ता है, तो दूसरे दिन भी करके दिखा न? दूसरे दिन तो कहेगा कि आज तो मुझसे नहीं होता ! ऐसा क्यों बोलता है? और कल जो बोला था, मैंने किया, इन दोनों में कितना बड़ा विरोधाभास है? यदि तू ही करनेवाला हो, तो 'नहीं होता', ऐसा कभी भी बोल ही नहीं सकता। नहीं होता, इसका मतलब यही कि तू करनेवाला नहीं है । सारा संसार ऐसी उलटी समझ के कारण अटका हुआ है। त्याग करता है, वह भी प्रकृति ही करवाती है और ग्रहण करता है, वह भी प्रकृति करवाती है। यह ब्रह्मचर्य का भी प्रकृति जबरन पालन करवाती है, फिर भी कहता है कि मैं ब्रह्मचर्य का पालन करता हूँ। कितना बड़ा विरोधाभास !
ये राग-द्वेष, दया- निर्दयता, लोभ-उदारता, सत्य-असत्य सारे द्वंद्व गुण हैं। वे प्रकृति के गुण हैं और खुद द्वंदातीत है।
आत्मा, सगुण-निर्गुण
कितने ही लोग भगवान को निर्गुण कहते हैं। अरे! भगवान को गाली क्यों देते हैं? पागल को भी निर्गुणी कहते हैं। पागल निर्गुणी किस तरह है? पागलपन तो एक गुण हुआ, फिर वह निर्गुण कैसे है? इसका अर्थ, आत्मा को निर्गुण कहकर, पागल से भी खराब दिखाते हैं, जड़ समान दिखाते है? अरे, जड़ भी नहीं और निर्गुण भी नहीं है। उसके भी गुण हैं। आत्मा को, भगवान को निर्गुण कहकर तो लोग उल्टी राह चल पड़े हैं। यहाँ मेरे पास आ, तो तुझे सच्ची समझ दूँ । 'आत्मा प्रकृति के गुणों की तुलना में निर्गुण है, परन्तु स्वगुणों से भरपूर है।' आत्मा के अपने तो अनंत गुण हैं। अनंत ज्ञानवाला, अनंत दर्शनवाला, अनंत शक्तिवाला, अनंत सुख का धाम, परमानंदी है। उसे निर्गुण कैसे कह सकते हैं? उसे यदि निर्गुण कहेगा, तो कभी भी आत्मा प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि, आत्मा
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
उन गुणों से कुछ अलग नहीं है। वस्तु में वस्तु के गुणधर्म रहे हैं, इसलिए उसके गुणधर्मों को पहचानें, तो वस्तु की पहचान होगी। जैसे कि सभी धातुओं में से सोने को पहचानना हो, तो उसके गुणधर्म जान लिए हों, तो उसे पहचान सकते हैं। सोना अपने गुणधर्मों से अलग नहीं है। फूल और सुगंध दोनों कभी भिन्न नहीं होते। वह तो सुगंध पर से फूल की पहचान होती है। वैसे ही, आत्मा को आत्मा के गणधर्म से ही पहचाना जाता है। वही धर्म जानना है। आत्मधर्म जानना है। प्रकृति के धर्मों को तो अनंत जन्मों से जानते आए हैं, पर फिर भी हल नहीं निकला, पार नहीं पाया। ये रिलेटीव धर्म, जो लौकिक धर्म हैं, वे सारे ही प्रकृति के धर्म हैं, देह के धर्म हैं। अलौकिक धर्म ही आत्मधर्म है, रियलधर्म है।
इस देह को नहलाएँ, धुलाएँ, खिलाएँ, उपवास करवाएँ वे सभी प्राकृतधर्म हैं। प्राकृत धर्म का पता-ठिकाना नहीं होता। क्योंकि वह खुद की सत्ता से बाहर का धर्म है। यह तो बिना जलाब की दवाई लिए जुलाब हो जाता है और जुलाब रोकने की दवाई लिए बगैर बंद हो जाता है, ऐसा प्रकृति का काम है!
उसके प्रति राग-द्वेष नहीं हुए वह शुद्धात्मा। मारामारी करने पर भी रागद्वेष नहीं हों, ऐसा हमारा गज़ब का ज्ञान है!
प्रकृति धर्म- पुरुष धर्म जितने विकल्प हुए, वे सभी प्रकृति में आते हैं। विकल्प नहीं हुए हों, वे प्रकृति में नहीं आते।
यह वणिक है, यह पटेल है, यह मुसलमान है, वे उनकी प्रकृति से पहचाने जाते हैं। बनिए की प्रकृति विचारशील और समझदारीवाली होती है। पटेल, क्षत्रिय कहलाते हैं। उनकी प्रकृति ऐसी कि विपक्षी का सिर काट कर ले आएँ और समय आने पर अपना सिर काट कर दें ऐसी होती है। मुसलमान की प्रकृति और होती है। असल में प्रकृति तो प्रत्येक मनुष्य की अलग-अलग होती है। उसका कोई अंत नहीं है।
मन-वचन-काया, ये प्रकृति के तीन हिस्से हैं। तीनों वस्तुएँ इफेक्टिव हैं। उस इफेक्ट में भ्रांति से फिर कोज़ेज़ खड़े होते हैं और उसमें से कारण प्रकृति गठित होती है और उसका इफेक्ट, कार्य प्रकृति है।
जब तक संदेह नहीं जाता, तब तक प्राकृतधर्म है। संदेह जाए, आत्मा के लिए संपूर्ण नि:शंक हो, तब पुरुष होता है और उसके बाद ही कारण प्रकृति का गठन होना बंद होता है।
प्राकृत बगीचा जो-जो इफेक्ट हैं, कार्य प्रकृति हैं। वह कभी भी परिवर्तित नहीं होती। हरएक बाप चाहता है कि मेरा बेटा मेरे जैसा हो। अरे! घर को बगीचा बनाना है या खेत? हरेक की प्रकृति अलग-अलग, हरेक पर फूल अलग-अलग आते हैं। दूसरें पौधों पर खुद के जैसे फूल आएँ ऐसा कैसे हो सकता है? यदि केवल गुलाब के ही पौधे हों, तो वह क्या वह बगीचा कहलाएगा? नहीं, गुलाब का खेत कहलाएगा। जैसे बाजरे का खेत, वैसे गुलाब का खेत। यह तो साथ में मोगरा हो, चंपा हो, जही हो और काँटे भी हों, तब बगीचा कहलाता है। प्रकृति तो बगीचा है।
प्राकृत पूजा-पुरुष पूजा संसार में जितनी भी भक्ति चल रही है, वह प्राकृत गुणों की भक्ति चल रही है। प्राकृत गुण यानी जिनका अस्तित्त्व शाश्वत नहीं है, ऐसे काल्पनिक गुण। प्राकृत गुण वात, पित्त, और कफ के अधीन हैं। खद के (आत्मा) गुण स्वावलंबी हैं। प्रकृति के गुण परावलंबी हैं। वह तो जब सन्निपात हो, तब पता चले। संसार में सर्वत्र प्रकृति की ही पूजा चल रही है। पुरुष की पूजा कहीं देखने में नहीं आती। प्रकृति की पूजा का फल संसार है, और पुरुष की पूजा का फल मोक्ष है।
हम स्वयं पुरुष के तौर पर, शद्धात्मा के तौर पर स्ववश हैं. और प्रकृति के तौर पर परवश हैं। प्रकृति और रेग्युलेटर ऑफ द वर्ल्ड के हिसाब से यह सब चल रहा है। उसमें भगवान हाथ नहीं डालते। पुरुष होने के बाद प्रकृति के साथ कुछ लेना-देना नहीं रहता। हुआ सो प्रकृति।
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आप्तवाणी-१
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३) ज्ञानगर्भित वैराग्यः यही यथार्थ स्वरूप वैराग्य है। ज्ञानहेतु वैराग्य ले, वह। ज्ञान के लिए वैराग्य लेनेवाला कोई एकाध होता है, पर ज्ञान मिलना बहुत कठिन है।
ज्ञान तो ज्ञानी के पास जाने पर ही मिले, ऐसा है। और उसके बाद ही ज्ञानप्रकाश से यथार्थ वैराग्य उत्पन्न होना शुरू होता है।
लोगों को गुलाब चाहिए, पर काँटे पसंद नहीं, बिना काँटो के गुलाब कैसे होंगे?
ये नीबू बोते हैं, वह कैसे पनपता है? पृथ्वी, जल, वायु, तेज और अवकाश इन तत्त्वों से पनपता है। पोषण मिले. तो उस पोषण में स्वाद है? खट्टा रस है? नहीं, फिर वह खटापन आया कहाँ से? उसके पास ही कड़वा नीम बोया हो, उसके पत्ते-पत्ते में कड़वाहट कहाँ से आई? पोषण तो दोनों को पाँच तत्त्वों का सरीखा ही दिया गया था। क्या पानी कड़वा था? नहीं। तो यह कैसे हुआ? वह तो बीज में ही खट्टापन और बीज में ही कड़वाहट थी, इसलिए ऐसा फल आया। बरगद का बीज राई से भी छोटा होता है, और बरगद कितना विशाल होता है? उस बरगद के बीज में ही सारा बरगद, डालियाँ, पत्ते और बरोहों के साथ सूक्ष्म रूप से होता है, शक्ति के रूप में होता है। फिर व्यवस्थित शक्ति, संयोग इकट्ठे कर देती है और बीज बरगद के रूप में परिणमित होता है, जो उसके प्राकृत स्वभाव से ही है।
ऐसा गजब का प्रकृति ज्ञान है। नदी के पार जा सकते हैं, पर प्रकृति के पार नहीं जा सकते, ऐसा है।
वैराग्य के प्रकार वैराग्य के तीन प्रकार है:
१) दुःखगर्भित वैराग्यः दुःख के मारे संसार छोड़कर भाग जाते हैं और बीवी-बच्चों को कहीं का नहीं रखते। संसार में गुजारा नहीं होता हो, तो सोचता है कि चलो, वैराग्य लेंगे, तो दो टाइम खाने को तो मिलेगा न? अकेले नंगे पैर चलना और माँगकर खाना इतना ही कष्ट न? वह तो देखा जाएगा। ऐसा सोचकर वैराग्य लेता है, फिर उसका परिणाम क्या आता है? कई जन्मों तक भटकता ही रहना पड़ता है।
२) मोहगर्भित वैराग्यः शिष्य मिलेंगे, मान मिलेगा, कीर्ति मिलेगी, वाह-वाह होगी, लोग पूजा करेंगे, उस लालच से वैराग्य ले ले, तो उसका फल भी संसार में भटकन ही है।
आत्मा का उपयोग आत्मा के उपयोग के चार प्रकार हैं:
१) अशुद्ध उपयोगः कोई मनुष्य बिना किसी स्पष्ट कारण के हिरण का शिकार करे और वह केवल शिकार का आनंद के लिए ऊपर से गर्व करता है कि मैंने कैसा मार गिराया? बिना हेतु के मौज मनाने को ही मारना, वह आत्मा का अशुद्ध उपयोग। किसी का घर जलाकर गर्व करे, गलत काम करके खश हो, सामनेवाला का नुकसान करके फिर मूछों पर ताव दे- ये सभी थर्ड क्लास के पैसेंजर जैसे हैं। उसका फल नर्कगति।
२) अशुभ उपयोगः घरवाले कहें कि आज तो हिरण लाकर खाना ही पड़ेगा,क्योंकि घर में और कुछ खाने को है ही नहीं। अत: बीवी-बच्चे भूख से तड़पतें हों, तब वह कोई हिरण मारकर घर में ला दे, पर मन में उसे अपार दुःख होता हो, पश्चाताप होता हो कि मैंने किया सो गलत किया। वह आत्मा का अशुभ उपयोग। अशुद्ध और अशुभ उपयोग में क्रियाएँ एक समान ही होती हैं, फिर भी, एक की गई क्रिया का गर्व करता है, आनंद मनाता है, जबकि दूसरा पश्चाताप के आँसू बहाता है। इतना ही अंतर। ये सभी अशुभ उपयोगवाले जीव सैकिन्ड क्लास के पैसेंजर जैसे हैं। वे तिर्यंचगति बाँधते हैं।
३) शुभ उपयोग: शुभ उपयोग में घरवाले भूख से तड़पते हों, फिर भी वह तो ऐसा ही कहता है कि किसी को मारकर मुझे भूख नहीं मिटानी। वह आत्मा का शुभ उपयोग। परायों के लिए शुभ भावना रखना,
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आप्तवाणी-१
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लोगों की भलाई करना, ओब्लाईज (परोपकार) करना, दिल सच्चा नीतिमय रखना, वह शुभ उपयोग। सिर्फ शुभ उपयोग तो किसी को ही होता है। हर जगह शुभाशुभ उपयोग होता है। शुभाशुभ उपयोगवाले, फर्स्ट क्लास के पैसेंजर। उसका फल मनुष्यगति। जब कि सिर्फ शुभ उपयोग में ही रहें, वे तो एअर कंडिशन्ड क्लास के पैसेंजर जैसे, वे देवगति पाते
(४) शुद्ध उपयोग : शुद्ध उपयोग किसे कहते हैं? शुद्ध उपयोगी शुद्ध को ही देखते हैं। अंदर का माल देखते हैं, पैकिंग नहीं देखते। तत्त्वदृष्टि से देखना, वही शुद्ध उपयोग। शद्ध उपयोग आत्मा प्राप्त करने के बाद ही शुरू होता है। उपयोग संपूर्ण शुद्ध हो जाए, तब केवलज्ञान होता है। शुद्ध उपयोग का फल, मोक्ष। हम संपूर्ण शद्ध उपयोगी हैं। एक महाराज ने मुझसे पूछा, 'आप कार में घूमते हैं, तो कितने ही जीव कुचले जाते हैं, आपको इसका दोष नहीं लगता?' मैंने उनसे कहा, महाराज! आपके शास्त्र क्या कहते हैं,
'शुद्ध उपयोगी और समताधारी, ज्ञान-ध्यान मनोहारी रे,
कर्म कलंक कु दूर निवारी, जीव वरे शिवनारी रे।'
हम शुद्ध उपयोगी हैं। शुद्ध उपयोगी को हिंसा होती है? महाराज बोले, 'नहीं!' मैंने कहा कि हमें दोष नहीं लगता, आपको लगता है, क्योंकि 'मैं महाराज हूँ, ये पैर मेरे हैं और ये जंतु मुझसे कुचले जाते हैं।' ऐसा ज्ञान, ऐसा भान आपको निरंतर बरतता है। अरे! नींद में भी बरतता है। इसलिए आपको दोष लगता है, जब कि हम निरंतर शद्ध उपयोग में ही रहते हैं। यह देह मेरी है, ऐसा एक क्षण के लिए भी हमें नहीं होता। पूरा मालिकीभाव ही हमारा उड़ गया होता है। इसलिए हमें दोष नहीं लगता।
आपका एक प्लॉट हो जिसे आठ दिन पहले आपने लल्लूभाई को बेच दिया हो। दस्तावेज भी कर दिया हो। और एक दिन पुलिस आपके घर हथकड़ी लेकर आती है और आपसे कहती है, 'चलिए चंदूभाई!
आपको पुलिस स्टेशन आना होगा। आप पूछेगे, 'क्यों भैया, क्या गुनाह किया है मैंने?' इस पर पुलिस कहे, 'आपके प्लॉट में से दस लाख का तस्करी का सोना बरामद हुआ है, यही आपका गनाह है।' सुनते ही तुरंत 'हाश' करके, पुलिस को आप लल्लूभाई को प्लॉट बेचा, उसका दस्तावेज देखएँगे। देखते ही पुलिस समझ जाएगी और ऊपर से आपसे माफी माँगकर चली जाएगी और पहुँचेगी लल्लूभाई के पास।
ऐसा हमारा है। इस देह के भी हम मालिक नहीं हैं। हम सारे ब्रह्मांड के स्वामी हैं, पर मालिकीभाव हमारा एक भी प्लॉट में नहीं होता। सारे ब्रह्मांड को थरथराने की शक्ति 'हममें' है, पर इस अंबालाल मूलजीभाई में सेका हुआ पापड़ तोड़ने की शक्ति भी नहीं है!
मनुष्यपन का डेवलपमेन्ट इस संसार में मनुष्यपन के चौदह लाख स्तर हैं। उनमें से ऊपर के पचास हजार स्तर ही यह बात सुनने लायक हैं। मनुष्यगति में ही होते हैं, परंतु सबका डेवलपमेन्ट एक सरीखा नहीं होता। हरेक का स्टैन्डर्ड अलग-अलग होता है। उनके डेवलपमेन्ट के अनुसार उनके भगवान होते हैं। इसलिए नियम से ही उन्हें उस भगवान की भक्ति प्राप्त होती है। शास्त्र भी उनके डेवलपमेन्ट के आधार पर आ मिलते हैं। ये सारे मनुष्य डेवलपमेन्ट के आधार पर अपने स्टैन्डर्ड में होते हैं और उनके पास, उनके स्टैन्डर्ड के हिसाबवाले भगवान भी होते हैं। वे स्टैन्डर्ड लौकिक धर्म-रिलेटिव धर्म के हैं।
माया और मुक्ति ! 'माया माथे शींगड़ा, लंबे नव नव हाथ,
आगे मारे शींगड़ा ने पीछे मारे लात।' माया क्या कहती है? मेरा मान नाम का लडका जब तक जीवित है, तब तक मेरी सारी संतानों को मार दोगे, फिर भी वे सजीवन हो जाएँगे। क्रोध-मान-माया (कपट)-लोभ-राग-द्वेष, वे छह, मेरे बेटे और
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आप्तवाणी-१
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सातवीं मैं, ऐसी हमारी वंशावली की बगिया हरी-भरी रहेगी। अतः इस माया और उसके छह बेटों ने सारे संसार को लड़ाई-झगड़ों में फँसा रखा है। यदि एटमबम गिराना है, तो उस पर गिराओ न? झगड़े यही करवाते हैं और संसार खड़ा ही रहता है। उसके छह बेटों में क्रोध भोला है। तुरंत ही भडभड़ कर डालता है, उसकी तो कोई भी पहचान करा सकता है। कोई न कोई कह देगा, 'अबे! क्रोध क्यों करता है?' मान, वह भी अच्छा है। पर क्रोध से थोड़ा निम्न कक्षा का, कोई न कोई तो कहेगा, 'अब सीना ताने क्या घूम रहा है?' परंतु कपट और मोह तो किसी को भी दिखाई नहीं देते और मालिक को खुद भी खबर नहीं होती। अंतिम नंबर आता है लोभ का। कपट, मोह और लोभ से तो भगवान भी तंग आ जाते हैं। जल्दी मोक्ष में जाने नहीं देते। वह तो बहुत भारी वंशावली है, इस माया की तो! अंत तक यह माया जीती जा सके, ऐसा नहीं है। क्रमिक मार्ग में भगवान पद सामने से पुष्पमाला लेकर आए, तब यह माया! उसे मिलने नहीं देती। वह तो ज्ञानी पुरुष मिलें तभी हल निकलता है और माया की वंशावली निर्मूल होती है। हम और कुछ नहीं करते। मान, अहंकार नाम का उसका जो सबसे बड़ा बेटा है, उसे ही जड़मूल से उखाड़ फेंकते हैं। निकाल देते हैं। फिर पाँचों बेटे और माया बुढ़िया सभी मर जाते हैं ताकि छुटकारा हो और मुक्ति मिले। हम ज्ञान देते हैं, तब आपको सभी माया से मुक्ति दिला देते हैं।
सुख के प्रकार संसार में तीन प्रकार के सुख हैं: (१) इन्द्रिय सुख (२) निरिन्द्रिय सुख (३) अतीन्द्रिय सुख।
पंचेन्द्रियों से ही विषय भोगते हैं, वह इन्द्रिय सुख। इन्द्रिय सुख की डाली छोड़ दी और अतिन्द्रिय सुख हाथ नहीं लगा! इसलिए बीच में लटके। निरिन्द्रिय सुख में। और अतिन्द्रिय सुख केवल वही अपना स्वयं का, आत्मा का अनंत सुख है। वह तो बिना आत्मा जाने उत्पन्न होता ही नहीं।
सर्दी की रात की कड़ाके की ठंड थी और एक गाँव के मुसाफिरखाने में एक इन्द्रिय सुखवाला, दूसरा निरिन्द्रिय सुखवाला और तीसरा अतिन्द्रिय सुखवाला, ऐसे तीन जन जा पहुँचे। रात में हिमपात हुआ
और तीनों के पास ओढ़ने-बिछाने को कुछ भी नहीं था। अब तीनों की सारी रात कैसे गुजरी, पता है? इन्द्रिय सुखवाला हर पाँच मिनट पर चिल्ला उठता, 'ओ बाप रे! मर गया रे, इस ठंड ने तो मुझे मार डाला रे!' फलतः सुबह वह सच में मर गया था।
निरिन्द्रिय सुखवाला थोड़ी-थोड़ी देर पर बोलता, 'अबे साली ठंड बहुत है! पर धत, मुझे कहाँ लगती है? यह तो देह को लगती है। ऐसे अहंकार करके सारी रात गुजारी और सुबह देखें, तो सारा शरीर ठंडा पड़ गया होता है, पर उसकी साँस धीमी-धीमी चल रही होती है।
और अतिन्द्रिय सुखवाला? वह तो बाहर हिमपात होते ही अपनी ज्ञानगुफा में चला जाता है। देह से पूर्ण रूप से सारी रात अलग ही रहता है! अपने अनंत सुख के धाम में ही रहता है ! और सुबह उठकर चल पड़ता है।
निरिन्द्रिय सुखवाला अहंकार की मस्ती में ही रहा करता है। लोग बापजी, बापजी करते हैं और वह उसी मस्ती में रहता है।
मल-विक्षेप-अज्ञान: राग-द्वेष-अज्ञान वेदांत में कहा है कि मल, विक्षेप और अज्ञान जाएँ, तो मोक्ष होता है। जब कि जैन दर्शन में कहा है कि राग-द्वेष और अज्ञान जाएँ, तब मोक्ष होता है।
देह के मल तो जुलाब से निकल जाते हैं, पर मन के मल नहीं निकलते। और चित्त का तो किसी से भी नहीं जानेवाला। जब तक अज्ञान है तब तक सारे विक्षेप रहेंगे। थोड़ी शांति रहे, इसलिए ये लोग मल, विक्षेप निकाल करते हैं। ज्ञान मिलने के बाद रहा क्या? मल और विक्षेप तो सत्संग में आएँ तो चले जाएँगे।
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इस जीव को किस का बंधन है? अज्ञान का बंधन तो छूटे कैसे? जिससे बंधा है, उसके प्रतिपक्षी से, यानी कि ज्ञान से।
'मैं चंदूलाल हूँ' उसी आरोपित जगह पर राग है और अन्य जगह पर द्वेष है। अर्थात् स्वरूप के प्रति द्वेष है। एक ओर राग हो, तो उसके प्रतिपक्ष के लिए, दूसरे कोने के प्रति द्वेष होगा ही। हम स्वरूप का भान करवाते हैं, शुद्धात्मा का लक्ष बैठा देते हैं, तब उसी क्षण से वह 'वीतद्वेष' में आता है और ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों वीतराग होता जाता है। वीतराग यानी मूल जगह का, स्वरूप का ज्ञान-दर्शन। हम आपको संपूर्ण केवलज्ञान और केवलदर्शन प्रदान करते हैं। इसलिए आपको संपूर्ण केवलदर्शन उत्पन्न होता है और केवलज्ञान, तीन सौ साठ डिग्री का, पूर्ण रूप से पचता नहीं है, काल की वजह से। अरे! हमें ही चार डिग्री का अजीर्ण हुआ न? हम देते हैं तीन सौ साठ डिग्री का केवलज्ञान, पर वह आपको पचेगा नहीं। अतः आप अंश केवलज्ञानी कहलाते हैं। जितने अंशों तक आत्म स्वभाव प्रकट होता जाता है, उतने अंशों का केवलज्ञान प्रकट होता जाता है। सर्वांश आत्म स्वभाव प्रकट हो तब सर्वांश केवलज्ञान कहलाता है।
'भ्रांति से भ्रांति को काटना', ऐसा क्रमिक मार्ग में कहा है। जैसे कपड़ा मैला हो, तो उसका मैल निकालने को साबुन चाहिए। अब वह साबुन अपना मैल छोड़ता जाता है। उस साबुन का मैल निकालने के लिए फिर टीनोपाल चाहिए। टीनोपाल साबुन का मैल निकालता है पर अपना मैल छोड़ता जाता है। ऐसे अंत तक जिन-जिन साधनों को उपयोग में लाएँ, वे अपना मैल छोड़ते जाते है। निर्मल कभी भी नहीं हो पाता। वह तो निर्मल, ऐसे ज्ञानी पुरुष की भेंट हो, तभी निर्मल हो। ज्ञानी पुरुष जो संपूर्ण निर्मल हुए हैं, शुद्ध हुए हैं, वही आपके प्रत्येक परमाणु को अलग करके, आपके पापों को भस्मीभूत करके, केवल शुद्धात्मा आपके हाथों में रखें, तब अंत आता है। तभी मोक्ष होता है। वर्ना अनंत जन्म, कपड़ा धोते रहें और जिस साबुन से धोया उसीका मैल लगता जाता है।
वाणी का विज्ञान सास सुबह से शाम तक कट-कट करती है और बहू मन ही मन झुंझलाती रहती है। वह यदि चार घंटे तक लगातार गालियाँ सुनाती रहे
और हम उसे कहें कि सासजी, आप फिर से वही गालियाँ, उसी क्रम में फिर से सुनाइए तो! तो वह सुना पाएगी क्या? नहीं। क्यों? अरे, वह तो रिकॉर्ड बोला था। यह रिकॉर्ड बोले कि चंचल में अक्ल नहीं है, चंचल में अक्ल नहीं है, तो क्या चंचल रिकॉर्ड से कहेगी कि तुझमें अक्ल नहीं है?' वाणी रिकॉर्ड स्वरूप है, ऐसा स्पष्टीकरण करनेवाले हम ही हैं। वाणी जड है, रिकॉर्ड ही है। यह टेपरिकार्ड बजता है, उसमें पहले टेप उतरती है कि नहीं? उसी तरह यह वाणी की भी पूरी टेप उतरी हुई है
और उसे संयोग मिलते ही, जैसे पिन रखते ही रिकॉर्ड बजने लगता है, वैसे वाणी निकलने लगती है और मुआ कहता है कि मैं बोला। वकील कोर्ट में केस जीत कर आए, तो सबसे कहता है कि मैंने ऐसे प्लीडिंग की और ऐसा करके केस जीत गया। तु जब हारता है, तब तेरी प्लीडिंग कहाँ जाती है? तब तो कहेगा कि मुझे यह दलील करनी थी, पर करनी रह गई! अरे! तू नहीं बोलता, वह तो रिकॉर्ड बोलता है। यदि जमाजमाकर बोलने जाए, तो एक अक्षर भी नहीं निकले।
कईबार ऐसा होता है या नहीं कि आपने दृढ निश्चय किया हो कि सास के सामने या पति के आगे नहीं बोलना है फिर भी बोल दिया जाता है? बोला जाता है वह क्या है? हमारी तो इच्छा नहीं थी। तब क्या पति
की इच्छा थी कि बहू मुझे गाली दे? तब कौन बलावाता है? वह तो रिकॉर्ड बोलता है और जो रिकॉर्ड उतर गया है उसे तो कोई बाप भी बदल नहीं सकता।
कईबार कोई मन में निश्चय करके आया हो कि आज तो फलाँ को ऐसी सुनाऊँ वैसा बोल दूंगा, पर जब उसके पास जाता है, तो दूसरे पाँच लोगों को देखकर, एक अक्षर भी बोले वगैर वापस लौट जाता है कि नहीं? अरे, बोलना है, मगर बोलती बंद हो जाए, ऐसा होता है कि नहीं? यदि तेरी सत्ता की वाणी हो, तो तू चाहे वैसी वाणी निकले। पर
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ऐसा होता है? कैसे होगा? यह अंबालाल मूलजीभाई, देहधारी है, फिर भीतर परमात्मा संपूर्ण प्रकट हो गए हैं, फिर भी उनकी वाणी भी रिकार्ड स्वरूप है। हमें बोलने की सत्ता ही नहीं है। हम तो रिकॉर्ड कैसा बजता है, उसे देखते है और जानते हैं। वाणी पूर्णतया जड़ है। पर हमारी वाणी चेतन को, प्रकट परमात्मा को स्पर्श करके निकलती है, इसलिए उसमें चेतन भाव है, प्रत्यक्ष सरस्वती है। यह फोटोवाली सरस्वती तो परोक्ष सरस्वती है। पर हमारी वाणी तो प्रत्यक्ष सरस्वती है। इसलिए सामनेवाले के अनंत जन्मों के पापों को जला कर भस्मीभूत करती है।
हमारी वाणी संपूर्ण वीतराग होती है, स्याद्वाद होती है। वीतराग को पहचानने की सादी रीत उनकी वाणी है। जितना आपका जौहरीपन होगा, उतनी इसकी कीमत होगी। पर इस काल में जौहरीपन ही कहीं रहा नहीं है। मुए, पाँच अरब के हीरे की कीमत पाँच रुपये लगाते हैं, तब हीरे को खुद बोलना पड़ता है कि मेरी क़ीमत पाँच अरब की है। वैसे ही आज हमें खुद बोलने की नौबत आई है कि हम भगवान हैं! अरे! भगवान के भी ऊपरवाले हैं! संपूर्ण वीतराग! भगवान ने हमें ऊपरवाले का पद खुद दिया है। उन्होंने कहा, 'हम पात्र खोजते थे. जो हमें आपमें दिखाई दिया। हम तो अब संपूर्ण वीतराग होकर मोक्ष में बैठे हैं। अब हम से किसी का कुछ सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिए आप प्रकट स्वरूप में सर्व शक्तिमान हैं। देहधारी होते हुए भी संपूर्ण वीतराग हैं। इसलिए हम आपको हमारा भी ऊपरी (Superior) बनाते हैं ! चौदह लोक के नाथ के हम आज ऊपरी हैं। सर्व सिद्धि सहित यह ज्ञानावतार प्रकट हुआ है! अरे! तेरा दीया सुलगाकर (अपनी ज्योति जलाकर) चलता बन। बहुत नाप-तौल मत करना। अतुल्य और अथाह ज्ञानी पुरुष, उसकी तू क्या क़ीमत करनेवाला है? घर पर बीवी तो तुझे झिड़क देती है कि तुम्हारे में अक्ल नहीं है, फिर तुम ज्ञानी पुरुष को कैसे नाप सकते हो? जौहरीपन है तुम्हारे में? अरे! मुझे नापने जाएगा, तो तेरी मति का नाप निकल जाएगा। उसके बजाय सारा आड़ापन गठरी में बाँधकर बांद्रा की खाड़ी में फेंक आ और सयाना होकर, सीधा होकर बोल दे कि मैं कुछ जानता
नहीं हूँ और आप मुझे अनंतकाल की भटकन से छुडाइए बस इतना बोल दे, ताकि तेरा हल निकाल दें। ज्ञानी पुरुष चाहे सो करें, क्योंकि मोक्षदान का लायसन्स उनके हाथों में होता है। ज्ञानी कितने होते हैं संसार में? पाँच या दस? अरे! कभी कभार ज्ञानी जन्मते हैं, और उसमें भी अक्रम मार्ग के ज्ञानी तो दस लाख वर्षों में जन्मते है और वह भी ऐसे वर्तमान आश्चर्य युग जैसे कलियुग में ही। लिफ्ट में ही ऊपर चढ़ाते है। सीढ़ियाँ चढ़कर हाँफना नहीं पड़ता। अरे! बिजली की चमकार में मोती पिरो ले। यह बिजली की चमकार हुई है, तब त अपना मोती पिरो ले। पर तब मुआ धागा खोजने निकलता है। क्या करें? पुण्याई कच्ची पड़ जाती है।
मात्र वीतराग वाणी ही मोक्ष में ले जानेवाली है। हमारी वाणी मीठी, मधुरी होती है, अपूर्व होती है। पहले कभी सुनने में नहीं आई हो ऐसी होती है, डायरेक्ट (प्रत्यक्ष) वाणी होती है। शास्त्र में जो वाणी होती है वह इनडायरेक्ट (परोक्ष) वाणी होती है। डायरेक्ट वाणी यदि एक ही घंटा सुनें, तो समकित हो जाए। हमारी वाणी स्याद्वाद होती है। किसी का भी प्रमाण नहीं दुःखे, उसका नाम स्यादवाद। सर्व नय सम्मत होती है। सभी व्यू पोइन्ट को मान्य करती है। क्योंकि हम खुद सेन्टर में होते हैं। हमारी वाणी निष्पक्षपाती होती है। हिन्दु, मुस्लिम, पारसी, खोजा सभी हमारी वाणी सुनते हैं और उन्हें हम आप्त पुरुष लगते हैं, क्योंकि हममें भेदबुद्धि नहीं होती। सभी के अंदर मैं ही बैठा होता हूँ न! बोलनेवाला भी मैं और सुननेवाला भी मैं ही।
संपूर्ण रूप से सामनेवाले का आत्म कल्याण कैसे हो, ऐसे भाववाली वाणी, वही वीतराग वाणी। और वही उसका कल्याण करती है, ठेठ मोक्ष में ले जाती है।
मौन-परमार्थ मौन सारा दिन हमारा यह रिकॉर्ड चलता है पर फिर भी हम मौन हैं। आत्मार्थ के अलावा और किसी अर्थ को लेकर हमारी वाणी नहीं होती है, इसलिए हम मौन हैं। मौन पाले वह मुनि। पर ये मुनि तो बाहर का
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मौन पालते है और भीतर अशांति रहा करती है, वे मुनि कैसे कहलाएँ? हम महामुनि हैं! संपूर्ण मौन हैं! इसे परमार्थ मौन कहते हैं।
हित, मित और प्रिय - इन तीनों गुणोंवाली वाणी ही सत्य है और शेष सभी असत्य है। व्यवहार वाणी में यह नियम लागू होता है।
नटुभाई यह हमारी वाणी आप उतार लेते हैं, पर वह आपको पचास प्रतिशत फल देगी और अन्य कोई पढ़ेगा, तो उसे दो प्रतिशत भी फल नहीं मिलेगा। यह बुलबुला जब तलक फूटा नहीं है, तार जोड़कर अपना काम निकाल लो। हम सभी से कहते हैं कि हमारे पीछे हमारी मूर्ति या फोटो मत रखना। हम अपने पीछे ज्ञानीओं की वंशावली छोड जाएँगे. हमारे वारसदार छोड़ जाएँगे और बाद में ज्ञानिओं का लिंक चालू रहेगा। इसलिए सजीवन मूर्ति को खोज लेना। उसके बगैर हल निकलनेवाला नहीं है। (प्रत्यक्ष का महत्व समझने के लिए पूज्य दादाश्री ने ऐसा कहा
अंतःकरण सारी दुनिया जिस साइंस की खोज में है, उस साइंस का सर्व प्रथम संपूर्ण स्पष्टीकरण हम देते हैं। मन को समझना मुश्लिक है। मन क्या है? बुद्धि क्या है? चित्त क्या है? अहंकार क्या है? उन सभी का यथातथ्य स्पष्टीकरण हम देते हैं।
शरीर में से जो कभी बाहर नहीं निकलता है, वह मन । मन तो अंदर बहुत ही उछल-कूद करता है। भाँत-भाँत के पैम्फलेटस दिखलाता है। मन का स्वभाव भटकना नहीं है। लोग, मेरा मन भटकता है, ऐसा कहते हैं, वह गलत है। जो भटकता है, वह चित्त है। चित्त अकेला ही इस शरीर से बाहर जा सकता है। वह ज्यों की त्यों तसवीरें खींचता है। उसे देख सकते हैं। बुद्धि सलाह देती है और डिसिज़न बुद्धि लेती है और अहंकार उसमें हस्ताक्षर कर देता है। मन, बुद्धि और चित्त, इन तीनों की सौदेबाजी चलती है। बुद्धि इन दोनो में से जिस से भी मिल जाती है, चित्त के साथ या मन के साथ, उसमें अहंकार हस्ताक्षर कर देता है।
मान लीजिए, आप सान्ताक्रुज में बैठे हैं और भीतर मन ने पैम्फलेट दिखलाया कि दादर जाना है। तब तुरंत चित्त दादर पहुँच जाएगा और दादर की हूबहू फोटो यहाँ बैठे-बैठे दिखाई देगी। फिर मन दूसरा पैम्फलेट दिखाएगा कि चलिए बस में चलेंगे, तब चित्त बस देखकर आएगा। फिर मन तीसरा पैम्फलेट दिखाएगा कि टैक्सी में ही जाना है। फिर चौथा पैम्फलेट दिखलाएगा कि ट्रेन में जाएँ। तब चित्त ट्रेन, टैक्सी, बस सभी देख आता है, उसके बाद चित्त बार-बार टैक्सी दिखाता रहेगा। अंत में बुद्धि डिसिजन लेगी कि टैक्सी में ही जाना है। अहंकार इन्डिया के प्रेसिडेन्ट की तरह हस्ताक्षर कर देगा, और तुरंत ही कार्य हो जाएगा, और आप टैक्सी के लिए खड़े हो जाएंगे। जैसे ही बुद्धि ने अपना डिसिजन दिया कि तुरंत मन पैम्फलेट दिखाना बंद कर देगा। फिर दूसरे विषय का पैम्फलेट दिखाएगा। बुद्धि + मन की बात पर अहंकार हस्ताक्षर करेगा या बुद्धि + चित्त की बात पर अहंकार हस्ताक्षर करेगा। मन और चित्त में बुद्धि तो कॉमन रूप से रहती है, क्योंकि बगैर बुद्धि के किसी भी कार्य का डिसिजन नहीं आता और डिसिज़न आने पर अहंकार हस्ताक्षर कर देता है और कार्य होता है। बिना अहंकार के तो कोई काम ही नहीं होता, पानी पीने को भी नहीं उठा जा सकता।
यह अंत:करण तो पार्लियामेन्टरी सिस्टम है।
अंत:करण चार वस्तुओं का बना हुआ है। १. मन २. बुद्धि ३. चित्त और ४. अहंकार।
चारों रूपी हैं और पढ़े जा सकते हैं। चक्षुगम्य नहीं हैं, ज्ञानगम्य हैं। कम्पलीट फिज़िकल हैं। शुद्ध आत्मा और उनका कोई लेना-देना नहीं है। वह पूर्णतया अलग ही है। हम पूर्ण रूप से अलग हुए हैं, इसलिए उनका दर असल वर्णन कर सकते हैं।
किसी भी कार्य की पहली फोटो, पहली छाप अंत:करण में पड़ती है और फिर वह बाह्यकरण में तथा बाह्य संसार में दृश्यमान होती है।
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मन कैसा है? विचार क्या है?
अब, यह मन क्या है? उसका स्वरूप क्या है? यह समझाता हूँ।
मन तो ग्रंथि है। गाँठों का बना है। मन सूक्ष्म है। अणु भी नहीं और परमाण भी नहीं। दोनों के बीच का स्टेज है। जो-जो अवस्था खडी होती है, उस में तन्मय हो जाता है। उस अवस्था में राग या द्वेष करे तब उस 'अवस्था' में 'अवस्थित' होता है। इसलिए 'कारण मन' के रूप में तैयार होता है और उसका जो फल आता है, वह फल 'व्यवस्थित' देता है। वह 'कार्य मन' के रूप में होता है। हरेक का अलग-अलग मन होता है, क्योंकि 'कारण मन' अलग-अलग होता है। 'अवस्था' में जितना ज्यादा 'अवस्थित' होता जाता है उतनी अधिक मात्रा में परमाणु इकट्ठा होते जाते हैं और उसकी ही ग्रंथि बनती है। 'मन ग्रंथि स्वरूप है।' जब ग्रंथियाँ 'व्यवस्थित' के नियम के आधार पर टाइमिंग का संयोग मिलते ही फूटती हैं, तब वह विचार कहलाता है। विचार पर से मन का स्वरूप समझ सकते हैं कि गाँठ किस की पड़ी है। विचार आता है, उसे पढ़ा जा सकता है। मनचाहे विचार आते हैं, उसमें राग करते हैं और अनचाहे विचार आते हैं, उन पर द्वेष करते हैं और कहते हैं कि हम मन को वश करने जाते हैं। मन तो कभी भी वश हो ही नहीं सकता। मन को तो ज्ञान से ही बांध सकते हैं। जैसे पानी सुराही में बंधता है वैसे। मन को वश करना तो सबसे बड़ा विरोधाभास है। खुद चेतन है और मन अचेतन है, उन दोनों का मेल कैसे हो सकता है? वह तो चेतन, चेतन का कार्य करे
और मन को मन का कार्य करने दें, तो ही हल निकले। हाँ, जागति इतनी रखनी कि मन के कार्य में दखल नहीं करना है, तन्मय नहीं होना है।
मन की गाँठे कैसी होती हैं, इसे आपको मैं समझाता हूँ। एक खेत में गरमी के मौसम में गए हों, तो आपको खेत साफ-सुथरा दिखाई देगा। यह देखकर आप मान लेंगे कि मेरा खेत एकदम साफ है। तब मैं कहूँगा, 'नहीं, भैया, अभी बरसात आने दे, फिर देखना।' बरसात होते ही बाड़ों के पास और हर जगह तरह-तरह की बेलें निकल आएँगी। कंकोड़े की,
करेले की, कुंदरू की और जंगली बेलें ऐसी तरह-तरह की बेलें फूट निकलेंगी, ये बेलें कहाँ से अंकुरित हुई? वहाँ हरेक बेल की गाँठ थी, जो बरसात का संयोग आ मिलते ही फूट निकली। फिर आप खेत को चोखा करने मूल सहित बेलें उखाड़ फेंकते हैं और खुश होते हैं कि अब मेरा खेत साफ हो गया, तब मैं कहूँ, 'नहीं अभी तीन साल तक, बरसात होने के बाद देखते रहो और उसके बाद यदि बेल नहीं उगे, तभी आपका खेत चोखा हुआ कहलाएगा।' उसके बाद ही निग्रंथ होता है। वैसे ही यह मन भी गाँठों का बना है। जिसकी गाँठ बड़ी, उसके विचार ज्यादा आएंगे। जिसकी गाँठ छोटी, उसके विचार बहुत कम
आएंगे। जैसे कि एक बनिए के बेटे से पूछे कि तुझे माँसाहार के विचार कितनी बार आया? तो वह कहेगा, 'मेरी बाइस साल की उम्र में चारपाँच बार आए होंगे।' इसका अर्थ यही कि उसकी मांसाहार की गाँठ छोटी है, सुपारी जितनी। जब कि एक मुसलमान के बेटे से पूछे, तो वह कहेगा, 'मुझे तो रोज कितनी ही बार मांसाहार के विचार आते हैं।' उसका अर्थ यह कि उसकी मांसाहार की गाँठ बहुत बड़ी है। सूरन की गाँठ जैसी। जब तीसरे किसी जैन के बेटे से पछे तो कहेगा, 'मुझे जिंदगी में मांसाहार का विचार ही नहीं आया।' उसका अर्थ यही कि उसमें मांसाहार की गाँठ ही नहीं है।
अब आपसे कहा जाए कि एक महीने का ग्राफ बनाकर लाइए। ग्राफ में नोट करें कि सबसे अधिक किस विषय के विचार आए? फिर दूसरे नंबर पर किस के विचार आए? ऐसे नोट करते जाओ। फिर एक सप्ताह का ग्राफ बनाकर लाओ, और फिर एक दिन का ग्राफ बनाकर लाओ। इस पर से आपको पता चल जाएगा कि किस-किस की गाँठे अंदर पड़ी हैं और कितनी-कितनी बड़ी हैं। बड़ी-बड़ी गाँठें तो पाँच दस ही होती हैं, जो बाधक हैं। छोटी-छोटी गाँठें बहुत बाधक नहीं हैं। इतना कर सकते है कि नहीं?
हमारे एक भी गाँठ नहीं होती, हम निग्रंथ हैं। मनुष्य मात्र गाँठदार लकड़ी कहलाता है। उससे फर्निचर भी नहीं बनता। अब ये मन की गाँठे
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आप्तवाणी-१
बहुत एक्सेस हो जाए, तो देह के ऊपर भी फूट निकलती हैं, ट्यूमर्स कहते हैं उन्हें।
की गाँठ को पोषण नहीं मिलता। अगले जन्म के लिए, चोरी नहीं करनी, ऐसे बीज बोता है। अतः वह दूसरे जन्म में चोरी नहीं करेगा।
मन जो-जो विचार दिखाता है, उस में खुद अज्ञानता से संकल्प विकल्प करता है, उसके फोटो पड़ते हैं। उसकी नेगेटिव फिल्म तैयार होती है और जब वह रूपक में आता है। तब वह परदे पर पिक्चर देखता है, ऐसा होता है। सिनेमा हॉल में जो फिल्म देखते हैं, वहाँ तो तीन घंटे के बाद, 'दी एन्ड' दिखाते हैं। वह एन्डवाला फिल्म है, जब कि मन का फिल्म अंतहीन है। जब उस का 'दी एन्ड' होता है, तब मोक्ष होता है। इसलिए तो कवि ने औरंगाबाद में, सिनेमा हॉल के ओपनिंग में गाया
स्व-स्वरूप और मन बिलकुल भिन्न ही हैं और कभी भी एक नहीं हो सकते । जब मनचाहे विचार आते हैं, तब भ्रांति से ऐसा लगता है कि मैं विचार करता हूँ, मेरे विचार कितने अच्छे हैं और जब अनचाहे विचार आते हैं, तब कहता है कि मुझे बहुत बुरे विचार आते हैं। मना करता हूँ, फिर भी आते हैं। वह क्या सूचित करता है? अच्छे विचार करनेवाला तू
और बुरे विचार आने पर कहता है कि मैं क्या करूँ? यदि स्वयं ही विचार करता हो, विचार करने की खुद की सत्ता होती, तो हर कोई मनचाहे विचार ही करता। अनचाहे विचार कोई करता ही नहीं। पर ऐसा होता है? नहीं। वह तो, मनचाहे और अनचाहे, दोनों ही विचार आएँगे ही!
कार्य प्रेरणा मन से है कितने ही कहते हैं कि चोरी करने की मुझे, भीतर से भगवान प्रेरणा देते हैं। यानी तू साहूकार और भगवान चोर, ऐसा? मुए, भगवान कहीं ऐसी प्रेरणा देते होंगे? भगवान तो चोरी करने की प्रेरणा भी नहीं देते और न ही चोरी नहीं करने की प्रेरणा देते है। वे क्यों तुम्हें प्रेरित करके चोर ठहरें? कानून क्या कहता है कि जो प्रेरित करे, वह चोर !
भगवान ऐसी बातों मे हस्तक्षेप करते होंगे कहीं? वे तो ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी। सबकुछ देखते और जानते हैं। तब वह प्रेरणा क्या होती होगी? वह तो भीतर में चोरी करने की गाँठ फूटती है, तब तुझे चोरी करने का विचार आता है। गाँठ बड़ी रही, तो बहुत विचार आएँगे और चोरी करके भी आएगा। फिर कहेगा, मैंने कैसी चालाकी से चोरी की। ऐसा कहने पर चोरी की गाँठ को पुष्टि मिलती है। पोषण मिले, तो नये बीज पड़ते हैं और चोरी की गाँठ और बड़ी होती जाती है। अब एक दूसरा चोर है, वह चोरी करता है, पर साथ-साथ वह भीतर पछताता है कि यह चोरी होती है वह बहुत गलत हो रहा है, पर करूँ भी तो क्या? पेट भरने को करना पड़ता है। वह दिल से पश्चाताप करता रहे, तो चोरी
_ 'तीन घंटे का फिल्म दिखावा दुनिया भर में चलते हैं, किन्तु मन के फिल्मों का 'दी एन्ड' को मोक्ष ही कहते हैं।'
लोग तो मन को वश में करने निकले हैं। अनचाही फिल्म दिखती है, तब उसे काटता रहता है। कैसे कटे? वह तो फिल्म उतारते समय ही चौकस रहना था न? मन तो एक फिल्म है। फिल्म में जो आए उसे देखना और जानना चाहिए। उसमें रोना या हँसना नहीं चाहिए। कुछ तो फिल्म में, किसी की बीवी मर जाए, तो कर्सी में बैठे-बैठे रोने लगते हैं। मानों खुद की ही बीवी नहीं मर गई हो! उसमें रोना नहीं चाहिए। वह तो फिल्म है।
ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध हम तो मन की फिल्म देखते और जानते हैं। क्या-क्या विचार आए और गए उन्हें देखते और जानते हैं। हमारा विचारों से केवल हाथ मिलाने तक का ही संबंध होता है। शादी नहीं कर लेते उनसे। महावीर भगवान भी ऐसा ही करते थे। उन्हें तो विचार आते दिखाई देते और जाते दिखाई देते थे। आते और चले जाते। उन्हें भी विचार अंत तक आते थे। विचार हैं, तो तू है। वे ज्ञेय हैं और तू ज्ञाता है। ज्ञेय-ज्ञाता का संबंध है। यदि
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अंकुश लगाने जाओगे, तो वह दुगुनी गति से दौड़ेगा। इसलिए मन पर अंकुश मत लगाना। आज्ञाधीन मन हो और अंकुश रखें, तो चलेगा। आज्ञाधीन न हो, तो उसे दौड़ाते रहना, ताकि थक जाए, हाँफने लगे, हमें क्या? लगाम हमारे हाथ में है न? तब लोग क्या कहते हैं? भाड़ में जाए मन, नींद नहीं आएगी। फिर सोने के लिए मन को दबाते रहेंगे। अंकुशित, नियंत्रित किया करेंगे। अरे! नींद एक ओर रख न! यह तो मजे की बात है, मन पर सवारी करने का मौका है, ऐसा मौका फिर कब मिलेगा?
ज्ञेय ही नहीं रहे, तो तू ज्ञाता किस का? ठेठ मोक्ष में जाने के अंतिम समय तक मन की फिल्म दिखाई देती है और उसकी समाप्ति पर संपूर्ण मुक्ति होती है, निर्वाण होता है। अंधेरे में अकेले निकलने पर यदि चोर के विचार आएँ, तो समझ लेना कि आज नहीं तो किसी और दिन लुटनेवाले हैं। यदि विचार ही नहीं आते, तो समझ लेना कि लटनेवाले नहीं हैं। विचारों का आना फोरकास्ट है। वह माल अंदर भरा है, इसलिए विचार के स्वरूप में प्रकट होता है। ऐसे विचार का आना एक एविडन्स (संयोग) है। हमें तो देखना और जानना है और वहाँ विशेष जागृत रहना है। संसार में मन का विज्ञान खास समझने जैसा है। हर कोई मनोलय करने जाता है। मन का नाश नहीं करना है। मन का नाश हो, तो मेन्टल हो जाएगा। मन में अच्छा ही आए, ऐसा नहीं होना चाहिए। जो आए सो भले ही आए। मन से हमें क्या कहना है? तू भों-भों बजाना चाहे, तो वह बजा और पिपाड़ी बजाना चाहे, तो वह बजा। कार्य मन को रोकनेवाले या बदलनेवाले हम कौन होते हैं? कोई बाप भी उसे बदल नहीं सकता क्यों कि वह तो इफेक्ट (परिणाम) है। उससे डरना क्या? वह बाजा नहीं बजाएगा, तो हम सुनेंगे क्या? हमें एडजस्टमेन्ट लेना है। जिस ओर का गाना चाहो, उस ओर का गाओ, हमें तो हर ओर का शौक है। ज्ञान होने से पहले अच्छे का शौक था, इसलिए और कुछ सुनना नहीं भाता था। अब तो हम तेरे साथ एडजस्ट हो गए हैं, इसलिए तू जो बजाना चाहे बजा। अब राग-द्वेष करें वे और कोई होंगे, हम नहीं।
मन पर सवार हो जाइए हमें ज्ञान नहीं था, तब भी हमें विचार आने लगे, तो हम समझ जाते थे कि आज ये सोने नहीं देंगे। तब मैं मन से कहता, 'दौड़, दौड़! बहुत अच्छे, बहुत अच्छे, दौड़ता रह। तू घोड़ा और मैं सवार। तू जिस राह चलना चाहे, चल। तू है और हम हैं।' ऐसे ही सुबह के सात बज जाते थे। इस संसार का नियम क्या है? जिस पर रोक लगाएँ, जिस पर कंट्रोल करें, वह ऊपर चढ़ बैठता है। जैसे शक्कर का कंट्रोल करें, तो शक्कर की कीमत बढ़ जाएगी। मन का भी यही हाल है। मन पर यदि
हमने तो मन पर सवारी करी, तभी तो यह अविरोधाभास ज्ञान उत्पन्न हुआ है।
मन तो संसार सागर की नैया है। पर लोग मन को फ्रेक्चर करके निर्विचार भूमिका कर देते हैं। मगर निर्विचार पद कभी भी प्राप्त होनेवाला नहीं है। निर्विचार हुआ, तो मानो पत्थर जैसा ही हो गया। लोग निर्विचार पद किसे कहते हैं? जिन विषयों में मन बहुत उछल-कूद करता हो, उन विषयों को दबा देते हैं, फल स्वरूप मन दूसरी ओर उछल-कूद करने लगेगा। निर्विचार पद तो किसे कहते हैं? कि समय-समय पर आनेवाले विचारों को, खुद शुद्धात्मा दशा में स्थित रहकर, पूर्णरूप से अलग होकर देखे और जाने। यही भगवान की भाषा का निर्विचारी पद है।
मन को वश करने लंगोटी बाँधकर, सब छोड़कर, घर-संसार, बीवी-बच्चों, सबको छोड़कर चले गए। यहाँ लोकदर्शन छोड़कर जंगल में जंगली जानवरों के और पेड़-पौधों के दर्शन करने गए। पर वे मन तो साथ ले गए। वह सभी करनेवाला है। गाय-बकरी पालेगा, गुलाब का पौधा लगाएगा, झोंपड़ी बाँधेगा। मन का तो स्वभाव ही ऐसा है कि जहाँ जाए वहाँ संसार खड़ा कर दे। हिमालय में जाए, तो वहाँ भी संसार खड़ा करे। अब ऐसे मन को आप कैसे वश में करेंगे? 'मन को वश करना' तो सबसे बड़ा विरोधाभास है। मन के स्वभाव को वश में कर सकें ऐसा नहीं है। मगर योगी आदि होते हैं, जो पूर्व जन्म की ऐसी ग्रंथि लेकर आए होते हैं, इसलिए उन्हें ऐसा लगता है कि मन वश में आ गया है।
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मन तो दैवी होना चाहिए। दैवी मन यानी अपकार पर उपकार करे वह । सामनेवाला हमारा हजम कर गया हो और ऊपर से हमें मूर्ख कहता हो, पर जब वह संयोगों का शिकार हो जाए तब दैवी मनवाला ही उसकी मदद करता है। दैवी मनवाला देवगति बाँधता है।
पर उन्हें भी मन जब आड़ापन दिखाता है तब खुद को मालूम हो जाता है कि मन वश में नहीं आया। योगवालों के साथ जब कोई छेड़खानी करे, तब पता चले कि मन कितना वश में है। योग करने की उनकी गाँठ है। वह तो प्राकृत स्वभाव से योग होता है। तब वे ऐसा समझते हैं कि मैंने योग किया, मैंने मन को वश में किया।
मन ज्ञान के वश होता है। यानी कि ज्ञानी, 'स्वरूप ज्ञान से' ग्रंथियाँ पिघला देते हैं और निग्रंथ पद को पाते हैं।
आपका मन ही आपकी अमीरी की फोटो है। मन को पहचान लो। उसका स्वभाव कैसा है, यह पूर्ण रूप से जान लो।
वणिक बुद्धि क्या करती है? खुद को ठंड में ओढ़ने को मिला हो और साथवाले को नहीं मिला हो, तो खुद ओढ़कर सो जाएगा। सिर ढंक कर सो जाएगा और नींद में होने का स्वाँग करेगा, खुद जागता हो, तो साथवाला माँगे न? ऐसा मन ही बहुत मार खिलाता है। जितने राजर्षि उतना तुम्हारा। यह दुनिया तुम्हारी है। तुम्हें भोगना आना चाहिए। कबीरजी बड़े समझदार थे, वे कहा करते थे,
'खा-पी खिलाई दे, कर ले अपना काम,
चलती बखत हे नरो! संग न आवे बदाम।' अपना काम कर ले यानी मोक्ष का काम निकाल ले। संकुचित मन से ही लक्ष्मीजी अवरोधित होती हैं, वर्ना लक्ष्मीजी अवरोधित हों ही क्यों? वणिक बुद्धि समझवाली कहलाती है, पर मोक्ष में जाने हेतु कितनी बाधक
क्षत्रिय का मन कैसा होता है? राजमान राजर्षि जैसा होता है। मंदिर में गए हों, तब जेब में हाथ डाला और जितने पैसे हाथ में आए, उतने डाल दिए। फिर वह देखने को नहीं रूकता कि कितने निकले और कितने डाल दिए? वणिक बुद्धिवाले का मन बहुत संकीर्ण होता है। पाटीदार तो क्षत्रिय कहलाते हैं। उनका राजर्षि मन होता है, इसलिए उनमें वणिक का व्यावहारिक समझ नहीं होती। कोई भी पूर्ण नहीं होता।
__ लक्ष्मीजी कहाँ बसती हैं? लक्ष्मीजी क्या कहती हैं? जो एक सौ लोगों को सिन्सियर रहता है, वहाँ मेरा वास होता है। वास अर्थात् सागर छलके उस प्रकार लक्ष्मी आती है। जब कि और सब जगह, मेहनत के अनुसार ही फल मिलता रहता है। सिन्सियर अर्थात् क्या? सिन्सियर किसे कहते हैं? तब कहे, मन को पहचान लो। उसकी सिन्सियरिटी कैसी है, उसका विस्तार कैसा है वह पहचान लो।
मेहनत से नहीं कमाते। यह तो बड़े मनवाले कमाते हैं। ये जो सेठ लोग होते हैं, वे क्या मेहनत करते हैं? नहीं, वे तो राजर्षि मनवाले होते हैं। मेहनत तो उनका मुनीम ही करता रहता है और सेठ लोग तो मजे उड़ाते रहते हैं।
मन का संकोच-विकास मन यदि प्रतिदिन का हिसाब लगाता रहे, तो अगले दिन कढ़ी भी नहीं बना सके। दुकान में चार आने की भी कमाई नहीं हुई हो, तो क्या दूसरे दिन कढ़ी नहीं बनाएँ? रास्ता यदि पाँच फीट चौड़ा हो, तो भी झाँखर आ लगेगा, दो फीट चौड़ा रास्ता हो तब भी झाँखर आ लगेगा। एकदम संकरा, एक आदमी मुश्किल से जा सके ऐसा रास्ता हो तब भी झाँखर तो आ लगेगा ही, मगर वह उसमें से निकल तो जाएगा ही। जितना भी रास्ता हो उसमें से निकल तो जाएगा ही। आज कौन से छेद से गुजरना है, यह मन जानता है। इसलिए सिकुड़कर, किसी भी रास्ते से निकल जाएगा। दो तार के बीच में से भी निकल जाएगा। इसलिए ही हम कहा
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आप्तवाणी-१
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करते हैं कि राजा जैसा मन हुआ हो, उसे भिखारी मत होने देना। फूल नहीं तो फूल की पंखुडी बिखेरना पर मन को भिखारी मत बनाना। अरे! संयोग वश तो राजा भी भीख माँगता है, पर इसमें उसका मन थोड़े भिखारी हो जाता है? वह तो राजर्षि ही रहेगा। जितना मन विशाल उतनी विशाल जगह मिलती है। मन जितना संकुचित उतनी संकरी जगह मिलती
मन में ऐसा रखता है कि कम दाम में हड़प लेना है और वाणी और वर्तन से ऐसा दिखावा करता है कि वाजिब दाम से खरीदना है। जब उसका मित्र मन, वाणी और काया से ऐसा ही रखता है कि वाजिब दाम पर मिले तो खरीद लेना है। इसका परिणाम, चंदू का मित्र ऊर्ध्वगति में जाता है
और चंदू अधोगति में जाता है। मन में अलग क्यों रखा? यही मन का वक्र परिणाम। अत: उतना उसे बंधन हआ। मन-वचन-काया की भिन्नता रखते हैं, वह भगवान से छिपा नहीं रहता। यह कलियुग है इसलिए वक्र परिणाम, जो जनमधूटी में ही हरेक को कम-ज्यादा मात्रा में होते हैं।
मन का स्वभाव
यह तो ऐसा है न कि जिसकी जैसी मन की गाँठ होगी वैसा ही उसे खींचेगा। लोभी को लोभ की गाँठ होती है। दानशील को दान की गाँठ होती है। तपस्वी को तप की गाँठ होती है। त्यागियों को त्याग की बड़ी गाँठ होती है। वह गाँठ ही उन्हें त्याग करवाती है और त्यागी कहते हैं कि 'मैंने त्याग किया।' अरे, ऐसा कहकर तो तूने गाँठ को और अधिक मजबूत किया, दोहरी गाँठ लगाई। इसका अंत कब आएगा? गाँठ को तो देखना और जानना है, तू जुदा और तेरे मन की गाँठ अलग। मन हम से जुदा है, यह तो साफ पता चलता है, क्योंकि जब सोना हो, तो भीतर मन उछल-कूद करने लगता है और सोने नहीं देता। सब तरह की सोने की सुविधा उपलब्ध हो मगर शांति से सोने नहीं देता।
मन की शांति की खोज में फ़ॉरेन से लोग दौड़-दौड़कर इन्डिया आते हैं। पर ऐसे शांति कैसे होगी? ये जैन भी शांति हेतु शांतिनाथ भगवान के दर्शन को जाते हैं, पर भगवान कहते हैं कि मेरे दर्शन तो करते हैं, पर साथ-साथ जूतों के भी दर्शन करते हैं और फिर दकान के भी दर्शन किया करते हैं, इसमें शांति कैसे होगी? अरे! बेटी का नाम शांति रख दे और 'शांति, शांति' बोलता रह, तो तुझे शांति हो जाएगी!
मन के वक्र परिणाम इस काल में मनुष्य का मन अलग, उसकी वाणी अलग और उसका वर्तन भी अलग।
उदाहरण के तौर पर चंदू और उसका मित्र घूमने और शॉपिंग को निकले। तब चंदू के मन, वाणी और वर्तन तीनों अलग-अलग हैं। वह
मन का स्वभाव कैसा है? उसे, अपने से कम सुखवाला बताएँ, तो मन को ज्यादा सुख मिलता है कि खद अधिक सखी है। यदि तेरे दो रूम हैं और किसी दिन मन उछल-कूद करे कि हमारे यदि फ्लेट होता, तो अच्छा रहता। तब मन को दिखाना कि वे जो एक रूम में रहते हैं, वे कैसे रहते होंगे, उनके घर में तो बैठने को कुर्सी तक नहीं है, वे क्या करते होंगे, ताकि तेरा मन फिर खुश हो जाए। यह तो मन कभी फुरसत में हो, किसी दिन खुराक माँगे, तो हमें मन को ऐसे समझाना चाहिए। वह तो जिसका मन थोड़ा ढीला हो जाए, तो उसे जरा शिक्षा देनी चाहिए। बाकी, हम जो देते हैं, वह ज्ञान ही ऐसा है कि और किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं रहती। 'व्यवस्थित' का ज्ञान ही ऐसा है कि मन शोर नहीं मचाता। मन जहाँ जाए वहाँ समाधान, समाधान और समाधान ही रहे। सर्व अवस्थाओं में संपूर्ण समाधान रहे, वही ज्ञान! वही धर्म!
मन का स्वभाव तो बड़ा ही विचित्र है। वह तो ऐसा है कि किसी से झूठ बोलकर पाँच रुपये हड़प ले और फिर बाहर निकलने पर किसी को दो रुपये दान भी कर दे। जिसके ऊपर निरंतर फूल बरसाते हों, उसके प्रति कभी भी अभाव पैदा कर दे, ऐसा मन है। इसलिए सावधान रहना। मन के चलाए मत चलना। कबीरजी क्या कहते हैं, 'मन का चलता तन चले ताका सर्वस्व जाए' हमें ठग जाए और पता भी नहीं चलने दे, ऐसा
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भीतर में तो तरह-तरह की मन की गाँठें होती हैं। लोभ की, मान की, क्रोध की, सभी की गाँठे होती हैं। लोभ की तुलना में मान की गाँठ अच्छी। लोभ की गाँठ तो बहुत बुरी। मालिक को खद को भी पता नहीं चलता। जब कि मान की गाँठ तो सामनेवाले को दिखाई देती है, इसलिए कोई तो कहेगा कि अबे, क्या ऐसे सीना तानकर घूम रहा है? बड़ा अकड़ हो गया है ने? इससे मान की गाँठ का छेदन हो जाएगा। लोभ की गाँठ का भी कभी न कभी पता चल जाता है, पर कपट की गाँठ का तो कभी भी पता नहीं चलता।
चंचल है मन। यदि मन में आत्मा की शक्तियाँ शामिल हों, तन्मयाकार हो जाए, तो सेबोटेज (तहस-नहस) करवा डालें। अरे! तालाब में जाकर छलाँग तक लगा दे और फिर चिल्लाए, 'बचाओ, बचाओ।'
इस काल के लोगों के मन फ्रेक्चर हो गए होते हैं, इसलिए जब चोटी पर पहुंचे, तब पानी में डाल दे, ऐसा है।
मन तो नाचनेवाली जैसा है। लोग कहें कि बादशाह नर्तकी को नचाते हैं। मैं कहता हूँ कि नहीं, नर्तकी बादशाह को नचाती है। वैसे ही आपका मन आपको नचाता है।
दो मित्र जा रहे हों, उन में से एक को रास्ते में होटल में से माँस की सुगंध आई, उसके मन में माँसाहार की गाँठे फूटना शुरू हो जाती है, उसके अंदर चंचलता खड़ी होने लगती है, माँसाहार की तीव्र इच्छा होती है, इसलिए वह अपने मित्र से कहता है कि मैं अपने एक रिश्तेदार से मिलकर आता हूँ। तू यहाँ खड़े रहना। ऐसा झूठ बोलकर माँसाहार कर आता है। अरे! भगवान की झूठी सौगन्ध भी खाता है। गाँठ फूटे, तब सब उलटा ही बोलता है। भगवान ने इसे ही कषाय कहा है। तब वह कपट की गाँठ बाँधता है, झूठ की गाँठ बाँधता है और माँसाहार की गाँठ मजबूत करता है। अज्ञानी की एक गाँठ फूटे तब वह और दूसरी पाँच नयी गाँठे बाँधता है। इसके बजाय, जब माँसाहार की गाँठ फूटे, उस घड़ी थोड़ा ढीला पड़ जाए, तो उसका कभी न कभी छुटकारा होना संभव है। अज्ञान दशा में गाँठ से छूटता तो नहीं है, पर यदि सच बोलकर जाए कि मैं माँसाहार करने जाता हूँ, तो उसका उसे बहुत फायदा होता है। यदि मित्र खानदानी हो, तो माँसाहार से छुड़वा भी सकता है या तो कोई रास्ता दिखाएगा, समझाएगा और यदि पछतावा करता रहे, तो आखिरकार उस आदत से छुटकारा भी पा सकता है। पर ढीला नहीं पड़े और झूठ-कपट का सहारा लेकर जाए, तो कभी भी नहीं छूट पाएगा, ऊपर से कपट और झूठ की नई गाँठें बाँधता है। इसी कारण से ही भगवान ने मन-वचनकाया से चोरी नहीं करूँगा, ऐसा नियम पालने को कहा था. जिससे वह गाँठ कभी न कभी तो खत्म होगी।
मन की गाँठे कैसे पिघलें? लोभ की गाँठ और क्रोध की गाँठ खुद को मार खिलाती है और सामनेवाले को भी खिलाती है। भगवान ने लोभ की गाँठ वालों को दान करने को कहा है। एक बार पाँच-पचीस रुपयों की रेज़गारी लेकर रास्ते में बिखेरते जाना। फिर मन उछल-कूद करने लगे, तो फिर से डालना फिर मन धीरे-धीरे चुप हो जाएगा। यदि सोच-समझकर लोभ की गाँठ छेदी जाए, तो उसके समान और कुछ भी नहीं। यदि सोचें कि इतना सारा जमा करता हूँ, यह सब किस के लिए? अपने कौन-से सुख के लिए? खुद का (आत्मा का) सुख प्राप्त नहीं करते, परायों के लिए अपना सुख हम खो देते हैं और ऊपर से जो जो गुनाह किए हों, उनकी दफाएँ लागू होती हैं।
जब कि ज्ञानी पुरुष के गाँठ फूटती है, तब वे तो गाँठ को देखते और जानते हैं। ज्ञानी पुरुष की आज्ञा से, शुद्धात्मा दृष्टि से मन की गाँठो के ऊपर दृष्टि रखने से, गाँठे धीरे-धीरे पिघलती जाती हैं। हमारे पास तो अनंत सिद्धियाँ हैं इसलिए आपकी गाँठे पिघला सकते हैं, पर जहाँ तक संभव हो, हम सिद्धियाँ व्यर्थ नहीं खर्च करते हैं। हम आपको रास्ता बतलाएँगे। उन गाँठों के फूटने पर आपको एक्सपीरियन्स होता है और आपको फिल्म देखने को मिलती है। यदि ज्ञेय नहीं रहा, तो ज्ञाता क्या करेगा? जितना मन खिले उतना ही आत्मा खिलता है। जितने ज्ञेय बढ़ते
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आप्तवाणी-१
आप्तवाणी-१
जाते हैं उतनी ही शुद्धात्मा की ज्ञान शक्ति बढ़ती जाती है।
मन को जहाँ-जहाँ कीचड़ लगा है, वहाँ-वहाँ हमारा ज्ञान-वाक्यों रूपी साबुन इस्तेमाल करोगे, तो मैल धुल जाएगा।
मन यदि पकौड़े की माँग करे, तो तुरंत जागृति में आ जाना कि यह व्यवस्थित की माँग है या फिर लबाड़ों की माँग है? यदि तीन बार विचार फूटें, तो समझ लेना कि यह व्यवस्थित है। शरीर को ज़रूरत के अनुसार ही यदि भोजन मिलता रहे, तो मन-बुद्धि ठिकाने रहेंगे। यद्यपि हमारे ज्ञान में ग्रहण-त्याग नहीं है, 'व्यवस्थित' आपका मार्ग दर्शन करेगा।
मन को हमेशा खुराक चाहिए, प्रेशर चाहिए। भीड़ में ही एकांत होता है, एकांत में तो उलटे मन बहकता है। हमारा ज्ञान प्राप्त किए हुए महात्मा तो संसार में निर्लेप रहते हैं और भारी भीड़ में एकांत का अनुभव करते हैं। भारी भीड़ हो, तब मन को अपनी खुराक मिल जाती है और मन उसके कार्य में मग्न हो जाता है, तभी 'शुद्धात्मा' अकेले पड़ते हैं और परमानंद में रहते हैं।
किसी का मन जरा ढीला पड़ गया हो, तो अज्ञानी भी कहता है किस सोच में डूबे हो? चलो बाहर निकलो। मन तो हर तरह की बात बताता है।
क्या मृत्यु का विचार हर किसी को नहीं आता? आता ही है। हर किसी को मृत्यु का विचार आता है। पर लोग क्या करते हैं? विचार आते ही उसे भगा देते हैं। तो फिर सभी विचारों का भगा दो न? पर नहीं, दूसरा अच्छा लगनेवाला विचार आया तो नहीं भगाते। हमारा ज्ञान ही ऐसा है, मृत्यु का पल आए तब 'स्वयं' संपूर्ण प्रकट हो ही जाता है। उस समय 'स्वयं' की गुफा में ही चला जाता है। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार सभी चुप। बम गिरनेवाला हो, तब मुआ कैसा चुप हो जाता है? वैसे ये सभी चुप हो जाते हैं। इसलिए मृत्यु के समय समाधि हो जाती है। हमारे ज्ञानिओं (स्वरूपज्ञान प्राप्त महात्माओं) को समाधि मरण होता है।
मन फिज़िकल है मन तो कम्पलीट फिज़िकल है, मैकेनिकल है। उदाहरणतया, कोई एक मनुष्य कोई मशीनरी बनाता है। वह बनाता है तब उसका आत्मा मशीनरी के साथ एकाकार हो जाता है और मशीनरी चलती है, तब अहंकार करता है कि मैंने कैसी सुंदर बनाई? पर यदि उस मशीन को बंद करने का साधन उसमें नहीं किया हो, तो वह आदमी उसे बंद कैसे करेगा? और यदि भूल से भी उसके द्वारा ही निर्मित मशीन के किसी गीयर में उसकी उँगली फँस गई, तो क्या मशीन उसकी शर्म रखेगी? नहीं रखेगी। फट् से उँगली काट देगी, क्योंकि मशीन फिज़िकल है। उस पर बनानेवाले की सत्ता नहीं चलती। ऐसा ही मन का हाल है। बॉडी के परमाणु से, हलके परमाणु से, वाणी बँधती है और उनसे भी हलके परमाणु से मन बँधता है।
मन के प्रकार मन के दो प्रकार हैं, स्थूल मन और सूक्ष्म मन। अन्य शब्दों में, सूक्ष्म मन को 'भाव मन' और स्थूल मन को 'द्रव्य मन' कहते हैं, कारण मन और कार्य मन। भाव मन का स्थान कपाल में, सेन्टर में, भ्रमर से ढाई इंच की दूरी पर रहा है। जब कि स्थूल मन हृदय में है। स्थूल मन पंखुड़ियोंवाला है। इसलिए ही, कई लोग कहते हैं कि मेरा दिल कबूल नहीं करता। कुछ दहशत हो, तब दिल में खलबली मच जाती है। वह द्रव्य मन है। द्रव्य मन कम्पलीट इफेक्ट है, डिस्चार्ज स्वरूप में है। जब कि भाव मन कॉज़ेज़ उत्पन्न करता है, वह चार्ज करता है।
भाव मन सहेतुक है। इसलिए नये बीज पडते हैं। हेत पर से भाव मन पकड़ में आता है। पर उस हेतु को देखनेवाली दृष्टि खुद में होती नहीं है न? जब 'खुद' शुद्धात्मा हो जाए और पूर्णरूप से निष्पक्षता उत्पन्न हो और मन को कम्पलीटली, अलग फिल्म की तरह देख सके, तभी भाव मन क्या है, यह समझ में आएगा। भाव मन तक तो बिना सर्वज्ञ के कोई पहुँच ही नहीं सकता। ज्ञानी पुरुष जो सर्वज्ञ हैं, वे आपके भाव
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मन के आगे डाट लगा देते हैं, इसलिए नया मन चार्ज नहीं होता और केवल डिस्चार्ज मन ही रहता है। अतः फिर उसके इफेक्ट को ही देखना और जानना है।
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ये अंग्रेज, जिसे सबकॉन्शियस और कॉन्शियस माइन्ड कहते हैं, वह सभी स्थूल मन है। सूक्ष्म मन का एक परमाणु तक किसी से पकड़ा जाए ऐसा नहीं है। वह तो ज्ञानी पुरुष का ही काम है, क्योंकि वह ज्ञानगम्य है।
आप सभी महात्माओं को मैंने स्वरूप का ज्ञान दिया है इसलिए आप मन से पूर्णरूप से मुक्त हो गए हैं। आपका चार्ज मन मैंने बंद कर दिया है और डिस्चार्ज मन के ज्ञाता दृष्टा बना दिया है। इसलिए अब आपके मन की अनंतगुनी अनंत अवस्थाएँ आने पर भी आप स्वस्थ रह सकते हैं। वही ज्ञान है। जो मन की अवस्था में अस्वस्थ होता है, वहाँ वह अवस्थित हो जाता है। उसीसे फिर व्यवस्थित आकर खड़ा हो जाता है, वह भोगते समय तब फिर से अस्वस्थ होता है और इस तरह परंपरा चलती ही रहती है।
मन आत्मा का ज्ञेय-ज्ञाता संबंध
हम अचल हैं और विचार विचल हैं। दोनों अलग हैं। ज्ञाता ज्ञेय के संयोग संबंध के अलावा हमारा और कोई संबंध नहीं है। इसलिए हम सभी से कहते हैं कि किसी भी संयोग में भाव मत बिगाड़ना। असमय अचानक मेहमान आ जाएँ, तो भी भाव मत बिगाड़ना । दाल-रोटी खिलाना पर अपना भाव मत बिगाड़ना । मन दुर्बल मत होने देना ।
क्रोध से तो सामनेवाले का मन टूट जाता है और फिर कभी जुड़ नहीं पाता और अनंत जन्मों भटकाता है। कहावत है न, 'मन, मोती और काँच टूटें, फिर नहीं जोड़े जा सकते।'
'मनः पर्यव ज्ञान' अर्थात् सामनेवाले व्यक्ति के मन में क्या विचार चलते हैं, उसका प्रतिघोष खुद के अंतःकरण में पड़े, पहले वह समझ
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में आता है और फिर धीरे-धीरे स्पष्ट रूप से खुद पढ़ता, देखता और जानता है, उसे मनः पर्यव ज्ञान कहते हैं। वीतरागों की भाषा में अपने मन के प्रत्येक पर्याय को देखना और जानना वह 'मनः पर्यव ज्ञान' ।
हम वर्ल्ड में 'मन' के डॉक्टर हैं। देह के डॉक्टर तो हर जगह मिलेंगे पर मन का डॉक्टर खोज लाओ तो जानें। मन के रोगों से, देह के रोग उत्पन्न होते हैं। हम आपके मन के सारे रोग मिटा देते हैं, नये रोग होने से बचाते हैं और जो तंदुरुस्ती प्राप्त हुई है, उसे मेन्टेन करते हैं। आपका मन आपसे अलग कर देते हैं। फिर मन आपको परेशान नहीं करता। फिर तो मन ही आपको मोक्ष में ले जाएगा, इतना ही नहीं, वहीं मन पूर्ण रूप से आपके वश बरतेगा।
बुद्धिप्रकाश ज्ञानप्रकाश
सारे संसार के तमाम विषयों का ज्ञान बुद्धि में समाए और निरहंकारी ज्ञान वह ज्ञान में समाए ।
संसार के तमाम सब्जेक्ट्स का ज्ञान हो, मगर उसमें अहंकार रहे तो वह सारा ज्ञान बुद्धि में समाता है। अहंकारी ज्ञान, बुद्धिजन्य ज्ञान कब शून्य हो जाए, इसका कोई भरोसा नहीं है। अच्छे-अच्छे बुद्धिमान, संयोगों की चपेट में आकर बुद्ध हो गए हैं। बुद्धिवाला ही बुद्ध होता है।
बुद्धि तो इनडाइरेक्ट प्रकाश है। अहंकार के मीडियम थ्रू आता है। अहंकार के माध्यम से आता है। जैसे कि सूर्य का प्रकाश छप्पर के छेद से आकर शीशे पर पड़े और उसमें से फिर परावर्तित प्रकाश बिंब पड़े, वैसा ।
जब कि ज्ञान तो आत्मा का डाइरेक्ट प्रकाश है, फुल लाइट है। जैसा है, वैसा दरअसल दिखाए वह ज्ञान । बुद्धि परप्रकाश है, स्वयं प्रकाशक नहीं है। जब कि ज्ञान स्वयं प्रकाशक है। खुद स्वयं ज्योतिर्मय है और सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करने की उसमें अनंत शक्ति है। जैसे कि सूर्य स्व पर प्रकाशक है, जब कि चंद्र पर प्रकाशक है।
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संपूर्ण ज्ञानप्रकाश के आगे बुद्धि तो सूर्य के सामने दीये के समान है। हमारे पास संपूर्ण ज्ञानप्रकाश है। इसलिए बुद्धि हममें नाम मात्र को भी नहीं है। हम खुद अबुध हैं। हमें एक किनारे पर अबुध पद प्राप्त हुआ ठीक उसके सामनेवाले किनारे पर सर्वज्ञ पद आकर खड़ा हो गया। जो अबुध होता है, वही सर्वज्ञ हो सकता है।
बुद्धि के प्रकार बुद्धि के दो प्रकार : (१) सम्यक् बुद्धि (२) विपरीत बुद्धि।
(१) सम्यक् बुद्धि अर्थात् सुलटी दिशा में चलती हुई बुद्धि। समकित होने के बाद ही सम्यक् बुद्धि उत्पन्न होती है और वह फिर सुलटा ही दिखाती है। जैसा है वैसा दिखाती है। किसी को ही सम्यक् बुद्धि प्राप्त होती है। (२) विपरीत बुद्धि :- जहाँ सम्यक् बुद्धि का अभाव है, वहाँ विपरीत बुद्धि अवश्य होती ही है। विपरीत बुद्धि यानी मोक्ष के हेतु से विपरीत। बुद्धि का स्वभाव ही है कि वह ऐसा दिखाती है कि जिससे संसार की ही नींव मज़बूत होती है। कभी भी मोक्ष में नहीं जाने देती, वह विपरीत बुद्धि। बुद्धि संसारनुगामी है यानी कि संसार का ही हिताहित रखनेवाली है, मोक्ष का नहीं।
कृष्ण भगवान ने बुद्धि को व्यभिचारिणी बताया है। वह तो संसार में ही भटकाया करती है, ऐसा कहा है।
बुद्धि की आवश्यकता कब तक? जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है तब तक आवश्यकता है, मगर वह कितनी? संसार में पत्थर के नीचे उँगली फँस गई हो, तो उसे युक्तिपूर्वक निकाल लेने जितनी ही और फिर से उँगली नहीं फँसे, उतनी ही बुद्धि काम में लेनी चाहिए। पैसे कमाने में या किसी को ठगने हेतु बुद्धि खर्च नहीं करनी चाहिए। वह तो बहुत बड़ा जोखिम है।
लक्ष्मी तो पुण्य से आती है, बुद्धि प्रयोग से नहीं आती। इन मिल मालिक और सेठ लोगों में तनिक भी बद्धि नहीं होती है, पर लक्ष्मी ढेरों आया करती है और उनका मुनीम बुद्धि चलाता रहता है। इन्कमटैक्स के ऑफिस में जाएँ, तब साहब की गालियाँ भी मुनीम ही सुनता है, जब कि सेठ तो चैन की नींद सोया होता है।
बुद्धि का आशय हर मनुष्य को अपने घर में ही आनंद आता है। झोंपड़ेवालों को बंगले में आनंद नहीं आता और बंगलेवाले को झोंपड़े में आनंद नहीं आता। उसकी वज़ह उनकी बुद्धि का आशय है। जो जैसा बुद्धि के आशय में भर लाया हो, वैसा ही उसे मिलता है। बुद्धि के आशय में जो भरा हो, उसकी दो शाखाएँ निकलती हैं। (१) पापफल और (२) पुण्यफल। बुद्धि के आशय में हर एक का अपना विभाजन होता है, यानी सौ प्रतिशत में से अधिकतर भाग तो मोटर-बंगले, बेटे-बेटियाँ, और बहू के लिए भरे होते हैं। तो वह सब प्राप्त करने में पुण्य खर्च हो जाता है। धर्म के लिए मुश्किल से एक या दो प्रतिशत बुद्धि का आशय होता है।
दो चोर चोरी करते हैं। उनमें से एक पकड़ा जाता है और दूसरा आजाद घूमता है। इससे क्या सूचित होता है? चोरी करनी, ऐसा दोनों बुद्धि के आशय में भर लाए थे। पर जो पकड़ा गया, उसका पापफल उदय में आया और खर्च हो गया। जब कि दूसरा छूट गया, उसका पुण्य
__ज्यों-ज्यों बुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों संताप बढ़ता जाता है। दो साल के बच्चे की माँ मृत्यु शैय्या पर हो, तो उसे कोई असर नहीं होता, हँसता-खेलता रहता है। जब कि बीस साल के बेटे को बहुत संताप होता है। अतः बुद्धि बढ़ने से संताप बढ़ा। इन मज़दूरों को बिलकुल चिंता नहीं होती, वे तो रोजाना आराम से सोते हैं, जब कि सेठ लोग चिंता किया करते हैं। यहाँ तक कि रात को भी चैन से नहीं सोते। ऐसा क्यों? क्योंकि बुद्धि बढ़ी, इसलिए। बुद्धि के प्रतिपक्ष में, संताप काउन्टर वेट में होता ही है।
बुद्धि हो वहाँ 'मैं करता हूँ' ऐसा अहंकार होता ही है और इसलिए चिंता रहा करती है। भगवान से वही दूर रखती है।
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उस में खर्च हो गया। इस प्रकार हरेक की बुद्धि के आशय की पूर्ति में पाप पुण्य कार्य करते हैं। एक मनुष्य बुद्धि के आशय में लक्ष्मी प्राप्त करनी है, ऐसा भर लाया है, तो उसका पुण्य उसमें खर्च होने के कारण लक्ष्मी की बरसात होती है। दूसरा भी बुद्धि के आशय में लक्ष्मी प्राप्त करनी है, ऐसा लेकर तो आया मगर उसमें पुण्य के बदले पापफल सामने आया, परिणाम स्वरूप लक्ष्मीजी मुँह ही नहीं दिखातीं। यह तो सब चोखा हिसाब है, इसमें किसी की एक नहीं चलती। तब यह अकर्मी ऐसा मान लेते हैं कि दस लाख रूपया मैं कमाया। अरे! यह तो पुण्य खर्च हुआ, वह भी उलटी राह। इसके बजाय अपनी बुद्धि का आशय बदल दीजिए। केवल धर्म के लिए बुद्धि का आशय रखने जैसा है। इन जड वस्तुओं के लिए, यानी मोटर, बंगला, रेडियो आदि की भजना करके, उनके लिए बुद्धि का आशय बांधने जैसा नहीं है। धर्म के लिए ही, आत्मधर्म हेतु ही बुद्धि का आशय होना चाहिए। वर्तमान में आपको जो प्राप्त हुआ है, वह भले रहा, मगर अब आशय बदलकर सौ प्रतिशत आशय धर्म हेतु ही रखिए।
प्रथम रखा जाता है। उनकी पूजा से बुद्धि विनम्र होती है, विभ्रम नहीं होती, विपरीत नहीं होती। महीने में दो ही अड़चनें आई हों, पर रोज डर लगता रहे, वही विपरीत बुद्धि। ऐसे बुद्धि विभ्रम नहीं हो, विपरीत नहीं हो, इसलिए गण के पति-गणपतिजी को पूजा में प्रथम रखते हैं, मगर बिना समझे पूजा होती है, इसलिए जैसा चाहिए वैसा फल प्राप्त नहीं होता। समझकर पूजा हो, तो बहुत ही सुंदर फल मिले।
गणपतिजी बुद्धि के सभी बंधनों में से गुज़रे हुए देवता हैं। इसलिए समझकर उनकी पूजा करने से बुद्धि का भ्रम टल जाता है और सदबुद्धि प्राप्त होती है।
हम हमारी बुद्धि के आशय में सौ प्रतिशत धर्म और जगत् कल्याण की भावना लेकर आए हैं। अन्य किसी चीज़ के लिए हमारा पुण्य खर्च नहीं हुआ, पैसा, मोटर-बंगले, बेटा-बेटी, कहीं भी नहीं।
हमसे जो-जो मिले और ज्ञान ले गए, उन्होंने दो-चार प्रतिशत धर्म के लिए, मुक्ति हेतु डाले थे इसलिए हमसे भेंट हई। हमने शत-प्रतिशत धर्म में डाले, इसलिए हमें हर ओर से धर्म के लिए 'नो ऑब्जेक्शन' सर्टिफिकेट मिला है।
गणपति : बुद्धि के अधिष्ठाता देव गणपतिजी सारे गणों के अधिपति हैं। बुद्धि के अधिष्ठाता देव हैं। शास्त्र लिखने के प्रमुख अधिकारी हैं वे। उनकी बुद्धि का प्रकाश हर जगह पड़ता है। उनकी बुद्धि में जरा-सा भी कच्चापन नहीं है। इसलिए ही सभी देवों में उन्हें पहला स्थान दिया जाता है। पजा आदि में भी गणपति को
बुद्धिजन्य अनुभव और ज्ञानजन्य अनुभव जिसने आइसक्रीम कभी खाई ही नहीं है, उसे अंधेरे में आइसक्रीम दी जाए, तो वह कल्पना ही करता रहे कि आइसक्रीम ठंडे स्वभाव की ही होगी? दूध का स्वभाव भी ऐसा ही ठंडा होगा? इलायची भी ठंडे स्वभाव की होगी? पर आइसक्रीम और उसके अंदर की वस्तुओं का जिसे पृथक् -पृथक् बुद्धिजन्य अनुभव होता है, वह सभी वस्तुओं को उनके गुणों के आधार पर जानता है और आइसक्रीम ठंडी क्यों लगती है, यह भी जानता है। ऐसा वह बुद्धिगम्य अनुभव से जानता है। जब बुद्धितत्त्व संसार में इतना सारा काम करता है, तो आत्मतत्त्व क्या नहीं कर सकता? वह तो डायरेक्ट प्रकाश है।
ज्ञानप्रकाश देने के पश्चात्, हम सभी से बुद्धि को रिटायर करने को कहते हैं। सारे संसार को बुद्धि की ज़रूरत है। वह उसका अवलंबन है। मगर स्वरूपज्ञान ऐसा है कि उस में बुद्धि की ज़रूरत नहीं है। उसकी कभी मत मानना। उसे कह दीजिए, 'हे बुद्धिबहन ! आप मुझे कई जन्मों से परेशान करती आई हैं। बहनजी, आप अब पीहर सिधारें। जिसे आपकी जरूरत है, उसके पास जाइए। हमें अब आपकी ज़रूरत नहीं है।' मतलब अब बुद्धि को पेन्शन देकर विदा करो। बुद्धि का तिरस्कार नहीं करना है, क्योंकि ज़रा-सा भी तिरस्कार रहा, तब तक मोक्ष प्राप्त नहीं होगा।
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इसलिए समझा-बुझाकर पेन्शन देकर विदा करो। पेन्शन अर्थात् आश्वासन ।
यदि आप मोक्ष में जाना चाहते हैं, तो बुद्धि की एक मत सुनना । बुद्धि तो ऐसी है कि ज्ञानी पुरुष का भी उलटा दिखाए। अरे! जिसके द्वारा मोक्ष प्राप्त हो सकता है, उसका भी उलटा देखा? तब फिर आपका मोक्ष आपसे अनंत जन्मों दूर हो जाएगा।
बुद्धि ही संसार में भटका कर मरवाती है। अरे! एक औरत की सुनकर चलें, तब भी पतन होता है, टकराव हो जाता है, तो यह तो बुद्धिबहन ! उसकी सुननेवाला तो कहीं का कहीं जा गिरता है। अरे! रात दो बजे जगाकर बुद्धि बहन उलटा दिखाएगी। स्त्री तो कुछ समय साथ नहीं भी होती, पर बुद्धिबहन तो निरंतर साथ ही रहती है। इसलिए बुद्धि तो डीथ्रोन (पदभ्रष्ट कराए ऐसी है।
एक हीरा पाँच अरब का है और आप सौ जौहरियों को क्रीमत करवाने बुलाएँगे, तो हरएक अलग-अलग क़ीमत करेगा, क्योंकि हरएक अपनी बुद्धि के अनुसार मुल्यांकन करेगा। अरे! हीरा तो वही का वही है और क़ीमत अलग-अलग क्यों ? क्योंकि हरएक की बुद्धि में अंतर है इसलिए। इसलिए मैं कहता हूँ, "यह 'ज्ञानावतार' आपकी बुद्धि की नाप से नहीं नापे जा सकते, इसलिए नापना मत ! "
ज्ञानी पुरुष के पास तो भूल से भी बुद्धि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। ज्ञानी पुरुष का प्रत्येक अंग, उनका एक-एक दिव्य कर्म पूजने योग्य है। वहाँ बुद्धि इस्तेमाल नहीं करनी होती। ये ज्ञानी पुरुष तो देहधारी हैं, पर भीतर तो अद्भुत अहर्निश जागृति हैं। आपको जो दिखाई देते हैं, वे देहधारी ज्ञानी नाटक का हिस्सा हैं। संपूर्ण नाटकीय भाव में ही रहनेवाले हम, अबुध हैं। अबुध के संग से ही अबुध हो सकते हैं।
संसार के लोगों का कारोबार बुद्धि चलाती हैं, जब कि ज्ञानियों का ' व्यवस्थित' चलाता है। फिर उसमें व्यतिरेक होता ही नहीं।
बुद्धि क्या है? वह तो पिछले जन्म का आपका व्यू पोइन्ट है । जैसे
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आप हाई वे पर से गुजर रहे हैं और पहले मील पर एक प्रकार का व्यू पोइन्ट दिखाई दिया, तो इस पर बुद्धि के हस्ताक्षर हो जाते हैं कि हमारे तो ऐसा ही हो तो ठीक रहेगा। ऐसे पहले मील का व्यू पोइन्ट तय हो जाता है। फिर आगे बढ़ने पर दूसरे मील पर अलग ही दृश्य दिखाई देता है और सारा का सारा व्यू पोइन्ट ही बदल जाता है, तब उसके हिसाब से बुद्धि फिर हस्ताक्षर कर देती है कि हमें ऐसा ही चाहिए, पर इससे पिछला पोइन्ट भूल गया ऐसा नहीं है इसलिए वह आगे से ही चलता रहता है। यदि पिछले व्यू पोइन्ट का अभिप्राय नहीं लें, तो हर्ज नहीं है, पर ऐसा होना संभव नहीं है। अभिप्राय आकर आगे खड़ा हो ही जाता है। इसे हम गत ज्ञान - दर्शन कहते हैं। क्योंकि बुद्धि ने हस्ताक्षर करके मुहर लगा दी है, इसलिए अंदर मतांतर होता ही रहता है। आज की आपकी बुद्धि आपके पिछले जन्म का आपका व्यू पोइन्ट है और आज का व्यू पोइन्ट आपके अगले जन्म की बुद्धि होगी, ऐसे परंपरा चलती ही रहती है।
चोर चोरी करता है, वह उसका व्यू पोइन्ट है। उस पर पिछले जन्म में बुद्धि ने मुहर लगाई है। इसलिए इस जन्म में चोरी करता है। यदि उसे अच्छों का संग मिल जाए, तो फिर उसका व्यू पोइन्ट बदल भी जाता है और ऐसा तय करता है कि चोरी करना गलत है । अत: पिछले जन्म के व्यू पोइन्ट के आधार पर चोरी तो करता है, पर आज का उसका व्यू पोइन्ट चोरी नहीं करनी चाहिए, ऐसा हो रहा है, इससे अगले जन्म में चोरी नहीं करने की बुद्धि प्राप्त होती है।
मतभेद क्यों?
किसी के साथ मतभेद होता है, उसकी क्या वजह है? हर एक का व्यू पोइन्ट अलग-अलग होने के कारण। हर एक मनुष्य अलग-अलग देखता है। चोर चोरी करता है, वह उसका व्यू पोइन्ट है । वह खुद चोर नहीं है । व्यू पोइन्ट को गलत बताना, उसके आत्मा को गलत बताने के समान है, क्योंकि उसकी बिलीफ़ में ऐसा है। वह तो उसे ही चेतन मानता
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रौब जमाते फिरते हैं। पर वह तो जब मार पड़े तब ठिकाने पर आ जाता है, पर वणिक को राह पर लाना बड़ा मुश्किल है।
क्षत्रिय मंदिर में पैसे डालने जेब में हाथ डाले, तो जितने पैसे हाथ में आएँ उतने डाल देते हैं। जब कि वणिक घर से तय करके निकलता है कि पाँच पैसे डालने हैं और रास्ते में छूट्टे करवाकर, प्रत्येक मंदिर में पाँच या दस पैसे डालेगा। जब भाव होता है, तब वणिक बुद्धि खर्च
करेगा।
है, इसलिए चेतन को गलत बतलाया कहा जाएगा। उसके व्यू पोइन्ट से वह सही है, क्योंकि जब तक अज्ञान है तब तक उसे व्यू पोइन्ट का ही आधार है। ज्ञान प्राप्ति के बाद सेन्टर में (आत्मा में) आने से अज्ञान और व्यू पोइन्ट दोनों निराधार हो जाते हैं।
हम किसी को भी 'तू गलत है' ऐसा नहीं कहते। चोर को भी गलत नहीं कहते हैं, क्योंकि उसके 'व्यू पोइन्ट' से वह सही है। हाँ, हम उसे चोरी करने का फल क्या होगा, वह, जैसा है वैसा, समझाएँगे।
संसार के सारे मनुष्य सद्बुद्धि और दुर्बुद्धि में ही खेला करते हैं। सद्बुद्धि शुभ दिखलाती है और दुर्बुद्धि अशुभ दिखलाती है। कुल मिलाकर दोनों प्रकार की बुद्धि संसारानुगामी है। इसलिए हम उसे विपरीत बुद्धि कहते हैं। विपरीत बुद्धि लेनेवाले और देनेवाले दोनों का ही अहित करती है। जब कि सम्यक् बुद्धि लेनेवाले और देनेवाले दोनों का हित ही करती है।
बुद्धि तो जबरदस्त मार खिलाती है। यदि घर में कोई बीमार हो जाए और यदि बुद्धि दिखलाए कि ये मर जाएँगे तो? बस, हो गया। सारी रात बुद्धि रुलाती रहेगी।
बनिये बहुत बुद्धिवाले होते हैं, इसलिए उन्हें बहुत मार पड़ती है। वणिक् बुद्धि से तो मोक्षमार्ग में अंतराय बँधता है। मोक्ष में जाना तो शूरवीरों का काम है, क्षत्रियों का काम है। आत्मा वर्ण से तो भिन्न है, पर प्राकृत गुण उसे उलझा देते हैं, उलटा दिखलाते हैं। क्षत्रिय तो बलवान होते हैं। चौबीसों तीर्थकर क्षत्रिय थे। क्षत्रियों को तो मोक्ष के लिये भाव आएँ, तब सांसारिक वस्तु का तोल नहीं करते। जब कि वणिक तो मुक्ति का भाव आए, वहाँ भी सांसारिक वस्तुओं का तोल करते हैं। वणिकबुद्धि पर तो नजर रखने जैसा है, उससे जागृत रहने जैसा है। मोक्ष मार्ग पर वणिकबुद्धि बहुत उलझाती है।
वणिक की लोभ की गाँठ बहुत बड़ी होती है और वह तो दिखाई तक नहीं देती। जबकि क्षत्रिय तो उछल-कूद मचा देते हैं। सब जगह
पैसा-वैसा क्या है? परण-गलन है। पूरण हुआ, तो गलन होगा ही। बहीखातों का हिसाब है। उसमें लोग बुद्धि खर्च करके दखल कर डालते हैं। ये तो मरे, पूरण-गलन में शक्तियाँ बरबाद करते हैं। पैसा तो बैंक बैलेन्स है, हिसाब है। नक्की हुआ है। उसमें, पैसा कमाने में बुद्धि खर्च करते हैं, वे अपना ध्यान बिगाड़ते हैं और अगला जन्म बिगड़ते हैं।
अधूरे में पूरा ट्रिक करना सीख गए हैं। ट्रिक अर्थात् सामनेवाले की कम बुद्धि का गलत लाभ उठाकर अपनी ज्यादा बुद्धि से सामनेवाले की धोखा देकर हड़प लेना। ट्रिकवाला बड़ा चपल होता है, ओर चोर भी चपल होता है। ट्रिकवाला तो भयंकर अधोगति पाता है।
वणिक तो बुद्धि की ऐसी बाड़ें बना लेते हैं कि अपना खुद का ही संभालते हैं, पड़ोसी का नहीं देखते। वे व्यवहार में अच्छे किस लिए दिखाई देते हैं? बुद्धि की बाड़ से। उनकी दृष्टि खुद की ओर ही होती है। केवल अपने स्वार्थ को ही तकता है। यदि उसे न्याय करने को कहा जाए, तो उसमें सामनेवाले को सुख होगा या दु:ख होगा, यह देखने बैठ जाता है। मतलब न्याय ऐसा करो कि सामनेवाले को बुरा नहीं लगे। सामनेवाले को बुरा नहीं लगे, इसलिए मरा झुठ बोलता है, गलत न्याय करता है। फलतः भगवान तो भीतर बैठे हैं, वे देखते हैं कि इसने तो दोनों ओर परदा डाला है। सच-सच बोलना चाहिए, कड़वा नहीं लगे ऐसा सत्य कहो, पर यह तो परदा करके झूठा न्याय करता है। अतः भयंकर जोखिम मोल लेता है। सामनेवाला गलत हो, उसे सच्चा साबित
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करना तो बहुत बड़ा जोखिम लेने जैसा हुआ। जैसा है वैसा कह देना चाहिए।
यह सब किस ने खड़ा किया है? तब कहें, सामनेवाले की समझ में नहीं आता, तब तक स्वार्थ में लगे रहते हैं, इसलिए। संसार में शांति रहे इस हेतु से बुरा संग्रह किया, जो मोक्ष में जाते हुए, काट-काटकर, पीड़ा देकर वह माल खाली होगा। यह माल तो बहुत परेशान करेगा। सीधे-सीधे मोक्ष में नहीं जाने देगा।
ये वणिक बुद्धिवाले किसी जीव को नहीं मारते और किसी की जेब से कुछ निकालते नहीं है। मतलब स्थल चोरियाँ और स्थूल हिंसा बंद कर दीं, मगर सूक्ष्म चोरी ओर सूक्ष्मतम चोरियाँ थोक में होती हैं। यह स्थूल चोरीवालों की जमात तो ऊपर उठेगी, मगर यह सूक्ष्म चोरीवालों की जमात ऊपर नहीं उठेगी। यह ट्रिकवाला तो बैठा हो अपने घर में, पर ऐसी सूक्ष्म मशीनरी काम में लगाई होती है कि बेचारे किसानों की हड्डी-चमड़ी ही बचे और सारा लहू वह ट्रिकवाला चूस खाता है। भगवान ने इसे सूक्ष्म हिंसा बताया है। बंदक से मार डालनेवालों का कुछ होगा, मगर इन ट्रिकबाजों का हल निकलनेवाला नहीं है, ऐसा भगवान ने कहा है।
चाहिए। मन से, वाणी से और देह से एक ही होना चाहिए, जुदाई नहीं होनी चाहिए।
यह घड़ी आपने नब्बे रुपये में खरीदी और एक सौ दस में बेचने को निकाली। इसमें ट्रिक करके कहता है कि मैंने तो एक सौ दस रुपये में खरीदी है। अत: एक सौ दस में ही बेचते हैं। उसके बजाय सहीसही बता दे कि नब्बे में ली है और एक सौ दस में बेचनी है, सामनेवाले को लेनी होगी, तो एक सौ दस रुपये देकर ले जाएगा। व्यवस्थित' ऐसा है कि एक सौ दस रुपये आपको मिलनेवाले हैं, तो आपके ट्रिक नहीं करने पर भी आ मिलेंगे। सब यदि इतना हिसाबी है, तो मुफ्त में ट्रिक आजमाकर जिम्मेवारी क्यों मोल लेनी चाहिए? यह तो ट्रिक का जोखिम मोल लिया। उसका फल अधोगति है।
लक्ष्मीजी के अंतराय क्यों होते हैं? ये ट्रिकें आजमाया करते हैं इसलिए। आदत-सी हो गई है ट्रिकें आजमाने की। वर्ना वणिक तो व्यापार करते हैं, चोखा व्यापार करते हैं। उन्हें तो कहीं नौकरी करना होता होगा कहीं?
चोखा व्यापार करें इसलिए हम परम हित की बात बताते हैं, टिकें इस्तेमाल करनाा बंद करें। चोखा व्यापर करें। ग्राहकों से साफ कह दें कि इसमें मेरे पंद्रह प्रतिशत मुनाफा जुड़ा है, आपको चाहिए, तो ले जाइए। भगवान ने क्या बताया है? यदि तुझे तीन सौ रुपये मिलनेवाले हैं, तो चाहे तू चोरी करे, ट्रिक आजमाए या फिर चोखा रहकर धंधा करे, तझे उतने ही मिलेंगे। उसमें एक पैसा भी इधर-उधर नहीं होगा। फिर ट्रिकें और चोरी की जिम्मेदारी क्यों मोल लें? थोड़े दिनों न्याय से व्यापार करके देखो। शुरूशुरू में छह-बारह महीने तकलीफ होगी, पर बाद में फर्स्ट क्लास चलेगा। लोग भी समझ जाएँगे कि इस मनुष्य का धंधा चोखा है, मिलावटवाला नहीं है। तब बिन बुलाए, अपने आप आपकी दुकान पर ही आएंगे। आज आपकी दुकान पर कितने ग्राहक आनेवाले हैं, यह व्यवस्थित 'व्यवस्थित'
बंदूक से मारनेवाला तो नर्क में जाकर वापस ठिकाने पर आ जाएगा और मोक्ष की राह खोज निकालेगा। जब कि ट्रिक मारनेवाला संसार में अधिक से अधिक गहरे उतरता जाएगा। लक्ष्मी के ढेर लगेंगे, उसका दान करता रहेगा। बीज उगते ही रहेंगे और संसार चाल का चाल ही रहेगा। यह तो पॉलिश्ड ट्रिकें हैं।
ज्ञानी पुरुष में एक भी ट्रिकवाला माल ही नहीं होता। वणिक बुद्धि ट्रिक के आधार पर ही खड़ी है न? उसके बजाय नहीं आता हो, वह अच्छा। ज्ञान से पहले, मैं लोगों को ट्रिकें सिखलाया करता था, वह भी सामनेवाला फँस गया हो, उसके ऊपर करुणा आती थी, इसलिए। पर बाद में वह भी बंद कर दिया। हमारे ट्रिक नहीं होतीं। जैसा है वैसा होना
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ही है। तब अभागा गद्दी पर बैठकर, 'अभी ग्राहक आएँ तो अच्छा, अभी ग्राहक आएँ तो अच्छा' ऐसा सोचा करता है और अपना ध्यान खराब करता है।
यदि मन में ऐसा नक्की किया हो कि मुझे चोखा, बिना मिलावट का धंधा करना है, तो ऐसा आ मिलेगा। भगवान ने कहा है कि खाने की चीज़ों में और सोने में मिलावट करना भयंकर गुनाह है।
कच्छी लोगों को भी ये ट्रिकें आज़माने का भयंकर रोग लग गया है। वे तो बनियों को भी मात दें ऐसे हैं।
आजकल तो जमाना ही ऐसा है कि ट्रिकवालों के बीच ही रहना पडता है, फिर भी लक्ष्य में निरंतर यही रहना चाहिए कि हम ट्रिकों में से कैसे छूटें। यदि यह लक्ष्य में रहा, तो पश्चाताप द्वारा बड़ी जिम्मेदारी से छूट जाएँगे और ऐसे संयोग भी प्राप्त होंगे कि आपको एक भी ट्रिक आज़मानी नहीं पड़ेगी और व्यापार भी सुचारु रूप से चलेगा। फिर लोग भी आपके काम की सराहना करेंगे।
यदि हमें मोक्ष में जाना है, तो ज्ञानी के कहे अनुसार करना चाहिए और यदि मोक्ष में नहीं जाना है, तो ज़माने के अनुसार करना। पर मन में इतना खटका अवश्य रखना कि मुझे ऐसा टिकवाला काम नहीं करना है, तो वैसा काम आ मिलेगा। व्यापार में तो ऐसा होना चाहिए कि छोटा बच्चा आए, तो उसके माता-पिता को ऐसा भय नहीं रहना चाहिए कि बच्चा ठग लिया जाएगा।
लक्ष्मीजी की कमी क्यों है? लक्ष्मी की कमी क्यों है? चोरियों से। जहाँ मन-वचन-काया से चोरी नहीं होगी, वहाँ लक्ष्मीजी की मेहर होगी। लक्ष्मी का अंतराय चोरी से है।
ज्ञान जानने पर प्रकाश में आता है कि क्या करने से खुद सुखी होता है और क्या करने से दु:खी होता है? अक्लमंद तो ट्रिक आजमाकर सब बिगाड़ते हैं।
ट्रिक शब्द ही डिक्शनरी में नहीं होना चाहिए। 'व्यवस्थित' का ज्ञान किस लिए दिया गया है? 'व्यवस्थित' में जो हो सो भले हो। ग्यारह सौ रुपये मुनाफा हो, तो भले हो और घाटा हो, तो भी भले हो। सत्ता 'व्यवस्थित' के हाथों में है, हमारे हाथों में सत्ता नहीं है। यदि सत्ता हमारे हाथों में होती, तो कोई सिर के बाल सफेद होने ही नहीं देता। कोई भी ट्रिक खोज निकालते और बालों को काले के काले ही रखते।
बिना ट्रिक का मनुष्य सरल दिखता है। उसका मुख देखकर ही प्रसन्न हो जाएँ। पर ट्रिकवाले का मुख तो भारी लगता है मानो अरंडी का तेल पीया हो। खुद के, 'शुद्धात्मा' होने के बाद, यह सारा माल साफ करना पड़ेगा न? जितना लिया, उतना, दिया तो करना पड़ेगा न? ट्रिक से भरा हुआ माल, मार खाकर भी वापिस तो करना ही पड़ेगा न? इसलिए तो हम कहते हैं कि 'ऑनेस्टी इज द बेस्ट पोलिसी एण्ड डिसऑनेस्टी इस द वर्स्ट फूलिशनेस'
बुद्धिक्रिया और ज्ञानक्रिया जो-जो अशुद्ध, अशुभ या शुभ जाने, वह बुद्धिक्रिया है, ज्ञानक्रिया नहीं। ज्ञानक्रिया तो केवल शुद्ध को ही देखती है और जानती है। बुद्धि ज्ञेय को ज्ञाता मनवाती है। 'मैं चंदूलाल हूँ, वह ज्ञेय है, उसे ही ज्ञाता मनवाती है, वह बुद्धि है। उसमें अहंकार मिला ही होता है। ज्ञेय को ज्ञाता माने। बुद्धिक्रिया को ही ज्ञानक्रिया मान ले, तो फिर मोक्ष का अनुभव कैसे कर पाएँगे?
बुद्धि से, बिलकुल सामिप्य भाववाला दिखता है। फिर भी बुद्धि की बिसात ही नहीं है कि ज्ञेय को ज्ञेय और ज्ञाता को ज्ञाता देख सके। क्योंकि बुद्धि स्वयं ज्ञेय स्वरूप है, इसलिए रियल सत्य को नहीं देख सकती। संसार का आदि-अंत है ही नहीं। उसको लेकर सभी ने बुद्धि
पैसे कमाने के लिए अक्ल इस्तेमाल नहीं करनी होती। अक्ल तो लोगों की भलाई करने में ही इस्तेमाल की जानी चाहिए।
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आप्तवाणी - १
प्रयोग से दखल की है, यह जानकर तुम्हें क्या लाभ है? संसार अनादिअनंत है, गोल है। गोले में आदि कैसा और अंत कैसा? अनादि अनंत है यह तो आप, बुद्धि से परे होकर ज्ञानी होंगे, तब अपने आप समझ में आ जाएगा।
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स्वच्छंद अर्थात् बुद्धिभ्रम, स्वच्छंद से खुद खुद का ही भयंकर अहित कर रहे हैं। अपनी-अपनी समझ से चलना, वही स्वच्छंद है। फिर चाहे वह शुभ या अशुभ कार्य में हो या शास्त्र पठन में हो। यदि शास्त्र पठन में एक उलटी समझ पैदा हो गई, तो अनंत जन्मों की भटकन का साधन खड़ा हो जाएगा। इसलिए स्वच्छंद से सावधान रहना ।
जहाँ विपरीत बुद्धि शुरू हो गई, वहाँ यू आर होल एण्ड सोल रिस्पोन्सिबल फॉर देट । जिम्मेवार आप ही हैं। वहाँ फिर भगवान हस्ताक्षेप करने नहीं आते। विपरीत बुद्धि तो देनेवाले को और लेनेवाले को दोनों को ही दुःखी करती है।
बुद्धि के दो प्रकार, आंतरिक बुद्धि और बाह्य बुद्धि । हिन्दुस्तान के लोगों को आंतरिक बुद्धि होती है और परदेशियों की बाह्य बुद्धि होती है। आंतरिक बुद्धिवाले अधिक दुःखी होते हैं, क्योंकि जितनी अधिक बुद्धि डेवलप हुई होती है, उतना संताप बढ़ता ही है। फिर बाहर की प्रजा साहजिक है, जब कि इन्डियन्स तो कुछ बातों में साहजिक हैं और कुछ बातों को लेकर विकल्पी हैं। अध्यात्म के लिए आंतरिक बुद्धि ही काम की है।
यह बुद्धि बाहर ढूंढा करती है, मगर बाहर सब जगह निरे झाड़झंखार ही हैं। भीतर खोजें तो फायदा है। लोगों की बुद्धि निरंतर बाहर घूमती रहती है, इसलिए फिर थक जाती है। मैं निरंतर अंदर ही घूमती रहे, ऐसी बुद्धि प्रदान करूँ, तब उसका काम हो जाता है। आपकी बुद्धि विपरीत है, वह सुख को निकाल बाहर करती है और दुःख को निमंत्रित करती है। आप सुख और दुःख को भी पहचान नहीं सकते हैं।
बुद्धि तो वक्र ही दिखाती है। जड़ में जो अस्थायी सुख है, उसे
आप्तवाणी - १
बुद्धि ग्रहण करती है। वास्तव में, वस्तु में सुख या आनंद है ही नहीं । नयी मोटरकार पर कोई चार लकीरें खींचे तो ? पिचका दे तो ? बुद्धिग्राह्य जितने भी सुख हैं, वे अंततः दुःख परिणामी हैं । वस्तु के आकर्षण को लेकर, बुद्धि उस में सुख का आरोपण करती है। वस्तुएँ अनंत हैं। अपने सुख की खोज के लिए प्रत्येक जीव किसी वस्तु को चखकर देखता है। और यह तय करता है कि किस वस्तु के प्रभाव से सुख उत्पन्न होता है? फिर उसकी खोज में निकल पड़ता है। पहले यह तय किया कि पैसे में सुख है, इसलिए पैसे के प्रभाव से सुख मिलता है। मगर फिर उसके पीछे पागल होकर घूमता है और दुःखी होता है। फिर दूसरा ऐसा नक्की करता है कि स्त्री में सुख है। स्त्री ने पुरुष को और पुरुष ने स्त्री को पसंद किया और सेक्स तथा पैसा दोनों खोज निकाला। इन दोनों वस्तुओं से सुख मिले ऐसा नक्की किया। पर यदि पत्नी विरुद्ध में जाए, तो दुःख का दावानल भड़कता है। पैसा विरुद्ध में जाए तो? एन्फोर्समेन्टवालें यदि धावा बोल दें, तो वही पैसा विरुद्ध में गया कहलाता है, जो महादुःख का कारण बनता है 1
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बुद्धिभेद वहाँ मतभेद
आज की दुनिया में घर में तीन सदस्य होते हैं, पर शाम होते होते तैंतीस मतभेद सामने आते हों, वहाँ हल कैसे निकले? अरे, शिष्य और गुरु के बीच में शाम तक कितने ही मतभेद हो जाते हैं। इसका अंत कैसे होगा? जहाँ पर भेदबुद्धि है, वहाँ मतभेद अवश्य होंगे ही। यदि अभेद बुद्धि उत्पन्न हो जाए, तो समझो बात बन गई। खुद निष्पक्षपाती होकर सेन्टर में बैठकर सबको निर्दोष देखे । बुद्धि उलटा दिखाए, तो तुरंत ही सम्यक् बुद्धि से हम कह दें कि जाओ निपटारा करके आओ, तो वह निपटारा कर आती है।
आत्मा भ्रमित हुआ, तो संसार खड़ा हुआ। बुद्धि भ्रमित होगी, तब ज्ञान प्रकट होगा।
मैं किसी की भी बुद्धि नहीं देखता हूँ, मैं तो 'समझ' देखता हूँ।
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आप्तवाणी-१
हम 'अबुध' हैं, निराग्रही हैं, नोर्मेलिटी में हैं। हमारे एक ही बाल में सारे संसार का 'ज्ञान' समाया हुआ है।
जिसकी बुद्धि कम होती है, उसका हृदय नाजुक, कोमल होता है। वह करे, तब तो अपना काम निकाल ले, वर्ना उल्टा भी कर बैठे। सप्ताह में रविवार को, बस एक ही दिन, जो बद्धि का उपयोग न करे, तो वह काम निकाल ले। अगले जन्म का बीज बोना हो, तो बुद्धि इस्तेमाल करना। बुद्धि का प्रकाश बढ़ाना आपके हाथ में नहीं हैं, पर कम करना तो आपके हाथ में ही है। अतः बुद्धि का प्रकाश डिम रखना। बुद्धि सामुदायिक हितकारी नहीं होती। ज्ञान सामुदायिक हितकारी होता है।
अवधान की शक्ति
बुद्धि तो एक लाइन में तीन सौ जगह पर टेढ़ी होती है, पर समझ सीधी रही, तो हर्ज नहीं है। बुद्धिवाला तो ऊपर उठता है और फिर नीचे भी आ गिरता है। जब कि समझवाला, दर्शनवाला ऊपर ही ऊपर, ठेठ तक पहुँच जाएगा, मगर नीचे तो गिरेगा ही नहीं। बुद्धि प्राकृत गुण है, स्वगुण नहीं है। दर्शन स्वगुण है।
तेज (पित्त) तत्त्ववालों को बुद्धि अधिक होती है और वात तत्त्ववालों की समझ गहरी होती है।
जो लौकिक है, वह सब बुद्धि की कल्पना से खड़ा हुआ है। सभी धर्मों में, जिसकी कल्पना में जो-जो आया, वह शास्त्र में लिख दिया। शास्त्र बुद्धिजन्य ज्ञान ही है। उसमें चेतन नहीं मिलता। जब कि ज्ञान तो स्वयंप्रकाश है और वह ज्ञानी के हृदय में ही होता है। बुद्धि के पर्याय हैं, उसकी बोधकलाएँ अपार हैं। बुद्धि अवस्था को स्वरूप मनाने के चक्कर में रहती है। इसलिए हम कहते हैं कि बुद्धि से सावधान रहना। बुद्धि दिखाए तब 'दादाजी' को स्मरण करके कहना, 'मैं वीतराग हूँ,' ताकि बुद्धिबहन बैठ जाए।
ज्ञान किसी की भूल नहीं निकालता। बुद्धि सभी की भूलें निकालती है। बुद्धि तो सगे भाई की भी भूल निकालती है और ज्ञान 'सौतेली माँ' की भी भूल नहीं निकालता। सौतेली माँ, जब बेटा भोजन करने बैठा हो, तो वह नीचे से जली हुई खिचड़ी की खुरचन परोसती है, तब बुद्धि खड़ी हो जाती हैं। वह कहती है कि सौतेली माँ ही बुरी है। निरा संताप करवाती है। पर यदि बेटे को ज्ञान मिला हो, तो ज्ञान तुरंत हाजिर हो जाएगा और कहेगा, 'वह भी शुद्धात्मा और मैं भी शुद्धात्मा हूँ और यह तो पुद्गल का खेल है, जिसका निकाल हो रहा हैं।' देह मिट्टी की बनी है और बुद्धि तेज से बनी है, इसलिए प्रकाश देती है और जलाती भी है। इसलिए ही बुद्धि को हम लबाड़ कहते हैं। अबुध होने की ज़रूरत है। बुद्धि तो मनुष्य को एबव नॉर्मल कर डालती है और कभी-कभी बिलो नोर्मल भी कर देती है। संसार में प्रत्येक वस्तु नोर्मेलिटी में चाहिए। बिना अबुध हुए नोर्मेलिटी कभी भी नहीं आएगी।
कम बुद्धिवालों में द्वेष अधिक होता है। विकसित बुद्धिवालों में द्वेष नहीं होता। हम संग्रहालय देखने जाते हैं, तब किसी भी वस्तु के प्रति द्वेष करते हैं कभी? कुसंग अर्थात् बुद्धि की उठापटक, ऐसा-वैसा सोचता
अवधान लिमिटेड, सीमित है। वह बुद्धि की शक्ति पर आधारित है। प्रत्येक मनुष्य अपनी बुद्धि के आशय में जो माल भरकर लाया है वही माल इस जन्म में निकलता है। उसके अलावा और कुछ नहीं है। हिन्दुस्तान के इन चोरों को चोरी करते समय एक साथ सोलह-सोलह अवधान रहते हैं। चोर मुआ, चोरी करने जाए तब बिना खाए-पीए जाता है, इससे उसकी अवधान शक्ति बढ़ती है। इसलिए चोरी कहाँ करनी है? किस पॉइन्ट पर करनी है? किस समय करनी है? पुलिसवाला कहाँ पर है? बटुवा कौन-सी जेब में है? भागना कहाँ से होगा? ऐसे तो सोलहसोलह अवधान हमारे हिन्दुस्तान के चोरों को एट-ए-टाइम रहते हैं। अवधान शक्ति पूर्णरूप से बुद्धिजन्य है, ज्ञानजन्य नहीं है। अवधान थोड़ी देर के लिए बढ़ जाता है और आधा सेर रबड़ी खा ली, तो उतर भी जाता है। ऐसा विचित्र है यह सब! ज्ञानजन्य होता, तो एक समान ही रहता है। उतार-चढ़ाव नहीं होता।
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प्रश्नकर्ता : बुद्धि ही माया है क्या?
दादाश्री : नहीं, माया यानी अज्ञान। ज्ञान मिलने पर अज्ञान-माया जाती है, पर अंत:करण तो रहता ही है। बुद्धि रहती ही है। बुद्धि संसार में हितकारी हों, ऐसी वस्तुओं में हाथ डलवाती है और संसार में भटकाती है। बुद्धि क्या है? कोई आपके बेटे को फँसाता हो, तो आपकी बुद्धि बीच में घसीटेगी। वास्तव में तो 'व्यवस्थित' ही सब करता है, फिर भी बुद्धि दखल देती है। पहले मन, बुद्धि को फोन करता है। तब खुद अंदर दख़ल कर सकता है। बोल उठता है, 'क्या कहा? क्या कहा?' हर बात में बुद्धि का दखल पहले। रात को नींद में, सपने में दखल नहीं देती, तो सब ठीक चलता है। तो फिर यह संसार भी जागृत अवस्था का स्वप्न ही है न?
कोई कार ड्राइवर जब ड्राइविंग कर रहा हो, और सामने से बस आ रही हो, और पास में बैठा हुआ मुसाफिर यदि चलानेवाले का हाथ पकड़ ले तो क्या होगा? टकरा नहीं जाएगा क्या? मगर लोग बड़े सयाने होते हैं, बस आए, फिर भी स्टियरिंग पकड नहीं लेते, क्योंकि उन्हें मालूम है कि स्टियरिंग चलानेवाले के हाथ में है। जिसका काम है वही करे तो ठीक रहता है। ऐसे, मोटर जैसी स्थूल चीज़ों के बारे में तो लोग समझते हैं, पर इस 'अंदर' की बात को कैसे समझें? इसलिए 'खुद' उसमें दखल दे ही देता है और झमेला खड़ा हो जाता है। 'अंदर' के मामले में भी सब मोटर ड्राइवर पर छोड़ देना चाहिए यदि ऐसा समझ जाए, तो कोई दखलंदाजी नहीं हो।
तत्त्वबुद्धि अर्थात् 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और वह हाथ में आया तो देहबुद्धि चली जाती है। देह में जो बुद्धि थी, वह अब तत्त्व में परिणमित हुई। तत्त्वबुद्धि अर्थात् सम्यक् बुद्धि। सम्यक् ज्ञान उत्पन्न हो तब सम्यक् बुद्धि, तत्त्वबुद्धि उत्पन्न होती है। उसके बिना तो विपरीत बुद्धि ही होती है।
अंत:करण का तीसरा अंग : चित्त अंत:करण का तीसरा अंग चित्त है। चित्त का कार्य भटकने का
है. वह जैसी है वैसी फोटो खींच देता है। यहाँ बैठे-बैठे अमरीका की फिल्म यथावत् दिखलानेवाला चित्त है। मन इस शरीर के बाहर जाता ही नहीं। जाता है, वह चित्त है और बाहर जो भटकता है, वह अशुद्ध चित्त है। शुद्ध चित्त वही शुद्ध आत्मा है।
चित्त अर्थात् ज्ञान + दर्शन। अशुद्ध चित्त अर्थात् अशुद्ध ज्ञान + अशुद्ध दर्शन। शुद्ध चित्त अर्थात् शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन।
मन पैम्फलेट दिखलाता है और चित्त पिक्चर दिखलाता है। ये दोनों जो दिखाते हैं, उसमें बुद्धि डिसीज़न देती है और अहंकार हस्ताक्षर करता है, तब काम होता है। चित्त अवस्था है। अशुद्ध ज्ञान-दर्शन के पर्याय ही चित्त है। बुद्धि के डिसीज़न देने से पहले मन और चित्त की कशमकश चलती है, पर डिसीज़न आने के बाद सभी चुप। बुद्धि को एक ओर बिठा दें, तो चित्त या मन कोई परेशान नहीं करता।
अनादि काल से चित्त निज घर की खोज में है। वह भटकता ही रहता है। वह तरह-तरह का देखा करता है। इसलिए उसके पास अलगअलग ज्ञान-दर्शन जमा होते जाते हैं। चित्तवृत्ति जो-जो देखती है उसे स्टॉक करती है और वक्त आने पर ऐसा है, वैसा है, दिखलाती है। चित्त जो जो कुछ देखता है उस में यदि लग गया, तो उसके परमाणु खींचता है और वे परमाणु जमा होकर उनकी ग्रंथियाँ बनती हैं, जो मन स्वरूप है। वक्त आने पर मन पैम्फलेट दिखाता है, उसे चित्त देखता है और बुद्धि डिसीज़न देती है।
आपकी जो चित्तवृत्तियाँ बाहर भटकती थीं और संसार में रमण करती थीं, उन्हें हम अपनी ओर खींच लेते हैं इसलिए वृत्तियों का अन्यत्र भटकना कम हो जाता है। चित्तवृत्ति का बंधन हुआ, वही मोक्ष
अशुद्ध चित्तवृत्तियाँ अनंतकाल से भटकती थीं और जिस मुहल्ले
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में जाती हों, वहाँ से वापस लाना चाहें, तो उलटे उसी मुहल्ले की और
खची चली जाती थीं। ऐसी वृत्तियाँ निज घर में वापस लौटती हैं, यही अजूबा है न? चित्तवृत्तियाँ जितनी जगह भटकेंगी, उतनी जगह देह को भी भटकना पड़ेगा। क्रमिक मार्ग में तो मन के अनंत पर्याय और फिर चित्त के अनंत पर्याय पार करते-करते, रिलेटिव अहंकार तक पहुँचते हैं (आईने में देखने जैसा) और आपको तो हमने यह सब पार करवाकर सीधे स्वरूप में बिठा दिया है, निज घर में!
निज घर की खोज में चित्त भटकता रहता है। इसलिए वह जो देखता है, उसीमें सुख खोजता है। जहाँ-जहाँ पर चित्त स्थिर होता है, वहाँ-वहाँ अंत:करण का शेष भाग शांत रहता है, इसलिए सुख लगता है। मगर स्थिर रहता कितनी देर है? चित्त फिर दूसरी जगह जाता है। उसे वहाँ सूख लगता है और पहलेवाला सुख दुःखदायी हो जाता है, क्योंकि जिस बाह्य सुख की खोज में है वह पारिणामिक रूप से दु:खदायी है। क्योंकि बुद्धि बिना आरोप किए नहीं रहती कि इसमें सुख नहीं है, दुःख है। अत: चित्त पुनः भटकता है। जब तक चित्तवृत्ति निज घर में स्थिर नहीं होती, तब तक इसका अंत आनेवाला नहीं है। सच्चा सुख जब चखे, तब काल्पनिक सुख अपने आप फीके पड़ जाते हैं। फिर जो भटकता है, वह अशुद्ध चित्त है, और उसे जैसा है वैसा देखनेवाला और जाननेवाला शुद्ध चित्त है। अशुद्ध चित्त के पर्याय फिर धीरे-धीरे कम होते-होते बंद ही हो जाते हैं। और फिर केवल शुद्ध चित्त के पर्याय रहते हैं, वही 'केवलज्ञान'।
ज्ञानी पुरुष अशुद्ध चित्त को हाथ नहीं लगाते। केवल खुद का शाश्वत सुख, अनंत सुख का कंद है, वह चखा देते हैं, ताकि निज घर मिलते ही शुद्ध चित्त, जो कि शुद्धात्मा है, प्राप्त हो जाता है और शुद्ध चित्त ज्यों-ज्यों शुद्ध और शुद्ध को ही देखता है, त्यों-त्यों अशुद्ध चित्तवृत्ति फीकी पड़ते-पड़ते, आख़िर में केवल शुद्ध चित्त ही शेष रहता है। फिर अशुद्ध चित्त के पर्याय बंद हो जाते हैं। फिर जो शेष रहता है, वह केवल शुद्ध पर्याय।
ज्ञानी ही शुद्ध आत्मा दे सकते हैं अशुद्ध चित्त की शुद्धि करने के लिए संसार के सारे धर्म प्रयत्न में लगे हैं। साबुन से मैले कपड़ों को धोकर साफ किया जाता है, वैसे। पर साबुन कपड़ों का मैल तो निकालेगा, पर फिर अपना मैल छोड जाएगा। फिर साबुन का मैल निकालने, टीनोपाल चाहिए। टीनोपाल साबुन का मैल निकाल देता है, पर अपना मैल छोड़ जाता है। अंत तक मैल साफ करनेवाली चीज़ अपना मैल, साफ होनेवाली वस्तु पर छोड़ता ही जाएगा। ऐसा संसार के सभी रिलेटिव धर्मों में होता है। जहाँ अंत में शुद्ध किए जानेवाले चित्त के ऊपर भी आखिर में अशुद्धि, मैल रहता ही है। संपूर्ण शुद्ध तो वही कर सकता है जो स्वयं संपूर्ण शुद्ध, सर्वांग शुद्ध है। इसलिए ऐसे ज्ञानी पुरुष ही कर सकते हैं। इसलिए प्रत्येक शास्त्र अंत में कहता है कि तुझे आत्मा प्राप्त करना है, तो ज्ञानी के पास जा। वे ही शुद्ध आत्मा दे सकते हैं। हमारे पास तो मिलावटवाला आत्मा है, अशुद्ध आत्मा है, जिसकी कोई क़ीमत ही नहीं हैं।
मोक्षमार्ग में, मन को कुछ भी करने जैसा नहीं है। मात्र चित्त को ही शुद्ध करना है। तभी हल निकलेगा। कुछ लोग बिना समझे मन के पीछे पड़ते हैं और उसे वश करने जाते हैं। उनके व्य पॉइन्ट से वह ठीक है, पर यदि मोक्ष चाहते हों, तो फेक्ट जानना होगा और फेक्ट से वह पूर्णतया गलत है। चित्त शुद्ध होने के बाद मन के साथ कोई लेना-देना ही नहीं रहता। फिर तो शुद्ध चित्त मन की फिल्म देखता रहता है।
इस संसार में मन को रोकने के स्थान हैं, पर चित्त को रोकने के स्थान नहीं हैं। लोग ताश खेलते हैं, वह क्या है? उसमें क्या सुख है? लोगो ने उसमें चित्त को रोकने का स्थान खड़ा किया है। मगर पत्ते खेलने में चित्त को रोकना तो पतन है। इससे आगे चलकर धीरे-धीरे और ज्यादा गिरते जाते हैं। मगर पत्तों में भी चित्त कितना समय रोक पाते हैं? क्या उसमें भी अंत में असुख पैदा नहीं होता?
चित्त ही अपनी मनचाही जगह पर और भय के स्थानों में विशेष
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भटकता है। दोपहर को कमरे में साँप देख लिया, तो सोते समय रात को भी साँप याद आता है। चित्त को जब भय लगता है, तब उसी जगह जाया करता है। जड़ भी नहीं और चेतन भी नहीं, ऐसा मिश्र चेतन, अशुद्ध चित्त, जहाँ अच्छा लगे, वहाँ भटकता रहता है। बिना टिकट भटकना है, इसलिए भटकता है। टिकट होता तो अच्छा होता, तो चित्त भटकता ही नहीं।
चित्त पर से चेतन हुआ है। शुद्ध ज्ञान + शुद्ध दर्शन = शुद्ध चेतन।
पहले जिन-जिन पर्यायों का बहुत ही वेदन किया हो, वे अब ज्यादा आते हैं। वहीं पर चित्त लगा रहता है, घंटों तक रहता है, वहाँ पर बहुत भारी बीज पड़ते हैं। जो पर्याय हल्के पड गए हैं, उन पर्यायों का असर चित्त पर अधिक नहीं रहता, चित्त में रहते हैं और छूट भी जाते हैं।
ज्ञान और दर्शन, एकसाथ बोलना हो, तो चित्त बोलना होगा। चित्त नाशवंत वस्तुएँ ही दिखाता है। जहाँ-जहाँ वासना लगे, वहाँ चित्त भटकता है। जितना ज्ञान हो उतना दिखता है और दर्शन हो उतना भाग धुंधला दिखता है। ज्ञान से एकज़ेक्ट दिखाई देता है।
मंदिर में मूर्ति के दर्शन करते समय, भीतर के संयोग जैसे कि मन के परिणाम, चित्तवृत्ति की स्थिति, इनके अनुसार दर्शन में फर्क दिखाई देता है। उदाहरण स्वरूप, पहले घंटे में एक प्रकार के दर्शन होते हैं, दूसरे घंटे में कुछ और प्रकार के दर्शन होते हैं। बाहरी और आंतरिक एविडन्स जैसे होते हैं, वैसे दर्शन होते हैं। मूर्ति के सामने से प्रकाश आता हो, तो अलग दर्शन होंगे, बाजू पर से आ रहा हो, तो अलग दर्शन होंगे। ज्ञानी पुरुष का मुखारविंद तो एक समान ही होता है, पर आपके मन के परिणाम या चित्तवृत्ति की चंचलता के आधार पर अलग दिखाई देते हैं। ज्ञानी पुरुष के तो एक ही तरह से दर्शन करने होते हैं।
जिनके गए हैं, ऐसे वीतराग जब भगवान ऋषभदेवजी की मूर्ति के दर्शन करते हैं तब उन्हें मूर्ति हँसती दिखाई देती है। आँखें तो काँच की हैं, फिर वे हँसती कैसे दिखाई देती हैं? क्योंकि उनकी अपनी चित्तवृत्ति, अपनी चैतन्य शक्ति उसमें पिरोई है, इसलिए हँसते दिखाई देते हैं। इसे चित्त प्रसन्नता कहते है। जहाँ कपट-भाव पूर्ण रूप से उड़ गया होता है, वहाँ चित्त प्रसन्नता रहती है। चित्त प्रसन्नता और कपट का दोनों का गुणा नहीं होता, कबीर साहब क्या कहते थे?
'मैं जानूँ हरि दूर है, हरि हृदय के माँही,
आडी त्राटी कपट की, तासे दिसत नाही।' आडी त्राटी कपट की है, इसलिए भगवान दिखते नहीं हैं। वृत्ति में अन्य भाव का नहीं रहना, शुद्ध कहलाता है। हमारे महात्माओं को यदि वृत्ति में अन्य भाव नहीं रहें, तो चित्त की प्रसन्नता की भक्ति उत्पन्न होती है। अवस्था में बंधे लोग व्यवहार सुख भी नहीं भोग सकते। घंटे भर पहले किसी अवस्था में चित्त एकाग्र हुआ हो, तो उसीमें ही चित्त लगा रहता है। इसलिए अवस्था से बंधे होने का बोझ रहता है और चाय पीने की अवस्था के समय उसी बोझ तले चाय पीता है। व्यवहार में तो चित्त ही चेतन है। उसकी हाज़िरी होने पर ही बात बनती है। खाते समय यदि खाने में चित्त हाज़िर नहीं हो, तो ऐसा खाया हुआ किस काम का?
_ 'चित्त में क्लेश नहीं, वही सारे धर्मों का धर्म। यदि इस पद को पा लिया, तो पुनर्जन्म जाए।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, पिछली रात नींद में, एक सूर्य जैसा प्रकाश बहुत ज़ोरों से दिखाई दिया, वह क्या है?
दादाश्री : वह तो चित्त चमत्कार। चित्त चमत्कार की गज़ब की शक्ति है।
प्रश्नकर्ता : मंदिर में घंट क्यों लटकाते हैं? दादाश्री : चित्त को एकाग्र करने। टन-टन बजता है, तब वहाँ पर
चित्त प्रसन्नता
आनंदघनजी महाराज क्या कहते हैं? सारे संसार के भावाभाव
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आप्तवाणी-१
मन और चित्त थोड़ी देर के लिए एकाग्र रहते हैं। जब तक स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती, तब तक संपूर्ण एकाग्रता होती ही नहीं।
चित्त को जो डिगाते हैं, वे सभी विषय हैं। बाहर यह जो सब होता है, वे सभी विषय हैं। जिन-जिन वस्तुओं में चित्त गया, वे सभी विषय हैं। पकोड़े खाए, उसमें हर्ज नहीं है पर उसमें चित्त लगा और बार-बार याद आता रहे वह विषय है। ज्ञान के बाहर जो भी जाता है, वह सब विषय ही है।
पराई वस्तु में (स्व को छोड़कर) चित्त भटके, तब अगले जन्म के बीज पड़ते हैं।
चित्त सदैव फोटो खींचता रहता है। कभी धुंधली तो कभी स्पष्ट । आप जैसी फोटो खींचेंगे वैसी फिल्म उतरेगी और फिर उसे देखनी होगी। इसलिए अच्छी फोटो खींचना। आप अपनी फिल्म फिजूल मत गँवाना।
हूँ', ऐसा माने, उसे अहंकार नहीं कहते। 'मैं हूँ' अर्थात् अस्तित्व तो है। अत: 'मैं हूँ', ऐसा कहने का अधिकार तो है, पर 'मैं हूँ', वह किस में हूँ? इसका आपको पता नहीं है। अचतेन में 'मैं' बोलने का अधिकार नहीं है। मैं क्या हूँ?' इसका भान नहीं है। यदि यह भान हो जाए, तो काम हो गया समझो।
किसी के चलाए कुछ चलता नहीं है और संसार तो चलता ही रहता है। मात्र अहंकार ही करता है कि मैं चलाता है। जब तक अपने स्वरूप का भान नहीं है तब तक मनुष्य, चाबी भरी हई मोटरों जैसे ही
परा
अहंकार
अंत:करण का चौथा और आख़िरी भाग है. अहंकार। मन और चित्त के साथ मिलकर बुद्धि जो डिसीज़न दे. उसमें आख़िर में हस्ताक्षर करे, वह अहंकार है। जब तक अहंकार के हस्ताक्षर नहीं होते, तब तक कोई कार्य होता ही नहीं। पर बुद्धि जो अहंकार के माध्यम से आनेवाला प्रकाश होने के कारण बुद्धि के डिसीज़न लेने पर अहंकार नियम से ही सहमत हो जाता है और कार्य हो जाता है।
___ 'मैं चंदलाल' उसे ही ज्ञानी सबसे बड़ा और अंतिम अहंकार बताते हैं। उससे सारा संसार खड़ा रहा है। यह अहंकार जाए तभी मोक्ष में जा पाएँगे। यह जीवन किस आधार पर खडा रहा है? पैरों पर या देह पर? नहीं, 'मैं हूँ' इसके ऊपर ही। 'मैं शुद्धात्मा हूँ', इस शुद्ध अहंकार से ही मोक्ष में जाया जा सकता है। शेष सभी जन्मोंजनम के साधन बन जाते
त्याग किस का करना है भगवान ने कहा है कि यदि तू मोक्ष में जाना चाहता है, तो कुछ भी त्यागने की ज़रूरत नहीं है। बस अहंकार और ममता, दो ही चीजों का त्याग किया, तो उसमें सबकुछ आ गया। अहंकार यानी 'मैं' और ममता यानी 'मेरा'। 'मैं' और 'मेरा', वे दोनों ही त्यागने हैं। हम ज्ञान देते हैं, आपको स्वरूप का भान करवाते हैं, तब आपके अहंकार और ममता दोनों का त्याग करवाते हैं। एक ओर त्याग करवाया, तो दूसरी ओर क्या ग्रहण करवाते हैं, मालूम है? शुद्धात्मा ग्रहण करवाते हैं। फिर ग्रहणत्याग की कोई झंझट ही नहीं रहती। अहंकार निकालने के लिए ही सारा त्याग करना होता है। हम आपका सारा अहंकार ही ले लेते हैं। फिर अस्तित्व क्या रहा? तो कहे, जहाँ अस्तित्वपन है, वहाँ! मल जगह पर स्थापित किया। किसी एक जगह पर ही अहंकार का अस्तित्वपन होता है, इसलिए हम मूल जगह पर अहंकार बिठा देते हैं। ___आप निश्चय करें कि सुबह पाँच बजे उठना है, तो उठा जाएगा ही। निश्चय यानी अहंकार। अहंकार करने पर क्या नहीं हो सकता? एक बार सहजानंद स्वामी घूमते-घूमते काठियावाड़ पहुंचे। वहाँ एक राजा से मिले। वह कहने लगा, 'मेरे यहाँ एक बहुत बड़े साधु आए हैं। पंद्रह दिन जमीन के अंदर रहते हैं।' इस पर सहजानंद स्वामी ने कहा, 'मेरे सामने
अचेतन में 'मैं हूँ' ऐसा माने, वह अहंकार है। यदि चेतन में 'मैं
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यह प्रयोग करवाइए।' फिर वह साधु पंद्रह दिनों तक अहंकार करके गड्ढे में रहा। निकलने का समय आया, तब सहजानंद स्वामीने कहा, 'दो पुलिसवालों को भेजना। हर वक्त बाजे-गाजे के साथ राजाजी आप जलस के साथ लेने जाते हैं, वह सब इसबार बंद।' साध जब बाहर आया, तो देखा कि कोई भी नहीं है, इसलिए चिल्लाना शुरू किया, 'कहाँ है राजा? कहाँ है बग्घी? बाजे कहाँ है?' ऐसे चिल्लाते-चिल्लाते वहीं का वहीं मर गया। अत: वह अहंकार करके रहा और अहंकार संतष्ट नहीं हआ, तो मर गया। खुद जहाँ नहीं है, वहाँ खुद का आरोप करना, वही अहंकार।
वास्तव में 'खुद' मरता ही नहीं है। अहंकार मरता है और अहंकार ही जन्म लेता है। जब तक अहंकार हस्ताक्षर नहीं करता, तब तक मरण
आ ही नहीं सकता। पर अभागा बिना हस्ताक्षर किए रहता ही नहीं। बिस्तर में बहुत पीड़ित होने पर, या बहुत दु:ख आ पड़े, तब हस्ताक्षर कर ही देता है कि इससे तो मर गए होते. तो अच्छा होता। हस्ताक्षर हो ही जाते हैं।
भुगतनेवाला कौन है? 'आत्मा' खुद कुछ भी भुगतता नहीं है। किसी विषय को आत्मा भुगत सकता ही नहीं। यदि भुगतना उसका स्वगुण होता, तो वह सदा के लिए साथ-साथ ही रहता। कभी भी मोक्ष होता ही नहीं। भगतता है, वह तो मात्र अहंकार करता है कि मैंने भगता। इन्द्रियाँ इफेक्टिव हैं और उन्हें कोजेज के आधार पर इफेक्ट होता है, तब भ्रांतिवश अहंकार कहता है कि मैं करता हूँ,' 'मैं भुगतता हूँ। यदि यह भ्रांति जाए कि मैं कर्ता नहीं हूँ और कर्ता कौन हैं यह समझ में आ जाए, तो फिर मोक्ष दूर नहीं रहता। देह सहित ही मोक्ष बरते, ऐसा है।
मनुष्यों की भीड़ नहीं है, पर अहंकार की भीड़ है। ज्ञान से अहंकार की भीड़ में रहा जा सकता है। नेचर पद्धति अनुसार है। आत्मा पद्धति अनुसार है। पर बीच में अहंकार है, वह बहुत विकट है। वह नहीं करने का काम करता है। अहम् को लेकर ही संसार खड़ा है और चार गतियाँ
भी अहम् से ही होती है। अहंकार ने ही भगवान से अलग किया है।
मनुष्य तो रूपवान होते हुए भी अहंकार से कुरूप दिखता है। रूपवान कब दिखाई देगा? तब कहे, प्रेमात्मा होने पर । रसौलीवाला मनुष्य कैसा कुरूप लगता है? वैसे ही, रूपवान होते हुए भी अहंकार की रसौली को लेकर कुरूप लगता है।
प्रश्नकर्ता : अहंकार के प्रकार हैं क्या?
दादाश्री : रिलेटिव वस्तु को 'मैं हूँ' कहा वही अहंकार । गर्व, मद, मत्सर, अभिमान, मान, अपमान, ये सारे अलग-अलग शब्द अलग-अलग समय पर प्रयोग होते हैं। ये सारे स्थूल अर्थ समझने के लिए हैं, इसलिए ज्ञानियों ने अलग-अलग नाम दिए हैं।
कुछ लोग खुद को निर्मानी बताते हैं। पर उस निर्मानी होने का जो कैफ चढ़ता है, वह तो स्थूल मानी की तुलना में अधिक भटका कर मार डाले, ऐसा है। निर्मानी होने का मानीपन खड़ा हुए बगैर रहता ही नहीं। बिना स्वरूपज्ञान के अहंकार पूर्णरूप से जाता ही नहीं। इसलिए एक
ओर टूट पड़े और निर्मानीपन प्राप्त करने में जुट गए। पर उससे कैफ बढ़ा उसका क्या? उससे जो भयंकर सूक्ष्म अहंकार खड़ा हुआ, उसका क्या?
स्वरूपज्ञान प्राप्त होने के बाद अंत:करण ज्यों का त्यों रहता है। केवल जहाँ खुद नहीं है, वहाँ 'मैं हूँ' का जो भ्रांति से आरोपण किया था, उस भ्रांति को हम उड़ा देते हैं और 'मैं' को रियल 'मैं' में बिठा देते हैं। फिर अंत:करण में जो अहंकार शेष है, वह आपका व्यवहार चला लेगा। उसे कुछ दबाना नहीं है, मात्र नीरस बनाना है।
अहंकार का रस खींच लो मूल वस्तु पा गए, फिर अब अहंकार का रस खींच लेना है। राह चलते कोई कहे, 'अरे, आप कमअक्ल हैं, सीधे चलिए।' उस समय अहंकार खड़ा होता है, वह अहंकार सहज ही टूट जाता है।
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गुस्सा आता है। मगर उसमें गुस्सा करने को क्या रहा? हमें अब गुस्सा करने जैसा रहता ही नहीं है। अहंकार का जो रस है, उसे खींच लेना
अपमान किसी को पसंद नहीं आता, पर हम कहते हैं कि वह तो बहुत हैल्पिंग है। मान-अपमान तो अहंकार का कड़वा-मीठा रस है। अपमान करता है, वह तो आपका कड़वा रस खींचने आया है। 'आप कमअक्ल हैं', ऐसा कहा, मतलब, सामनेवाले ने वह रस खींच लिया। जितना रस खींच लिया उतना अहंकार टा और वह भी बिना मेहनत के दूसरे ने खींच दिया। अहंकार तो रसवाला है। जब अनजाने में कोई निकाले तब अगन लगती है इसलिए जानकर सहज रूप से अहंकार को कटने देना। सामनेवाला सहज रूप से खींच देता हो, उससे बढ़कर और क्या हो सकता है? सामनेवाले ने कितनी बड़ी हेल्प की।
जैसे बने वैसे सारा रस पिघला दें, तो निकाल हो जाए। अहंकार तो काम का है, वर्ना संसार व्यवहार कैसे चलेगा? अहंकार को केवल नीरस बना देना है। हमें जिसे धोना था, उसे दूसरों ने धो दिया. वही हमारा मुनाफ़ा। हम ज्ञानी पुरुष अबुध होते हैं और ज्ञानी के पास इतनी शक्ति होती है कि वे खुद ही अहंकार का रस खींच डालें। जब कि आपके पास ऐसी शक्ति नहीं होती। इसलिए आपको तो कोई अपमान करके सामने से अहंकार का रस खींचने आए, तो खुश होना चाहिए। आपकी कितनी मेहनत बच जाए? आपका तो काम हो जाए। हमें तो, फायदा कहाँ हुआ यही देखना है। यह तो गजब का मुनाफा हुआ ऐसा कहलाएगा।
यदि आपका कड़वा-मीठा रस नीरस हो गया हो, तो अहंकार का स्वभाव तो नाटकीय है। वह सारा का सारा काम कर देगा। अहंकार को खतम नहीं करना है, उसे, नीरस करना है।
भोजन करते समय औरों को एन्करेज करने के लिए ऐसा भी कहना पड़ता है कि अहह ! कढ़ी तो बहुत मज़ेदार बनी है!
हँसते मुख जहर पीए सामनेवाले का अहंकार हम से कटे, तो उसे कड़वा लगता है। मगर कुल मिलाकर मुनाफ़ा क्या है, इसकी हमें खबर होने के कारण, किसी को हमारे कारण कड़वा लगे ऐसा नहीं हो, तो अच्छा है।
'हसते मुखे झेर पीए, नीलकंठी खानदान, निःस्पृह अयाचकने, खपे नही मान-तान।' (हँसते मुख जहर पीए नीलकंठी खानदान,
नि:स्पृह अयाचक को चाहिए न मान-तान।) हम नीलकंठ हैं। बचपन से जो भी कोई ज़हर दे गया, वह हम हँसते-हँसते पी गए और ऊपर से आशीर्वाद भी दिया और इसलिए ही हम नीलकंठ हुए।
जहर तो आपको पीना ही पड़ेंगा। हिसाबी है, इसलिए प्याला तो सामने आएगा ही। फिर आप हँसते-हँसते पीएँ या मुँह बिगाड़कर पीएँ, पीना तो पड़ेगा ही। अरे, आप लाख पीना नहीं चाहें, तब भी लोग जबरदस्ती पिलाएँगे। तो फिर हँसते-हँसते पीकर ऊपर से आशीर्वाद देकर क्यों नहीं पीएँ? इसके बिना नीलकंठ कैसे हो पाएँगे? जो प्याला दे जाते हैं, वे तो आपको ऊँचा पद देने आते हैं। वहाँ पर यदि आप मँह बिगाड़ेंगे, तो वह पद आपसे दूर चला जाएगा। हम तो, सारे संसार में से जिसजिसने जहर के प्याले दिए, उन्हें हँसते-हँसते. ऊपर से आशीर्वाद देकर पी गए और महादेवजी हुए। ___'मैं चंदूलाल हूँ', तब तक सब कड़वा लगता है। पर हमारे लिए तो यह सब अमृत हो गया है! मान-अपमान, कड़वा-मीठा वे सारे द्वंद्व हैं। जो अब हमें नहीं रहे, हम द्वंद्वातीत हैं। इसलिए तो यह सत्संग करते हैं न? आखिरकार तो सभी को द्वंद्वातीत दशा ही प्राप्त करनी है न?
सामनेवाला यदि कड़वा पिलाए और आप हँसते हुए आशीर्वाद देकर पी जाएँ, तो एक ओर आपका अहंकार स्वच्छ होता है और आप
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हमें यदि कड़वा पीने को कहा हो, तो हम खुद थोड़े ही पीनेवाले हैं? यह तो कोई सामने से जब कड़वा पिलाए, तो वह तो कितना उपकारी है? परोसनेवाली तो माँ कहलाती है। (जो दिया था वह) वापस लिए बगैर कोई चारा नहीं है। नीलकंठ बनने जहर तो पीना ही पड़ेगा।
'हमें' तो 'चंदूभाई' को कह देना है कि तुझे सौ बार यह कड़वा पीना पड़ेगा। बस, फिर उसकी आदत हो जाएगी। बच्चे को कड़वी दवाई जबरदस्ती पिलानी पड़ती है। पर यदि वह समझ जाए कि यह हितकर है, तो फिर जबरदस्ती पिलानी नहीं पड़ती। अपने आप पी लेता है। एक बार नक्की किया कि कोई जो भी कड़वा पिलाएँ उसे पी लेना है, तो फिर पिया जाएगा। मीठा तो पी सकते हैं, पर कड़वा पीना आना चाहिए। कभी न कभी तो पीना ही पड़ेगा न? यह तो फिर मुनाफ़ा है, इसलिए प्रैक्टिस कर लेनी चाहिए न?
यदि सब लोगों के बीच में मान भंग हो जाए, तो घाटा हुआ ऐसा लगता है, पर उसमें तो भारी मुनाफ़ा है, यह समझ में आ जाए, तो फिर घाटे जैसा नहीं लगता न?
"मैं शुद्धात्मा हूँ' बोलते तो हैं, तो फिर उसी पद में ही रहना है न? उसके लिए तो अहंकार धुलवाना पड़ेगा। कठोर परिश्रम करने का निश्चय करें, तो धुलेगा ही।
उसमें पैर क्यों रखते हैं? नक्की करने के बाद दोनों ओर पैर रखना चाहिए क्या? नहीं रख सकते। रूठना कब होता है? जब किसी ने कड़वा परोस दिया तब। हम विधि करते समय बोलते हैं कि मैं शुद्धात्मा हूँ, तो फिर शुद्धात्मा का रक्षण करना चाहिए या और किसी का? अहंकार को खुद नीरस करना बहुत कठिन कार्य है। इसलिए यदि कोई नीरस कर देता हो, तो बहुत अच्छा है। उससे अहंकार नाटकीय रहेगा और अंदर का बहुत सुचारू रूप से चलेगा। यदि यह इतना फायदेमंद है, तो अहंकार को नीरस करने हँसते मुख ही क्यों नहीं पीएँ? अहंकार संपूर्ण नीरस हुआ, तो समझो आत्मा पूर्ण हो गया। इतना नक्की कीजिए कि मुझे अहंकार नीरस करना है, तो फिर वह नीरस होता ही रहेगा।
यह कड़वी दवाई यदि रास आ जाए, तो फिर और कोई झंझट ही नहीं रहती न? फिर अब आपको मालम हो गया है कि इसमें हमारा ही मुनाफ़ा है। जितना मीठा लगता है, उतना ही कड़वा भरा पड़ा है। इसलिए पहले कड़वा पचा लो, फिर मीठा सहज ही निकलेगा। उसे पचाना बहुत भारी नहीं पड़ेगा। कड़वी दवाई पच गई, तो बहुत हो गया। फूल लेते समय हर कोई हँसता है, पर पत्थर पड़ें तब?
अदीठ तप क्या है?
अहंकार तो ज्ञेय स्वरूप है। आप खुद ज्ञाता हैं। ज्ञेय-ज्ञाता का जहाँ संबंध है वहाँ ज्ञेय का रक्षण तो नहीं कर सकते न? एक अहंकार का रक्षण करो, तो सभी ज्ञेयों का रक्षण करना पड़ता है। क्योंकि अनेकों ज्ञेय हैं। अनंत ज्ञेय हैं। अब अदीठ तप करना है। अहंकार आदि में तन्मयाकार नहीं हों, इसका ध्यान रखना है। जागृति रखना ही तप है, अदीठ तप। यह अदीठ तप करना होगा, क्योंकि तन्मयाकार होने की अनादि की आदत है। इससे वह कम होती जाएगी। अहंकार हलका होता जाए, तो समाधान होता जाता है। एक निश्चय किया, तो तप होता ही रहता है।
जिस अहंकार में कोई बरकत नहीं आई। यहाँ-वहाँ ठोकरें खाई, हर जगह स्वरूपवान होते हुए भी बदसूरत दिखलाता हो, ऐसा अहंकार
एक भिखारी को राजा बनाया हो और गददी पर बैठने के बाद यदि ऐसा कहे कि मैं भिखारी हैं. तो ऐसा कहना ठीक होगा क्या? 'शुद्धात्मा' का पद पाने के बाद दूसरा कुछ भी हमें नहीं होना चाहिए।
कड़वे-मीठे अहंकार के पद में से आपको खिसकना है न? फिर
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किस काम का ? 'ज्ञेय' जब 'ज्ञाता' हो जाए, तो वही जागृति है। वही अदीठ तप है। अहंकार का रस पिघलाने के लिए जो जागृति रखनी पड़ती है, वही अदीठ तप है।
अंतराय बाहर से आते हैं, वैसे अंदर से भी आते हैं। अहंकार अंतराय रूप है। उसके सामने तो अच्छी तरह तैयार हो जाना पड़ेगा।
कोई मान दे तो भी सहन हो, ऐसा नहीं है। जिसे अपमान सहन करना आया, वही मान सहन कर सकता है। किसी ने दादाजी से पूछा कि लोग आपको फूल चढ़ाते हैं, उन्हें आप क्यों स्वीकार करते हैं? तब दादाजी ने कहा, 'ले तुझे भी चढ़ाते हैं, पर तुझसे सहन नहीं होगा।' लोग तो मालाओं का ढेर देखकर दंग हो जाएँगे। किसी के पैरों को छूने जाएँ, तो वह तुरंत खड़ा हो जाएगा।
मान-अपमान का खाता
'जब अपमान का भय नहीं रहेगा, तब कोई अपमान नहीं करेगा', यह नियम ही है। जब तक भय हैं, तब तक व्यापार । भय गया कि व्यापार बंद। अपने बहीखाते में मान और अपमान का खाता रखो। जो कोई मानअपमान देकर जाए उसे बहीखाते में जमा करते जाओ, उधार मत करना । चाहे कितना भी बड़ा या छोटा डोज़ कोई दे जाए, तो उसे बहीखाते में जमा कर लेना । पक्का करो कि महीनेभर में सौ के बराबर अपमान जमा कर लेने हैं। जितने ज्यादा आएँ, उतना अधिक मुनाफ़ा। यदि सौ के बजाय सत्तर मिलें, तो तीस का घाटा। फिर दूसरे महीने में एक सौ तीस जमा करना। जिसके खाते में तीन सौ अपमान जमा हो गए, उसे फिर अपमान का भय नहीं रहता। वह फिर पार उतर जाता है। पहली तारीख से बहीखाता चालू कर ही देना। इतना होगा या नहीं होगा?
ज्ञानी पुरुष को हाथ जोड़े, उसका अर्थ यह कि व्यवहारिक अहंकार शुद्ध किया और उनके अँगूठे पर मस्तक लगाकर सच्चे दर्शन किए, उसका अर्थ अहंकार अर्पण किया। जितना अहंकार अर्पण होता है, उतना काम बन जाता है।
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ज्ञानी पुरुष में दया नामक गुण नहीं होता, उनमें अपार करुणा होती है। दया तो अहंकारी गुण है। दया अहंकारी गुण कैसे? दया द्वंद्व गुण है । द्वंद्व अर्थात् दया हो, तो उसमें निर्दयता अवश्य भरी पड़ी होती है। वह तो जब निर्दयता बाहर निकले, तब पता चलता है। तब तो सारा बाग उजाड़ देता है। सारे के सारे सौदे कर डालता है। घर-बार, बीवी-बच्चे सब छोड़ देता है। सारा संसार द्वंद्व गुण में है। जब तक द्वंद्वातीत दशा प्राप्त नहीं हुई है, तब तक संसार के लिए दया का गुण प्रशंसनीय वस्तु है । क्योंकि वह उसकी नींव है फिर भी दया रखनी जरूरी है। मगर खुद की सेफसाइड के लिए भगवान की सेफसाइड के लिए नहीं। लोगों पर दया करने जो निकल पड़ते हैं, वे खुद ही दया के पात्र हैं। अरे, तू तेरे पर ही दया कर न, औरों पर दया क्यों करता है? कुछ साधु संसारी पर तरस खाते हैं। अरे! इन संसारियों का क्या होगा? उनका जो होना होगा, सो होगा। उन पर तरस खानेवाला तू कौन? तेरा क्या होगा ? अभी तेरा ही कोई ठिकाना नहीं है, तो लोगों के लिए ठिकाना ढूंढने क्यों निकला है ? यह तो भयंकर कैफ है। संसारियों का कैफ तो तेल और शक्कर के लिए लगी कतारों में आठ घंटे खड़े रहें, तो उतर जाएगा, पर इन साधु महाराजों का कैफ कैसे उतरेगा ? उलटे बढ़ता ही जाएगा। निष्कैफी का मोक्ष होता है, ऐसा भगवान ने कहा है। कैफ तो अत्यधिक सूक्ष्म अहंकार है, जो बहुत मार खिलाता है। स्थूल अहंकार को तो कोई न कोई दिखला देगा। कोई कहनेवाला निकल आएगा कि छाती तानकर क्या घूम रहा है? ज़रा मुंडी नीची रखा कर न? तो वह संभल जाएगा। पर यह सूक्ष्म अहंकार, ‘मैं कुछ जानता हूँ, मैंने कुछ साधन पा लिया है, मैं कुछ जानता हूँ', ऐसा कैफ तो कभी नहीं जानेवाला। 'जान लिया' किसे कहते हैं? ज्ञान प्रकाश हो तब और प्रकाश में ठोकर लगती है? यह तो पग-पग पर ठोकरें लगती हैं, वह 'जान लिया' कैसे कहलाएगा? खुद ही अज्ञान दशा में ठोकरें खाता हो, उसे दूसरों पर तरस खाने का क्या अधिकार है?
अहंकार का जहर
कुछ प्राप्ति का अहंकार आया कि गिर ही पड़ा समझो। ज्ञान का
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अहंकार यदि हमारे महात्माओं को हो जाए, तो 'दादाजी' हैं इसलिए गिर नहीं पड़ते, पर ज्ञानावरण आता है। दैवीशक्तिओं का आविर्भाव हुआ हो और अहंकार हो जाए, तो जितना ऊपर चढ़ा हो उतना ही नीचे गिरनेवाला है । दैवीशक्ति के आधार पर हो और मैंने किया, ऐसा अहंकार करे, तो अधोगति में जाता है। दैवीशक्ति का दुरुपयोग करे, तो भी अधोगति होती है। दैवी अहंकार का रीएक्शन आए, तब नर्कगति होती है।
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छोटे बच्चों का अहंकार सुषुप्त दशा में होता हैं। अहंकार तो होता है, मगर वह कम्प्रेस होकर रहा होता है। वह तो ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है, त्यों-त्यों बाहर आता है। छोटे बच्चों के खोटे अहंकार को यदि पानी नहीं दिया जाए, तभी वे सयाने होते हैं। उनके खोटे अहंकार के पोषण के लिए आपकी ओर से खुराक नहीं मिले, तो बच्चे सुंदर और संस्कारी होते हैं।
संसार के लोगों के साथ उलझनें पैदा मत करना। लोग तो अपने अहंकार का पोषण खोजते हैं, इसलिए यदि उलझनें पैदा नहीं करनी हों, तो उनका अहंकार पोषकर आगे निकल जाना वर्ना आपका रास्ता रुक जाएगा। अहंकारी मनुष्य अहंकार से उलझनें खड़ी करता है। उसे लोभ की गाँठ नहीं पड़ती।
ऊँची विचारशक्ति, समझने की शक्ति हो, वह कल्चर्ड कहलाता है। कल्चर्ड में अहंकार का जहर बहुत होता है। ममता का जहर भी बहुत बाधक है। ममता छूटे, मगर अहंकार छूटे ऐसा नहीं है।
कई आत्महत्या कर लेते हैं, वह भयंकर अहंकार है। अहंकार भग्न हो, किसी जगह से उसे ज़रा सा भी पोषण नहीं मिले, ऐसी स्थिति में आखिर आत्महत्या करते हैं। इससे भयंकर अधोगति बाँधते हैं। अहंकार जितना कम होता है, उतनी गति ऊँची होती है और अहंकार जितना ज्यादा होता है, उतनी गति नीची होती है।
कोई जीव मारने का अहंकार करता है, तो कोई जीव बचाने का अहंकार करता है। भगवान ने दोनों को अहंकारी बताया है, क्योंकि किसी
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में भी जीव को मारने की या बचाने की शक्ति ही नहीं है। यह उसकी सत्ता में ही नहीं है। खाली अहंकार ही करते हैं कि मैंने जीव को बचाया, मैंने जीव को मार डाला। दोनों ही अहंकारी हैं। बचानेवाले की अच्छी गति और मारनेवाले की अधोगति होती है। दोनों में बंधन तो है ही ।
सिंह बड़ा अहंकारी होता है। सिंह तो तिर्यंचों का राजा है। सारे योनियों में भटक भटककर आया है, पर कहीं सुख नहीं मिला, इसलिए अब जंगल में अहंकार की गर्जनाएँ और विलाप करता है। छूटने की इच्छा है, पर मार्ग नहीं मिल रहा। मार्ग मिलना अति अति दुर्लभ है और उसमें भी ‘मोक्षदाता' का संयोग आ मिलना तो अति अति दुर्लभ है। अनेकों संयोग मिले और बिखर गए पर ज्ञानी का संयोग मिले, तो सदा के लिए हल निकल आए।
अहंकार का समाधान
यह रूपक जो दिखाई देता है, वह संसार नहीं है। अहंकार ही संसार है। इसलिए ऐसे संसार में कुछ न भी रहा, तो उसमें आपत्ति क्या है? एक आदमी ने हमारे साथ पाँच सौ रुपये का धोखा किया हो और लौटाने के समय पर हमारे अहंकार का समाधान नहीं करता, तो रुपये वापस लेने को हम उस पर केस करके उसे हिला देते हैं। पर यदि फिर वह आकर हमारे पैर पकड़ ले और रोए, गिड़गिड़ाए, तो हमारा अहंकार संतुष्ट होता है, अतः हम उसे छोड़ देते है ।
यह अहंकार तो ऐसा है कि किसी को भी वह जहाँ बैठा हो, उस बैठक के लिए अभाव नहीं होने देता। एक मज़दूर तक अहंकार को लेकर अपने झोंपड़े से ही ममता रखता है, सुख लेता है। आखिर ऐसा अहंकार करके भी सुख मानता है कि हम कुत्तों, जानवरों से तो सुखी हैं न? अहंकार से हर कोई, उसे जो कुछ प्राप्त हुआ हो उसमें अभाव नहीं होने देता।
अहंकार से भेद पड़ते हैं, संप्रदाय बनते हैं। ज्ञानी पुरुष निरहंकारी होते हैं, उनसे तो सारे संप्रदाय एक हो जाते हैं। भेद डालकर, रामराज्य भुगतना वह तो अहंकारियों का काम ही है।
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अटकाव और सेन्सिटिवनेस कितने ही लोग बहुत सेन्सिटिव (संवेदनशील) होते हैं। सेन्सिटिवनेस (संवेदनशीलता) अहंकार का प्रत्यक्ष गुण है। व्यवहार की कोई बात हो रही हो और मैं पूछू कि बड़ौदा से लौटते क्या झंझट हुई थी? उसमें बीच में कोई बोल उठे, तो वह सेन्सिटिव माल कहलाता है। अटकाव भी विशेष रूप से अहंकार को लेकर ही होता है। अटकाव अर्थात् घोडा बड़ा ताकतवर हो, पर मस्जिद या कब्र जैसी जगह आए, तो वहीं अटक जाता है, आगे चलता ही नहीं। वही अटकाव है। प्रत्येक मनुष्य को अटकाव होता ही है। अटकाव ने ही सभी को भटकाया है। अटकने से भटकना. भटकने से लटकना हो गया है। हम छिटकना सिखलाते हैं। अटकने का अहंकार चलेगा, पर सेन्सिटिव का अहंकार नहीं चलेगा। वह जब तक रहेगा, तब तक प्रगति नहीं होगी। अटकाव तो देखने से छूट जाता है, पर सेन्सिटिव के गुण को तो ज़ोर देकर, बहुत जागृत रहकर, ब्रेक लगाकर तोड़ें तब ही जाएगा। माल जैसा भरा है, वैसा ही निकलेगा मगर उसे देखते रहना। ज्ञानी ने संपूर्ण प्रकाशघन आत्मा दिया है, फिर भी मँह बेस्वाद हो जाए उसका कारण क्या है? अटकाव और सेन्सिटिवनेस होने की वजह से। सेन्सिटिव मनुष्य का तो आत्मा एकाकार हो जाता है, तन्मयाकार हो जाता है। शुद्धात्मा तन्मयाकार होता है। शुद्धात्मा तन्मयाकार हो जाता है, इसलिए बेस्वाद लगता है। आप किस ओर झुके हैं यह जानना। आप प्रकाशमार्ग पर चलते हों, ज्ञानमार्ग पर चलते हों, तो वहाँ अंधकार क्यों दिखाई देता है? अटकाव और सेन्सिटिव होने की वजह से। उसे जानने से ही यह सेन्सिटिव गुण चला जाता है। आप जो माल भरकर लाए हैं उसे देखने और जानने से चला ही जाएगा। ज्ञाता-दृष्टा रहना। अटकाव का इससे नाश हो जाएगा, पर सेन्सिटिवनेस जल्दी नहीं जाएगी। सेन्सिटिव हआ, तो अंदर इलेक्ट्रिसिटी उत्पन्न होती है। फलतः अंदर (शरीर में) चिनगारियाँ उड़ती हैं और अनंत जीव मर जाते है। जागृति विशेष रहे, तो कुछ भी बाधक नहीं होनेवाला, भरे हुए माल का निपटारा हो जाएगा। बात में कुछ दम नहीं है और यह अटकाव और सेन्सिटिव का माल भरा पड़ा है।
अंतःकरण का संचालन यह संसार किस से खडा है? अंत:करण में मन शोर मचाए, तो खुद फोन उठा लेता है और 'हैलो, हैलो' करता है। चित्त का फोन उठा लेता है, बुद्धि का फोन अहंकार उठा लेता है, इसलिए। मन-बुद्धि-चित्तअहंकार क्या धर्म निभाते हैं, उसे देखिए और जानिए। 'हमें' किसी का फोन लेना नहीं लेना है। आँख, कान, नाक आदि क्या-क्या धर्म निभाते हैं उसके हम 'ज्ञाता-दृष्टा'। यदि मन का या चित्त का या किसी का भी फोन उठा लिया, तो सब जगह टकराव हो जाएगा। वह तो जिसका फोन हो, उसे 'हैलो' करने देना, 'खुद मत करना।
आपने कभी खाने के बाद पता लगाया है कि आँतों और पेट में क्या होता है? सारे अवयव अपने गुणधर्म में ही हैं। कान उनके सुनने के गुणधर्म में नहीं होते, तो सुनाई नहीं देता। नाक उसके गुणधर्म में नहीं होती, तो सुगंध और दुर्गंध आती नहीं। उसी प्रकार मन-बुद्धि-चित्त और
अहंकार सभी अपने गुणधर्म में ठीक से चलते हैं कि नहीं उसका ध्यान रखना है। 'खुद' 'शुद्धात्मा' में रहें, तो कोई हर्ज नहीं है। अंत:करण उसके गुणधर्म में रहे, जैसे कि मन पैम्फलेट दिखाने का काम करे, चित्त फोटो दिखाए, बुद्धि डिसिजन ले और अहंकार हस्ताक्षर कर दे, तो सब ठीक चलता है। वे उनके गुणधर्म में रहें और शद्धात्मा अपने गुणधर्म में रहे, ज्ञाता-दृष्टा पद में रहे, तो कोई परेशानी नहीं है। प्रत्येक अपने-अपने गुणधर्म में ही हैं। अंत:करण में कौन-कौन से गुणधर्म बिगड़े हुए हैं, वह देखते रहना और बिगड़े हुओं को कैसे सुधारना, इतना ही करना है। पर खुद कहे कि मैंने विचार किया, मैं ही बोलता हूँ, मैं ही करता हूँ। ये हाथ-पैर भी अपने धर्म में हैं, पर कहता है कि मैं चला। मात्र अहंकार ही करता है और अहंकार को ही खद का आत्मा माना है, इसका ही बवाल है।
मन के गुणधर्म बिगड़े हों, तो उसका पता चलता है कि नहीं चलता? चलता है। घर में कोई बुढ़िया आई हो और सारा दिन किचकिच करती हो, पर पाँच-पंद्रह दिन उसके साथ कोई झंझट नहीं करें,
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तो आदत पड़ जाएगी। वैसे ही मन में बारूद गोला फूटता है और उसके आदी हो गए हैं, इसलिए पता नहीं चलता कि यह कौन-सा बारूद फूट रहा है? कोई असर ही नहीं होता है। उलटा-सीधा बारूद इकट्ठा हो गया है। हम समझें कि यह फूलझड़ी है, और फूटती है रॉकेट की तरह । वैसे ही मन में भी ऐसा उलटा-सीधा भरा था, वैसा फूटता है। बुढ़िया की तरह मन के साथ झंझट नहीं करें, तो आदत पड़ जाएगी। मन की किच-किच का बुढ़िया की किच-किच की तरह कोई खास असर नहीं होता । 'हमारा' तो इन मन-बुद्धि- चित्त और अहंकार के साथ 'ज्ञाता ज्ञेय' का नाता है। हम ज्ञाता और अंतःकरण ज्ञेय। ज्ञेय-ज्ञाता संबंध, शादी संबंध नहीं। इसलिए अलग ही रहता है वह 'हम' से ।
यह जो लोग हिप्नोटाइज़ करते हैं, वह अंत:करण पर होता है। अंतःकरण के सभी भागों को झड़प लेता है। पहले चित्त को झड़पता है, फिर दूसरे झड़प में आ जाते हैं। अंत:करण पर असर हो तब बाह्यकरण पर असर होता है। पहला असर अंतःकरण पर होता है। मन शून्य हो, तब बाह्यकरण उसके कहने के अनुसार बरतता है। हिप्नोटाइज़ होने के बाद खुद को पता नहीं चलता। खुद शून्य हो जाता है, फिर होश में आने पर क्या हुआ था, वह याद तक नहीं आता। सारे अंतःकरण की शून्यता हो जाए, वहाँ होश ही नहीं रहता न? हर किसी पर हिप्नोटिज़म नहीं हो सकता। वह भी हिसाब हो तभी हो सकता है। यह तो रूपक है। हिप्नोटिज़म का असर कुछ समय तक रहता है, ज़्यादा नहीं रह सकता ।
देह के साथ अंत:करण की भेंट रखकर, एक ही घंटा ज्ञानी पुरुष के साथ बैठें, तो संसार का मालिक हो सकता है। हम उस एक घंटे में तो आपके सारे पापों को भस्मीभूत करके, आपके हाथों में दिव्यचक्षु दे देते हैं, शुद्धात्मा बना देते हैं। फिर आप जहाँ जाना चाहें, वहाँ जाइए न! यह ज्ञान तो ठेठ मोक्ष में पहुँचने तक साथ ही रहेगा। यहाँ हमारी हाज़िरी में अंत:करण की शुद्धि होती रहती है। उसमें दुःख होते हों, वे बंद हो जाते हैं, उपरांत शुद्धि होती है। उस शुद्धि से तो सच्चा आनंद उत्पन्न होता है! सदा की शांति होती है।
आप्तवाणी - १
प्रश्नकर्ता: ये भक्त माला फेरते हैं, तब अंत:करण की क्या क्रियाएँ चालू होती हैं? मन में जप करते हैं। बाहर हाथ से मोती फिराते हैं और चित्त फिर अन्य क्रियाओं में लगा होता है। यह क्या है? उस समय कौन-सा मन कार्य करता है?
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दादाश्री मन में एक बार नक्की करें कि माला फेरनी है, उसके बाद माला फेरना अपने आप शुरू हो जाता है। हाथ अपना कार्य करते हैं, उस समय अंत:करण में मन और अहंकार कार्यरत होते हैं। चित्त का ठिकाना नहीं होता। चित्त बाहर भटकता होता है। उस समय यह माला मैंने फिराई ऐसा अहंकार करते हैं, जिससे अगले जन्म के लिए बीज डालते हैं। आज जो करता है वह कम्पलीट डिस्चार्ज है। यह डिस्चार्ज हो रहा है और वह उस पर अभिप्राय देता है। जैसा अभिप्राय बंधता है, वैसा फल आता है। अच्छी भावना से अभिप्राय बांधे कि यह माला फेरता हूँ पर चित्त ठिकाने नहीं रहता, चित्त ठिकाने रहे, तो अच्छा, तो अगले जन्म में वैसा मिल आता है और कोई कहे कि यह माला फेरना जल्दी पूरा हो जाए, तो अच्छा। वह ऐसा अभिप्राय बाँधता है, इसलिए उसे अगले जन्म में माला फेरना जल्दी पूरा हो जाए, ऐसा प्राप्त होता है। जैसा अभिप्राय बरतता है वैसा अगले जन्म का बीज बोता है। वहीं पर चार्ज होता है।
ये बच्चे जब पढ़ते हैं, तब मन- -बुद्धि-चित्त और अहंकार, चारों हाज़िर रहें, तो एक ही बार पढ़ना पड़े। दोबारा पढ़ना ही नहीं पड़े। पर ये तो पढ़ते यहाँ है और चित्त क्रिकेट में होता है, इसलिए सारा पढ़ा पढ़ाया व्यर्थ जाता है। इस खटिया का एक पाया यदि टूटा हो, तो क्या हो? कैसा परिणाम आए? ऐसा इस अंत:करण का भी है। कवि ने गाया है,
'भीड़मां एकांत एवी स्वप्नमय सृष्टिमां, सूणनारो 'हुं' ज ने गानारो 'हुं' ज छु ।'
भीड़ में एकांत ऐसी स्वप्नमयी सृष्टि में, सुननेवाला 'मैं' ही और गानेवाला 'मैं' ही हूँ।
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आप्तवाणी - १
मुंबई की लोकल ट्रेन में शाम के समय अच्छी भीड़ होती है, इधर से और उधर से धक्के मिल रहे हों, तब मन-बुद्धि- चित्त और अहंकार, सभी भीड़ में बुरे फँसे होते हैं, सभी एन्गेज्ड होते हैं। 'स्वयं को ' (शुद्धात्मा को) उस समय देखने और जानने का सही मज़ा आता है। तब वह अकेला पड़ जाता है और तभी उसकी सही स्वतंत्रता मिलती है। जितनी भीड़ अधिक और ज्ञेय अधिक, उतनी 'ज्ञाता' की 'ज्ञानशक्ति' भी गज़ब की खिलती है। असल में भीड़ में हो, तब दूसरी ओर 'ज्ञाता' भी सही मानों में खिलता है, संपूर्ण प्रकाश में आता है। जितना स्कोप बढ़ा उतनी शक्ति बढ़ी। कुछ तो सब छोड़कर जंगल में जाते हैं। मगर सही मज़ा भीड़ में ही है। बाहर भीड़, भीतर भीड़, सब जगह भीड़ हो, तब शुद्धात्मा सही मानों में अकेला पड़ता है। तब वह कहीं पर ज़रा-सा भी तन्मयाकार नहीं होता। जो कि ऐसा, स्वरूपज्ञान की प्राप्ति के बाद ही संभव है।
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ऐच्छिक और अनिवार्य
संसार कैसे चल रहा है, यह समझ में आए ऐसा नहीं है। इस संसार में सभी अनिवार्य है और उन्हें ऐच्छिक मानकर चलते हैं, इसलिए फँसे हैं। जन्मे - वह अनिवार्य, पढ़ाई की वह अनिवार्य, शादी की वह अनिवार्य और मरेंगे - वह भी अनिवार्य । एक अंश भी ऐच्छिक का, अरे ! एक समय भी ऐच्छिक का किसी ने जाना हो, ऐसा मनुष्य वर्ल्ड में दुर्लभ है। खुद के पुरुष होने के बाद ही उसकी स्वतंत्र मरजी उत्पन्न होती है। और तभी से उसे अनिवार्यतावाले संसार में ऐच्छिकता उत्पन्न होती है। पुरुष होने के पश्चात् ही पुरुषार्थ हो सकता है। जन्म से लेकर अर्थी तक सभी अनिवार्य ही हैं। अरे! अनंत जन्मों तक अनिवार्य में ही भटके हो और उसमें ही भटकना है, यदि छुटकारा करानेवाले ज्ञानी पुरुष नहीं मिलें तो!
बच्चों को बड़े करना, पढ़ाना, शादी करवाना, यह बाप का फ़र्ज़ है । अनिवार्य अर्थात् डयूटी बाउन्ड और ऐच्छिक अर्थात् विल बाउन्ड |
आप्तवाणी - १
लोग अनिवार्य को ऐच्छिक मानते हैं। अरे, तेरी विलिंगनेस (सहमति ) जिस ओर है, उस ओर संसार बंधन हो रहा है। अनिवार्य जो है, उसमें ऐच्छिक का चित्रण कर रहे हैं। जिसे परिवर्तित किया जा सके, वह विपावर है । कई लड़के बाप से जबान लड़ाते हैं, तब बाप गुस्से होता है और सब कह सुनाता है, 'मैंने तुझे पढ़ाया-लिखाया, बड़ा किया।' अरे, उसमें तूने नया क्या किया? वह तो अनिवार्य था ! तेरा जो हो, वह कह दे न?
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देवगति में क्रेडिट भुगतने जाना पड़े, वह भी अनिवार्य है। उसी प्रकार डेबिट भुगतना भी अनिवार्य है। आप सर्विस करते हैं, वह ऐच्छिक है? नहीं अनिवार्य है। आपने अपनी कोई इच्छित वस्तु की हो ऐसा लगता है आपको? यह तो जो कुछ होता है, वह यदि इच्छा के अनुरूप होता है, तो मान लेते हैं कि ऐच्छिक है और इच्छा के प्रतिरूप होता है, तो कहते हैं कि अनिवार्य है। अरे! दोनों ही अनिवार्य हैं। इच्छा भी अनिवार्य है।
ये सारी क्रियाएँ रोकी जा सकें, ऐसी नहीं हैं। सभी अनिवार्य हैं। और निरंतर बंधन रूप हैं। मरज़ी से किया, नामरज़ी से किया वह तो कल्पना है। ऐच्छिक जो है, उसकी समझ नहीं हैं। अनिवार्य में सारा का सारा कर्त्तापन उड़ जाता है। जब कि ऐच्छिक में खुद कर्त्ता बन बैठता है । ऐच्छिक मानना इगोइज़म ही है। कमाई हो, तो कहता है कि मैंने कमाया और घाटा हो, तो कहता है 'भगवान ने किया।' यही दर्शाता है कि यह विरोधाभास है, ईगोइज़म है। संसार को ऐच्छिक मानते हैं, इसलिए पाप-पुण्य बाँधते हैं। यदि अनिवार्य मानें, तो कुछ भी नहीं
बँध
शादी रचाई वह अनिवार्य है या ऐच्छिक ?
प्रश्नकर्ता: पहले ऐच्छिक लगता था, अब अनिवार्य लगता है।
दादाश्री : यह आपका नाम है, वह अनिवार्य है या ऐच्छिक है? अनिवार्य ही है, क्योंकि बचपन से ही दिया गया है। उसी नाम से चलाना पड़ता है। पसंद हो या नापसंद हो पर उससे छुटकारा नहीं है। यह तो
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अनिवार्य है और अपने आप ही हो जाता है। संसार के समसरण मार्ग में तीसरे मील और चौथे फलांग पर ऐसा ही होगा।' इसका मतलब अनिवार्य रूप से ऐसा ही करना पड़ता है। अनिवार्य में पुलिसवाला डंडे मारकर करवाता है। बाहर जैसे पुलिसवाले हैं, वैसे ही भीतर भी हैं। अतः भीतरी पुलिसवाले हैं वे, सभी लटूओं को घुमाते हैं। एक दिन मैं चबूतरे पर बैठा था, तब दो-चार लोग एक बैल को खींचकर ले जा रहे थे, तब बैल की नाक कुखचने के कारण टूटी जा रही थी और ऊपर से, पीछे डंडे बरसा रहे थे। फिर भी मुआ खिसकता ही नहीं था। इस पर मैंने उन लोगों से पूछा, 'क्यों भैया ऐसा क्यों करते हो? बैल चलता क्यों नहीं है?' उन्होंने बताया, 'कल बैल को अस्पताल ले गए थे, इसलिए उसे उसका डर बैठ गया है। इसलिए आज नहीं जाता।' कुछ भी करे, मगर गए बगैर छुटकारा नहीं था। नाक खींचे, डंडे बरसे और आर चुभोएँ और जाना पड़े उसके बजाय सीधे-सीधे जाने में क्या हर्ज था? डंडे खाकर भी आख़िर तो करना ही पड़ता है, उसके बजाय खुशी-खुशी क्यों नहीं करें? संसार में सब अनिवार्य ही है, इसलिए चुपचाप सीधे-सीधे चल न। वर्ना बैल की तरह तुझे भी दुनिया डंडे मारेगी।
जगत् का अधिष्ठान सारा संसार, 'जगत् का अधिष्ठान' खोजता है, पर उसका मिलना कठिन है। 'प्रतिष्ठित आत्मा' इस संसार का सबसे बड़ा अधिष्ठान है। आज जगत् का सही अधिष्ठान नैचुरली प्रकट हुआ है, हमारे माध्यम से।
आप खुद 'शुद्धात्मा', तो दूसरा अंदर रहा कौन? अंदर की सूक्ष्म क्रियाएँ कौन करता है? वह सब प्रतिष्ठित आत्मा से होता है। प्रतिष्ठित आत्मा यानी पिछले जन्म में जो-जो कर्म किए थे, जो-जो प्रतिष्ठिाएँ की थी उनसे प्रतिष्ठित आत्मा का निर्माण हुआ। प्रतिष्ठिा कैसे की गई? 'मैं चंदभाई,''यह मेरी देह,' 'यह मेरा मन,''जो-जो कुछ हुआ वह मैंने किया।' ये सारी प्रतिष्ठिा हुई। वह फिर प्रतिष्ठित आत्मा होकर, इस जन्म में देह में आता हैं। दूसरे शब्दों में यह 'आरोपित आत्मा' है। अतः सब जगह आरोपण करता है। विसर्जन होता है, तब सूक्ष्म रूप से सर्जन करा है, वह कैसे समझ आए? जो सर्जन होता है, वह नये प्रतिष्ठित आत्मा का होता है। अब इसका कैसे पता चले?
संसार के जहर, तू लाख नहीं पीना चाहे, पर वे अनिवार्य हैं इसलिए डंडे खाकर भी पीने तो पड़ेंगे ही। रोनी सूरत करके पीने के बजाय हँसते-हँसते पीकर नीलकंठ बन जा। इससे तेरा अहंकार रस, अच्छी तरह से पिघल जाएगा और तू महादेवजी बन जाएगा। हम भी इसी तरह महादेवजी बने हैं।
भगवान महावीर को भी त्याग अनिवार्य था। उनका ऐच्छिक तो अलग ही था। वे खुद स्वतंत्र हुए थे, पुरुष हुए थे और ऐच्छिक उत्पन्न हुआ था। मगर बाहरी भाग में अनिवार्य था। इसलिए लक्ष्य नहीं चुके थे। पत्नी को छोड़ा, वह भी भगवान को अनिवार्य था, इसलिए छोड़ा था। लोग उसे ऐच्छिक मानते हैं। हमारे महात्मा जो अनिवार्य रूप से करते हैं, वह वैभव और ऐच्छिक करते हैं, वह मोक्ष। वैभव के साथ मोक्ष, ऐसा यह दादा भगवान का 'अक्रम ज्ञान' है।
प्रतिष्ठित आत्मा कब कहलाता है? जब अहंकार (मैं) और ममता (मेरा) दोनों को साथ मिलाएँ तब। 'यह मैं नहीं हूँ' और 'यह नहीं है मेरा', वह निर्विकारी है। 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है', वह विकारी संबंध है। विकारी संबंध प्रतिष्ठित आत्मा का है। शुद्धात्मा तो निर्विकारी है।
प्रतिष्ठित आत्मा ही यह सब कर रहा है। 'शुद्धात्मा' कुछ भी नहीं करता है। चलना-फिरना, वे सभी अनात्मा के गणधर्म हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा रात में भी सोता नहीं है और दिन में भी सोता नहीं है। अनात्म भाग सोता है। जो क्रिया करता है, वही सोता है। जो क्रिया करता है, उसे रेस्ट की जरूरत है। शुद्धात्मा तो क्रिया करता ही नहीं, उसे रेस्ट की क्या ज़रूरत? रेस्ट कौन खोजेगा? जो रेस्ट में इन्टरेस्टेड होता है। वह कौन है? प्रतिष्ठित आत्मा। ये सारी क्रियाएँ प्रतिष्ठित आत्मा की हैं। प्रतिष्ठित आत्मा को नींद ठीक से आई या ठीक से नहीं आई यह जाना किस ने? उसकी क्रियाएँ जानी किस ने? शुद्धात्मा ने। शुद्धात्मा, प्रतिष्ठित
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आत्मा की किसी भी क्रिया में दखल देता ही नहीं है। केवल देखता है और जानता है। सारी उठापटक तो प्रतिष्ठित आत्मा की है। प्रतिष्ठित आत्मा जो जानता है, वह ज्ञेय है और प्रतिष्ठित आत्मा को जो ज्ञेय के रूप में जानता है, वह शुद्धात्मा है। प्रतिष्ठित आत्मा की उठापटक क्यों कर है? क्योंकि वह इन्टरेस्टेड है। शद्धात्मा को इन्टरेस्ट नहीं है। वह तो ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी है। 'शुद्धात्मा' स्व-पर प्रकाशक है, जब कि प्रतिष्ठित आत्मा, पर प्रकाशक है। 'शद्धात्मा' प्रतिष्ठित आत्मा को भी देखता है और जानता है, इसलिए प्रतिष्ठित आत्मा ज्ञेय है। शद्धात्मा और प्रतिष्ठित आत्मा के बीच ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध मात्र है।
अज्ञानी पूछेगा, तब दुःख किसे होता है?' अरे, दुःख तुझे ही होता है। तू आत्मा नहीं? आत्मा है, मगर प्रतिष्ठित आत्मा। तेरा आरोपित आत्मा। असल, मूल आत्मा, शुद्धात्मा को तो तू जानता ही नहीं है, पहचाना ही नहीं है। तब फिर तुझे, 'वह', कैसे कहा जाए? हाँ, तू शद्धात्मा को जाने, उसे पहचाने और उसमें ही निरंतर रहे, तो तू शुद्धात्मा और यदि तू चंदूलाल और यह देह तेरी है, तो तू प्रतिष्ठित आत्मा। अहंकार और ममता की प्रतिष्ठा की इसलिए तू प्रतिष्ठित आत्मा।
जापान के लोगों ने मोटर बनाई। चाबी ऐसी दी की पाँच किलोमीटर के फासले पर जाकर खड़ी रहे। उसमें चार जने सवार हए। मोटर तो चाबी के आधार पर चल पड़ी। चाबी लगानेवाला जिसे मिलने जा रहा था, वह भाई डेढ़ किलोमीटर के फासले पर रास्ते में मिल गया और कहने लगा, 'जय सच्चिदानंद, अरे! खड़े रहो, खड़े रहो।' मगर वह खड़ा कैसे रह पाता? चाबी देने के बाद फिर मोटर खड़ी कैसे रहती, वह तो पाँच किलोमीटर के बाद ही रुकेगी न?
प्रश्नकर्ता : यु टर्न लेगा वह तो फिर।
दादाश्री : वह तो समझ की बात है। उसे कहे, 'खड़े रहो।' और शेष अंतर गोल गोल घूमकर पूरा करे, गरबा गाए!
ऐसा है यह संसार ! खुद ने चाबी भरी इसलिए चलानेवाले को भी
गरबा गाना पड़ता है, प्रतिष्ठा करे खुद, पर जब नैचुरली विसर्जन होता है, तब फँस जाता है।
जो सुनता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा। आँख से देखता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा। पाँच इन्द्रियों से अनुभव करता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा। प्रतिष्ठित आत्मा ने क्या जाना, क्या अनुभव किया, उसे जो देखता है और जानता है, वह 'शुद्धात्मा'। इन्द्रियगम्य ज्ञान वह प्रतिष्ठित आत्मा, अतिन्द्रिय ज्ञान वह शुद्धात्मा। प्रतिष्ठित आत्मा इनडायरेक्ट, लिमिटेड ज्ञान है। शुद्धात्मा वह डायरेक्ट, अनलिमिटेड ज्ञान है। प्रतिष्ठित आत्मा द्वारा चार्ज की हुई शक्तियों का गलन होता रहता है। अंत में प्रतिष्ठित आत्मा
और शुद्धात्मा दोनों साथ ही अलग पड़नेवाले हैं। निर्वाण होता है, तब शुद्धात्मा निराकारी होते हुए भी, अंतिम देह के दो तिहाई के प्रमाण में होता है। संसार में स्थूल या सूक्ष्म का जो आदान-प्रदान, लेना-देना हो रहा है, वह सब प्रतिष्ठित आत्मा का ही है। बाकी न तो कोई लूट सकता है, न ही कोई लुटता है। यह तो प्रतिष्ठित आत्मा द्वारा की हुई प्रतिष्ठिा का आदान-प्रदान हो रहा है।
प्रतिष्ठित आत्मा को जला दें, तो पाप लगता है। क्यों? क्योंकि उसका ही माना हुआ है, आरोपित है। तिपाई को जलाने पर पाप नहीं लगता पर यदि किसी का आरोपण हो, किसी ने प्रतिष्ठा की हो कि यह तिपाई मेरी है, तो भयंकर पाप लगता है। ममता भोक्तापद में गढ़ जाती है। भोक्तापद में मेरे पद का आरोपण करता है। भोक्तापद में जो ममता की गई है, उसका ही यह सामान है। जैसी प्रतिष्ठा करे, वैसा फल मिलता है। सुख की करे, तो सुख मिलता है। पसंद-नापसंद, की गई प्रतिष्ठा के आधार पर होती है। 'शुद्धात्मा' कभी भी वेदक हुआ नहीं है, कर्ता हुआ नहीं है, भोक्ता भी नहीं हुआ है और होगा भी नहीं। वेदक अर्थात् ममता। 'शुद्धात्मा' और वेदक (ममता) विरोधाभास है। वेदक, कर्त्ता या भोक्ता, जो दिखाई देता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा है। चक्षुगम्य या इन्द्रियगम्य कोई भी क्रिया शुद्धात्मा की नहीं है। वे सारी क्रियाएँ प्रतिष्ठित आत्मा की हैं। शुद्धात्मा की क्रिया ज्ञानगम्य है। अनंत ज्ञान क्रिया, अनंत
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दर्शन क्रिया आदि हैं। यह तो जब खुद शुद्धात्मा स्वरूप होता है, तभी समझ में आता है। तभी खुद को, खुद 'शद्धात्मा' अक्रिय है, यह समझ में आता है। जब तक खुद 'शुद्धात्मा स्वरूप' हआ नहीं, तब तक 'वह' प्रतिष्ठित आत्मस्वरूप है, इसलिए कर्ता-भोक्तापद में है। भोक्तापद में फिर कर्ता बन बैठता है और नयी प्रतिष्ठा करके नया प्रतिष्ठित आत्मा खड़ा करता है, नयी मूर्ति खड़ी करता है और परंपरा चालू ही रहती है।
शुद्धात्मा ज्ञाता-दृष्टा ही है, पर प्रतिष्ठित आत्मा ने ही यह सारा गठन किया था, इसलिए ही आईने में प्रत्येक को अपना चेहरा अच्छा लगता है, वर्ना नहीं लगता। यह सारा ही चित्रण प्रतिष्ठित आत्मा का ही है। प्रतिष्ठित आत्मा जब तक 'मैं करता हूँ' ऐसा मानता है, तब तक प्रतिष्ठा करता है। प्रत्येक मनुष्य अपना अगला जन्म खुद ही गढ़ता है। आप जैसी प्रतिष्ठा करेंगे, वैसे बनेंगे। खुद की ही प्रतिष्ठा, वही प्रतिष्ठित आत्मा है और वही इन सभी का कर्ता, व्यवहार आत्मा है।
'सत्य' की खोज के लिए सारा संसार भटक रहा है। जो परमात्मा खुद में प्रकाशमान हो रहे हैं, वह 'सत्' है। मगर वर्ल्ड में किसी को भी आत्मा मिला हो, ऐसा कोई इस समय नहीं है और जो मिला है, वह रिलेटिव आत्मा है, पर वह भी, रिलेटिव आत्मा पूर्णरूप से मिला नहीं है। रिलेटिव आत्मा ही प्रतिष्ठित आत्मा है।
'प्रतिष्ठित आत्मा के हाथों में भावना करने के सिवाय और कोई शक्ति नहीं है।'
अव्यवहार राशि में जितने आत्मा हैं, वे प्रतिष्ठित आत्मा के साथसाथ ही होते हैं। अव्यवहार राशि के जीव अर्थात् ऐसे जीव जिनका नाम तक नहीं पड़ा है, वे जीव । जीव व्यवहार राशि में आए, तब उसका नाम पड़ता है (जैसे शैवाल, चींटी आदि), वहाँ से फिर उसका व्यवस्थित शुरू होता है।
अंत:करण का मालिक प्रतिष्ठित आत्मा है, पर वह उन से अलग है। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार, उन सभी से अलग है। मन कहे कि
एक कार्य करना है, पर प्रतिष्ठित आत्मा कहता है कि यह नहीं करना हैं, तो वह नहीं होता है। इसमें जो भाव है वह प्रतिष्ठित आत्मा है। शुद्धात्मा ज्ञाता-दृष्टा है। अंदर इच्छा होती है, वहाँ प्रतिष्ठित आत्मा कार्य करता है। मन के साथ, प्रतिष्ठित आत्मा एक हो जाए, उसे शुद्धात्मा जानता है और अलग रहता है, उसे भी शद्धात्मा जानता है। अज्ञानी मनुष्य भी प्रतिष्ठित आत्मा को मन से अलग करके, योगबल द्वारा कुछ शक्तियाँ प्राप्त करता है।
___ 'शुद्धात्मा पद' की प्राप्ति के बाद अब हम प्रतिष्ठा नहीं करते हैं। पहले की, की गई प्रतिष्ठा है, इसलिए व्यवहार चलता है। हमारे शब्दों में निरंहकार है। नया चित्रण होना बंद हो जाता है, वह अद्भुत वस्तु है। एक जन्म यदि प्रतिष्ठा नहीं हो, तो काम ही बन जाए न? ज्ञानी का प्रतिष्ठित आत्मा और मिथ्यात्वी का प्रतिष्ठित आत्मा, उनमें क्या अंतर है? ज्ञानी का 'मैं' शुद्धात्मा को ही पहुँचता है, उसके लिए ही है। जब कि मिथ्यात्वी का 'मैं' प्रतिष्ठित आत्मा के लिए ही है। ज्ञानी में. जो यह सब पराया है, ऐसा जानता है, वह शुद्धात्मा है। 'ज्ञानी' प्रतिष्ठित आत्मा को भी पराया जानता है, जब कि मिथ्यात्वी में यह सब पराया है ऐसा जो जानता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा है।
प्रश्नकर्ता : संसार व्यवहार में जो चेतन खर्च होता है, वह 'शुद्धात्मा' का है?
दादाश्री: यह संसार व्यवहार में काम में लिया जा रहा चेतन. प्रतिष्ठित आत्मा का है। 'शुद्धात्मा' का तो ज़रा-सा भी कुछ जानेवाला नहीं है और खर्च होनेवाला नहीं है। बेटरी चार्जिंग स्टेशन होता है, वहाँ वे बेटरी चार्ज कर देता है, उसमें उनकी शक्तियाँ कम नहीं होती है। ये सभी चाहे कैसे भी कर्म करें, चाहे जिस योनि में जन्में, सोना वही का वही है, मात्र गढ़ाई का नुकसान है। भैंसा गढ़ा, तो भैंसे की गढ़ाई गई। अनंत जन्म नर्क में फिरा है, पर सोना निन्यानवे प्रतिशत नहीं हुआ, शत-प्रतिशत शुद्ध ही रहा है। यह जो वृद्धि-हानि होती है, वह तो प्रतिष्ठित आत्मा की होती है। चार्ज-डिस्चार्ज जो होता है, वह प्रतिष्ठित
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आत्मा का, मिश्र चेतन का होता है, शुद्धात्मा का नहीं।
पत्थर की मूर्ति में प्रतिष्ठा की जाती है, वह लम्बे अरसे तक फल दिया करती है न? प्रतिष्ठा की कितनी बड़ी शक्ति है? अरे! लोहे को भी उड़ा दे। इस संसार की सायन्स की जितनी भी खोजें हैं, वे सभी प्रतिष्ठित आत्मा की हैं। प्रतिष्ठित आत्मा की इतनी सारी शक्तियाँ हैं, तो शुद्धात्मा की अनंत शक्तियों की तो बात ही क्या करना? आत्मा में इतनी सारी शक्ति है कि इस दीवार में प्रतिष्ठा करे, तो दीवार बोल उठे ऐसा है।
प्रतिष्ठित आत्मा भी इतना शुद्ध है कि वह सोच नहीं सकता। विचार तो मन का स्वरूप है। ग्रंथि फूटने पर विचारदशा प्राप्त होती है। धर्म के विचार या चोरी करने के विचार आते हैं, वे मन की गाँठे हैं। प्रतिष्ठित आत्मा यदि विचार कर सकता, तो बुद्धि ही नहीं रहती। तो फिर कम्प्युटर जैसा हो जाता। प्रतिष्ठित आत्मा जो अंत:क्रिया करे वह अंत:करण, फिर बाह्यकरण में ऐसा ही होता है। जिसे अंत:करण देखना आया, उसे बाह्यकरण का पता चल जाता है। पर मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार को देखना आना चाहिए। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार प्रतिष्ठित आत्मा के हिस्से हैं अथवा अंत:करण प्रतिष्ठित आत्मा से है। अंत:करण जैसा दिखाता है, वैसा बाह्यकरण में-बाहर रूपक में आता है। अंत:करण के साथ दिमाग भी है पर वह स्थूल है, जब कि अंत:करण सूक्ष्म है। अंतर में जो जो क्रियाएँ होती हैं, वे प्रतिष्ठित आत्मा के आधार पर होती
उदाहरण के तौर पर पीतल को बफिंग करें, तो सोने जैसा ही दिखता है, सोने के सारे लक्षण दिखते हैं, पर वह तो सुनार के पास ले जाने पर पता चलता है। सुनार पहले जाँच करता है कि उसमें सोने के गुणधर्म हैं या नहीं? यदि नहीं हैं, तो वह सोना नहीं हो सकता। लक्षण सोने जैसे होने के बावजूद गुणधर्म सोने के नहीं होने के कारण वह सोना नहीं हो सकता। उसी प्रकार चेतन के लक्षण दिखाई दें, पर चेतन का एक भी गुणधर्म नहीं हो, तो उसे चेतन कैसे कहें? हम उसे निश्चेतन चेतन बताते हैं। पीतल सोना जैसा ही दिखाई देता है, पर जब जंग लगे, तब बोल उठता है, वैसे ही सोना भी बोल उठता है।
यह देह जो है, वह निश्चेतन चेतन है। 'हम' शुद्ध चेतन हैं। पहले प्रतिष्ठा की थी, इसलिए प्रतिष्ठित आत्मा कहलाता है, वही प्रतिष्ठित चेतन है।
या तो चेतन अच्छा, या तो अचेतन अच्छा, पर अर्धचेतन अच्छा नहीं, क्योंकि उसमें सारे लक्षण चेतन के ही हैं। भगवान ने कहा था कि बावड़ी में जाकर स्पंदन करना, पर मिश्रचेतन के आगे स्पंदन मत करना। मिश्रचेतन के साथ स्वाभाविक व्यवहार हो, उसमें तकलीफ नहीं है, पर वहाँ पर स्लिप नहीं होना चाहिए। कोई फिसले तब हम उसे सावधान करते हैं। मिश्रचेतन के साथ व्यवहार हो, वहाँ हम टोकते हैं। अचेतन हो, वहाँ हर्ज नहीं है। यह बीड़ी है, वह अचेतन है, वहाँ पर हम आपत्ति नहीं उठाते। बहीखाते में चित्रित है, वह तो हिसाब है। हिसाब चुकता नहीं करें, तो भीतरी परमाण शोर मचाएँगे, दिमाग बिगड़ जाएगा। यह मिश्रचेतन बीच में आए, तो हम सावधान करते हैं। अरे, अहंकार करके भी बच निकल, गाफिल रहे वह नहीं चलता। सावधान नहीं रहे, तो दूसरे जन्म बिगड़ेंगे।
यह सिनेमा क्या हम पर दावा दायर करता है कि हमारे साथ भोग क्यों भोगते हो? नहीं। वह दावा दायर नहीं करता, क्योंकि वह अचेतन है। जब कि मिश्रचेतन तो दावा करता है, क्योंकि उसके भीतर ठंडक नहीं है। उसके भीतर भारी जलन है, इसलिए वह दावा दायर करता है। भीतर
मूर्ति में प्रतिष्ठा करने पर 'मूर्त भगवान' मिलते हैं, अमूर्त में प्रतिष्ठा करने पर 'अमूर्त भगवान' मिलते हैं।
निश्चेतन चेतन सारी दुनिया जिसे चेतन कहती है, उसे हम निश्चेतन चेतन कहते हैं। क्योंकि दिखता तो है चेतन, लक्षण चेतन के हैं, पर चेतन का एक भी गुण नहीं है, फिर उसे चेतन कैसे कहें?
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यदि ठंडक हो, तो हर्ज नहीं। मिश्रचेतन के लिए जरा-सा भी उलटा विचार आया कि तुरंत उसे मिटा देना चाहिए। प्रतिक्रमण करके निकाल बाहर करना पड़ता है। पर अचेतन के लिए प्रतिक्रमण नहीं करें, तो चलेगा। मिश्रचेतन मोक्ष तो नहीं पाने देता, पर अंदर जो सुख आता हो, उसमें भी अवरोध करता है।
सिनेमा या जीभ की फाइल रोग पैदा नहीं करती, पर मिश्रचेतन से ही रोग पैदा होता है। पकौड़े रूठते नहीं, पर मिश्रचेतन बिना रूठे रहता है क्या? मिश्रचेतन से सारा संसार खड़ा है। मिश्रचेतन ब्लेक होल जैसा है। यदि वह व्यवहार ही बंद हो जाए, तो फिर है कोई उपाधि?
मुक्त मन से बैठ सकें, ऐसी सेफसाइड कर लेना। मन यदि आवाज़ दे कि पकौड़े खाने हैं और खिला दिए, तो फिर मुक्त मन से बैठने देगा। जब कि मिश्रचेतन बैठने नहीं देता। सत्संग में भी काँटे की तरह चुभता रहता है।
आप जो बरतते हैं, वह दो हिस्सों में है, एक तो निश्चचेतन चेतन और दूसरा चेतन, पर आप खुद निश्चेतन चेतन को चेतन मानते हैं। मगर दोनों भाग मिक्सचर स्वरूप में हैं, कंपाउन्ड स्वरूप नहीं है, वर्ना दोनों के गुणधर्म नष्ट हो जाते।
निश्चेतन चेतन मिकेनिकल चेतन हैं। बाहर का सभी भाग मिकेनिकल है। स्थूल मशीनरी को हैंडल मारना पड़ता है, जब कि सूक्ष्म मशीनरी को तू हैंडल मारकर ही लाया है। आज ईंधन भरता रहता है, पर हैंडल मारना नहीं पड़ता। सूक्ष्म मशीनरी. मिकेनिकल चेतन है. पर वहाँ 'मैंने किया' ऐसा गर्व करता है, इसलिए चार्ज होता है और अगले जन्म के बीज पड़ते हैं।
सारा संसार अचेतन को चेतन मानता है और क्रिया में आत्मा मानता है। क्रिया में आत्मा होता नहीं और आत्मा में क्रिया नहीं होती। पर यह बात कैसे समझ पाए? संसार को तो अचेतन चेतन चलाता है। चेतन अलग है, अचेतन भी अलग है और संसार को जो चलाता है, वह
भी अलग है। वह विभाविक गुण है। जो चलाता है, वह भी अलग है। वह विभाविक गुण है, जो अचेतन चेतन है। विभाविक गुण यानी आत्मा की भ्रांति से उत्पन्न होता है, ऐसा वह, चलायमान हुआ मिश्रचेतन।
मनुष्य देह मोक्ष का अधिकारी डार्विन ने 'इवॉल्युशन थ्योरी' लिखी मगर वह पूर्ण नहीं है। कुछ अंशो तक सही है। मनुष्य गति के बाद वक्र गति होती है, यह उसने जाना नहीं, इसलिए पूर्ण थ्योरी नहीं दे पाया। मनुष्य देह के अलावा और कोई देह नहीं है, जो मोक्ष की अधिकारी हो। मनुष्य देह मिले और मोक्ष प्राप्ति के साधन संयोग पूर्ण रूप से आ मिलें, तो काम हो जाए, पर आज के मनुष्य तो निश्चेतन चेतन हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ, तो लटू स्वरूप हैं।
लोग जिसे भावमन, द्रव्य मन मानते हैं, वह तो निश्चेतन चेतन है। शुद्ध चेतन तो ज्ञानी पुरुष दें, वही है। बाकी तो सब मशीनरी है. मिकेनिकल है। यह तो मशीनरी चलती है. उसे कहता है मैं चलाता हैं! यह तो खाली इगोइजम करता है कि मैंने यह किया। मन गाँठो का बना है। गाँठो में फल आना यानी रूपक में आना। फल यदि मिश्रचेतन के साथ का रहा, तो बवाल। मिश्रचेतन के साथ अर्थात् हम छोड़ दें, तब भी सामनेवाला नहीं छोड़ता। जब कि अचेतन को आपने छोड़ दिया, तो बस कोई झंझट नहीं। माइन्ड (मन) डॉक्टर को दिखाई दे ऐसा नहीं है, पर ज्ञानी को दिखाई दे ऐसा है। माइन्ड इस कम्पलिटली फिज़िकल। जब कि सबकॉन्शियस माइन्ड है, वह निश्चेतन चेतन है।
निश्चेतन चेतन पद को द्वैत कह सकते हैं, उसे जीव कह सकते हैं पर चेतन नहीं कह सकते। हमारे महात्माओं को शद्ध चेतन मिला है। हमारी देह तो निश्चेतन चेतन है और हम 'खुद' चेतन हैं।
जब तक शुद्ध चेतन नहीं हुआ, तब तक तू निश्चेतन चेतन है। सभी निश्चेतन चेतन ही हैं, फिर चाहे साधु हों या संन्यासी। मनुष्य, तिथंच, नारकीय जीव, देवता सारे ही निश्चेतन चेतन यानी लटू ही हैं। जब तक आत्मा का भान हुआ नहीं है, तब तक निश्चेतन चेतन। जब तक निज
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का भान करानेवाले ज्ञानी नहीं मिलते, तब तक तू निश्चेतन चेतन है।
हम ब्रह्मांड के बिना मालिकी के स्वामी हैं, क्योंकि हम शुद्ध चेतन हैं, प्रकट स्वरूप में।
जो-जो अवस्थाएँ आती हैं, वे निश्चेतन चेतन हैं, हम शुद्ध चेतन हैं। अवस्थाओं को देखना और जानना है। उसका झट से समभाव से निपटारा कर देना। झट से निपटारा करना आना चाहिए। अवस्था में एकाकार हुए, तो दु:खी होगे, अतः आनंद नहीं आएगा। निश्चेतन चेतन परसत्ता में है। निश्चेतन चेतन में कुढ़न-संताप, आधि-व्याधि-उपाधि होते हैं और रियल चेतन में आनंद-परमानंद और समाधि होती है। चिंता, अकुलाहट होती है, वह निश्चेतन चेतन को होती है। जिन-जिन को चिंता, अकुलाहट या त्रिविध ताप होते हैं, वे सभी के सभी निश्चेतन चेतन हैं। ज्ञान भाषा में (रियल लेगवेज में) चेतन स्वरूप से बाहर कोई जीवित ही नहीं है। सभी निश्चेतन चेतन ही हैं। फिर चाहे वह कोई भी हो। निश्चेतन चेतन में विशेषण 'निश्चेतन' का है। ___ 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा आरोप भ्रांति से करता हैं। 'मैं', आत्मा है, और जहाँ वह खुद नहीं है, वहाँ खुद को प्रतिष्ठित करता है। इसलिए निश्चेतन चेतन खड़ा होता रहता है। जब तक भ्रांति टती नहीं तब तक प्रतिष्ठित रूप में रहना है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा यदि लक्ष्य रहे, तो फिर से निश्चेतन चेतन में नहीं जाता। 'शुद्धात्मा' प्राप्त होने पर ही शुद्ध चेतन समझ में आता है। तभी गुनहगार के पद से संपूर्ण छुटकारा होता है।
निश्चेतन चेतनवाले एक गुनहगारी में से मुक्त होते हैं और दूसरी गुनहगारी उत्पन्न करते हैं।
इच्छा इच्छा प्रकट अग्नि है। जब तक पूरी नहीं होती तब तक सलगती ही रहती है। भगवान क्या कहते हैं? इच्छा ही अंतराय कर्म है। इच्छा तो एक मोक्ष के लिए और दूसरी ज्ञानी पुरुष की ही करने योग्य है। उससे
अंतराय नहीं आता। अन्य सभी इच्छाएँ सुलगाती रहेंगी। वह साक्षात् अग्नि है। उसे बुझाने के लिए लोग पानी खोजते हैं, पर पेट्रोल हाथ में आता है। एक इच्छा पूरी नहीं हुई कि दूसरी आ धमकती है। एक के बाद एक आती ही रहती है। नियम क्या कहता है कि तुझे जो-जो इच्छाएँ होती हैं, वे अवश्य पूरी होंगी ही, पर उसके लिए सोचने से कुछ नहीं होनेवाला। उलटे दखल हो जाती है। बार-बार जो इच्छा आती है, वह पन्चिंग (चुभन) करती ही रहती है। इच्छा तो हर चीज़ की नहीं होती है। यह संसार रस है। जो रस जिसे प्यारा हो, उसकी इच्छा होती है। इच्छा किस की होगी? बुद्धि के आशय में तू जो लाया है, उसकी होती है। बुद्धि के आशय में तू जो सुख भर लाया है, वह सुख पुण्य खर्च करके तुझे मिलता रहता है।
संसार की यह जो ब्लेड है, उसे दोनों ओर से इस्तेमाल करना, पर 'शुद्धात्मा' एक ही और से इस्तेमाल करना। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसके बजाय 'मैं अशुद्धात्मा हूँ' ऐसे इस्तेमाल करने पर क्या होगा? सब कट ही जाएगा। शुद्धात्मा की विल (इच्छा) नहीं होती, पर अंतरात्मा की होती है। अंतरात्मा, शुद्धात्मा का पूर्ण पद प्राप्त करने के लिए विल इस्तेमाल करता है। जब पूर्ण दशा होगी, तब विल नाम मात्र को भी नहीं रहेगी
और वीतरागता आने पर पूर्णदशा प्राप्त होगी। संपूर्ण वीतराग के विल नहीं होती है। हमारी विल निपटारे की है और आप सभी महात्माओं की विल ग्रहणीय है। ग्रहणीय अर्थात् पूर्ण पद प्राप्ति के लिए और दादाजी की निपटारे की विल यानी संपूर्ण पद प्राप्त हो गया है, इसलिए।
प्रश्नकर्ता : इच्छा और चिंतन में क्या भेद है?
दादाश्री: चिंतन यानी आगे का हिसाब लिखता है और इच्छा, पिछला क्या-क्या हिसाब है वह दिखा देती है। इच्छा और अनिच्छा दोनों पेटी में भरा हुआ माल है, उसे दिखाती है। पुण्य का क्रम आए, तब इच्छा पूरी होती है और अक्रम आए, तब अनिच्छा ही आगे आया करती है। उदाहरण स्वरूप अंधेरे में नंबर डाले हों और अंधेरे में ही खींचे तब एक के बाद दो, दो के बाद तीन, ऐसे क्रमानुसार नंबर हाथ में आएँ और
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अक्रम में सात के बाद सत्तावन आकर खड़ा रहता है। लिन्क मिलता ही नहीं।
रत्नागिरि में एक आदमी मेरे पास आकर मुझसे कहने लगा, 'दादाजी, मैं जहाँ हाथ डालता हूँ, वहाँ सोना ही हाथ में आता है!' मैंने उसे कहा,'भैया इस समय तेरा लिन्क (क्रम) चल रहा है इसलिए। पर थोड़े दिनों के बाद तेरा लिन्क टूटेगा, तब मुझे याद करना।' हुआ भी वही। उसका धंधा ऐसा चौपट हुआ कि पति-पत्नी दोनों ने विष पी लिया। वह तो संयोगवश दोनों बच गए, तब उसे मेरी बात याद आई। यह तो क्रम और अक्रम, आते-जाते हैं, उसीका नाम ही संसार। इच्छा तो पिछला हिसाब है, जब कि चिंतन में योजना बनाते हैं। तन्मयाकार होकर कॉज डालते है। इच्छा इफेक्ट है, जब कि चिंतन कॉज है, चाजिंग पोइन्ट है। शास्त्रकारों का कहना है कि इच्छा अपने आप ही होती है, करने की ज़रूरत नहीं है।
सूर्य अस्त हो रहा हो, तब भी लोगों को तो ऐसा लगता है कि उदय हो रहा है, पर उसकी चिंता नहीं करना, वे अस्त हो रही इच्छाएँ हैं! मैंने अपने महात्माओं को बताया है कि आपकी बाँझ इच्छाएँ रही हैं, उनका बीज नहीं पड़ता इसलिए आपकी अस्त होती इच्छाएँ रही हैं। लोगो के उदय होती और अस्त होती दोनों प्रकार की इच्छाएँ होती है।
इस कलयुग में तो चटनी की इच्छावाले ही होते हैं, सबकुछ भुगतने की इच्छवाले नहीं होते। एक ज़रा-सी चटनी के लिए सारी जिंदगी निकाल देते है।
अरे! मैंने ऐसे सेठ लोगों को देखा है कि जो भगवान महावीर की सभा में रात-दिन पड़े रहते थे। सेठानी से कहते, 'त पूरी भाजी यहाँ सभा में लेकर आना, मैं यहीं खा लूँगा।' भगवान की वाणी उसके कानों को इतनी मधुर लगती थी कि वहाँ से खिसकते ही नहीं थे, पर चटनी खाने की इच्छा रह गई थी, इसलिए आज तक भटक रहे हैं।
जो होनेवाला हो, उसकी पहले इच्छा होती है। मैट्रिक पास
होनेवाला हो तो, मैट्रिक होने की इच्छा पहले होती है। अंतराय टूटते हैं, तब अपनी इच्छा के अनुसार मिल जाता है। सत्संग में पैसे खर्च करने हैं, ऐसी इच्छा तो बहुत होती हैं, पर करे क्या? पहले के अंतराय पड़े होने के कारण संयोग मिलते हैं, फिर भी पीछे रह जाता है।। जब अंतराय टूटते हैं, तब सहज ही सब इच्छानुसार हो जाता है।
इच्छा, भाव नहीं है। प्रश्नकर्ता : इच्छा और भाव में क्या अंतर है?
दादाश्री : यह रुई पड़ी है, उसमें हर्ज नहीं है, पर यदि दियासलाई लेकर जलाएँ, तो वह इच्छा कहलाती है। इच्छा प्रकट अग्नि है। वह जब तक पूरी नहीं होती, तब तक सुलगती रहती है। वस्तु को जलाना, वह इच्छा है और वह तेरे अंदर सुलगती रहती है। हमें कैसा है कि हमारे पास सुलगाने के लिए दियासलाई ही नहीं होती।
उदय होती इच्छा और अस्त होती इच्छा यानी चार्ज इच्छा और डिस्चार्ज इच्छा। खाना-पीना वह सब अस्त होती इच्छाएँ हैं, उसमें हर्ज नहीं है, पर उदय होती इच्छा बंधनकर्ता है और वह दुःख खड़े करती
भाव अर्थात् क्या? 'शुद्धात्मा' में किसी भी प्रकार का भाव ही नहीं है। प्रतिष्ठित आत्मा के भाव को भाव कहते हैं। प्रतिष्ठित आत्मा ज्ञानी है और अज्ञानी भी है। अज्ञानी के भाव, मन के दृढ़ परिणाम में होते हैं। मुझे प्रतिक्रमण करना ही है, ऐसा भाव दृढ़ करें, तो वैसा द्रव्य उत्पन्न होता है और उस द्रव्य में से फिर भाव उत्पन्न होता है।
प्रश्नकर्ता : भावमन और द्रव्यमन क्या है?
दादाश्री : प्रतिष्ठित आत्मा भाव करता है, तब भावमन की शुरूआत होती है और उससे द्रव्यमन उत्पन्न होता है। भावमन के भी दो प्रकार हैं: चार्ज और डिस्चार्ज।
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वास्तव में भावमन यानी प्रतिष्ठित आत्मा का डायरेक्ट चार्ज होनेवाला मन। यह द्रव्यमन जो दिखाता है, वह तो डिस्चार्ज है। चार्ज तो दिखता ही नहीं। पता ही नहीं चलता। यदि चार्ज समझ में आए ऐसा होता, तो कोई चार्ज ही नहीं होने देता न? सभी का मोक्ष ही हो जाता। भाव का पता चले ऐसा नहीं है। मिले, तो तो सील कर दें। बहुत ही कम लोग भाव को समझ पाते हैं, पर फिर वे उसे मढात्मा का समझते हैं, इसलिए गड़बड़ हो जाती है। 'ज्ञान' के बिना भाव पकड़ में आए ऐसा नहीं है। अत्यंत गहन, गहन है। लाख बार गहन-गहन बोलें, तब भी उसकी गहनता का अंत न आए ऐसा है।
शद्धात्मा को भाव होता ही नहीं है। भाव अर्थात अस्तित्वपना. बाकी यह भाव तो प्रतिष्ठित आत्मा का ही है। लोग तो जो भाता है उसी पर भाव करते हैं। भावाभाव करते हैं। ये सभी प्रतिष्ठित आत्मा के ही हैं, उनसे कर्म बंधते हैं। नाशवंत चीज़ों का भाव करते हैं, इसलिए नाशवंत हो जाते हैं। शीशे को 'मैं हूँ' समझें, तो बात कैसे बने?
सज्जनता-दुर्जनता संसार में सज्जन और दुर्जन, दोनों साथ ही रहनेवाले हैं। दुर्जन हैं, तो सज्जन की क़ीमत है। यदि सभी सज्जन होते, तो?
सज्जन पुरुष : जो निरंतर उपकार ही करता रहे, वह। दुर्जन पुरुष : निरंतर अपकार ही करता रहे, वह। कृतज्ञ : सामनेवाले द्वारा किए गए उपकार को कभी न भूले और
सामनेवाले का अपकार कभी भी लक्ष्य में न लाए, वह । कृतघ्न : सामनेवाले का उपकार भूल जाता है, और जान-बूझकर अपकार करता है। खुद को कोई भी ज़रूरत नहीं हो, कोई लाभ नहीं हो, फिर भी अपकार करता है, वह।
सागर की गहराई का अंत है, पर संसार की गहराई का कोई अंत ही नहीं।
अधिकार का दुरुपयोग करता है उसकी सत्ता चली ही जाती है। जो सत्ता मिली हो, उसे शोभा नहीं दे, ऐसा कार्य करे, तो सत्ता चली जाती है। भले ही आपका नौकर आपको गाली दे पर आप गाली देंगे, तो आपकी सत्ता चली जाएगी।
झूठ सिर चढ़कर बोलता है, और सत्य भी सिर चढ़कर बोलेगा। झुठ तुरंत ही बोलेगा। सत्य को देर लगेगी। असत्य तो दूसरे दिन ही बोलेगा।
हल्दीघाटी का युद्ध छेड़ने में मज़ा नहीं है, निपटाने में मज़ा है। समझा-बुझाकर काम निकाल लेना, पर लड़ना नहीं। न्याय किसे कहते है? कोर्ट में जाना नहीं पड़े वही न्याय कहलाता है। कोर्ट जाना पड़े, वह अन्याय है।
मन-वचन-काया और आत्मा का उपयोग लोगों के लिए कर। तेरे खुद के लिए करेगा, तो खिरनी (खिरनी का पेड) का जन्म मिलेगा। फिर पाँच सौ साल तक भुगतते ही रहो। लोग तेरे फल खाएँगे, लकड़ियाँ जलाएँगे, कैदी की तरह तेरा उपयोग होगा। इसलिए भगवान कहते हैं कि तेरे मन-वचन-काया और आत्मा का उपयोग औरों के लिए कर। फिर तुझे कोई भी दु:ख आए, तो मुझे कहना।
अविरोधाभास खोजने की जिसकी मति उत्पन्न हुई है, वही 'सुमति'।
जो जो संसार का उच्छेद करने गए हैं, उनका अपना ही उच्छेदन हो गया है। मनुष्यत्व तो सबसे बड़ा भयस्थान है, टेस्ट एक्जामिनेशन (कसौटी) है। उसमें लोग मज़ा ले रहे हैं। उसमें तो निरे भयस्थान ही हैं। हर क्षण मृत्यु का भय, एक क्षण भी व्यर्थ कैसे गवाएँ। ऐसा कुछ कर कि जिससे तेरा अगला जन्म सुधरे। यह मनुष्य गति टर्निंग पोइन्ट है। यहाँ से वक्र गति होती है। नर्क, तिर्यंच, मनुष्य और देव चारों गतियों में यहाँ से जा सकते हैं, और मोक्ष भी मनुष्य गति में ही मिलता है। यदि ज्ञानी पुरुष मिल गए, तो समझो बेडा पार ही हो गया।
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सर्युलेशन चलाती है। उसके तार-डोरियाँ सब जगह पहुँचते हैं, इसीलिए सारी मशीनरी काम करती है। यदि किसी कर्म की कमी हो, तो बचपन से ही जठर खाना नहीं पचा सकता। देह के अंदर की इलेक्ट्रिकल बॉडी ही असल में कार्य करती है, पर स्थूल शरीर उसे ग्रहण नहीं कर सकता, इसीलिए देह कमजोर होती जाती है। सूक्ष्म शरीर तो सभी का एक जैसा ही होता है। यह जो आपकी देह का आकार है, उसका आर्किटेक्चर तो पहले से ही तय हो गया होता है। वह कॉज़ल बॉडी कहलाता है और यह जो स्थूल देह प्राप्त हुई, वह इफेक्ट बॉडी है। शरीर में जो भाग एबोव नोर्मल या बिलो नोर्मल हो जाता है, उसी भाग का दोष होता है और वही भाग भुगतता है। इस पर से अनुमान लगाया जा सकता है कि दर्द कहाँ से आया और क्यों आया ?
देह के तीन प्रकार तीन प्रकार के देह है : तेजस देह, कारण देह और कार्य देह।
आत्मा के साथ निरंतर रहनेवाली, वह तेजस देह है। वह सूक्ष्म शरीर है, इलेक्ट्रिकल बॉडी है। शरीर का जो नूर है, जो तेज होता है, वह तेजस शरीर के कारण होता है। शरीर का नूर चार वस्तुओं से प्राप्त होता है।
(१) कोई बहुत लक्ष्मीवान हो और सुख-चैन से रहता हो, तो उसका तेज आता है, वह लक्ष्मी का नूर।
(२) जो बहुत धर्म करता हो, तो उसके आत्मा का प्रभाव पड़ता है, वह धर्म का नूर।
(३) कोई बहुत विद्याभ्यास करे, रिलेटिव विद्या प्राप्त करे, तो उसका तेज आता है, वह पांडित्य का नूर।
(४) ब्रह्मचर्य का नूर। ये चारों नूर सूक्ष्म शरीर, तेजस शरीर से आते हैं।
जब माता का रज और पिता का वीर्य इकट्ठा होते हैं, तब नया इफेक्ट बॉडी (कार्य शरीर) उत्पन्न होता है। जीव क्या है? जो जीता है
और मरता है, वह जीव है। ये सभी जीव मरते हैं, तब सक्ष्म शरीर और कारण शरीर साथ ले जाते हैं। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार यहीं स्वतंत्र हो जाते हैं, और जो कॉजल बॉडी (कारण शरीर) साथ ले जाते हैं, उससे नया इफेक्ट बॉडी (कार्य शरीर) बनता है। माता के रज और पिता के वीर्य से उत्पन्न हुआ कार्य शरीर, उन्हीं को खा जाता है और उसकी गाँठ बनती है। जीव घंटेभर के लिए भी बिना खुराक के नहीं रह सकता। अन्न नहीं, तो हवा-पानी कुछ न कुछ तो लेता ही रहता है।
जो तेजस शरीर है, वही सूक्ष्म शरीर या इलेक्ट्रिकल बॉडी है। यह इलेक्ट्रिकल बॉडी खाना पचाती है, शरीर में गरमी पैदा करती है।
कारण देह समझ में आए ऐसी है। जन्म से ही उत्पन्न होती है, अंदर से ही होती है। हवा खाए, तभी से शुरू होती है, तभी से रागद्वेष उत्पन्न होते हैं। बचपन से ही पसंद-नापसंद होती है। राग-द्वेष से परमाणु खिंचते हैं, वीतरागता से नहीं खिंचते। परमाणु खिंचने से, पूरण होने से 'कारण देह' बनती है। आज जो देह दिखाई देती है, वह पूर्वभव की कारण देह है। ज्ञानी पुरुष को कारण देह दिखाई देती है और उनमें इतना सामर्थ्य होता है कि कारण देह का गठन बंद कर दें, सील कर दें। फिर नयी कारण देह गठित नहीं होती।
आत्मा जब देह से अलग होती है, तब उसके साथ कारण देह जाएगी, पुण्य-पाप जाएँगे। पुण्य के आधार पर रूप, सिमेट्रिकल बॉडी (समरूप शरीर) सुख इत्यादि मिलते हैं। पाप के आधार पर कुरूपता मिलती है। पाप के आधार पर देह असिमेट्रिकल (बैडौल) मिलती है। इस देह में से आत्मा खिसक जाए, तब कारण शरीर और सूक्ष्म शरीर साथ ही रहते हैं। सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर के परमाणुओं के सांयोगिक प्रमाण इकट्ठे होते हैं, तब स्थूल शरीर खड़ा होता है। आत्मा जब मृत्यु समय, स्थूल देह से अलग होता है, तब वह एक जगह से निकलकर दूसरी जगह पर, एक समय में, उसके व्यवस्थित द्वारा निश्चित
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इस देह पर अधिकार हमारा अपना है ही नहीं। जिस-जिसका होगा वे ले जाएँगे। हमें तो इस देह को मित्र समान मानकर अपना काम निकाल लेना है। बाकी, इस देह में कब क्या हो जाए वह कुछ कह नहीं सकते। बाकी, हमारे स्वयं के प्रदेश (शुद्धात्मा) को कुछ भी हो ऐसा है नहीं। जिस शरीर से मोक्ष में जाना है, वह शरीर बहुत मज़बूत होता है, निर्वाण पानेवाला शरीर 'चरम शरीर' कहलाता है।
भगवान इस देह में कब तक रहते हैं? प्रतिष्ठित आत्मा का मुकाम हो तब तक रहते हैं। मूल आधार तो शुद्धात्मा का ही है। प्राण के आधार पर जीता है, वह प्राणी। नाक आठ मिनट तक दबाए रखें, तो प्राण निकल जाएँ, ऐसा है यह सब, यह तो मशीनरी है।
देह भान, वह मूर्छावस्था है। देहाध्यास ही अज्ञान है। स्वभान से मुक्ति है।
किए हुए स्थान पर पहुँच जाता है। और वहाँ जाकर पिता का वीर्य और माता का रज मिलता है तब देह धारण करता है। आत्मा उस समय एकदम संकुचित हो जाता है। जब तक नया स्थान नहीं मिलता, तब तक सामान्यत: पुराना स्थान छोड़ता नहीं है। उसके स्थिति-स्थापक गुण के कारण लम्बा होकर एक सिरा पुरानी देह में और दूसरा सिरा नयी कार्यदेह में ले जाता है, तब ही पुरानी देह छोड़ता है। कुछ प्रेतयोनि के लायक जीव होते हैं, उन्हें दूसरी देह तुरंत ही नहीं मिलती है। ऐसा जीव प्रेतयोनि में जाकर भटकता है, और जब नयी देह मिल जाए तब उसे छुटकारा मिलता है।
मनुष्य देह में आने के बाद ज्यादा से ज्यादा आठ जन्म अन्य गतियों में जैसे कि देव, तिर्यंच या नर्कगति में जाकर आने के बाद, फिर वापस मनुष्य देह मिलता है। मनुष्य देह में वक्रगति उत्पन्न होती है, और भटकन का अंत भी मनुष्य देह में से ही मिलता है। इस मनुष्य देह को यदि सार्थक करना आए, तो मोक्ष प्राप्ति हो सके ऐसा है और न आया, तो भटकने के साधनों में वृद्धि करे ऐसा भी है। अन्य गतियों में केवल छूटता है। पर इसमें दोनों ही हैं, छूटने के साथ-साथ बंधन भी होता है। इसलिए दुर्लभ मनुष्य देह प्राप्त हुई है, तो उससे अपना काम निकाल लो। अनंत जन्म आत्मा ने देह के लिए गुज़ारे हैं, एक जन्म यदि देह आत्मा के लिए गुजार दें, तो काम ही बन जाएगा।
मनुष्य देह में ही यदि ज्ञानी पुरुष मिलें. तो मोक्ष का उपाय होता है। देवता भी मनुष्य देह के लिए तरसते हैं। ज्ञानी पुरुष की भेंट होने पर, तार जुड़ने पर, अनंत जन्मों तक शत्रु समान हुई देह परम मित्र बन जाती है। अतः इस देह में ज्ञानी पुरुष मिले हैं, तो पूर्णरूप से अपना काम निकाल लीजिए। पूर्ण संधान करके तैरकर पार उतर जाओ।
__ हमें इस देह पर कितनी प्रीति है? इस देह से मोक्ष तो मिल गया, खुद का कल्याण तो हो गया, अब लोगों के कल्याण हेतु यह देह खर्च हो, उतना ही इसका जतन और उसके लिए ही इससे प्रीति है। बाकी, हम तो उसे एक पड़ोसी की तरह ही निभाते हैं।
स्थूल देह वीतरागी है। जितनी यह तिपाई वीतरागी है, उतनी ही यह स्थूल देह भी वीतरागी है। उतना ही आत्मा भी वीतरागी है। सूक्ष्म शरीर सबका जिम्मेदारीवाला है। सूक्ष्म शरीर कुछ खास परमाणुओं का बना हुआ है। स्थूल देह की किसी भी चेष्टा से आत्मा को कोई लेनादेना नहीं है। सारा दुःख भी सूक्ष्म शरीर ही भुगतता है। सूक्ष्म शरीर आत्मा का आविर्भाव है। सूक्ष्म शरीर से ही 'मैं'पन की प्रतिष्ठा करता है, इसलिए सूक्ष्म शरीर प्रतिष्ठित आत्मा जैसा है।
कर्म अधिक हों, तो शरीर छोटा होता है। कर्म कम हों, तो शरीर बड़ा होता है जैसे कि चींटी और हाथी। चींटी को तो मैंने रात के चार बजे भी शक्कर को खींचकर ले जाते देखा है, और हाथी? वह बादशाही ठाठ से मस्ती में रहता है।
देहाध्यास कब टूटे? सारा संसार देहाध्यास में लिप्त हुआ है। कहते भी हैं कि यह शरीर मेरा नहीं, मन मेरा नहीं पर यदि कहा जाए कि चंदूलाल, आपमें अक्ल
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नहीं है, तो सारी रात नींद नहीं आती। आत्मज्ञान नहीं हो, तब तक देहाध्यास टूटे ऐसा नहीं है। मैं चंदूलाल, मैं इसका मामा, इसका चाचा, इसका पति, इसका पिता वही देहाध्यास। जब तक देहाध्यास टूटता नहीं, तब तक स्थूल और सूक्ष्म वर्गणा (संबंध) रहती है, शुभ और अशुभ रहता है। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसका यथार्थ ज्ञान हो, तो देहाध्यास टूटता है, फिर इकलौता लड़का मर जाए, तो भी द्वंद्व नहीं होता, पन्चिंग नहीं होता। अच्छा या बुरा ऐसा रहता नहीं।
जैसा देहाध्यास हुआ है वैसा आत्माध्यास होना चाहिए। नींद में, गहरी नींद में भी आत्मा का भान रहना चाहिए। हम देते हैं, उस ज्ञान से सभी अवस्थाओं में आत्माध्यास ही रहता है। यह तो गज़ब का ज्ञान है! जैसे दही को मथने के बाद मक्खन और छाछ दोनों अलग ही रहते हैं, ऐसा यह ज्ञान है। देह और आत्मा अलग के अलग ही रहते हैं।
पहले ज्ञानी कोल्हू में पिस-पिसकर गए थे, वह इसलिए कि तू आत्मा है, तो देह को कोल्हू में पिसना हो, तो पिसने दे। देह का तेल निकलना हो, तो तेल निकलने दे। आत्मा पिसनेवाला नहीं है, ऐसी कसौटी पर खरे उतरकर गए थे।
देह की तीन अवस्थाएँ देह की तीन अवस्थाएँ - बाल्यावस्था, युवावस्था और वृद्धावस्था।
बाल्यावस्था में परमानंद - सहजानंद होता है। बालक को कोई भी चिंता नहीं होती। जन्म से पहले ही दूध की कुंडियाँ भरकर छलक गई होती हैं। छोटे बच्चे को है कोई चिंता? दूध कहाँ से आएगा? कब आएगा? और फिर भी उसे सबकुछ समय पर आ ही मिलता है न? ज्ञानी पुरुष बालक जैसे होते हैं, मगर बालक को सब नासमझी में होता है, जब कि ज्ञानी पुरुष संपूर्ण समझदारी के शिखर पर होने के बावजूद बालक जैसे होते हैं। बालक का मन डेवलप नहीं हुआ होता है, बुद्धि डेवलप्ड नहीं हुई होती है। अकेली चित्तवृत्ति ही कार्य करती रहती है।
उसकी चित्तवृत्ति उसकी पहुँच के विषय में ही होती है। जैसे, खिलौना नज़र में आया, तो उसकी चित्तवृत्ति उसीमें रहती है, मगर कितनी देर? थोड़ी ही देर। फिर दूसरे विषय में चली जाती है। एक ही विषय में चित्तवृत्ति ठहरती नहीं है, जब कि बड़ी उम्रवालों के तो दो-चार विषयों में ही चित्तवृत्ति रहा करती है और उन्हीं में घूमती रहती है। इसीलिए तो सारा बवाल खड़ा होता है न? बालक थोड़ी देर बाद भूल जाता है, क्योंकि उसकी चित्तवृत्ति उसमें स्थिर होती नहीं है, तुरंत ही उसमें से उड़ जाती है। छोटे बच्चे में जब तक बुद्धि जागृत नहीं हुई है, तब तक उसका सहजानंद व्यवस्थित है। फिर जैसे-जैसे बुद्धि बढ़ती जाती है वैसे-वैसे संताप भी बढ़ता जाता है।
युवावस्था प्रकट अग्नि समान है। उसमें बाह्याचार बिगड़ने के संयोग खड़े होते हैं, इसलिए उसमें विशेष रूप से सावधान हो कर चलना अच्छा। देवों को जन्म, जरा (बुढ़ापा) या मृत्यु नहीं होते। उन्हें निरंतर यौवन ही होता है।
वृद्धावस्था अर्थात् बुढ़ापा। बुढ़ापा बिताना बड़ा कठिन है। सारी मशीनरियों का दिवाला निकल चुका होता हैं। दाँत कहे टूटता हूँ, कान कहे दु:खता हूँ, बुढ़ापे को बहुत सँभालना पड़ता है। बहुत चिकने कर्म न हों, तो बैठे-बैठे ही चल बसता है। सारी मशीनरियों का दिवाला निकल गया हो और पूछे कि अब जाना है न चाचाजी?'तब भी चाचाजी कहेंगे, 'अभी तो थोड़ा और जी लूँगा!' ये तो सारे चाय-पानी के लालच हैं!
बाँधे गए कर्म तो आतिशबाजी जैसे हैं। वे भी बुढ़ापे में ही फूटते हैं। इस ओर बम फूटें, इस ओर रॉकेट उड़ें और भारी उथल-पुथल कर देते हैं। इस देह से जो-जो शाता भोगी हों, वे आखिर में अशाता देकर जाती हैं। और अशाता भोगी हो, तो आखिर में शाता देकर जाती हैं। ऐसा नियम है। अशाता के प्रमाण अनुसार शाता देकर जाती है। कोई ही ऐसा पुण्यवान होता है, जो आखिर में शाता पाकर जाए। ऐसा शीलवान कोई ही होता है। संसार के लोगों को भोग-विलास करते समय भान नहीं होता
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ओर। अरे! तू श्मशान जा रहा है और रास्ते में पकोड़े-वकोड़े खाने क्यों बैठ गया? कुछ तो सोच? प्रतिक्षण त् श्मशान की ओर आगे बढ़ रहा है! कभी न कभी अंतिम स्टेशन पर तो तुझे पहुँचना ही है न? जल्दी या देर से नहीं, मगर शांतिपूर्वक जा सके इतनी आशा रख सकते
बुढ़ापा आए, तब सभी दर्दो का एक ही दर्द हो जाता है, उसकी दवाई जान लें, तो दर्द शुरू हो तब ले सकते हैं। यह तो, अंतिम दर्द हमें ले जाने को आता है।
कि इसका पेमेन्ट करना पड़ेगा। यह तो बिना हक़ के भोग-विलास, इसलिए फिर आखिरी घड़ी में भी पेमेन्ट करना पड़ता है। जब कि सरल मनुष्यों को बहुत अच्छा रहता है। मरते समय यदि ऐसा कहकर जाएँ कि हम जाते हैं, तो भी अच्छा, उसकी ऊँची गति होती है। ऊँचे ओहदे पर जाते हैं। पर बेहोशी में मरें, तो बेहोश में जाते हैं, गाय-भैंसों में जाते हैं। जिसका हार्ट फेल होता है, उसका तो कोई ठिकाना ही नहीं। वर्तमानकाल में तो रौद्रध्यान और आर्तध्यान ही छाए हुए हैं, इसलिए जीना भी मुश्किल हो गया है और मरना भी मुश्किल हो गया है। जवान मरते हैं. तो वे रौद्र और आर्तध्यान में मरते हैं। बुड्ढे मरते हैं, तो कल्पांत में, अतः भयंकर जोखिमदारी ले लेते हैं। भोजन आज का अप्रमाणिकतावाला, कपड़े-वपड़े सब अप्रमाणिकतावाले यानी आर्त और रौद्रध्यान करके इकट्ठा किया हुआ। अत: मरें तब भी बहुत दुःख भुगतते हुए मरते हैं। शरीर का एक-एक परमाणु दुःख देकर, काटकर जाता है, और बहुत दु:ख हो, तो हार्ट फेल होकर मर जाता है। और फिर अगले जन्म में कर्म भोगने पड़ते हैं। यह तो परमाणु का साइन्स है। वीतरागों का साइन्स है। इस में किसी की एक नहीं चलती !
खुद के हिसाब की फटी साड़ी अच्छी, खुद की प्रामाणिकता की खिचड़ी अच्छी, ऐसा भगवान ने कहा है। अप्रमाणिकता से प्राप्त करें. वह तो गलत ही है न?
बुढ़ापा आए और जाने का हो, तब पटाखे एक साथ फूट जाते हैं, पर ज्ञान नहीं हो, तो बुढ़ापा काटना भारी पड़ जाए, मगर ज्ञान मज़बूत हो गया हो, तो जो जो पटाखे फूटें, उनके प्रति ज्ञाता-दृष्टा रहकर स्वयं (शुद्धात्मा) की गुफ़ा में रह सकते हैं। हमारे ज्ञानी अंतिम साँस लेते-लेते भी क्या बोलते हैं, मालम है? 'इस गठरी की अंतिम सांस को आप भी देख रहे हैं और मैं भी देखता हूँ!' अंतिम सांस का भी ज्ञाता-दृष्टा रहता है ! सभी को एक न एक दिन दुकान तो बंद करनी ही पड़ेगी न? सभी जाने के लिए ही तो आते हैं ने? अरे! जन्म होते ही 'वे टु श्मशान' शुरू हो जाता है। अरे! तू कहाँ चला? श्मशान की
जो देह मुरझा जाए, सड़ जाए, गंध मारने लगे, उससे प्रीति क्यों? यह तो चमड़ी से ढंका माँस का पिंड है। इस देह को प्रतिदिन नहलातेधुलाते, खिलाते-पिलाते, कितना जतन करते हैं, पर वह भी आख़िर में दगा दे देती है। यह देह ही यदि सगी नहीं होती, तो औरों का तो कहना ही क्या? इस देह को बार-बार सहलाते रहते हैं, पर यदि उसमें से पीप निकले, तो पसंद आए क्या? देखना भी अच्छा नहीं लगे, वैराग्य आए। यह तो पीप, रुधिर और माँस के पिंड ही हैं। हमें, ज्ञानी पुरुष को सबकुछ साफ दिखाई देता है। जैसा है वैसा दिखाई देता है, इसलिए वीतराग ही रहते हैं। देह पर अनंत जन्मों राग किया, उसका फल जन्म-मरण आया। एक बार आत्मा का रागी बन, यानी वीतरागी हो जा, तो अनंत जन्मों का हल निकल जाएगा।
शरीर तो कैसा होना चाहिए? जो शरीर मोक्ष का साधन बन जाए ऐसा होना चाहिए। 'चरम शरीर' प्राप्त होना चाहिए।
यह शरीर तो परमाणुओं का बना हुआ है, और कुछ है ही नहीं। जिस प्रकार के परमाणुओं का संग, वैसा ही देह में अनुभव होता है।
पशु-पक्षी, वनस्पति, सभी जीव मनुष्यों के लिए जीते हैं और मनुष्य खुद अपने लिए जीता है। फिर भी भगवान कहते हैं कि मनुष्य देह देवताओं के लिए भी दर्शन करने योग्य है। समझे, तो काम ही निकाल ले।
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आप्तवाणी-१
मनुष्य देह का प्रयोजन सारे संसार में से कितनों को मालूम है कि यह देह किस लिए प्राप्त हुई है? देह जो प्राप्त हुई है, वह किस लिए है? उसका ही भान नहीं है। मौज-मजा करेंगे, भगवान की भक्ति करेंगे, योग करेंगे, तप करेंगे या त्याग करेंगे ऐसा भान बरतता है। मगर यह देह तो 'गुनहगारी' टालने के लिए प्राप्त हुई है। प्रत्येक प्राप्त संयोगों का समभाव से निपटारा करके. भगवान के साक्षात्कार के लिए यह देह प्राप्त हुई है। इसलिए ही तो कवि लिखते हैं,
'देह जे प्राप्त थयो, गनेगारी टाळवा, कर्म आवरण खप्ये, भगवान न्याळवा।'
देह जो प्राप्त हुई, गुनहगारी टालने, कर्म आवरण खपाने, भगवान निहारने।
आचार, विचार और उच्चार आचार, विचार और उच्चार, तीनों चंचल वस्तुएँ हैं। अपने को' तो केवल जानना चाहिए कि विचार ऐसा आया। विचार आते हैं, उनके हम जिम्मेदार नहीं हैं, क्योंकि वे तो पहले की गाँठे फूटती हैं। वह तो पहले हस्ताक्षर हुए थे, इसलिए आज उसके जिम्मेदार नहीं हैं। पर यदि फिर से हस्ताक्षर कर दें, तो भयंकर जोखिम है।
'आत्मा' स्वयं अचल है तथा आचार, विचार और उच्चार चंचल भाग में हैं। जो जो कार्यान्वित होता है, वह 'चार' में आता है, 'आचार', 'विचार' और 'उच्चार'। प्रत्यक्ष रूपक में आए वह 'आचार', अंदर फूटे वह 'विचार' और जो बोला जाए वह 'उच्चार'। यदि नोर्मेलिटी में रहे, सम रहे, तो संसार कहलाए। इसलिए बाहरी भाग को-बाह्याचार को, नोर्मेलिटी में रहने को कहा है।
सतयुग में मन का विचार, अकेला ही बिगडता था। वाणी और देह का आचार नहीं बिगड़ता था। आज तो सभी आचार बिगड़े हुए देखने
को मिलते हैं। यदि मन का आचार बिगड़ा होता, तो चला लें, पर वाणी का और देह का नहीं चलाया जा सकता। सभी आचार बिगड़ें हों. तो भयंकर प्रत्याघाती वाणी निकलती है। वह सारा बिगाड़ ही निकलता है। ज्ञान के प्रताप से जो बाह्याचार बिगड़े थे, वे बंद हो जाते हैं। देह का आचार शुद्ध चाहिए। मन और वाणी के आचार बदलते रहते हैं। देह का आचार खराब हो, तो वह तो बहुत बड़ा जोखिम है। देवगण भी दु:ख देंगे, बाह्याचार शुद्ध हो, तो देवगण भी खुश रहते हैं। शासन देवता भी खुश रहते हैं।
बाह्याचार बिगड़ने का कारण क्या? बाहर सुख नहीं मिलता है. इसलिए। अंदर का अपार सुख मिलने के बाद, बाहर के आचार सुधरते जाते है।
ज्ञानी के लिए तो अंदर के सभी आचार ज्ञेय स्वरूप हो जाते हैं और खुद ज्ञाता-दृष्टा पद में रहते हैं। हमारे पास ज्ञान है, इसलिए चाहे कैसे भी दु:ख के संयोग आएँ तो उनमें से बिना डिगे बाहर निकल सकते हैं। संकट समय की जंजीर है, वह खींचें, तो निपटारा हो जाता है।
यह ज्ञान नहीं हो, तो लट्ट की तरह फिरता रहता है, पर ज्ञान है, तो बाह्याचार सुंदर होना चाहिए, वर्ना बहुत बड़ा जोखिम आ पड़ता है। लोकनिंद्य आचार तो नहीं होना चाहिए। जो-जो आचार लोकनिंद्य हो, वे हमें नहीं होने चाहिए। वाणी खराब हो, मन खराब हो, तो चला सकते हैं, पर देह का आचार खराब हो, तो नहीं चला सकते, वहाँ तो देवीदेवता भी खड़े नहीं रहते।
मन और वाणी के हम ज्ञाता-दृष्टा हैं, और वे तो ज्ञेय फिल्म कहलाते हैं, पर बाह्याचार तो नहीं चला सकते। लोकनिंद्य आचार में पड़ने के बजाय शादी कर लेना उत्तम। बाकी. ऐसी भल तो दिखे तभी से निकाल बाहर करनी चाहिए। उसमें ज्ञाता-ज्ञेय संबंध रखने गए, तो वह भल कहाँ फेंक देगी यह कहा नहीं जा सकता। किसी दिन ज्ञान को एक ओर हटाकर चढ़ बैठेगी। जहर की परख नहीं करते। अहंकार करके भी
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तोड़ डालना। चाहे जैसे उसका समाधान लाना चाहिए। बाहर तो चले ही नहीं। हम एक बार निश्चय कर लें कि बाह्याचार शुद्ध होना ही चाहिए। निश्चय नहीं करें, तो दुकानें चलती रहती हैं। यह तो भयंकर जोखिम है। इसके समान दुनिया में और कोई जोखिम नहीं है। संसार जोखिमवाले स्वभाव का नहीं है, पर बिगड़ा हुआ बाह्याचार जोखिमवाला है। सुंदर बाह्याचार से तो देवकृपा बनी रहती है, और वे मोक्ष तक हैल्प करते हैं।
बाह्याचार के बारें में हमें ज्ञात होना चाहिए कि यह तो भारी जोखिमवाली वस्तु है, इसलिए हम उसे ज्ञानी पुरुष को अर्पण कर दें। बाह्याचार क्यों बिगड़े हैं? क्योंकि सुख नहीं है, इसलिए। जलन अभी गई नहीं मगर हमारे भीतर अनंत सुख है, फिर ऐसा नहीं होना चाहिए। हम शुद्धात्मा हुए, इसलिए अहंकार करके भी उससे दूर रहना चाहिए।
बिगड़ा हुआ बाह्याचार किसे कहते हैं?
अभी त किसी की जेब से कुछ निकाल ले तो भीतर फड़फड़ाहट होती रहती है न? वह लोकनिंद्य कहलाता है। किसी को गाली देना, धौल जमाना, शराब, सट्टा सब बिगड़े हुए बाह्याचार में आता है, जो जोखिमी कहलाता है। यह जोखिम चला लें, पर उसमें फ़ायदा भी क्या है? पर मुख्य रूप से ब्रह्मचर्य के संबंध में बाह्याचार का बिगड़ना नहीं चला सकते
और दूसरे चोरी के संबंध। दुनिया का सबसे बड़ा बाह्याचार बह्मचर्य है। उससे तो देवता भी खुश हो जाते हैं। संसार बाधक नहीं है। तू एक के बजाय चार शादियाँ कर, पर बाह्याचार बिगड़ना नहीं चाहिए। इसे (शादी से बाहर के संबंध को) तो भगवान ने अनाचार कहा है। मोक्ष में जाना हो, तो नुकसानदायक वस्तुओं को एक ओर रखना ही चाहिए न?
उद्वेग उद्वेग अर्थात् आत्मा (प्रतिष्ठित आत्मा) का वेग ऊँचे, दिमाग़ में चढ़ना।
वेग के विचार आएँ, तो शांति ही रहती है और उद्वेग के विचार
आएँ, तो अशांति ही लाते हैं। उद्वेग के विचार आएँ, तो समझ लेना कि कुछ खराब होनेवाला है।
यह ट्रेन मोशन में चलती है या इमोशनल होकर चलती है? प्रश्नकर्ता : मोशन में ही होती है। दादाश्री : यदि ट्रेन इमोशनल हो जाए तो? प्रश्नकर्ता : एक्सिडन्ट हो जाए, हजारों लोग मर जाएँ।
दादाश्री : उसी प्रकार यह मनुष्य देह मोशन यानी वेग में जब तक चलती है, तब तक कोई एक्सिडेन्ट नहीं होता है और न कोई हिंसा होती है। मगर जब मनुष्य इमोशनल हो जाता है, तो देह के अंदर अनंत सूक्ष्म जीव होते हैं, वे मर जाते हैं। क्रोध-मान-माया-लोभ इमोशनल करवाते हैं। इसलिए जो-जो जीव मर जाते हैं, उनकी हिंसा होती है और उसका बाद में फल भुगतना पड़ता है। इसलिए ही ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि भैया तू मोशन में ही रहना, इमोशनल मत होना।
उद्वेग भी इमोशनल अवस्था है। उद्वेग की अवस्था में गाँठे फटती हैं। एक साथ फूटने से चित्त उसी अवस्था में तन्मयाकार हो जाता है। असंख्य परमाणु उड़ने से भारी आवरण आ जाता है। जैसे बादल सूरज के प्रकाश को ढंक देते हैं, वैसे उद्वेग की अवस्था में ज्ञानप्रकाश जबरदस्त रूप से आवृत हो जाता है। इसलिए खुद की गज़ब की शक्ति भी आवृत हो जाती है। उद्वेग में देह या मन की स्थिरता नहीं रहती। भाला चुभे वैसा लगता है। उद्वेग सबसे बड़ा आवरण है। उसे अगर जीत लिया जाए, तो फिर क्लियर भूमिका आती है। यदि बड़े उद्वेग में से पार हो गए, तो फिर छोटों की तो क्या बिसात? मगर जहाँ स्वरूप का भान है, वहीं उद्वेग जीता जा सकता है। यदि ज्ञान नहीं हो, तो उद्वेग लाखों जन्मों तक न आए तो अच्छा, क्योंकि उसमें भयंकर परमाण खिंचते हैं और वे फिर फल तो देनेवाले ही हैं न?
उद्वेग में अधोगति में जाने के बीज बोये होने के कारण उसकी
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उद्वेग में मनुष्य पागल हो जाता है। उद्वेग के विचार आएँ, तो वह कार्य स्थगित कर देना। उद्वेग में हो, तो वह खराब ही होता है। वेग में आएँ, तभी कार्य अच्छा होता है।
उद्वेग अर्थात् ऊँचे चढ़ाना। उद्वेग यदि सीधा हो, तो ज्ञान में एक मील ऊपर चढ़ा दे, पर उलटा चले, तो कितने ही मील पीछे धकेल देता है। उद्वेग ज्ञान जागृति के लिए अच्छा है पर शर्त इतनी कि सीधा रहे तो।
महात्मा हों, तो आपका मन शांत कर दें। आवेग में से वेग में ले आएँ। वेग में हो, तो सीधा कर दें। मनुष्य का मन गति में लाना चाहिए। मन आवेग में से वेग में ला दें, वही महात्मा।
यह देह यदि अविनाशी बनानी हो, तो इस देह पर रखी प्रीति काम की है। मगर इसमें तो पीप भर जाए, इस पर प्रीति कैसी? प्रीति कितनी कि इस देह में ज्ञानी पुरुष मिले हैं, तो काम निकाल लें, बस उतनी। इस देह के लिए प्रीति से तो उद्वेग होता है। प्रीति करोगे, तो भी वह तो नष्ट ही होनेवाली है न? भगवान ने भी देह को दगा कहा है। आखिर तो देह राख ही हो जानेवाली है न? यह देह ही राग और द्वेष करवाती है। भगवान क्या कहते हैं कि अनंत जन्म देह के लिए निकाले, अब एक जन्म आत्मा के लिए निकाल।
उद्वेग होता है, वह यों ही नहीं होता। वह तो हिसाबी होता है और उसका पता चल ही जाता है कि वह क्यों आया? पहचानवाला हो वही आता है। यों ही तो कुछ भी नहीं होता।
उद्वेग से एक्सिडेन्ट है, इन्सिडेन्ट नहीं है। एन इन्सिडेन्ट हेज़ सो मेनी कॉज़ेज़ एन्ड एन एक्सिडेन्ट हेज़ टू मेनी कॉज़ेज़ (किसी घटना के घटने के अनेक कारण होते हैं और किसी दुर्घटना के घटने के अनेकानेक कारण होते हैं)।
इस दुनिया में आफ़रीन होने जैसी एक ही चीज़ है, और वह है ज्ञानी! दूसरी सभी जगहें दु:खदायी वस्तु हैं। निरंतर सुख हो वहीं पर ही आफ़रीन होने जैसा है।
उद्वेग कहाँ होता है? जहाँ आफ़रीन के स्टेशन होते हैं, वहाँ होता है। उद्वेग का कारण ही वह है। चाय-नाश्ता करने में हर्ज नहीं है, पर गाड़ी आने पर उसे छोड़कर गाड़ी में बैठ जाना। पर यह तो जिस स्टेशन पर आफ़रीन हुआ, वहीं पर बैठा रहता है और गाड़ी निकल जाती है। उद्वेग सब छोड़कर भगाता है और फिर सीढ़ियाँ चूक गए, तो क्या हो? ऐसा यदि हमारे सत्संग के लिए सब छोड़कर भागे न, तो काम ही हो जाए! एक ओर सत्संग है, जो परम हितकारी है और दूसरी ओर आकर्षणवाले हैं, जो परेशान करते हैं।
निद्रा
नींद जीवमात्र की नेसेसिटी है, पर नींद के प्रमाण का ही कहीं ध्यान नहीं रखा है। इस काल के मनुष्य भी कैसे हो गए हैं? यह तो चित्र-विचित्र वंशावली पैदा हुई है, वर्ना ऐसी नींद होती है कहीं? ये पशुपक्षिओं को मनुष्यों जैसी नींद आती होगी क्या? नींद का प्रमाण तो ऐसा होना चाहिए कि दिन में नींद नहीं आनी चाहिए। ये तो मरे, रात में दस घंटे सोते हैं और ठेठ सूरज उगे तब तक पड़े रहते हैं। अरे! यह संसार ऐसे सोने के लिए है? दूसरी ओर कुछ अभागों को नींद ही नहीं आती है। अमरीका में अस्सी प्रतिशत लोग नींद की गोलियाँ लेकर सोते हैं। मुए, मर जाएँगे। वह तो पोइजन है। यह तो भयंकर दर्द है। चंद्रमा तक पहुँच गए, मगर तुम्हारे देश में नींद की गोलियाँ खाना कम नहीं कर सके? खरी आवश्यकता इसकी है। नींद के बिना तुम्हारे देश के लोग
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परेशान हैं, उनका कुछ करो न? नींद तो एक कुदरती भेंट है, नैचुरल गिफ्ट, उसे भी तुमने खो दिया? तब इन दूसरे वैभवों का करना क्या है? नैचुरल नींद नहीं आती उसका कारण यह है कि जितना उनका आहार है, उतनी मेहनत नहीं है। थकें और नींद आए उतना आहार होना चाहिए। लेबर के अनुसार आहार का प्रमाण हो, तो नोर्मल नींद आती है। नींद की तो मारामारी ही हो गई है न? सब जगह हो गई है न? फ़ॉरेन में तो नींद ढूंढने पर भी नहीं मिलती है, इसलिए तो मैं उसकी नैचुरल दवाई की व्यवस्था में हूँ। हम सभी को नोर्मल जीवन जीना सिखाएँगे। नोर्मल खाना-पीना, नोर्मल सोना और नोर्मल मौज मनाना।
नींद कितनी होनी चाहिए? भगवान ने सोने के लिए तीन घंटे की छूट दे रखी है। यह संसार सोने के लिए नहीं है। ज्ञान मिलने के बाद बहुत नींद नहीं आए, तो अच्छा, इससे ज्ञाता-दृष्टा पद विशेष रहता है। हम पिछले बीस बरसों से डेढ़ घंटे से ज्यादा सोए नहीं हैं। ज्ञान जागृति में ही रातें गई हैं। नींद कितनी चाहिए? इस देह को उसके कार्य के बाद थकान उतारने जितनी ही और उतना समय पर्याप्त होता है।
गौतम स्वामी ने महावीर भगवान से पूछा कि सोता हुआ अच्छा या जागता अच्छा?'भगवान ने कहा कि एक हजार में से नौ सौ निन्यानवे मनुष्य इस संसार में सोते हुए ही अच्छे, पर एकाध परोपकारी जीव जागता हुआ भी अच्छा।
स्वप्न स्वप्न विज्ञान गहन है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक उसकी खोज में लगे हैं। इसमें कौन-सी देह कार्य करती है, अंत:करण उस समय क्या कार्य करता है आदि खोज रहे हैं। पर स्वप्न विज्ञान यों समझ में आए ऐसा नहीं है।
स्वप्न में स्थूल देह के सारे ही दरवाजे बंद होते हैं। सूक्ष्म देहमन, बुद्धि, और चित्त कार्य करते हैं। अहंकार कुछ नहीं कर सकता। यदि अहंकार कार्य कर रहा होता, तो मनुष्य सपने में भी उठकर
मारामारी करने लगता, उठकर चलने लगता। स्वप्न में हो रही सारी क्रियाएँ करने लगता, पर अहंकार की वहाँ एक नहीं चलती। जब कि जागृत अवस्था में उसे ऐसा भान होता है कि मैं कर सकता हूँ। वास्तव में किसी भी अवस्था में वह कुछ कर ही नहीं सकता है। पर जागृत अवस्था में सारी की सारी खिड़कियाँ खुली होती हैं, इसलिए भ्रांति से कर्ताभाव आ जाता है।
सपने गलत नहीं होते। सच्चे हैं, यथार्थ हैं, इफेक्टिव हैं, और यह साइन्टिफिक रूप से प्रमाणित हो सके, ऐसा है। स्वप्न में होनेवाले सूक्ष्म देह का असर स्थूल देह पर भी होता हैं। इसलिए वह इफेक्टिव है। ऐसा कैसे है, यह मैं आपको समझाता हूँ। स्वप्न में भिखारी को महाराजा होने का स्वप्न आए, तो पाव सेर खून बढ़ जाता है और स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए, तो उसका पाव सेर खून कम हो जाता है। जगते हुए उसे जितना दुःख हो सकता है, उतना ही दुःख उसे स्वप्न में भी होता है। मरा, रोता भी है। जागे, तब आँखों में पानी होता है। अरे! कई बार तो जागने के बाद भी उसका असर गया नहीं होता है, जिससे देर तक रोता रहता है। छोटे बच्चे भी स्वप्न के असर से डरकर जग जाते हैं, और कितनी ही देर तक रोते रहते हैं। भय के स्वप्न का देह पर असर होता है, उसके श्वासोच्छवास बढ़ जाते हैं, दिल की धड़कन भी बढ़ जाती है। ब्लड सर्कुलेशन वगैरह सभी बढ़ जाता है। ये सभी असर साइन्टिफिकली प्रमाणित किए जा सकें ऐसा है। यदि स्वप्न इतना इफेक्टिव है, तो उसे गलत कैसे कहें?
एक व्यक्ति मुझे मिला ही नहीं था, फिर भी उसने स्वप्न में मेरे एक्जेक्ट दर्शन किए थे। इसका हिसाब कैसे लगाना? कैसा कॉम्प्लेक्स है यह?
कोई भी वस्तु देखी न हो वह स्वप्न में आती ही नहीं है। किसी न किसी जन्म में देखा हो वही दिखता है। स्वप्न तो अनेक जन्मों की संकलना है। वह कोई नया नहीं है। कुछ कहते हैं कि दिन में जो विचार
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आते हैं, वे स्वप्न में आते हैं। अरे! दिन में तो तरह-तरह के असंख्य विचार आते हैं, तो क्या वे सभी स्वप्न में आते हैं? और क्या ऐसा नहीं होता कि कभी विचार तक आया न हो वह स्वप्न में आया हो?
स्वप्न में कारण देह और सूक्ष्म देह - दो ही देह कार्य करती हैं। स्थूल देह का उसमें कार्य नहीं होता है।
एक व्यक्ति को स्वप्न आया कि वह बीमार पड़ गया, डॉक्टर आए हैं, उन्होंने कहा कि नाड़ी नहीं चल रही है, मर गया है। मतलब खुद मर गया वैसा देखता है। शव को जलता हआ भी देखता है और घबराकर जाग जाता है (शव को जला दिया और मैं बच गया यह समझकर)।
स्वप्न में तो कुँवारे का विवाह होता है, अपने बच्चों को भी देखता है और फिर उसकी भी शादी करवाता है।
प्रश्नकर्ता : स्वप्न आने का कारण क्या है?
दादाश्री : संसार, जो दिखाई देता है, वह जागते कर्मों का फल है। सपने दिखाई देते हैं, वे भी पुण्य-पाप के उदय के अनुसार होते हैं, मगर सपने में उनका असर हलका होता है।
है, उसे उतना कम दिखाई देता है। आवरण जितना पतला होता है, उतना अधिक स्पष्ट दिखता है। कई कहते हैं कि हमें स्वप्न आते ही नहीं हैं। उन्हें भी स्वप्न आते हैं, मगर आवरण गाढ़ होने से याद नहीं रहते हैं।
एक आदमी मुझसे कहता है कि दादाजी. सपने में, मैं दो घंटे रोया। आप आए, और दर्शन करने पर सब शांत हो गया! हलका फूल जैसा हो गया! मैंने कहा, 'क्या कपड़े भीग गए थे?' आमने-सामने मिलने के बजाय ऐसे सपने में दादाजी आएँ, और उनसे माँगे, तो अपार मिलता है। सपने में आकर भी यह दादा सबकुछ कर सकें ऐसे हैं, पर माँगना आना चाहिए। हमारे कुछ महात्माओं को तो दादाजी रोज सपने में आते हैं। शास्त्र क्या कहते है?
'जेनुं स्वप्ने पण दर्शन थाय रे,
तेनुं मन न ज बीजे भामे रे।' जिनके सपने में भी दर्शन हो जाएँ रे,
उसका मन कहीं और नहीं जाए रे। यदि ज्ञानी पुरुष के स्वप्न में भी एकबार दर्शन हो जाएँ, तो तेरे मन की दूसरी भ्रमणाएँ छूट जाएंगी।
ज्ञानी क्या कहते हैं कि क्या दो देह का स्वप्न तुम्हें सच लगता है? नहीं। वैसे ही तीन देह का स्वप्न भी ज्ञानियों को सच नहीं लगता। वह तो भ्रांतिजन्य ज्ञान से लोग इस तीन देह के स्वप्न (संसार) को सच मान बैठे हैं।
प्रश्नकर्ता: क्या स्वप्न ग्रंथि है?
दादाश्री : स्वप्न जो हैं, वे सब ग्रंथियाँ ही हैं। स्वप्न दो देह का कर्म है। तीन देह से बंधा हुआ कर्म नहीं है वह। इसलिए दो देह से ही उसका वेदन किया जाता है।
प्रश्नकर्ता : स्वप्न में कर्म बंधते हैं क्या?
दादाश्री : नहीं, स्वप्न केवल कम्प्लीट इफेक्ट है। उसमें अहंकार नहीं होता, इसलिए कर्म नहीं बंधते हैं।
स्वप्न में कारण-देह और सूक्ष्म-देह का कार्य होता है। उसे देखनेवाला प्रतिष्ठित आत्मा होता है, और प्रतिष्ठित आत्मा को दरअसल देखनेवाला और जाननेवाला खुद 'शुद्धात्मा'। जिसे जितना आवरण होता
इन्द्रिय-प्रत्यक्ष यानी इन्द्रियों से देखा-जाना जा सके, वह। जो सपने नींद में दिखाई देते हैं, वे दो देह के हैं। जब कि ज्ञानी पुरुष को तो जागते हुए भी संसार तीन देह का स्वप्न ही लगता है।
स्वप्न में भिखारी राजा हो जाए, तो उसे कितनी मस्ती रहेगी? पर जागते ही, जैसे था वैसा का वैसा। उसी प्रकार, यह संसार भी एक सपना ही है। संसार स्वप्नवत् है। यहाँ से गए कि फिर जो था, वही
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का वही। सब यहाँ का यहाँ और वहाँ का वहाँ।
यह संसार खुली आँख का स्वप्न है और वह बंद आँख का स्वप्न है। दोनों ही इफेक्टिव हैं। जागते में इगोइज़म है, उतना ही अंतर है।
रात में कितने भी सपने आएँ, पर जागने पर मनुष्य को कोई असर नहीं रहता। क्योंकि वहाँ स्वप्न में दृष्टा के रूप में रहता है। इगोइजम कार्य नहीं करता। जब कि ज्ञानी पुरुष जागते हुए भी, समय-समय पर आती हुई अवस्थाओं के ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं। उन्हें नाम मात्र के लिए भी इगोइज्म नहीं होता। इसलिए जागते हुए भी उन्हें सपना ही लगता है। ज्ञानी पुरुष तो पूर्णतया ज्ञाता-दृष्टा ही होते हैं।
भय
सारे ब्रह्मांड का प्रत्येक जीव भय से त्रस्त होता है। भय प्रत्येक जीव मात्र को होता है पर उन्हें वह नोर्मेलिटी में होता है। उन्हें तो जब भय के संयोग आ मिलें, तभी भय लगता है। जब कि मनुष्यों में तो विपरीत भय घर कर गया है। विपरीत भय यानी एक ही भय आनेवाला हो, पर उसे सौ तरह के दिखते हैं, और जो भय नहीं आनेवाला वह भी दिखता है। उसे भी विपरीत भय कहते हैं। एक ही आदमी भोजन पर आनेवाला हो, और ऐसा लगता रहे कि सौ आनेवाले हैं, वह विपरीत भय।
भय कब लगता है? द्वेषपूर्वक त्याग में, तिरस्कार में निरंतर भय रहता है। पुलिसवालों का भय क्यों लगता है? वह पसंद नहीं इसलिए, उसका तिरस्कार है इसलिए। कोर्ट का भय क्यों लगता है? क्या कोर्ट किसी को खा गया? नहीं। वह तो उसके प्रति द्वेष है इसलिए। भय छिपा तिरस्कार माना जाता है। साँप के भीतर भगवान बिराजमान हैं, यह दिखाई नहीं दिया, इसलिए ही भय लगा न? साँप सरकमस्टेन्शियल एविडन्स से आता है। यदि सहज ही सामने मिले और मनुष्य में भय पैदा नहीं हो, तब साँप एक ओर होकर चला जाता है। हिसाब न हो, तो कुछ भी नहीं करता।
समसरण मार्ग-संसार मार्ग पूरा भ्रांतिवाला है, भयावह जैसा है। भयावह यानी क्या? रात सोने से पहले भत का भय बैठ गया हो या साँप का भय बैठ गया हो, तो सारी रात उसका भय रहता है. सो भी नहीं पाता। और सवेरे, यानी प्रकाश में जब वह भय नष्ट होता है, तो उसका डर जाता है। वैसा ही इस संसार में भी है।
भूत की भड़क में इतना ही रहता है कि उसे केवल भड़क रहा करती है कि मेरा क्या होगा? भय नहीं लगता, जब कि संसार में भय
और भड़क दोनों रहते हैं। भय रहता है, इसलिए अज्ञानता से उसके प्रति राग-द्वेष किया करता है, और उससे भड़क रहती है। भयवाले संयोगों को मारने के, प्रतिकार करने के प्रयत्नों में रहता है।
आत्मा की अज्ञानता से भय रहता है और संगी चेतना से भड़क रहती है। भड़क-फड़फड़ाहट वह संगी चेतना का गुण है। संगी चेतना का अर्थ आरोपित चेतना। विधि कर रहा हो या ध्यान कर रहा हो, और कोई बड़ा धमाका हो, तब शरीर ऑटोमेटिक हिल उठता है, वह संगी चेतना है।
जहाँ आपकी सत्ता नहीं है, वहाँ आप हाथ डालेंगे तो क्या होगा? कलेक्टर की सत्ता में क्लर्क हस्ताक्षर करे, तो? सारा दिन भय रहता है, क्योंकि परसत्ता में है इसलिए। संसार के मनुष्य भी निरंतर परसत्ता में ही रहते हैं। 'मैं चंदूलाल हूँ' वह परसत्ता। खुद की सत्ता तो देखी नहीं है, जानी नहीं है और परसत्ता में ही मुकाम किया है, इसलिए निरंतर भय, भय और भय ही लगा करता है।
सबकुछ सहज में मिले ऐसा है, पर भरोसा होना चाहिए। लोगों को ऐसा होता रहता है कि यह नहीं मिलेगा, तो? ऐसा नहीं होगा, तो? बस, यही विपरीत भय है।
बुद्धि किस लिए है? तब कहे, सभी को ठंडक पहुँचाने के लिए, न कि डराने के लिए। जो बुद्धि भय दिखलाए, वह विपरीत बुद्धि। उसे तो उठते ही दबा देनी चाहिए।
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अरे! तुझे यदि भय ही रखना है, तो मरने का भय रख न! प्रति क्षण यह संसार मरण के भयवाला है। उसका भय तुझे क्यों नहीं लगता? उसका भय लगे, तो मोक्ष का उपाय खोजने की सोचे। पर वहाँ तो जड़ समान हो गए हैं।
हिताहित का भान हिताहित का भान तो प्रत्येक को अपना स्वतंत्र होना ही चाहिए कि क्या करने से मैं सुखी और क्या करने से मैं दु:खी हो सकता हूँ। हिताहित का स्वतंत्र भान नहीं है, इसलिए नकल करने जाता है, मगर नकल किस की करनी चाहिए? अक्लवालों की। अक्लवाला तो एक भी दिखाई नहीं देता, फिर किस की नकल करेगा? जब तक 'मैं चंदूलाल हूँ' इस नकली भान में तू है, तब तक तू नकली है, असली नहीं हैं। असल की नकल की जा सकती है। नकली की नकल करने से क्या होनेवाला हैं? 'वास्तविक' समझ में आए, तब बात बने।
ज्ञान ही एक असली होता हैं, बाकी सभी नकली हैं। जिंदगी में कभी किसी की नकल करनी ही नहीं चाहिए। मगर आज तो सोते है, उसमें भी नकल, चलने में भी नकल, अरे! बैठने तक की भी नकल ही करते हैं न?
अर्थात् आत्मा तो कभी भी दगा देनेवाला है ही नहीं। व्यवहार अकेला ही दगाबाज है, और दगा है, इसलिए वहाँ पर बहुत सावधान रहिए और हिताहित का भान अवश्य रखिए। कोई खटमल मारने की दवाई नहीं पीता, ऐसी दवाई पीने का शौक तो होता होगा?
लाइफ एडजस्टमेन्ट्स प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ सिद्धांत तो होने ही चाहिए। फिर भी, ऐसा होते हुए भी संयोगानुसार बरतना चाहिए। संयोगों के साथ जो एडजस्ट होता है, उसीका नाम मनुष्य। 'एडजस्टमेन्ट' यदि प्रत्येक संयोगों में करना आया तो ठेठ मोक्ष तक पहुँच सकते हैं, ऐसा गज़ब का हथियार है। एडजस्टमेन्ट का मतलब यह कि आपके साथ जो जो डिस्एडजस्ट होने आए, उसके साथ आप एडजस्ट हो जाइए। दैनिक जीवन में यदि सास और बहू के बीच या देवरानी और जेठानी के बीच डिसएडजस्टमेन्ट होता हो, तो जिसे इस संसार के चक्कर से छटना है उसे एडजस्ट हो ही जाना चाहिए। पति-पत्नी में भी यदि एक तोड-तोड़ करता हो, तो दूसरे को जोड़ लेना चाहिए, तभी संबंध निभेगा और शांति रहेगी। जिसे एडजस्ट करना नहीं आता, उसे लोग मेन्टल कहते हैं। रिलेटिव सत्य में आग्रह या जिद की ज़रा भी आवश्यकता नहीं है। मनुष्य तो किसे कहते हैं? एवरीव्हेर एडजस्टेबल। चोर के साथ भी एडजस्ट हो जाना चाहिए। आज के मनुष्यों की दशा कोल्हू के बैल जैसी हो गई है, मगर जाएँ कहाँ? आ फँसे हैं, इसलिए कहाँ जाएँ?
एक बार हम नहाने गए, वहाँ मग्गा रखना ही रह गया था। हाथ डाला तो पानी बहुत गरम था, नल खोला तो टंकी खाली थी, अब क्या करते? यदि एडजस्ट नहीं कर पाए, तो हम ज्ञानी काहे के? हमने तो आहिस्ता-आहिस्ता हाथ से पानी लगा-लगाकर ठंडा करते हुए, नहा लिया। सब महात्मा कहने लगे, 'आज दादाजी ने नहाने में बड़ी देर लगाई?' हमने कहा, 'क्या करते? पानी ठंडा हो जाए तब नहाते न? हम किसी से यह लाइए और वह लाइए, नहीं कहते, एडजस्ट हो जाते हैं।'
सतयुग में, लोगों को व्यवहार के हिताहित का भान था। उस समय अनाचार नहीं थे। लोग सदाचारी थे। आज तो लगभग सभी जगह अनाचार है। इसलिए हिताहित का भान कैसे उत्पन्न हो? यह तो देखदेखकर विपरीत सीखे हैं। 'अपना' तो निकालकर कभी खर्च ही नहीं किया है।
जिसे 'खद' के हिताहित का भान बढ़ता जाए, उसकी वाणी अंश वीतरागी कहलाती है। वादी-प्रतिवादी दोनों कबूल करते हैं।
प्रतिक्षण 'स्वयं' के हिताहित का भान रहना चाहिए। 'स्वयं' कौन है उसका और व्यवहार के हिताहित, दोनों का ही भान रखना है। 'स्वयं'
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एडजस्ट होना ही धर्म है। इस दुनिया में तो प्लस-माइनस करके एडजस्टमेन्ट लेना होता है। माइनस हो वहाँ प्लस, और प्लस हो वहाँ माइनस कर लेना। यदि हमारे सयानेपन को भी कोई पागलपन कहे, तो हम कहेंगे, 'हाँ ठीक है।' इस प्रकार तुरंत ही माइनस कर देते हैं।
अक्लमंद कौन कहलाता है? किसी को जो दु:ख नहीं पहुँचाए वह, और यदि कोई उसे दु:ख पहुँचाए, उसे जमा कर ले। सभी को सारा दिन ऑब्लाइज करता रहे। सुबह उठते ही उसका लक्ष्य यही होता है कि मैं कैसे लोगों को हेल्पफुल हो सकूँ, ऐसा जिसे लगातार रहा करे, वही मानव कहलाता है। उसे फिर आगे चलकर मोक्ष की राह भी मिल जाती है।
टकराव 'किसी से टकराव में मत आना और टकराव टालना'। हमारे इस वाक्य का आराधन करें, तो ठेठ मोक्ष में पहुंचेंगे। आपकी भक्ति और हमारा वचनबल सारा काम कर देगा। आपकी तैयारी चाहिए।
हमारे एक ही वाक्य का यदि आराधन करेगा. तो ठेठ मोक्ष पाएगा। अरे, हमारा एक शब्द जैसा है वैसा, निगल जाए, तो भी मोक्ष हाथ में आ जाए ऐसा है, मगर उसे जैसा है वैसा ही निगल लेना। उसे चबाने या मसलने मत लग जाना। तेरी बुद्धि काम नहीं लगेगी. और वह उलटे घोटाला कर डालेगी।
हमारे एक शब्द का, एक दिन पालन करे, तो गज़ब की शक्ति उत्पन्न होगी! प्रभाव उत्पन्न होता ही जाएगा। अंदर इतनी सारी शक्तियाँ हैं कि चाहे जैसा टकराव आ पड़े, तो भी उसे टाला जा सकता है। जो जान-बूझकर खड्डे में पड़ना चाहता है, उसके साथ हम उलझें, तो वह हमें भी खाई में गिराएगा। हमें तो मोक्ष में जाना है या ऐसों के साथ झगड़ने यहीं बैठे रहना है? वे तो कभी मोक्ष में नहीं जाएंगे, पर तुझे भी अपने साथ बिठाकर रखेंगे। अरे! ऐसा कैसे पुसाएगा? यदि तुझे मोक्ष में ही जाना है, तो ऐसों के साथ बहुत अक्लमंदी दिखाने की जरूरत नहीं है कि भैया आपको लग गया क्या? हर ओर से, चारों ओर से संभालना,
वर्ना आप इस जंजाल से लाख छूटना चाहें, मगर संसार छूटने नहीं देगा। टकराव तो निरंतर आता ही रहेगा। उसमें से हमें ज़रा-सा भी घर्षण उत्पन्न किए बगैर बाहर निकल जाना है। अरे, हम तो यहाँ तक कहते हैं कि यदि तेरी धोती झाड़ी में फँस जाए और तेरी मोक्ष की गाड़ी चलने को हो, तो भाई, धोती छुड़वाने के लिए बैठा मत रहना, धोती-वोती छोड़कर दौड़ जाना। एक क्षण के लिए भी, किसी भी अवस्था से बंधकर रहने जैसा नहीं है। फिर और सभी की तो बात ही क्या करनी? जहाँ तू बंधा, उतना तू स्वरूप को भूला।
तू यदि भूले से भी किसी के टकराव में आ गया, तो उसका निपटारा कर देना। सहज रूप से उस टकराव में से घर्षण की चिंगारी उड़ाए बगैर निकल जाना।
इकॉनोमी इकॉनोमी (मितव्ययता) किसे कहते हैं? टाइट (हाथ तंग होना) हो तब टाइट और मंदी हो तब मंद। कभी भी उधार लेकर कार्य मत करना। उधार लेकर व्यापार कर सकते हैं पर मौज-मज़े नहीं कर सकते। कर्ज लेकर कब खाना चाहिए? जब मरने की नौबत आए, तब। मगर उधार लेकर घी नहीं पी सकते।
प्रश्नकर्ता : लोभी और कंजूस में क्या अंतर है?
दादाश्री : कंजूस केवल लक्ष्मी का ही होता है। लोभी तो हर तरफ से लोभ में होता है। मान का भी लोभ करता है और लक्ष्मी का भी लोभ करता है। यह लोभी को तो सारी दिशाओं का लोभ होता है, इसलिए सबकुछ खींचकर ले जाता है। चींटियाँ तो यदि किसी कीट-पतंगे का पँख हो, तो भी मिलकर खींच ले जाती हैं। लोभी का ध्येय क्या? जमा करना। पंद्रह साल चले, उतना चींटी जमा करती हैं। वह जमा करने में ही तन्मय रहती है। उसमें कोई बीच में आए, तो उसे काटकर खुद मर जाती है। चींटी सारी जिंदगी बिल में जमा करती है और चूहेभाई, मुफ्त का खानेवाला, एक ही मिनट में सब खा जाता है।
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प्रश्नकर्ता : दादाजी, कंजूसी और किफ़ायत में कोई अंतर है क्या?
दादाश्री : हाँ, बड़ा अंतर है। महीने के हज़ार रुपये कमाता हो, तो आठ सौ रुपये का खर्चा रखना और पाँच सौ आते हों, तो चार सौ का खर्च रखना, उसे कहते हैं किफ़ायती। जब कि कंजूस चार सौ के चार सौ ही खर्च करता है, फिर चाहे हज़ार आएँ या दो हजार आएँ। वह टैक्सी में नहीं जाता। मितव्ययता तो इकोनोमिक्स (अर्थशास्त्र) है। वह तो भविष्य की मुश्किलों को ध्यान में रखता है। कंजूस मनुष्य को देखकर दूसरों को चिढ़ होती है कि कंजूस है। मितव्ययी मनुष्य को देखकर चिढ़ नहीं होती। यद्यपि मितव्ययी और कंजूस दोनों रिलेटिव है। उड़ाऊ मनुष्य को मितव्ययी अच्छा नहीं लगता। यह सारा बवाल, संसार में भ्रांति की भाषा में है कि फ़िजूल खर्च नहीं होना चाहिए। पर मितव्ययी मनुष्य को चाहे जितना समझाएँ, फिर भी वह उसे छोड़ता नहीं है। और फ़िजूलखर्ची मनुष्य किफायत करने जाए, तो भी फ़िजूलखर्ची ही रहता है। फ़िजूलखर्ची या कंजूसी, यह सब सहज स्वभाव से है। चाहे जो करें पर उसमें बदलाव नहीं आता। सारे प्राकृत गुण सब सहज भाव से हैं। अंत में तो सभी में नोर्मेलिटी चाहिए।
हमारी जेब में ये भाई पैसे रखते हैं, वे तो टैक्सी या गाड़ी में ही खर्च होते हैं। खर्च नहीं करना, ऐसा भी नहीं है और खर्च करना है, ऐसा भी नहीं है। ऐसा कुछ भी तय नहीं है। धन उड़ाने के लिए नहीं होता। जैसे संयोग आएँ, उस अनुसार खर्च होता है।
ये दादाजी कँजूस हैं, मितव्ययी हैं और फ़िजूलखर्च भी हैं। पक्के फ़िजूलखर्च, फिर भी कम्प्लीट एडजस्टेबल हैं। दूसरों के लिए फ़िजूलखर्च और खुद के लिए मितव्ययी और उपदेश देने में कंजूस। इसलिए सामनेवाले को हमारा निपुण संचालन दिखाई देता है। हमारी इकॉनोमी एडजस्टेबल होती है, टॉपमोस्ट होती है। वैसे तो पानी का उपयोग करते हैं, वह भी, किफ़ायत से, एडजस्टमेन्ट लेकर उपयोग करते हैं। हमारे प्राकृत गुण सहज भाव से रहे होते हैं।
विषय विषय को लेकर संसार में भारी नासमझी चल रही है। शास्त्र कहते हैं कि विषय विष है। कितने ही लोगों का भी कहना है कि विषय विष है, और वह मोक्ष में नहीं जाने देता। हम अकेले ही कहते हैं कि विषय विष नहीं है, पर विषय में निडरता विष है। इसलिए विषय से डरो। इन सारे विषयों में निडरता रखना ही विष है। निडर कब रहना चाहिए कि दो-तीन साँप आ रहे हों, उस समय आपके पैर नीचे हों, और यदि आपको डर नहीं लगता हो, तो पैर नीचे रखना और यदि डर लगता हो. तो पैर ऊपर कर लेना। मगर यदि आपको डर नहीं लगता हो और पैर ऊपर ही नहीं लेते हो, तो वह पूर्णज्ञानी, केवलज्ञानी की निशानी है। मगर जब तक पूर्ण नहीं हुए, तब तक आप खुद ही मारे डर के पैर ऊपर कर लेते हैं। इसलिए हम आपको विषयों में निडर रहने के लिए एक थर्मामीटर देते हैं। 'यदि साँप के सामने त् निडर रह सकता हो, तो विषय में निडर रहना और वहाँ यदि डर लगता हो, पैर ऊपर कर लेता हो. तो विषयों से भी डरते रहना।' विषयों में निडर हो ही नहीं सकते। भगवान महावीर भी विषयों से डरा करते थे और हम भी डरते हैं। विषयों में निडरता अर्थात् असावधानी।
संसार कहता है कि विषय मोक्ष में जाने नहीं देते। अरे! ऐसा नहीं है, 'विषय' तो अंग्रेजी में 'सब्जेक्ट' कहलाता है। इस संसार में अनंत सब्जेक्ट्स हैं। यदि विषय ही मोक्ष में जाने में बाधक होते, तो कोई मोक्ष में जा ही नहीं पाया होता। पर भगवान महावीर मोक्ष में गए, और उन्हें विषय बाधक नहीं हुए, तो आपको ही क्यों बाधक होते हैं? विषय बाधा नहीं करते, आपका आडापन ही आपको मोक्ष में जाने में बाधा करता है। अनंत विषयों में भगवान निर्विषयी रहकर मोक्ष में गए!
वास्तव में आत्मा खुद निर्विषयी है। मन-वचन-काया विषयी हैं। वे जो अलग हो जाएँ, तो मन-वचन-काया के अनंत विषयों में खुद 'शुद्धात्मा' निर्विषयी रहकर मोक्ष में जा सकता है।
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से याद नहीं आए मतलब उसका निपटारा हो गया और फिर से याद आया, उसका मतलब तन्मय हो गया, इसलिए वह विषय है। विषय के कितने प्रकार? अनंत प्रकार। गुलाब का फूल पसंद हो, तब बगीचे में देखा कि दौड़भाग करता है, वह विषय। जिसे जो याद आए वह विषय। हीरे याद आते रहें, तो वह विषय और लाने के बाद याद आने बंद हो जाएँ, तो समभाव से निपटारा हो जाए। पर यदि फिर से कभी भी याद आए, तो निपटारा नहीं हुआ, इसलिए विषय ही कहलाएगा।
इच्छा होना स्वभाविक है, पर इच्छा करते रहना अवरोधक है, नुकसानदायक है।
स्त्रियाँ साड़ी देखती हैं और उसे बार-बार याद करती रहती हैं, वह उनका विषय कहलाता है। जहाँ विषय संबंध, वहाँ तकरार होती है।
आत्मा खुद निर्विषयी, तो वह विषयों को कैसे भोगेगा? यदि वह विषयों को भोगे, तो कभी भी मोक्ष में नहीं जा सकेगा। क्योंकि तब वह उसका अन्वय (हमेशा साथ रहनेवाला) गुण हो गया कहलाएगा। कम्पाउन्ड स्वरूप हो गया कहलाएगा। वह तो सिद्धांत के विरुद्ध कहलाएगा, विरोधाभास कहलाएगा। आत्मा कभी भी कोई विषय भोग नहीं सकता। मात्र भोगने की भ्रांति से अहंकार करता है कि मैंने भोगा, बस, इसी से ही अटका हुआ है। यदि यह भ्रांति टूटे, तो खुद अनंत विषयों में भी निर्विषयी पद में रह सकता है।
विषय किसे कहते हैं? जिस-जिस बारे में मन प्रफुल्लित होता है वह विषय कहलाता है। मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार जिस-जिस में तन्मयाकार होते हैं, वे विषय हैं। जहाँ एकाकार होते हैं, वे विषय हैं। विषयों के विचार आना स्वाभाविक है। ऐसा होना परमाणु का गलन है। पहले किए गए पूरण का ही गलन है। पर उसमें तू तन्मयाकार हुआ, उसमें तुझे अच्छा लगा, वह विषय है, जो नुकसानदेह है। विषय किसे कहते हैं? बिगिनिंग में (शुरू में) भी अच्छा लगे और एन्ड में भी अच्छा लगे, उसका नाम विषय। विषय कोई वस्तु नहीं है, पर वह तो परमाणु का फोर्स है। जिन-जिन परमाणुओं को तूने अत्यंत भाव से खींचे हैं, उनका गलन होते समय तू फिर से उतना ही तन्मयाकार होता है, वही विषय है। फिर चाहे कोई भी सब्जेक्ट हो, कोई इतिहास का विषय लेकर, उसका विषयी बनता है, कोई भूगोल का विषयी होता है, उसमें ही लीन रहता है। वे सभी विषय हैं। वैसे ही जिसने तप का विषय लिया. त्याग का विषय लिया और उसमें ही तन्मयाकार रहे. वह भी विषय है। अरे! विषयों को लेकर विषयी बनकर मोक्ष कैसे होगा? निर्विषयी बन, तब मोक्ष होगा।
जो बार-बार याद आता रहे, वह विषय है। पकौड़े या दहीबड़े खाने में हर्ज नहीं है, पर यदि आपने उसे बार-बार याद किया कि किसी दिन ऐसे फिर बनाना, ऐसा कहा तो वह विषय है। सिनेमा देखा और उसमें से कुछ भी याद नहीं आया, तो वह विषय नहीं कहलाता। फिर
मोक्ष में जाने का हो तब सामने से ढेरों विषय की आकर पड़ते हैं। यह 'दादा भगवान' का मोक्षमार्ग अनंत विषयों में निर्विषयी पद सहित का मोक्षमार्ग है।
विषयों की आराधना करने जैसा नहीं है, और उनसे डरने जैसा भी नहीं है, उनसे चिढ़ने जैसा भी नहीं है। हाँ, साँप के सामने तू कैसे सावधान होकर चलता है, वैसे विषयों से सावधान रहना, निडर मत होना।
जब तक आत्मज्ञान प्रकट नहीं होता, तब तक विषय किसी को भी छोड़ते नहीं हैं, क्योंकि तब तक कर्त्ताभाव, अहंकार जाता ही नहीं।
वीतरागता जिसका सब्जेक्ट होता है, वह वीतराग को समझ सकता है, पर कषाय जिसका सब्जेक्ट है, वह वीतराग को कैसे समझ सकता है? ज्ञान नहीं हो और यदि एक जन्म के लिए विषय का व्हीलकॉक बंद कर दे, फिर भी दूसरे जन्म में खुल जाता है। बिना ज्ञान के विषय छूटता ही नहीं है।
विषय की आराधना का फल विषय ही मिलता है। ग्रहण की आराधना का फल त्याग मिलता है और त्याग की आराधना का फल ग्रहण
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मिलता है। त्याग का प्रतिपक्षी ग्रहण है। जहाँ प्रतिपक्षी हैं, वे सभी विषय हैं।
भगवान कहते हैं कि जो कंट्रोल में नहीं हैं वे विषय हैं। 'मैं विषय भोगता हूँ' ऐसा अहंकार करता है। यदि तू विषय भोग रहा होता, तो तुझे संतोष होना चाहिए, परंतु ऐसा नहीं है। 'विषय' को भोगता नहीं है। वह तो परमाणु का हिसाब है। प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय में निपुण है, पर दूसरे विषय में निपुण नहीं है। नाक को जलेबी चखाएँ, तो मीठी लगेगी क्या? परमाणुओं का जो हिसाब हो, वह चुकता हो, वह विषय नहीं है, मगर उसमें तन्मयता, वही विषय है। उसमें इन्द्रियों का भी कोई रोल (भूमिका) ही नहीं है। वे तो मात्र कन्वे ( सूचित) करती हैं। इसलिए ही हम कहते हैं कि इन्द्रियों के विषय जीतनेवाला जितेन्द्रिय (जिन) नहीं है परंतु जिसकी दृष्टि दृष्टा में पड़ गई, जिसका ज्ञान ज्ञाता में आ गया, वह जितेन्द्रिय (जिन) है। भगवान महावीर का भी यही कहना था ।
विषय की शुरूआत क्या है? मोहभाव से स्त्री को देखना, मूर्छित भाव से देखना, वह । पर क्या प्रत्येक स्त्री को मूर्छितभाव से देखा जाता है? एक को देखकर विचार आते हैं, मगर दूसरी को देखें, तो विचार नहीं आते, मतलब देअर इज समथिंग रोंग (कहीं कुछ गलत है)। यदि स्त्री को देखते ही ज़हर चढ़ता होता तो प्रत्येक स्त्री को देखते ही ज़हर चढ़ना चाहिए, मगर ऐसा नहीं है। वह तो कुछ ही परमाणुओं से परमाणु का आकर्षण होता है। जब तक विषय का एक भी परमाणु शेष होगा, तब तक स्याद्वाद वाणी नहीं निकलेगी।
जानवरों को जिन विषयों की इच्छा ही नहीं है उसकी इच्छा मनुष्य निरंतर करते हैं। विषय यदि विषय ही होते, तो एक जगह दो स्त्रियाँ बैठी हैं, एक माँ है और एक पत्नी है, वहाँ माँ पर विषय भाव नहीं होता? क्योंकि विषय, विषय है ही नहीं । भ्रांति ही विषय है। इन विषयों को अगर बंद करना चाहो, तो उसका उपाय बतलाऊँ । ये विषय एक ऑटोमेटिक कैमरा है, उसमें फिल्म उतरने मत देना। 'शुद्धात्मा' की ही फोटो उतार लेना । बाकी विषय तो वस्तु ही नहीं है। इसमें तो अच्छे
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अच्छे ब्रह्मचारियों का भी दिमाग चकरा जाता है कि यह है क्या? जो जिसमें ओतप्रोत रहे, वही विषय । मतलब, आगे से भी अंधा और पीछे से भी अंधा, और कुछ दिखाई ही नहीं देता, वह मोहांध कहलाता है।
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विषय की याचना करना जिसे मरने जैसा लगे, वह इस संसार को जीत सकता है। ऐसा जीवन सबसे उत्तम, सम्मानपूर्ण है।
रोगी देह अधिक विषयी होता है। निरोगी को स्थिरता अधिक होती
है ।
विषयों से रोग नहीं होते, पर विषयों में लोभ होता है, तब ही रोग प्रवेश करते हैं। लोग विषयों को चकमा देते हैं। अरे! विषयों को क्यों चकमा देते हो? विषय में जो लोभ हैं, उसे चकमा दो न? विषय बाधक नहीं है, पर विषयों में लोभ बाधक होता है। रसोई में कहेगा कि मुझे मिर्च के बिना नहीं चलेगा, इस चीज़ के बिना नहीं चलेगा, इतना तो चाहिए ही, यही लोभ है। इसीलिए विषय है और इसी कारण से रोग हैं। क्रोध - मान-माया लोभ ही रोग करनेवाले हैं।
दुःख के कारण ही लोग विषय भोगते हैं, पर यदि विचार करें, तो विषय निकल सके, ऐसा है। यदि इस देह पर से चमड़ी निकाल दी जाए, तो राग होगा क्या? चमड़ी की यह चद्दर ही ढँकी हुई है न! और पेट तो मलपेटी है, चीरने पर मल ही निकलेगा। हाथ पर से चमड़ी निकल गई हो और पीप निकलता हो, तो छूना अच्छा लगेगा क्या? नहीं छूते। यह सब अविचार के कारण ही है। मोह तो पागलपन है। अविचार दशा के कारण मोह है। मोह तो निरी जलन ही है।
आप मीठा खाकर ऊपर चाय पीएँ, तो फीकी लगेगी न? चाय पर अन्याय नहीं करते? चाय तो मीठी है, पर फीकी क्यों लगती है? क्योंकि उसके पहले मीठा चखा है। वैसे ही हम भी अनुपम मिठासवाला ज्ञान देते हैं। उसके बाद आप को संसार के सारे विषयी सुख मीठे होने पर भी फीके लगेंगे। लोगों का अनुभव है कि सर्दी का बुखार, मलेरिया वगैरह हो, तो खीर कड़वी लगती है। क्यों? क्योंकि उसका मुँह कड़वा
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है, इसलिए कड़वा लगता है। उसमें खीर का क्या दोष? वैसे ही हमारे द्वारा दिए हुए 'अक्रम ज्ञान' से ज्यों-ज्यों बुखार कम होगा, तब सारे संसार के विषय नीरस होते अनुभव में आएँगे। विषयों का नीरस होते जाना थर्मामीटर है। खुद के बुखार का तो पता चलता है न?
'क्रमिक मार्ग' में भी विषय नीरस लगते हैं, पर वे अहंकार के कारण लेकर नीरस लगते हैं, मगर वे फिर सामने आएँगे। पर हमारे 'अक्रम मार्ग' में ऐसा झमेला ही नहीं न? हम तो विषयों के सागर में निर्विषयी हैं। निर्विषयी अर्थात् जलकमलवत् । हमने तो इस देह का स्वामित्व छोड़ दिया है, इसलिए हमें तो न कुछ छूता है न ही कुछ बाधक होता है। हममें तो स्वामित्व का अभाव है। हमारे महात्माओं का मालिकीपन भी हमने ले लिया है, और इसलिए वे जलकमलवत् रह पाते हैं। कल्पना से चित्रित करता है पुद्गल, पर उसमें आप 'खुद' तन्मयाकार हुए, तो आप हस्ताक्षर कर देते हैं। यदि तन्मयाकार नहीं हो और मात्र देखे और जाने, तो वह मुक्त ही हैं।
मुझे किसी ने पूछा कि यह ऐसा कोट क्यों पहना है? मैंने कहा, 'यह हमारा निर्विषयी विषय है।'
विषय के दो प्रकार हैं, एक विषयी विषय और दूसरा निर्विषयी विषय । जिस विषय में ध्यान नहीं होता, बिलकुल लक्ष्य ही नहीं होता, वह निर्विषयी विषय है।
जिसका जिस विषय में ध्यान होता है, वह उसमें बहुत ही चौकन्ना होता है । उसमें वह विशेष होता ही है। लोग अपने-अपने विषय में ही मस्त होते हैं, और वहीं पर वे बुद्ध जैसे दिखाई देते हैं, क्योंकि उसीमें ही तन्मयाकार हुए हैं। आत्मा निर्विषयी है। सारा जगत् विषयों से भरा हुआ है, उनमें से जिसे जो विषय भाया उसकी ही आराधना करने लगे हैं। जैसे कि तपस्वियों ने तप का विषय पसंद किया । त्यागी त्याग के विषय, व्याख्यानकार व्याख्यान के और संसारी, सभी संसार के विषयों की आराधना करने में लगे हैं, और फिर कहते
आप्तवाणी - १
हैं कि हम पुरुषार्थ करते हैं। ज्ञानी से पूछ तो सही कि पुरुषार्थ है कि क्या है? लोग अनिवार्य को ऐच्छिक मान बैठे हैं। आराधना विषयों की करते हैं और खोजते हैं निर्विषयी (आत्मा) को। अरे! इसका कभी अंत नहीं आएगा। अतः जो कुछ किया और उसमें अहंकार किया, तन्मय हुआ, एबव नोर्मल हुआ, वे सभी विषय हैं। ऐसा सच्चा ज्ञान किसी की समझ में आता नहीं है इसलिए उलटी राह चल पड़े हैं। उसमें उनका भी दोष नहीं है। यह तो जैसा है वैसा कहना पड़ता है, और वह भी अत्यंत करुणावश यह वाणी निकलती है। वर्ना हमें, ज्ञानी पुरुष को ऐसे कड़वे शब्दों का उपयोग करना होता है? पर क्या हो ? इस विचित्र काल के कारण सच्चा मार्ग मिलता नहीं है। वह दिखलाने के लिए ऐसी कड़क वाणी निकलती है। बाकी, ज्ञानी पुरुष तो करुणा के सागर होते हैं।
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विषय का आह्वान करने जैसा नहीं है। पुलिसवाला पकड़कर ले जाए और दो दिन भूखा रखकर, डंडे मारकर, जबरदस्ती माँस खिला दे, वैसा विषय के लिए रहना चाहिए और तभी गुनहगारी सहेतुक नहीं है। बरबस होने पर ही विषय होने चाहिए। विषय-अविषय दोनों परसत्ता हैं। जान-बूझकर पुलिसवाले के साथ जाने की इच्छा होती है? नहीं होती। जबरदस्ती के विषय, असल में विषय नहीं है। यह तो भगवान का न्याय
है । शरीर ने विषय भोगा, तो वह मुक्त हुआ और मन विषय भोगे, तो बीज पड़ता है। अवस्थित हुआ, तो व्यवस्थित होगा ही। विषयों अपार जलन जगत् में चल रही है। अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनकर, दूसरों के लिए (विषय) बीज डालने के निमित्त बनोगे, तो भी पेमेन्ट करना पड़ेगा। विषय का पृथक्करण बुद्धि से करके सोचें, तो भी गंदगी लगेगी। जहाँ फिसले, वही विषय ।
अचेतन के साथ का विषय अच्छा, मगर मिश्रचेतन के साथ का गलत है। आप छूटना चाहें, तब भी, सामनेवाला मिश्रचेतन रागी-द्वेषी होने के कारण आपको झट से छूटने नहीं देता। जब कि अचेतन तो वीतराग ही है। आपने छोड़ा कि छूट गया। आप छोड़ें उतनी ही देर ।
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
आयुष्य की पूँजी श्वासोच्छवास के काउन्ट (गिनती) पर आधारित है। जहाँ ज्यादा श्वासोच्छवास चलें, वहाँ आयुष्य की पूँजी खर्च होती जाती है। क्रोध-मान-माया-लोभ-मोह-कपट में श्वासोच्छवास अधिक खर्च हो जाते हैं और दैहिक विषयों में पढ़ें, तब तो भयंकर रूप से खर्च हो जाते हैं। इसलिए ही संसारी मनुष्यों को कहता हूँ कि और कुछ नहीं बन पाए, तो मत करना पर लक्ष्मी और वीर्य की इकॉनोमी अवश्य करना। ये दोनों चीजें संसार व्यवहार के मुख्य स्तंभ हैं। शराब को खराब कहा है, क्योंकि वह विषय की ओर ले जाती है।
करोड़ों जन्मों में भी पार नहीं आए, उतने अनंत विषय हैं। उनमें पड़कर उन सभी विषयों को भोगते हए भी हमने हमारे महात्माओं को निर्विषयी बनाया हैं!
लोग विषय के लिए नहीं जीते हैं, पर विषय के अहंकार के पोषण के लिए जीते हैं।
जिन-जिन विषयों का अहंकार लाए हैं, उनके परमाणु देह में हैं। हमने हमारे महात्माओं के विषय के अहंकार को निकाल दिया है, फिर भी पहले के परमाणु भरे हुए हैं, जो फल देकर चले जाएंगे। जिन विषयों का अहंकार भरा हुआ है, वे विषय सामने आएंगे। जिन-जिन विषयों का अहंकार निर्मूल हुआ है, वे विषय नहीं आएंगे। जब बाह्य अहंकार पूर्णतया निर्मूल होगा, और परमाणु फल देकर विदा होंगे, तब देह चली जाएगी। प्रत्येक परमाणु का समभाव से निपटारा होगा, तब इस देह का भी मोक्ष होगा। संसार के रिलेटिव धर्म अबंध को बंध मानते हैं, और जिससे उन्हें बंध होता है उसका उन्हें भान ही नहीं है। यह सूक्ष्म वाक्य है, इसे समझना मुश्किल है। सारा संसार विषयों के ज्ञान को जानता है। जिस विषय की पढ़ाई की उसीके ज्ञान को जानता है। अरे! जिस विषय की पढ़ाई की उसीका विषयी हुआ। रिलेटिव धर्म में तो पाँच ही विषय बताए हैं. पर विषय तो अनंत हैं। एनोर्मल यानी कि एबव नोर्मल या बिलो नोर्मल हुआ तो विषयी हुआ। विषयी हुआ, अतः 'जगत्ज्ञान' में पड़ा, ऐसा कहलाता है। वहाँ 'आत्मज्ञान' नहीं होता।
प्रेम और आसक्ति 'घड़ी चढ़े घड़ी उतरे वह तो प्रेम ना होय,
अघट प्रेम हृदे बसे, प्रेम कहिए सोय।' सच्चा प्रेम किसे कहते हैं? जो कभी बढ़ता भी नहीं है और घटता भी नहीं है। निरंतर एक समान, एक-सा ही रहे, वही सच्चा प्रेम। 'शुद्ध प्रेम, वही प्रकट परमेश्वर प्रेम है।'
बाकी जो प्रेम घटता-बढ़ता रहे, वह प्रेम नहीं कहलाता, आसक्ति कहलाता है।
ज्ञानी का प्रेम शुद्ध प्रेम है। ऐसा प्रेम कहीं देखने को नहीं मिलेगा। दुनिया में आप जहाँ कहीं देखते हैं, वह सारा प्रेम अवसरवादी प्रेम है।
औरत-मर्द का, माँ-बाप का, बाप-बेटे का, माँ-बेटे का, सेठ-नौकर का। हर एक का प्रेम अवसरवादी होता है। अवसरवादी है, ऐसा कब समझ में आता है कि जब प्रेम फ्रेक्चर होता है। जब तक मिठास लगे, तब तक कुछ नहीं लगता, पर कड़वाहट पैदा हो तब पता चलता है। अरे, सारी जिंदगी बाप के कहने में रहा हो और एक ही बार गुस्से में संयोगवश यदि बाप को बेटे ने 'आप कमअक़ल हैं' कह दिया, तो सारी जिंदगी के लिए संबंध टूट जाएगा। बाप कहेगा, 'त् मेरा बेटा नहीं और मैं तेरा बाप नहीं।' यदि सच्चा प्रेम हो, तो वह हमेशा के लिए वैसा का वैसा ही रहेगा, फिर चाहे गालियाँ दे या झगड़ा करे। इसके सिवाय तो जो प्रेम रहा वह सच्चा प्रेम कैसे कहलाएगा? अवसरवादी प्रेम ही आसक्ति कहलाता है। वह तो व्यापारी और ग्राहक जैसा प्रेम है, सौदेबाजी है। संसारी प्रेम तो आसिक्त है। प्रेम तो वह कि साथ ही साथ रहना अच्छा लगे। उसकी सारी बातें अच्छी लगें। उसमें एक्शन और रिएक्शन नहीं होते। शुद्ध प्रेम ही परमात्मा है। प्रेम प्रवाह तो एक-सा ही बहता है। वह घटता-बढ़ता नहीं है, पूरण-गलन नहीं होता। आसक्ति पूरण-गलन स्वभाव की होती है।
जहाँ सो गया वहीं का आग्रह हो जाता है। चटाई पर सोता हो,
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
दुतकारने से ही संसार खड़ा है।
आसक्ति तो देह का गुण है, परमाणुओं का गुण है। वह कैसा है? चुंबक और लोहे जैसा संबंध है। देह को अनुकूल हो ऐसे परमाणु में देह खिंचती है, वह आसक्ति है।
आसक्ति तो एबव नोर्मल और बीलो नोर्मल भी हो सकती है। प्रेम नोर्मालिटी में होता है, एक समान ही रहता हैं, उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन होता ही नहीं है। आसक्ति तो जड़ की आसक्ति है। चेतन की तो नाम मात्र की भी नहीं है।
तो उसका आग्रह हो जाता है, और डनलप के गद्दे पर सोता हो, तो उसका आग्रह हो जाता है। चटाई पर सोने के आग्रही को यदि गद्दे पर सुलाएँ, तो उसे नींद नहीं आती। आग्रह ही विष है, और निराग्रह ही अमृत है। जब तक निराग्रहता उत्पन्न नहीं होती, तब तक संसार का प्रेम संपादन नहीं होता। शुद्ध प्रेम निराग्रहता से प्रकट होता है, और शुद्ध प्रेम ही परमेश्वर है।
बिना पहचान का प्रेम नाशवंत है, और आज जितनी पहचान है वह सब प्राकृत हैं। प्राकृत गुणों को लेकर जो प्रेम होता है, ऐसे प्रेम को क्या करना है?
शुद्ध प्रेम से सारे दरवाजे खुलते हैं। गुरु के साथ के प्रेम से क्या नहीं मिलता?
मनुष्य तो सुंदर हों, तब भी अहंकार से बदसूरत दिखाई देते हैं। सुंदर कब दिखेंगे? तब कहे, प्रेमात्मा हो तब। तब तो बदसूरत भी खूबसूरत दिखाई देते हैं। शुद्ध प्रेम प्रकट हो, तब ही खुबसूरत दिखने लगते हैं। संसार के लोगों को क्या चाहिए? मुक्त प्रेम, जिसमें स्वार्थ की गंध या किसी प्रकार की अवसरवादिता नहीं हो।
संसार में इन झगड़ों के कारण ही आसक्ति होती है। इस संसार में झगड़ा तो आसक्ति का विटामिन है। झगड़ा नहीं हो, तो वीतराग हो सकते हैं।
भगवान कहते हैं कि द्वेष परिषह उपकारी है। प्रेम परिषह कभी नहीं छूटता। सारा संसार प्रेम परिषह में फँसा है। इसलिए हर किसी को दूर से ही 'जय श्री कृष्ण' कहकर उनसे छूट जाना। किसी के लिए प्रेम मत रखना और किसी के प्रेम में फँसना नहीं। प्रेम को दुतकारकर भी मोक्ष में नहीं जा सकते, इसलिए सावधान रहना। मोक्ष में जाना हो, तो विरोधियों का तो उपकार मानना। प्रेम करते हैं, वे ही बंधन में डालते हैं, जब कि विरोधी उपकारी, हैल्पिंग हो जाते हैं। जिसने हम पर प्रेम उंडेला है, उसे दुःख न लगे, ऐसा करके छूट जाना, क्योंकि प्रेम को
व्यवहार में अभेदता रहे, उसका भी कारण होता है। वह तो परमाणु और आसक्ति के गुण हैं, पर उसमें किस क्षण क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। जब तक परमाणु मेल खाते हों तब तक आकर्षण रहता है, इसलिए अभेदता रहती है। परमाणु मेल नहीं खाते. तब विकर्षण होता है. और बैर होता है। अतः जहाँ आसक्ति होगी, वहाँ बैर होगा ही। आसक्ति में हिताहित का भान नहीं होता। प्रेम में संपूर्ण हिताहित का भान होता है।
यह तो परमाणुओं का साइन्स है। उसमें आत्मा को कोई लेनादेना नहीं है। पर लोग तो भ्रांति से परमाणु के खिंचाव को मानते हैं कि मैं खिंच गया। आत्मा खिंचता ही नहीं। आत्मा जिस-जिस में तन्मयाकार नहीं होता, उसका उसे त्याग बरतता है, ऐसा कहते हैं।
कर्तृत्व का अभिमान ही आसक्ति है। हमें तो देह की आसक्ति और आत्मा की अनासक्ति होती है।
नैचुरल लॉ - भुगते उसीकी भूल इस संसार के न्यायाधीश तो जगह-जगह होते हैं, पर कर्म जगत् के कुदरती न्यायाधीश तो एक ही हैं, 'भुगते उसीकी भूल'। यह एक ही न्याय है, उसीसे सारा संसार चल रहा है और भ्रांति के न्याय से संसार पूरा खड़ा है।
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
एक आदमी की जेब कटी। इस पर भ्रांति का न्याय क्या करता है कि जिसकी जेब कटी हो उसे आश्वासन देने निकल पड़ता है। अरर, बेचारे पर दु:ख आ पड़ा। ऐसा करके खुद भी दु:खी होता है और चोर पर सैंकड़ों गालियाँ बरसाता है। जब कि कुदरती न्याय, असल न्याय क्या कहता है? 'अरे, पकड़ो, पकड़ो इसे, जिसकी जेब कटी है उसे पकड़ो!' चोर और साहूकार, उन दोनों में से इस समय भुगता किस ने? 'जिसने भुगता, उसकी भूल।' जेब काटनेवाला तो जब पकड़ा जाएगा तब चोर कहलाएगा। अभी तो वह मज़े से होटल में चाय-नाश्ता कर रहा है न? वह तो जब पकड़ा जाएगा तब भुगतेगा। पर अभी कौन भुगत रहा है? जिसकी जेब कटी है वह। इसलिए कुदरती न्याय कहता है कि भूल इसकी। पहले इसने भूल की थी, उसका फल आज आया और इसलिए ही वह लुट गया और इसीलिए वह आज भुगत रहा है।
नैचुरल कोर्ट में जो लॉ चल रहा है - नैचुरल लॉ, वही हम आज यहाँ खुल्लम-खुल्ला बता रहे हैं कि भुगते उसकी भूल।
खुद की भूल की मार खा रहे हैं। पत्थर फेंका उसकी भूल नहीं, जो भुगते, जिसे लगा, उसकी भूल। आप के आस-पास के बाल-बच्चों की चाहे जितनी भूलें या अपकृत्य हों, पर आपको उसका असर नहीं होता, तो आपकी भूल नहीं है, और यदि आप पर असर होता है, तो वह आपकी ही भूल है, ऐसा निश्चित रूप से समझ लेना।
जिसका दोष अधिक है, वही इस संसार में मार खाता है। मार कौन खा रहा है? यह देख लेना। जो मार खाता है वही दोषी है।
जो कड़वाहट भुगते वही कर्ता। कर्ता ही विकल्प है।
कोई मशीनरी खुद की ही बनाई हुई हो, जिसमें गियर व्हील होते हैं, उसमें खुद की उँगली फँस जाए, तो उस मशीन से आप लाख कहें कि भैया, मेरी उँगली है, मैंने तुझे खुद बनाया है न? तो क्या गियर व्हील उँगली छोड़ देगा? नहीं छोड़ेगा। वह तो आपको समझा जाता है कि भैया इसमें मेरा क्या दोष? तूने भुगता, इसलिए तेरी भूल। बाहर सब जगह ऐसी
ही मशीनरी मात्र चलती है। ये सभी मात्र गियर-व्हील हैं। यदि गियर नहीं होते, तो सारे मुंबई शहर में कोई स्त्री अपने पति को दुःख नहीं देती
और कोई पति अपनी पत्नि को दुःख नहीं देता। खुद का घर तो सभी सुख में ही रखते, मगर ऐसा नहीं है। ये बच्चे-बच्चे, पति-पत्नी, सभी मशीनरी मात्र ही हैं, गियर मात्र हैं।
कुदरती न्याय तो जो गुनहगार होता है, उसे ही दंड देता है। घर में सात लोग सोए हों, पर साँप तो गुनहगार को ही काटेगा। ऐसा है यह सब 'व्यवस्थित'।
'भुगते उसकी भूल' के न्याय में तो बाहर के न्यायाधीश का काम ही नहीं। उसे किस लिए बुलवाना होता है? बाहरवाले न्यायाधीश तो बिचौलिया कहलाते हैं और बिचौलिया क्या करता है? पहले तो आकर कहेगा, 'चाय-नाश्ता लाइए'। फिर धीरे से पति, पत्नी से कहेगा 'अक्ल नहीं है कि ऐसी भूल करते हो?' बिचौलिया अपनी आबरु-अक्ल ढंककर रखता है और दूसरों की खुली करता है।
इस कुदरती न्याय में तो कोई न्यायाधीश ही नहीं है। हम ही न्यायाधीश, हम ही वकील और हम ही मुवक्किल। अत: फिर वह खुद के पक्ष में ही न्याय करेगा ? इसलिए निरंतर भूल ही करता है मनुष्य। न्याय तो किस से करवाना चाहिए? ज्ञानी पुरुष के पास कि जिन्हें अपनी देह के लिए भी पक्षपात नहीं होता है। यह तो खुद ही न्यायाधीश और खुद ही गुनहगार और खद ही वकील, फिर न्याय में किस की तरफ़दारी करेगा? अपनी खद की ही। यह तो ऐसा करतेकरते ही जीव बंधन में आता जाता है। अंदर का न्यायाधीश बोलता है कि तुम्हारी भूल हुई है, तब फिर अंदर का वकील ही वकालत करता है कि इसमें मेरा क्या दोष? ऐसा करके खुद ही बंधन में आता है। खुद के आत्मा के हित के लिए जान लेना चाहिए कि किस के दोष से बंधन है? 'भुगते उसकी भूल'। उसीका दोष। देखा जाए, तो सामान्य भाषा में अन्याय है पर भगवान का न्याय तो ऐसा ही कहता है कि भुगते उसकी भूल। यह 'दादा' ने ज्ञान में जैसा है, वैसा देखा
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आप्तवाणी - १
है कि भुगते उसीकी भूल है।
'भुगते उसकी भूल' इतना यदि पूर्णरूप से समझ में आ जाए, तो भी मोक्ष मिल जाए। यह जो लोगों की भूल देखते हैं, वह तो बिलकुल गलत है। खुद की भूल के कारण निमित्त मिलते हैं। यदि जीवित निमित्त मिला, तो उसे काटने दौड़ते हैं, और काँटा चुभे तब क्या करता है? चौराहे पर काँटा पड़ा हो और हजारों मनुष्य आएँ जाएँ पर किसी को भी नहीं लगता, पर चंदुभाई जाएँ तब काँटा टेढ़ा पड़ा हो, तो भी उनके पैर में घुस जाता है। 'व्यवस्थित' तो कैसा है? जिसे काँटा लगनेवाला हो उसे ही लगता है। सारे संयोग इकट्ठे कर देता है, पर उसमें निमित्त का क्या दोष ?
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यदि कोई मनुष्य दवाई छिड़ककर खाँसी खिलवाए, तो उसके लिए लड़ाई-झगड़ा हो जाता है। जब कि मिर्च का छौंक उड़ने पर खाँसी आए, तो कोई झगड़ा करता है कभी? यह तो जो पकड़ा जाए, उनसे लड़ते हैं। निमित्त को काटने दौड़ते हैं। यदि हक़ीक़त समझ में आ जाए कि करनेवाला कौन है और किस लिए होता है, तो रहेगा कोई झंझट फिर?
चिकनी मिट्टी में बूट पहनकर घूमें, और फिसलें, तो उसमें दोष किस का ? तेरा ही! समझ में नहीं आता कि नंगे पैर चलें, तो उँगलियों की पकड़ रहती है और गिरते नहीं। इसमें दोष किस का ? मिट्टी का, बूट का या तेरा?
सामनेवाले का मुँह यदि आपको फूला हुआ दिखाई दे, तो वह आपकी भूल । तब उसके 'शुद्धात्मा' को याद करके उसके नाम की माफ़ी माँगते रहें, तो ऋणानुबंध से छूट सकते हैं।
जो दु:ख भुगते, उसकी भूल और सुख भोगे, तो वह उसका इनाम । भ्रांति का कानून निमित्त को पकड़ता है। भगवान का कानून, रियल कानून एग्ज़ैक्ट है, वह तो जिसकी भूल हो उसीको पकड़ता है। यह कानून एग्ज़ैक्ट है। और उसे कोई बदल सके वैसा है ही नहीं। संसार में ऐसा
आप्तवाणी - १
कोई कानून नहीं है कि जो किसी को दुःख दे सके। सरकारी कानून भी ऐसा नहीं कर सकता। यह तो भुगते उसकी भूल ।
भुगतते हैं उस पर से हिसाब निकल जाता है कि कितनी भूल
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थी।
घर में दस मनुष्य हों, उनमें से दो को घर कैसे चलता होगा उसका विचार मात्र भी नहीं आता, दो को घर में हैल्प करें, ऐसा विचार आता है और दो जने हैल्प करते हैं, पर एक तो सारा दिन घर किस प्रकार चलाना, उसीकी चिंता में रहता है, और दो जने आराम से सोते हैं, तो भूल किस की ? अरे ! भुगतता है उसकी ही चिंता करे, उसकी ही । जो आराम से सोता है, उसे कुछ भी नहीं ।
सास बहू को डाँटे, तो भी बहू सुख में हो और सास भुगते, तो भूल सास की ही समझना। जेठानी को तंग करे, और भुगतना पड़े, वह हमारी भूल और छेड़ें नहीं फिर भी वह दुःख दे, तो वो पिछले जन्म का कुछ हिसाब बाकी होगा, वह चुकाया। तब आप फिर से भूल मत करना, वर्ना फिर से भुगतना पड़ेगा। इसलिए छूटना चाहो, तो वह जो कुछ कड़वा-मीठा दें (अच्छा-बुरा कहें ), उसे जमा कर लेना । हिसाब चुक जाएगा। इस जगत् में बिना हिसाब के तो आँखें तक नहीं मिलतीं। तो और कुछ क्या बिना हिसाब के होता होगा? आपने जितना - जितना जिसजिस को दिया होगा, उतना उतना वह आपको वापस करेगा। तब आप उसे जमा कर लेना । खुश होकर कि हा! अब हिसाब पूरा होगा। वर्ना यदि भूल करेंगे, तो फिर से भुगतना पड़ेगा ही।
यह सारा संसार 'हमारी' मालिकी का है। हम 'खुद' ब्रह्मांड के मालिक हैं, पर हमारी भूलों से बंधे हैं। भुगतना क्यों पड़ा? यह खोज निकालिए न?
यह तो अपनी भूलों से बंधे हैं, लोगों ने आकर बाँधा नहीं है। अतः भूलें नष्ट हों, तो मुक्त। वास्तव में तो मुक्त ही हैं, पर भूलों के कारण बंधन है।
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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
जहाँ ऐसा सही, निर्मल न्याय आपको दिखा देते हैं, वहाँ न्यायअन्याय का विभाजन करने का कहाँ रहता है? यह बहुत ही गहन बात है। तमाम शास्त्रों का सार बता रहा हूँ। यह तो 'वहाँ' का जजमेन्ट (न्याय) कैसे चल रहा है, यह एग्जैक्ट बताता हूँ कि भुगते उसीकी भूल।
निजदोष दर्शन
जितने दोष दिखाई देते हैं, उतने बिदा होने लगते हैं। ज्ञानी पुरुष की कृपा हो, तो दोष दिखने लगते हैं। पहले तो खुद अनंत दोष का भाजन है, ऐसा समझें, तब दोषों को खोजना, तलाश करना शुरू करता है। उसके बाद फिर दोष दिखने लगते हैं। यदि दोष नहीं दिखते, तो उसे प्रमाद समझना। अनंत दोष का भाजन हँ ऐसा समझा कि दोष अपने आप दिखने लगेंगे। मगर यह तो बहरा और घर में चोर घुस आया, फिर क्या हो? फिर भले ही बरतन खड़कें, मगर सुनाई दे तब न?
जितने दोष दिखते हैं, उतने बिदा होने लगते हैं। जो भी गाढ़ होंगे, वे दो दिन, तीन दिन, पाँच दिन, महीना या साल के बाद भी दिखें, तो चलते ही बनेंगे। अरे, भाग ही जाएँगे। घर में चोर घुस आया हो, तो वह कब तक घर में रहेगा? मालिक नहीं जानता हो, तब तक। मालिक अगर जान जाए, तो चोर तुरंत ही भागने लगता है।
किसी के भी अवगुण नहीं देखते। देखने ही हैं, तो खुद के देखो न? यह तो औरों की भूलें देखें, तो दिमाग में कैसा तनाव हो जाता है? उसके बजाय औरों के गुण देखें तो दिमाग कितना खुश हो जाता
एक व्यक्ति प्रतिदिन मंदिर जाकर और भगवान से हाथ जोड़कर गाता हो, 'मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय।' ऊपर से ऐसा भी कहता है, 'देखे नहीं निज दोष तो तरें कौन उपाय?' अब उनसे पूछे कि भैया अब आपमें कितने दोष शेष रहे? तब क्या कहेंगे, 'बस दो-तीन ही बचे हैं, थोड़ा-थोड़ा क्रोध होता है और थोड़ा-सा लोभ है, बस। और कोई दोष अब रहा ही नहीं है।' अरे अभी तो गा रहा था न कि मैं तो दोष अनंत का भाजन हूँ करुणामय। वह कहेगा, 'ऐसा गाने में तो गाना ही पड़ता है न, पर दोष तो हैं ही नहीं।'
'वाह ! वाह ! क्या कहने! यह तो भगवान को भी ठगने लगे? भगवान क्या कहते हैं, 'जिसमें दो ही दोष शेष हों उसका तो तीन ही घंटे में मोक्ष हो जाए।' यह तो बड़े-बड़े महाराजाओं से, आचार्यों से कोई पूछे, 'आपमें दोष कितने?' तो वे कहेंगे, 'दो-तीन होंगे।' उतने दोष रहने पर तो तीन ही घंटो में मोक्ष हो जाए। यह तो दोष को लेकर यहाँ पड़े हैं और यदि कहें कि औरों के दोष दिखाइए, तो अनेकों दोष बतला देते हैं, खुद का एक भी नजर नहीं आता। हरएक को दूसरों के दोष देखना आता है। आत्मा प्राप्त होने के बाद ही खुद के दोष दिखते हैं, निष्पक्षता उत्पन्न हो जाती है। यदि खुद के दोष देखने आते, तो मोक्ष प्राप्त कर चुके होते और नहीं पाते, तो भी ज्ञानी पुरुष जितनी ऊँची स्थिति में पहुँच गए होते।
इसमें कोई दोषी नहीं है, यह काल ही ऐसा है। संयोगवश सब होता है। उसमें उसका भी क्या कसूर?
सामनेवाले की भूल मत देखना। हमारी भूल सुधार लेनी चाहिए। बिना हिसाब के तो कोई उलटा नहीं बोलता।
यदि खुद की एक भूल मिल जाए, तो भगवान ने उसे मनुष्य कहा है। जो भूल के घोर जंगल में विचरण करने से रुके, और उसे भूल मालूम हो जाए, तो वह मानव है। उसकी भूल को दिखानेवाले को भगवान ने 'अति मानव' (सुपर ह्युमन) कहा है।
इस जगत् में सबकुछ पता चलता है, पर खुद की भूल का पता नहीं चलता। इसलिए ही खुद की भूल दिखाने के लिए ज्ञानी की ज़रूरत होती है। ज्ञानी पुरुष ही ऐसे सर्व सत्ताधीश हैं कि जो आपको आपकी भूल दिखाकर उसका भान करवाते हैं, और तभी वह भूल
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आप्तवाणी-१
मिटती है। ऐसा कब संभव है? जब ज्ञानी पुरुष की भेंट हो और आपको निष्पक्ष बनाएँ तब। आपके खुद के प्रति भी निष्पक्षता उत्पन्न हो, तब ही कार्य सिद्ध होता है। जब तक ज्ञानी पुरुष स्वरूप का भान नहीं करवाते, तब तक निष्पक्षता उत्पन्न नहीं होती। 'ज्ञान' किसी की भूल नहीं निकालता, बुद्धि सभी की भूलें निकालती है, सगे भाई की भी भूल निकालती है।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, व्यवहार में बड़ा, छोटे की भूल निकालता है, छोटा, अपने से छोटे की भूल निकालता है, व्यू पोइन्ट के टकराव के कारण, तो ऐसा क्यों होता हैं?
दादाश्री : यह तो ऐसा है न कि बड़ा छोटे को खा जाता है। बड़ा छोटे की भूल निकाले, उसके बजाय हम कह दें, 'मेरी ही भूल।' यदि भूल हमारे सिर पर ले लें, तो उसका हल निकल आए।
हम क्या करते हैं? दूसरा यदि सहन नहीं कर सके, तो हम अपने सिर ले लेते हैं, औरों की भूल नहीं निकालते। क्यों किसी को देने जाएँ? हमारे पास तो सागर समान पेट है। देखिए न, इस मुंबई की सभी गटरों का पानी सागर अपने में समा लेता है न? वैसे ही हमें भी पी लेना है। इससे क्या होगा कि इन बच्चों पर, और सब पर प्रभाव पड़ेगा। वे भी सीखेंगे। बच्चे भी समझ जाएँगे कि इनका पेट सागर समान है। इसलिए जितना आए उतना जमा कर लो। व्यवहार का नियम है कि अपमान करनेवाला खुद की शक्ति देकर जाता है। इसलिए अपमान स्वीकार कर लो हँसते-हँसते।
एक आँख हाथ से दब गई हो तो चंद्र दो दिखाई देते हैं न? उसमें भूल किस की? ऐसा संसार के लोगों का है। हर मिनट पर, समय-समय पर भूल करते हैं। निरंतर 'पर' समय में होते हैं। परायों हेतु ('स्व' हेतु नहीं) समय बिताते हैं। खुद के लिए एक भी समय निकाला नहीं है। 'खुद' को पहचाने नहीं वह सब 'परसमय'। खुद को पहचानने के बाद 'स्वसमय'।
लोगों की दृष्टि दोषी हो गई है, इसलिए सामनेवाले के दोष देखते हैं, और खुद के नहीं देखते। हमें तो पहले दृष्टि निर्दोष कर देनी है। निर्दोष हुए और निर्दोष देखा। आपको कोई दोषी नहीं दिखता, तो आप मुक्त हुए।
लोग खुद की भूलों से बंधे हैं। फ़ौजदारी भूल की हो, तो फ़ौजदार के बंधन में। कोई मनुष्य खुद की भूल नहीं देख सकता।
सभी करम, करम गाते हैं मगर करम क्या है, उसका आपको भान ही नहीं है। खुद के करम अर्थात निजदोष। आत्मा निर्दोष है, पर निज दोष को लेकर बंधन में है। जितने दोष दिखें. उतना मक्ति का अनुभव होता है। कुछ दोष की तो लाखों परतें होती हैं, अत: लाखलाख बार देखें, तो निकलते जाते हैं। दोष तो मन-वचन-काया में भरे हुए ही है।
मन-वचन-काया के दोष तो प्रतिक्षण दिखने चाहिए। इस दूषमकाल में, बिना दोष की काया होती ही नहीं। जितने दोष दिखे, उतनी किरणें (ज्ञान-जागृति) बढ़ी। इस काल में, यह अक्रम ज्ञान तो गज़ब का प्राप्त हुआ है। आपको केवल जागृति रखकर भरे हुए माल को खाली करना है, धोते रहना है।
जागृति तो निरंतर रहनी चाहिए। यह तो दिन में आत्मा को बोरी में बंद रखते हैं, यह कैसे चलेगा? दोष देखते और धोते जाने से बढ़ सकते हैं, प्रगति होती है। वर्ना आज्ञा में रहने से लाभ तो है, उस से आत्मा का रक्षण होता है। जागृति के लिए सत्संग और पुरुषार्थ चाहिए। सत्संग में रहने के लिए पहले आज्ञा में रहना चाहिए।
नाटक में होनेवाला घाटा असर नहीं करता, तो समझना कि आखिरी नाटकीय जन्म शेष रहा। नाटक में गाली सुना दे, पर असर नहीं करे वह देखना है।
बिना हिसाब के तो कोई बुरा भी नहीं बोलता और अच्छा भी नहीं
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निरा भूलों का ही भंडार अंदर भरा है। हर क्षण दोष दिखें तब काम हुआ कहलाए। यह सारा माल आप भरकर लाए, बिना पूछे ही तो
बोलता। सच्ची वस्तु के लिए अभिप्राय दिया कि तुरंत ही कच्चा पड़ा। सत्संग में भाँत-भाँत का कचरा निकलता है। सामनेवाले के दोष देखें, तो कचरा हमें लगता है। खुद के देखें, तो खुद के वे दोष निकल जाते हैं। आलसी को दूसरों की भूलें अधिक दिखाई देती हैं।
न?
शुद्धात्मा का लक्ष्य बैठ जाए, तब भूलें दिखती हैं। नहीं दिखें, तो वह तो निरा प्रमाद ही है।
भूलें
अंधियारी भूलें और अँधेरे में दबी पड़ी भूलें दिखाई नहीं देती। ज्यों-ज्यों जागृति बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों अधिक और अधिक भूलें दिखाई देती हैं। स्थूल भूलें भी टूटें, तो आँखों की चमक बदल जाती है। भाव शुद्ध रखना चाहिए। अँधेरे में की गई भलें अँधेरे में कैसे दिखाई देंगी? भूलें ज्यों-ज्यों निकलती जाती हैं, त्यों-त्यों वाणी भी ऐसी निकलती है कि कोई दो घड़ी सुनता रहे।
स्थूल भूलें तो आपसी टकराव होने पर बंद हो जाती हैं, पर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम भूलें इतनी अधिक होती हैं कि वे जैसे-जैसे खत्म होती जाती हैं, वैसे-वैसे मनुष्य की सुगंध आती जाती है।
अँधियारी भूलें और अँधियारी बातों की तुलना में कठोर मनुष्य की उजाले की भूलें अच्छी, फिर चाहे थोकबंद हों।
जब अनचाही अवस्थाएँ आ पड़ें, कोई मारे, पत्थर पढ़ें, तब भूलें दिखती हैं।
खरी कसौटी में ज्ञान हाज़िर रहे, कान काट रहे हों और ज्ञान हाज़िर रहे, तब खरा ज्ञान कहलाता है। नहीं तो सब प्रमाद कहलाता है।
ज्ञानी पुरुष तो एक ही घंटा सोते हैं, निरंतर जागृत ही रहते हैं। आहार कम हो गया हो, नींद कम हो गई हो, तब जागति बढ़ती है, नहीं तो प्रमादचर्या रहती है। नींद बहुत आए, वह प्रमाद कहलाता है। 'प्रमाद यानी आत्मा को गठरी में बाँधने जैसा।'
भूल अर्थात् क्या है? इसका खुद को भान ही नहीं है। स्व-पराक्रम से भूलें खत्म होती हैं।
जब नींद घटे, आहार घटे, तब समझना कि प्रमाद घटा।
भूलें नष्ट हों, तब उसके चेहरे पर चमक आती है, वाणी सुंदर निकलती है, लोग उसके पीछे फिरते हैं।
स्ट्रोंग परमाणुवाली भूलें हों, वे तुरंत दिखाई देती हैं। बहुत कड़क हों, तो वह जिस तरफ जाए, उसीमें डूब जाता है। संसार में घुसा, तो उसमें डूबता है और ज्ञान में आया, तो उसमें डूब जाता है।
आत्मा का शुद्ध उपयोग अर्थात् क्या? इसका अर्थ यह कि आत्मा को अकेला नहीं छोड़ते। पंद्रह मिनट झपकी लेनी हो, तो पतंग की डोर अँगूठे से बाँधकर झपकी लेनी, वैसे ही आत्मा के बारे में ज़रा-सी भी अजागृति नहीं रखी जा सकती।
__ अनंत भूलें हैं। भूलों के कारण नींद आ जाती है, नहीं तो नींद क्यों आती? नींद आए, वह तो अपना बैरी कहलाता है, प्रमादचर्या है। शुभ
'मुझमें भूल ही नहीं है। ऐसा तो कभी नहीं बोल सकते, बोल ही नहीं सकते। 'केवलज्ञान' होने के बाद ही भूलें नहीं रहती।
ये भूलें तो धियारी भूलें हैं। ज्ञानी पुरुष प्रकाश फेंकें, तब दिखती हैं। उनके बजाय उजाले की भूलें अच्छी। इलेक्ट्रिसिटीवाली होती हैं, वे दिखाई देती हैं।
पुरुषार्थ किस का करना है? पुरुष होने के बाद, 'शुद्धात्मा' का लक्ष्य बैठने के बाद पुरुषार्थ और स्व-पराक्रम होता है।
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आप्तवाणी-१
उपयोग में प्रमाद हो, तो उसे भी अशुद्ध उपयोग कहते हैं।
सारी भूलें खत्म करने को या तो यज्ञ (ज्ञानी और महात्माओं की सेवा का) करना होगा अथवा स्व-पुरुषार्थ करना पड़ेगा। आप ऐसे दर्शन कर जाएँ, तो भक्ति का फल मिलता है, परंतु ज्ञान का फल नहीं मिलता।
भूल है ही नहीं, ऐसा मानकर बैठे रहें, तो भूल दिखेगी ही कैसे? फिर आराम से सोते हैं। हमारे ऋषि-मुनि सोते नहीं थे। बहुत जागृत रहते
अगर अपनी दृढ़ इच्छा है कि ज्ञानी की आज्ञा में ही रहना है, तो उनकी कृपा से आज्ञा में ही रह सकते हैं। आज्ञा पालें तब आज्ञा की मस्ती रहती है। ज्ञान की मस्ती तो किसे रहती है कि जो दूसरों को उपदेश देता हो।
'हमारी' बात यदि जाने और कोई भीतर उतारने नहीं दे, तो समझना कि भीतर गाँठ है, भारी रोग है।
भूलें बहुत सारी हैं, ऐसा यदि जानें, तो भूलें दिखने लगेंगी और फिर भूलें कम होती जाएँगी। हम सभी के दोष थोड़े ही देखते हैं? ऐसी हमें फुरसत भी नहीं होती। वह तो बहुत पुण्य जमा हों, तब हम सिद्धिबल से उसका 'ऑपरेशन' करके 'रोग' निकाल देते हैं। ये डॉक्टर करते हैं, उस ऑपरेशन की तुलना में लाख गुना मेहनत हमारे 'ऑपरेशन' में होती
थे।
खुद की भूलें खुद को काटें, उसे हम इलेक्ट्रिकल भूलें कहते हैं, अँधेरे की भूलें अर्थात् खुद की भूलें खुद को नहीं काटतीं। जो भूलें काटें, वे तो तुरंत दिखाई देंगी मगर जो नहीं काटतीं, वे जाने बिना चली जाती
प्रश्नकर्ता : इलेक्ट्रिकवाली भूलें क्या है?
दादाश्री : वे सभी दिखनेवाली भूलें। थोड़ा बेचैन करके चली जाती हैं। उनसे हमेशा जागृत रह सकते हैं। वह तो अच्छा है। जब कि अंधेरे की भूलें तो किसी को दिखाई ही नहीं देतीं। उसमें खुद तो प्रमादी होता ही है, अपराधी होता है और कोई दिखानेवाला भी नहीं मिलता। जब कि इलेक्ट्रिसिटीवाली भूलें तो कोई दिखानेवाला भी मिल जाता है। 'मैं जानता हूँ' वे अंधेरे की भूलें तो बहुत भारी हैं और ऊपर से 'अब कोई हर्ज नहीं है', वह तो मार ही डालता है। ऐसा तो ज्ञानी पुरुष के सिवाय कोई बोल ही नहीं सकता कि एक भी भूल नहीं रही। प्रत्येक भूल को देखकर तोड़नी है।
हम 'शुद्धात्मा' और बाहर की बातों में 'मैं कुछ भी नहीं जानता' ऐसा ही रखना, ताकि कोई बाधा ही नहीं आएगी। मैं जानता हूँ', वैसा रोग तो लगना ही नहीं चाहिए। हम तो 'शुद्धात्मा'। 'शुद्धात्मा' में एक भी दोष नहीं होता, पर तुम में, चंदूभाई में, जो-जो दोष दिखाई दें उनका निकाल करना है।
जिसे, खुद की जितनी भूलें दिखती हैं, उतना ही वह उनका ऊपरी। जिसकी सारी भूलें खत्म हो जाएँ, उसके ऊपर कोई नहीं। 'मेरा ऊपरी कोई है ही नहीं, इसलिए मैं सबका ऊपरी। ऊपरी का भी ऊपरी।' क्योंकि 'हम' में स्थूल दोष तो होते ही नहीं, सूक्ष्म दोष भी चले गए हैं। सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम होते हैं, उनके हम संपूर्ण ज्ञाता-दष्टा होते हैं। भगवान महावीर भी यही करते थे। नाम मात्र भी मैल नहीं रहे, तभी सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम दोष दिखते हैं।
भगवान महावीर को केवलज्ञान प्रकट हुआ, तब तक दोष दिखाई देते थे। भगवान को केवलज्ञान प्रकट हुआ वह काल और खुद के दोष दिखने बंद होने का काल, दोनों एक ही था। वे दोनों समकालीन थे। 'अंतिम दोष का दिखना बंद होना, और इस ओर केवलज्ञान का प्रकट होना,' ऐसा नियम है।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, बचपन से ही मुझे हर ओर से मार ही पड़ती रही है। अब संतानों की ओर से भी सहना पड़ता है। अब इसे कैसे सहूँ? इसमें भूल किसकी?
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दादाश्री : यह चाय का गिलास आपसे खुद से टूटे, तो आपको दुःख होगा? खुद फोड़ो, तो आपको सहन करना होता है? यदि आपके बेटे से टूट जाए, तो दु:ख, चिंता-संताप होते हैं। खुद की ही भूलों का 'हिसाब है', ऐसा यदि समझ में आ जाए, तो क्या दुःख या चिंता होगी ? यह तो परायों के दोष निकालकर दुःख या चिंता खड़े करते हैं और रातदिन बस, दुःख ही खड़े करते हैं और ऊपर से खुद को ऐसा लगता है कि मुझे बहुत सहन करना पड़ता है।
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'स्वरूप का ज्ञान' ऐसा है कि जैसे-जैसे परिणाम में आता जाता है, तब कुछ भी सहन नहीं करना पड़ता। ज्ञाता ज्ञेय संबंध समझने से सहन करना नहीं पड़ता। तेरे साथ कोई टकराया क्यों? वही तेरा दोष है। हमारे दोष से ही बंधन है। खुद की भूलों से छुटकारा पाना है। यह तो संयोग संबंध हैं। बिना हिसाब के कोई मिलता ही नहीं। सब खुद के दोषों से ही बँधे हुए हैं। मात्र खुद के दोष देखने से छूट सकें, ऐसा है। 'हम' अपने दोषों को देखते रहे, इसलिए 'हम' छूट गए। निजदोष समझ में आए, तो दोषों से छूटता जाता है।
खुद के हाथों से पाँच सौ रुपये खो जाएँ, तो सहन कर सकते हैं। वैसे ही खुद की भूलें समझ में आएँ, तो सहन करने की शक्ति अपने आप आएगी।
जब समझ में आए कि दोष किस का था? खुद का था, तो छूट सकते हैं, वर्ना और अधिक बंधन में आते हैं।
लोग सहनशक्ति बढ़ाने को कहते हैं, मगर वह कब तक टिकती है ? ज्ञान की डोर तो ठेठ तक पहुँचती है। सहनशक्ति की डोर कहाँ तक पहुँचती है? सहनशक्ति की लिमिट है, ज्ञान अनलिमिटेड है। यह हमारा ज्ञान ही ऐसा है। किंचित्मात्र सहन करने को रहता नहीं । सहन करने में तो लोहे को आँख से देखकर पिघलाएँ, उतनी शक्ति चाहिए। जब कि इस ज्ञान से किंचित् मात्र सहन किए बगैर, परमानंद के साथ मुक्ति ! ऊपर से समझ में आता है कि यह तो हिसाब चुक रहा है। मुक्त हो रहे हैं।
आप्तवाणी - १
निजदोष दृष्टि अर्थात् समकित यानी कि सीधी राह पर चल पड़ा। एक ही बार सीधी राह पर आ जाए, तो उसकी संसार की दुकान खाली होने लगती है। सीधी राह पर आया मनुष्य हमेशा खुद के ही दोष देखता है । जब की उलटी राह चलनेवाला? तब कहे, खुद के बर्तन जूठे पड़े हों और दूसरों से कहता है कि लाओ आपके बर्तन धो दूँ ।
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हमने खुद ज्ञान में देखा है कि संसार किस से बँधा है? मात्र निजदोष से बँधा है।
अंत में कौन-सी दृष्टि चाहिए? जीव मात्र जब निर्दोष दिखाई दे, तब काम हो गया, ऐसा कह सकते हैं। मनुष्यों को ही नहीं पर यह पेड़ टेढ़ा है, ऐसा भी नहीं बोल सकते। छोड़ न झँझट । अनंत जन्मों से यही सब गाया हैं न?
हमारी दो चाबियाँ यदि पकड़ ले, तो समकित हो जाए ऐसा है।
(१) मन को गाँठें कहा है। मन को पराया कहा है। मन को वश करने जाएँ, तो वह प्रतिकार करता है। हमने गाँठों से बना बोल दिया, फिर शेष क्या रहा?
(२) दूसरी चाबी : 'भुगते उसीकी भूल' ।
आड़ापन - स्वच्छंदता
खुद में स्वच्छंद नामक एक ऐसा दोष है कि वह कभी तरने नहीं देता। अनंतकाल का लेखा-जोखा अर्थात् चंदूभाई का बहीखाता । अरे ! अनंतकाल में इतना ही कमाया ? आठ प्रकार के कर्मों की कमाई में अनंतज्ञान में से ज्ञान की एक बूंद भी उत्पन्न नहीं हुई है। अनंत दर्शन में से अथवा अनंत सुख में से सुख का एक छींटा भी उत्पन्न नहीं हुआ। जिसे सुख माना है, वह तो आरोपित है, सच्चा नहीं है। माना हुआ मोक्ष नहीं चलेगा, यथार्थ मोक्ष चाहिए। हमारा ऊपरी कोई इस वर्ल्ड में है ही नहीं, ऐसा मुक्ति सुख प्राप्त हो, तब यथार्थ मोक्ष हुआ कहलाएगा।
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आप्तवाणी-१
_ 'मैं चंदूभाई हूँ', वही स्वच्छंद। वह गया, तो फिर तप-त्याग या शास्त्र की भी जरूरत नहीं है। स्वच्छंदता थी, इसलिए अभी भी ठिकाना नहीं पड़ा। स्वच्छंदता छूटे, तो घंटेभर में मोक्ष हो जाए।
स्वच्छंद अर्थात् अंधा छंद। 'मैं चंदूभाई' वही स्वच्छंद। उससे तो अनंत जन्मों तक ठिकाना नहीं पड़ता। स्वच्छंदता जाए, तो काम होता है।
स्वच्छंद अर्थात् अपने आप ही दवाई बना लेनी। अपने आप ही रोग का निदान करना, खुद ही दवाई बनाना और खुद ही प्रेस्क्राइब करना। अरे, मोक्षमार्ग की दवाई भी खुद बनाई? तो भाई! पोइजन हो गया तेरे लिए। इसलिए ही तो प्रशंसा पर राग होता है और बुराई करने पर द्वेष होता है। धर्म में, जप में, तप में, शास्त्र समझने में स्वच्छंद नहीं चलता। साधन करें, तो वह स्वच्छंद से किया हुआ हो तो नहीं चलता। अपनी स्व-मति की कल्पना से मत करना। यह तो खुद ही गुनहगार, खुद ही वकील और खुद ही न्यायाधीश. इस तरह चलता है। स्वच्छंदता अर्थात् स्व-मति कल्पना! अरे ! फिर मर जाओगे। स्वच्छंदता तो कहाँ से कहाँ ले जाकर मार डालेगी।
अपनी मनमानी ही करे, वह स्वच्छंदता। स्वच्छंदता रुके, तो काम हो। अपनी होशियारी से धर्म और ध्यान किए, इसलिए कोई परिणाम नहीं आया। अपनी ही मति अनुसार चलने पर अनंत, अनंत जन्मों के लिए संसार का बंधन बँधेगा, इससे तो 'इस' स्टेशन पर नहीं आना अच्छा। जहाँ पर हो, वहीं बैठे रहो। वर्ना 'इस' (धर्म के) स्टेशन पर आने के बाद, यदि स्वच्छंदता रही और अपनी स्व-बुद्धि से चलोगे, तो अनंतानंत संसार में भटकते रहोगे।
स्व-मति से नहीं चल सकते, ऐसा यह संसार है। अपने से पाँच अंश बड़े को खोज निकालना और उनके कहे अनुसार चलना, कब तक? जब तक ज्ञानी पुरुष नहीं मिलते तब तक। और कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुष को खोजकर, उनके चरणकमल में सर्वभाव अर्पण करके, उनके कहे अनुसार चलता जा। फिर यदि मोक्ष नहीं मिले, तो मेरे पास से लेना।' ऐसा श्रीमद् राजचंद्रजी कहा करते थे।
आज तो धर्म स्वच्छंदता से ही करते हैं। कितने ही सालों से आप किसी की आराधना करते आए हैं, पर फिर भी यदि 'चंदूभाई' पुकारा कि तुरंत ही कान धरते हो कि नहीं? इसके उपरांत चंदूभाई को ऐसावैसा कह दिया, तो तुरंत ही राग-द्वेष होते हैं। गुरुजी की इतनी आराधना की और यदि राग-द्वेष नहीं जाते, तो वह किस काम की? फिर भी यदि आपकी आराधना मोक्ष हेतु है, तो कभी न कभी ज्ञानी पुरुष मिल ही जाएँगे।
स्वच्छंदता से जरा भी नहीं चल सकते। अनजाने में अग्नि में हाथ डालें, तो जल जाते हैं या नहीं? अनजाने में किए गए कर्मों का फल मिलेगा ही। इसलिए पहले तू जान ले कि तू कौन है? और यह सब क्या
स्वच्छंद जाए, तो खुद का कल्याण खुद कर सकता है। पर खुद स्वच्छंद निकालने जाए, तो निकलता नहीं है न? स्वच्छंद को पहचानना तो होगा न? तू जो कुछ करता है वह स्वच्छंद ही है।
कृपालुदेव (श्रीमद् राजचंद्रजी) ने कहा था कि सजीवन मूर्ति के लक्ष्य के बिना जो कुछ भी करने में आता है, वह जीव के लिए बंधन है, जो कुछ भी करे वह बंधन है, वही स्वच्छंदता है। बाल बराबर किया, तो भी स्वच्छंद ही है। व्याख्यान में जाए या साधु हो जाए, तप-त्याग करके शास्त्र पठन करे, वह सबकुछ स्वच्छंदता ही है। तू जो भी क्रिया करता है, वह ज्ञानी पुरुष से पूछकर करना, वर्ना वह स्वच्छंद-क्रिया है। उससे तो बंधन में पड़ते हैं।
स्वच्छंद नामक दोष जाए, फिर बाद में 'दादा' का छंद लगेगा। स्वच्छंद जाए, तो स्वरूपज्ञान होता है। स्वच्छंदता कम हो, ऐसा मनुष्य कैसा होता है? जैसे मोड़ना चाहो मुड़ जाता है, फ्लेक्सिबल होता है। उसे मोक्षमार्ग मिल जाता है। स्वच्छंदी को मोड़ें वैसे नहीं मुड़ता।
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मिलने नहीं देता। आड़ापन उसे फिंकवा देता है।
बीवी-बच्चों का, अरे! अपना खुद का भी जितना जतन नहीं किया, उससे अनेक गुना इस आड़ेपन का जतन किया है। इसलिए अनेक जन्मों से आड़ेपन के कारण ही भटक रहा है। आड़ापन अंधा बनाता है। सच्चा मार्ग सूझने नहीं देता। आड़ापन ही स्वच्छंदी बनाता है और स्वच्छंदता तो प्रत्यक्ष जहर समान ही है।
व्यवहार में यदि कोई आड़ा हुआ, तो कोई उसका भाव नहीं पूछता और यदि आड़ापन कम हो, तो उसको हर कोई पूछता है, लोगों में उसकी पूजा होती है। तब फिर मोक्षमार्ग में तो आडापन चलता होगा?
स्वच्छंदता अर्थात् बुद्धिभ्रम। इस जगत् में कोई दोषी है ही नहीं। स्वच्छंदता ही तेरा सबसे बड़ा दोष है।
भगवान ने मोक्षमार्ग पर जाने के लिए सुंदर पद्धतिवाला मिक्सचर बनाया था, जो उन्होंने सबको बताया था। उन्होंने जो फॉर्मूला दिया था, आज वह फॉर्मूला ही नष्ट हो गया है। किसी के भी पास नहीं रहा। आज हम आपको वही फॉर्मूला फिर से देते हैं।
उस मिक्सचर में २० % 'शास्त्रों' के, ७० % 'ज्ञानी का परम विनय' और १० % 'संसारी भावना' रखना और फिर पीना। तब लोग शास्त्र को ही पीते रहे, इसलिए बदहजमी हो गई। भगवान ने कहा था कि यह दवाई दिन में तीन बार हिलाकर पीना। इस पर कई तो, दिन में तीन बार हिलाते ही रहे। और कुछ तो 'हिलाकर पीना है, हिलाकर पीना है' ऐसा गाते ही रहे, बस गाते ही रहे!
यह किस के जैसा है? डॉक्टर की पुस्तक पढ़कर खुद दवाई बनाकर पीने जैसा है। वहाँ कोई खुद मिक्सचर बनाने नहीं जाता, मरने का डर लगता है। एक जन्म के मरण से बचने डॉक्टर को पूछे बगैर दवाई नहीं बनाते, और अनंत जन्मों का मरण बिगाड़ने के लिए महावीर के, वीतरागों के, शास्त्रों का खुद मिक्सचर बनाकर पी गए, इसलिए जहर हो गया है। भगवान ने इसे ही स्वच्छंद कहा है। अँधा छंद कहा है।
मोक्ष की गली अति सँकरी है। उसमें आड़ा चलने गया, तो फँस ही गया समझ। उसमें तो सीधा होकर ही चलना पड़ेगा, सरल होकर चलना पडेगा, तभी मोक्ष तक पहुँचना संभव है। साँप भी बिल में घुसने से पहले सीधा-सरल हो जाता है।
आड़ेपन से ही सारा संसार खड़ा है। आड़ेपन से ही मोक्ष अटका है। भगवान ने साधु होने से पहले सीधा होने को कहा है। चाहे कैसा भी साधुपन प्राप्त हुआ हो, यदि आड़ापन नहीं गया हो, तो वह किस काम का? आड़ापन तो भयंकर विकृत अहंकार है। यह आड़ापन तो कैसा है कि जब रियल सत्य सामने चलकर गले मिलने आए, तो भी उसे गले
केवलज्ञान होने तक आड़ापन होता है। आड़ेपन रूपी समंदर को पार करना है। हम आड़ेपन के इस पार खड़े हैं और जाना है उस पार। इस संसार में आड़ेपन के साथ आड़ापन रखने से समस्या नहीं सुलझेगी। आड़ापन सरलता से दूर होता है। साँप भी बिल में जाता है, तब आड़ाटेढ़ा होकर नहीं जाता, सीधा होकर बिल में घुसता है। मोक्ष में जाना हो, तो सरल होना पड़ेगा। गाँठे निकालकर अबुध होना पड़ेगा।
शंका
जैसे-जैसे निज कल्पना से, स्व-मति से शास्त्र पढ़ता है, वैसेवैसे आड़ापन बढ़ता जाता है। उससे आवरण उलटे बढ़े ! यदि पढ़ने से कोई प्रकाश प्राप्त हुआ, तो फिर अब भी ठोकरें क्यों लगती हैं? ठोकरें तो अँधेरे में लगती हैं। प्रकाश में कैसे लगें? यदि 'कुछ जाना', तो उससे एक भी चिंता कम हुई? उलटे यह सही है या वह सही इसकी उलझन बढ़ी, ज्यादा शंकित हुआ, और जहाँ शंका वहाँ अज्ञान। शंका के सामने आत्मा खड़ा नहीं रहता। ज्ञान तो वह, कि जो संपूर्ण निःशंक बनाए।
भीतर एक भी परमाणु नहीं हिले उसका नाम ज्ञान । शंका तो आत्मा की शत्रु है। पूरा आत्मा फिंकवा दे। इसलिए जहाँ शंका पैदा हो, उसे
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तो जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिए। आत्मा प्राप्त होने के बाद, आत्मा में स्थित होने के बाद, ऐसी कौन-सी वस्तु है जो हिला सके? इस संसार में ऐसा कौन-सा तत्त्व है कि जो 'आपका खुद का' है, उसे छीन सके? शंका का कीड़ा तो भयंकर रोग है। पता भी नहीं चलता कि कब खड़ी हुई और कितना नुकसान कर गई? एक जन्म की हम गारन्टी देते हैं कि 'व्यवस्थित' के नियम में कोई बदलाव होनेवाला नहीं है, फिर शंका करने का रहा ही कहाँ? बिना ठौर-ठिकाने का संसार कि जहाँ घर से निकला, तो फिर जब वापस घर लौटे तभी सच्चा। ऐसे संसार में कहाँ शंका करनी
और कहाँ शंका नहीं करनी? और जो हो रहा है, वह क्या पहले नहीं हुआ था? इसमें नया क्या है? इसकी फिल्म तो पहले उतर ही चुकी है न? फिर उसमें क्या है? किसी के लिए भी शंका करने जैसा नहीं है। वहाँ ये लोग तो मोक्ष की शंका करते हैं, वीतराग पर शंका करते हैं! धर्म के लिए शंका करते हैं! अरे, कहीं का कहीं फिंक जाएगा यदि शंका करी तो!
की नींव मज़बूत करते रहते हैं। मताग्रही हो गए हैं, इसलिए अपने ही पक्ष की नींव दिन-रात मज़बूत करने में मनुष्य जन्म व्यर्थ गँवा रहे हैं। अरे! मोक्ष में जाना है या मत में, पक्ष में पड़े रहना है? मोक्ष और पक्ष, दोनों विरोधाभास हैं। पक्षातीत हों, तभी मोक्षमार्ग मिलता है। जहाँ निष्पक्षपात है, वहीं भगवान हैं, वहीं मोक्ष है।
मतांध कभी भी 'सत्य वस्तु' को नहीं पा सकता, क्योंकि खुद के मत का ही आग्रही हुआ होता है, इसलिए दूसरे के सत्य को कैसे स्वीकारे? और जिसका आग्रह रखते हैं, वह टेम्परेरी वस्तु का है या परमानेन्ट वस्तु का? चाहते हैं परमानेन्ट वस्तु और आग्रह करते हैं टेम्परेरी वस्तु का। तब फिर आत्मा कहाँ से प्राप्त होगा? सर्व रीति से संपूर्ण निराग्रही होकर, एक मात्र आत्मा जानने का आग्रह करें, तभी आत्मा प्राप्त होगा। सारी कामनाओं को एक ओर रखकर, मात्र 'सत्य' को ही जानने का कामी हो, तब ही 'परम सत्य' की प्राप्ति होगी।
अनंत जन्मों का देहाध्यास यदि छूटे, तो ही आत्मा प्राप्त होता है। देहात्म-बुद्धि, आत्मा प्राप्त होने नहीं देती। उलटा दिखाती है, क्योंकि देहात्म बुद्धि संसार का ही रक्षण करती है और संसार में ही भटकाती है। यह देहात्म-बुद्धि तो निरंतर खुद के स्वरूप का ही अहित करती रहती है। कभी भी सीधा नहीं सूझने देती, उलटा ही दिखलाती है। एक बार सीधी राह पर चल पड़ा, तो समस्या का हल निकल ही जाए, ऐसा है। सीधी राह चलना मतलब समकित होना। उलटी राह चलना मतलब देहात्म बुद्धि में रहना और आत्मा में आत्म बुद्धि होना, उसका नाम समकित आत्मा में आत्मरूप अर्थात आत्म स्वरूप होना, उसका नाम ज्ञान। देहात्म बुद्धि को फ्रेक्चर करके, आत्मबुद्धि उत्पन्न हो, तभी मुक्तानंद प्रकट होता है। देहात्म बुद्धि ही देहाध्यास करवाती है।
दृष्टिराग मतांध की तुलना में दृष्टिरागी का रोग बहुत भारी है, जो अनंत जन्मों तक नहीं निकलता। जब तक समकित नहीं होता, तब तक अंधश्रद्धा रहती ही है। जिसे मिथ्यात्व होता है. उसे अंधश्रद्धा होती है। भगवान को तो अंधश्रद्धा का जितना एतराज़ नहीं है, उतना इन दृष्टिरागियों का है, ऐसा कहते हैं। दृष्टिरागी अर्थात् क्या? ३६० डिग्रियाँ हैं, व्यू पोइन्ट हैं और उनकी ३६० दृष्टियाँ हैं। उनमें एक-एक दृष्टि पर अनंत दृष्टियाँ हैं। उनमें से किसी एक दृष्टि पर, उस व्यू पोइन्ट पर संपूर्ण राग उत्पन्न हो जाना वह दृष्टिराग है। दृष्टिराग कभी भी नहीं जाता। अनंत जन्मों की भटकन के बाद, जब ज्ञानी पुरुष से भेंट हो, तब उसका दृष्टिराग रूपी रोग अपसेट होता है।
मताग्रह
दृष्टिरागी के आत्मा के ऊपर आवरण छाया होता है। संसार के रागद्वेष जा सकते हैं, पर दृष्टिराग नहीं जाता। उसका उपाय नहीं है। इस जन्म और अनंत जन्मों में मरे, तब भी यह रोग जाता नहीं, मिटता ही नहीं।
कितने लोग तो मत में पड़ गए हैं, पक्ष में पड़ गए हैं, अत: पक्ष
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दृष्टिराग के क्या लक्षण हैं? वीतरागता का एक भी लक्षण नहीं, वह। जिसे दृष्टिराग होता है, उसे हमारी बात समझ में नहीं आती। बाकी कैसा भी अनपढ़ हो, तो भी उसे हमारी बात समझ में आ जाती है।
दृष्टिराग तो राग का भी राग है। उसे तो जड़ से ही निकाल दें, तभी सत्य समझ में आए।
बैरभाव
प्रश्नकर्ता : यदि साँप काटने आए, तो क्या हमें उसे नहीं मारना चाहिए?
दादाश्री : पर हम ही पीछे हट जाएँ न। यदि ट्रेन सामने से आती हो, तब क्या करोगे? उसी तरह, हट जाना।
साँप तो पंचेन्द्रिय जीव है। उसे यदि मारें तो वह बैर बाँधता है। उसे पता चलता है कि मुझे बिना गुनाह के मार रहे हैं। फिर अगले जन्म में वह हमें ही मारता है।
बैर से ही सारा संसार खड़ा है न? अरे, इस चींटी को भी ऐसा होता है कि यदि मेरे पास शक्ति होती, तो मैं तुझे ही सताती। यह खटमल भी बत्ती जलाने पर त्रस्त होकर भाग जाता है, भयभीत हो जाता है. कि मुझे मार डालेंगे। साथ-साथ उसे ऐसा भी होता है कि मैं अपना भोजन खाता हूँ, उसमें मुझे क्यों मारते हैं? वह जो रक्त पीता है, वह भी उसके ऋणानुबंध का ही है।
दो प्रकार के बंधन हैं। एक बैरभाव का, दूसरा प्रेमभाव का। प्रेमभाव में पूज्यभाव होता है। यह संसार बैर से ही बंधा हुआ है। स्नेह तो चिपकनेवाले, चिपचिपे स्वभाव का है, वह सूख जाता है। बैर नहीं जाता। दिन-दिन बढ़ता जाता है।
संसार-सागर के स्पंदन संसार-सागर परमाणुओं का सागर है। उसमें स्पंदन खड़े होते हैं,
तब मौजें उत्पन्न होती हैं और वे मौजें फिर दूसरों से टकराती हैं। इससे फिर दूसरे में भी स्पंदन खड़े होते हैं और फिर तूफ़ान शुरू होता है। यह सब परमाणुओं में से ही उपजता है। आत्मा उनमें तन्मयाकार हो जाए, तो स्पंदन ज़ोरों में शुरू होते हैं।
इस दुनिया में भी सागर जैसा ही है। एक भी स्पंदन उठा, तो अनेकों प्रति स्पंदन उठते हैं। सारा संसार स्पंदन का बना हुआ है। सभी तरह के सभी स्पंदन सच्चे हैं और तालबद्ध सुनाई देते हैं।
किसी बावड़ी के पास जाकर तू अंदर मुँह डालकर जोर से चिल्लाए कि तू चोर है, तो बावड़ी में से क्या जवाब आएगा? 'त् चोर हैं।' तू कहे कि तू राजा है, तो बावड़ी भी कहेगी, कि तू राजा है।और 'तू महाराजा है', ऐसा कहे तो बावड़ी 'तू महाराजा है' ऐसे जवाब देगी। वैसे ही यह जगत् बावड़ी जैसा है। तू जैसा कहेगा वैसे स्पंदन उठेंगे। 'एक्शन एन्ड रिक्शएन आर इक्वल एन्ड ऑपोजिट' ऐसा नियम है। इसलिए आपको पसंद हों, वैसे स्पंदन डालना। सामनेवाले को चोर कहा, तो तुझे भी 'तू चोर है' ऐसा सुनना पड़ेगा और 'राजा है', ऐसा सामनेवाले को कहेगा, तो तुझे 'राजा है', ऐसा सुनने को मिलेगा। हमने तो तुझे परिणाम बताए, पर स्पंदन पैदा करना तेरे हाथ की बात है। इसलिए तुझे अनुकूल आए, वैसा स्पंदन डालना।
___ हम पत्थर नहीं डालें, तो हममें स्पंदन नहीं उठते और सामनेवाले में भी तरंगे नहीं उठतीं और हमें भी कोई असर नहीं पहुँचता। पर क्या हो? सभी स्पंदन करते ही हैं। कोई छोटा तो कोई बड़ा स्पंदन करता है। कोई कंकड़ डालता है, तो कोई ढेला डालता है। ऊपर से फिर स्पंदन के साथ अज्ञान है, इसलिए बहुत ही फँसाव है। ज्ञान हो और फिर स्पंदन हों, तो हर्ज नहीं। भगवान ने कहा है कि स्पंदन मत करना। पर लोग बिना स्पंदन किए रहते ही नहीं न? देह के स्पंदनों में हर्ज नहीं है, पर वाणी और मन के स्पंदनों की मुश्किल है। इसलिए इन्हें तो बंद ही कर देना चाहिए, यदि सुख से रहना चाहो तो, जहाँ-जहाँ पत्थर फेंके हैं, वहाँवहाँ स्पंदन उठने ही वाले हैं। स्पंदन बहुत इकट्ठे हों, तब उन्हें भुगतने
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क्या करें? स्पंदन ही बंद कर दो। बाप के साथ स्पंदन चालू रखेगा तो चलेगा, पर वाइफ के साथ स्पंदन खड़े हुए बगैर रहते ही नहीं न?
जीभ का, वाणी का, गड़बड़-घोटाला क्या है? वह अहंकार है पूर्वजन्म का। उस अहंकार से जीभ चाहे जैसा कह देती है और उसमें स्पंदनों का टकराव खड़ा होता है। आज तो जो भी दुःख हैं, वे अधिकतर जीभ के, वाणी के स्पंदनों के ही हैं।
नर्क में जाना पड़ता है और वे भुगतने के बाद हलका होकर, वापस आता है। हलके स्पंदन इकट्ठे किए हों, तो वह देवगति भोगकर वापस आता है। सागर बाधा नहीं डालता, पर हमारे द्वारा डाले गए पत्थरों के स्पंदन (उठनेवाली तरंगे) ही बाधा डालते हैं। यदि सागर की ओर ध्यान नहीं दिया, तो वह शांत ही है और जहाँ-जहाँ गड़बड़ की थी, उसीके ही, सागर के वही स्पंदन बाधक होते हैं।
भगवान ने क्या कहा है कि एक समय के लिए भी खुद, खुद का नहीं हुआ है। स्पंदनों में ही सारा समय गुजारता है। वे भी मौजें उछालते हैं और हम भी मौजें उछालते हैं, इसलिए डूबते भी नहीं और तैर भी नहीं पाते।
देह के स्पंदन बंधन नहीं करते हैं, पर मन के और वाणी के स्पंदन बंधन करते हैं। इसलिए भगवान ने उन्हें समरंभ, समारंभ और आरंभ के स्पंदन कहे हैं। पहले मन में स्पंदन उठता है। भगवान ने उसे समरंभ कहा है। जैसे चर्चगेट जाने का अंदर पहले विचार आया वह समरंभ। फिर अंदर ही वहाँ जाने की योजना बनाता है और डिसीज़न लेता है, निश्चय करता है और कहता है कि हमें तो चर्चगेट ही जाना है। ऐसे बीज बोया. उसे समारंभ कहा है। फिर वह पूरा निकल पड़ा चर्चगेट जाने के लिए, परा ही वह स्पंदनों की तरंगों में बह गया, उसे आरंभ कहा है। अब समस्या का हल कैसे हो?
मन का यदि तिरस्कार हो, तब फिर देख लो उस तिरस्कार के स्पंदन ! त्यागियों का तिरस्कार कठोर होता हैं। वीतराग तो, लाख तिरस्कार मिलें, फिर भी स्पंदन पैदा होने नहीं देते। खोखे (पेकिंग) में कभी स्पंदन पैदा करना ही मत। उनका तो नाश होनेवाला है, फिर चाहे वे हीरे के खोखे हों या मोती के। उनमें स्पंदन पैदा करके क्या मिलनेवाला है?
खुद अपने ही मन से फँसा है। ऊपर से शादी की, तो मिश्रचेतन में फँसा। वह भी फिर पराया। यदि बाप के साथ स्पंदन खड़े होते हैं, तो वाइफ के साथ क्या नहीं होंगे? वाइफ तो मिश्रचेतन है. अतः वहाँ
इस कलियुग में तो अच्छे कर्म करने का अवसर ही नहीं मिलता और खोटे कर्मों का हिस्सेदार होना पड़ता है। ज्ञान मिलने के बाद महात्माओं को गलत कर्मों में गलत हो रहा है, उस ज्ञान होने के कारण अच्छा नहीं लगता। यानी कि कार्य खोटा हो या खरा, तो भी वह निपटारे की बात हो गई और उतने तक ही स्पंदन खड़े होते हैं, जो शांत हो जानेवाले हैं। पर जिसे यह गलत हो रहा है, ऐसा भी मूढ़ात्म दशा में नहीं लगता है, उससे तो एक्शन यानी कार्य के स्पंदन और अज्ञान वश नये पैदा होते रिएक्शन के भावों के स्पंदन, इस प्रकार दोगुने स्पंदन होते हैं। अज्ञान है, इसलिए स्पंदन कब पैदा हो जाएँगे यह कहा नहीं जा सकता, फिर चाहे वह कोई भी हो, संसारी हो या त्यागी हो। क्योंकि जहाँ अज्ञान है, वहाँ भय बना रहता है और जहाँ भय है, वहाँ स्पंदन अवश्य होंगे।
एक चिड़िया शीशे के सामने आकर बैठ जाए, तो शीशा क्या करे उसमें? शीशा तो जैसा था वैसा ही है, पर अपने आप दूसरी चिड़िया अंदर आ पड़ी है। उसीके जैसी आँखे, वैसी ही चोंच दिखती है, और इस कारण उस चिड़िया की मान्यता बदलती है और अपने जैसी ही दूसरी चिड़िया है, ऐसा मान लेती है। इसलिए शीशेवाली चिड़िया को चोंच मारती रहती है। ऐसा है यह सब । स्पंदन से संसार खड़ा हुआ है। बिलीफ़ में जरा-सा बदलाव आया कि वैसा ही दिखाई देता है। फिर जैसी कल्पना करें, वैसा हो जाता है। शीशा तो एक आश्चर्य है। पर लोगों को सहज हो गया है, इसलिए दिखाई नहीं देता। यह तो ऐसा है न कि लोग सारा
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ज्वाला न भड़के, तो समझना कि सारे शास्त्र पढ़ लिए। गुरु-शिष्य में भी क्लेश हो जाता है!
दिन शीशे में चेहरा देखते रहते हैं, कंघी करते हैं, पफ-पाउडर लगाते हैं, इसलिए ये शीशे भी सस्ते हो गए हैं। वर्ना शीशा अलौकिक वस्तु है। कैसी है पुद्गल की करामात ! चिड़िया शीशे के सामने बैठती है, तो उसका ज्ञान नहीं बदलता, पर उसकी बिलीफ़, मान्यता बदलती है। उसे अंदर चिड़िया है, ऐसी बिलीफ़ बैठती है इसलिए चोंच मारती रहती है। ऐसा ही इस संसार में है। एक स्पंदन उछाला, उसके सामने कितने ही स्पंदन उछलते हैं। ज्ञान बदलता नहीं है, बिलीफ़ बदलती है। बिलीफ़ हर क्षण बदलती है। यदि ज्ञान बदलता, तो आत्मा ही नहीं रहता। क्योंकि आत्मा और ज्ञान दोनों एक दूसरे से अलग वस्तु नहीं है। आत्मा का स्वरूप ही ज्ञान स्वरूप है। जैसे वस्तु और वस्तु के गण साथ ही रहते हैं और अलग नहीं होते, वैसे। यह तो ऐसा है कि बिलीफ़ से कल्पना करें, वैसा हो जाता है।
क्लेश 'क्लेश के वातावरण में जिसे ज़रा भी क्लेश नहीं होता, वही मोक्ष
ज्ञानी पुरुष मिलने के बाद चाहे कैसा भी क्लेश का वातावरण हो, भीतर क्लेश खड़ा ही नहीं होता न? यह 'दादा' ने महात्माओं को कैसा ज्ञान दिया है? कभी क्लेश नहीं हो और वीतरागता जैसा सुख रहे। क्लेश खत्म हुआ, उसका नाम ही मुक्ति। यहीं मुक्ति हो गई।
क्लेश में तो क्या होता है? जी जलता ही रहता है। बुझाने पर भी बुझता नहीं। जी कोई जलाने के लिए नहीं है। कपड़ा जल रहा हो, तो जलने देना, पर जी मत जलाना। यह तो सारा दिन, रात-दिन क्लेश करते ही रहते हैं। थोडी देर मोह में डूब जाते हैं, और फिर क्लेश से जलते रहते हैं। सारा संसार क्लेश में ही डूबा है। आज तो सभी 'क्लेशवासी' ही हैं। वह तो, मूर्छा के कारण भूल जाते हैं। बाकी क्लेश मिटता नहीं और क्लेश जाए, तो मुक्ति!
आज तो सर्वत्र क्लेश की तरंगे फैल गई हैं। खाते समय भी क्लेश और यदि ज्यादा क्लेश हो जाए, तो खटमल मारने की दवाई ले आते हैं। आजकल तो जब सहन नहीं होता तब मए, खटमल मारने की दवाई पी लेते हैं। पर क्या इस से समस्या का अंत हो गया? यह तो आगे धकेला, जो कि कई गुना होकर वापिस आएगा और उसे भुगतना पड़ेगा। उसके बजाय किसी तरह यह समय बिता दो न? वर्ना यह तो निरी नासमझी ही है।
क्लेशमय वातावरण तो आता ही रहता है। धूप नहीं निकलती? दरवाजे हवा से फट-फट नहीं होते? ऐसा तो होता रहता है। दरवाजे टकराते हों, तो थोड़े दूर खड़े रहें। यदि क्लेश का वातावरण नहीं होता, तो मुक्ति का स्वाद कैसे लेते? 'दादा' का मोक्ष ऐसा है कि चारों ओर क्लेश का वातावरण हो, फिर भी मुक्ति रहे!
भगवान ने किसी चीज़ को बंधन नहीं कहा है। खाते हैं, पीते हैं वह प्रकृति है, पर आत्मा का क्लेश मिटा, वही मोक्ष। बाकी खिचड़ी हो या कढ़ी, उसमें कुछ बदलनेवाला नहीं है।
चाहे किसी भी समय, चाहे कैसा भी वातावरण हो फिर भी क्लेश न हो, तो तूने सारे शास्त्र पढ़ लिए। बाहर कैसा भी वातावरण हो और उसमें वमन होने जैसा भी लगे और मुँह पर हाथ रखकर उसे दबाने का प्रयत्न करके खुद को स्वच्छ दिखाए, वैसे ही भीतर क्लेश होने पर भी
ये दु:ख आए कहाँ से? दुखियारों की शरण ली, इसलिए ही। सुखी मनुष्य की शरण ली होती, तो दु:ख आते ही कहाँ से? 'दादा' तो संपूर्ण सुखी हैं, इसलिए उनकी शरण में आने के बाद कोई कठिनाई ही क्यों आए? जो अवसरवादी हैं और जिन्हें कोई न कोई मतलब है, वे दुखियारे हैं। ऐसों की शरण ली, तो फिर दु:खी ही होंगे न? जो दुखियारा है, खुद अपनी दरिद्रता दूर नहीं कर सका है, तो वह हमारी क्या दूर करेगा। जो पूर्ण स्वरूप हैं, अनंत सुख के धाम हैं, जिन्हें किसी
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भी तरह का कोई स्वार्थ नहीं हैं, जिन्हें कोई इच्छा नहीं रही, उनके पास जाकर उनकी शरण लेने पर ही पूर्ण हो सकते है।
क्लेश जब बढ़ जाए, तो उसे कलह कहते हैं। इसलिए कलह करनेवाले के साथ लोग मैत्रीभाव कैसे रख सकते हैं? यह तो खट्टी छाछ को फीकी करने जैसा है, इससे तो वे खुद भी खट्टे हो जाएंगे। इनसे तो दूर रहें, तो अच्छा या फिर ज्ञानी हुए हों, तो अच्छा। ज्ञानी हों वे तो जानते हैं कि ऐसा रिकॉर्ड तो चारों ओर बजता है। भीतर आत्मा शुद्ध है न? पर जेल में आ फँसे हैं, तो क्या हो? क्लेश का जंजाल तो कैसा! घर के सारे लोग एक के ऊपर टूट पड़ते हैं। फिर घर में ही युद्ध ! फिर क्या दशा हो? यदि मित्र ने कहा हो कि घर पर भोजन को आना, तब वह बेचारा कहेगा, 'नहीं भैया, मैं नहीं आ सकता। यहाँ घर में फिर क्लेश होगा।' बेचारा शांति से सो तक नहीं पाता। क्षण-क्षण क्लेश, वह भी अनिवार्य रूप से भुगतना पड़ता है। घर में ही, वहीं उसी क्लेशमय वातावरण में रहना पड़ता है। कर्मों का कैसा उदय! वे भी फिर अपने खुद के ही सगे संबंधियों के साथ! वेदना से मुक्त नहीं हो सकें, ऐसा यह संसार है।
एक भाई मेरे पास आए थे। मुझसे कहा, 'दादाजी मैंने विवाह तो किया है, पर मुझे मेरी बीवी पसंद नहीं है।'
दादाश्री : क्यों भाई, पसंद नहीं आने का कारण क्या है? प्रश्नकर्ता : वह थोड़ी लंगड़ी है, लंगड़ाती है। दादाश्री : तेरी बीवी को तू पसंद है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : दादाजी, मैं तो पसंद आऊँ, वैसा ही हूँ न? खूबसूरत हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ, कमाता हूँ और कोई शारीरिक त्रुटि भी नहीं है।
दादाश्री : फिर तो भूल तेरी ही है। तूने ऐसी कौन-सी भूल की थी कि तुझे लंगड़ी पत्नी मिली और उसने कैसे अच्छे पुण्य किए थे कि उसे तेरे जैसा अच्छा पति मिला?
अरे! यह सब अपने ही किए हुए कर्म, अपने सामने आते हैं, उसमें सामनेवाले का दोष क्यों देखता है? जा, तेरी भूल भुगत ले और दोबारा ऐसी भूल मत करना। वह समझ गया और उसकी लाइफ फ्रेक्चर होते-होते बच गई और सुधर गई।
मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ भाग है, क्लेश को मिटाना। क्लेश मिट गया वही सबसे बड़ा सुख है। ज्ञान भले ही न हो पर घर में धरम-करम है. ऐसा कब कह सकते हैं? तब कहे, घर में चाहे जैसा वातावरण हो, खुद सहन कर ले और टकराव हो फिर भी क्लेश पैदा न करे, धमाका न करे, वही खानदानी कहलाता है। तब तक घर में भगवान का वास रहता है। जहाँ घर में क्लेश हो, वहाँ सबकुछ खतम हो जाएगा। भगवान का वास तो रहता ही नहीं और लक्ष्मीजी भी चली जाती हैं।
जो धार्मिक परिवार हो, वह क्लेश होने नहीं देता और यदि साल में एकाध बार हो जाए, तो दरवाजे बंद कर लेता है और घर के अंदर ही दबा देता है। ऐसा क्लेश पुन: नहीं हो यही लक्ष्य में रखता है।
संपूर्ण प्रामाणिकता, लेने से पहले वापस लौटाना है, ऐसी भावना आदि और लक्ष्मी के नियमों का पालन करें, तो लक्ष्मीजी राजी रहती हैं। बाकी, लक्ष्मीजी के कायदों का पालन नहीं करें और लक्ष्मीजी की पूजा करें, तो वह कैसे राजी हों?
भगवान कहते हैं कि यह संसार कब तक है? तब कहे, मन क्लेशयुक्त रहे, तब तक। मन क्लेशरहित हुआ, तो मुक्ति। फिर जहाँ मन जाए वहाँ समाधान रहता है।
यह छोटा बच्चा यहाँ हमारी वाणी सुनता है, तो उसे भी ठंडक लगती है। वह भी ठंडे पानी को ठंडा और उबले हुए पानी को उबला हुआ समझता है। घर में झगड़ा हो तब देखता है कि पापा ने मम्मी से ऐसा कहा और मम्मी ने पापा से ऐसा कहा। वह समझ होती है उसमें। इसलिए फिर मन ही मन सोचता है कि फलाँ का दोष है। मैं छोटा हूँ
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इसलिए मेरी नहीं चलती, पर बड़ा होकर बताऊँगा। बच्चा तो क्लेशवाली दृष्टि भी समझता है और शांत दृष्टि भी समझता है।
क्लेश का काल तो जैसे-तैसे करके बीत जाता है, पर उस समय अनंत जन्मों के बंधन बाँध लेता है। अनंत जन्मों के क्लेश के बीज भरे पड़े हैं, इसलिए सामग्री मिलते ही क्लेश खड़ा हो जाता है। ज्ञानी पुरुष भरे हुए क्लेश बीजों को जला डालते हैं। फिर क्लेश खड़ा नहीं होता।
श्रीमद् राजचंद्रजी कहते हैं, 'जिनके घर एक दिन बिना क्लेश का जाएगा, उन्हें हमारे नमस्कार हैं।'
वास्तव में सुख-दुःख क्या है?
दुःख तो किसे कहते हैं? ज्ञानी की संज्ञा में तो दुःख है ही नहीं। लोकसंज्ञा से ही दुःख हैं। ज्ञानी की संज्ञा से दुःख कभी आता नहीं है और लोकसंज्ञा से तो इधर गया, तो भी दुःख और उधर गया, तो भी दु:ख, वहाँ कभी भी सुख नहीं है।
दुःख तो कब कहलाता है? कि खाने गए हों और खाना नहीं मिले और अंदर पेट में आग लगी हो, उसे दुःख कहते हैं। प्यास लगी हो और पीने को पानी नहीं मिले, वह दुःख है। नाक दबाने पर पाँच ही मिनट में दम घुटने लगे वह दुःख है। यह बाहर से चाहे जितना टेन्शन आया, तो चलेगा, मगर भूख-प्यास और हवा का नहीं चलता। क्योंकि और सारा टेन्शन तो कितना भी क्यों न आए, सहन होता है, उससे मर नहीं जाते। पर लोग तो बिना काम के टेन्शन लिए फिरते
कि यह अच्छा है तो सुख लगता है। सामनेवाले को जैसा पसंद हो, वैसा करें, तो पुण्य बंधता है। बुद्धि का आशय बदलता रहता है, पर मरते समय जो आशय होता है, उसके अनुसार परिणाम आता है।
यह इवोल्यूशन (उत्क्रांति) है। पहले मील का ज्ञान हो. वह दूसरे मील पर फिर उत्क्रांत होता है। पिछले जन्म में चोरी का अभिप्राय हो गया हो, पर इस जन्म में ऐसा ज्ञान हो कि यह गलत है, तो उसके मन में रहता है कि यह गलत हो रहा है। पर चोरी तो पहले के आशय में सेट हो चुकी थी और इसलिए चोरी होती ही रहती है। एग्रीमेन्ट फाड़ा नहीं जा सकता। जो एग्रीमेन्ट हो चुका है, वह अधूरा नहीं रहता, पूरा होता ही है। उससे पहले मरता नहीं है। हम क्या कहते हैं कि तेरा जो उलटा आशय है, उसे तू बदल दे। चोरी नहीं करनी है, ऐसा तू बार-बार तय करता रह। जितनी बार चोरी करने का विचार आए, उतनी बार तू उसे जड़ से उखाड़ता रहे, तो तेरा काम होगा। सुलटा होता जाएगा।
संसार के लोगों को व्यवहार धर्म सिखलाने के लिए हम कहते हैं कि परानुग्रही बन। अपने खुद के बारे में विचार ही न आए। लोककल्याण हेतु परोपकारी बन। यदि आप अपने खुद के लिए खर्च करेंगे, तो वह गटर में जाएगा और दूसरों के लिए कुछ भी खर्च करें, तो वह आगे का एडजस्टमेन्ट है।
शुद्धात्मा भगवान क्या कहते हैं? 'जो दूसरों का ध्यान रखता है, मैं उसका ध्यान रखता हूँ और जो खुद का ही ध्यान रखता है, उसे मैं उसके हाल पर छोड़ देता हूँ।'
दोष दृष्टि प्रश्नकर्ता : सामनेवाले में जो दोष दिखते हैं, वह दोष खुद में होता है क्या?
प्रश्नकर्ता : एक को सुख पहुँचता है और दूसरे को दुःख ऐसा
क्यों?
दादाश्री : सुख-दुःख कल्पित हैं, आरोपित हैं। जिसने कल्पना की
दादाश्री : नहीं, ऐसा कोई नियम नहीं है, फिर भी ऐसा दोष होता
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है। यह बुद्धि क्या करती है? खुद के दोष ढँकती है और दूसरों के देखती है। यह तो उलटे मनुष्य का काम है। जिसकी भूलें नष्ट हो गई हैं, वह दूसरों की भूलें नहीं देखता। ऐसी बुरी आदत ही नहीं होती, सहज ही निर्दोष देखता है। ज्ञान ऐसा होता है कि ज़रा-सी भी भूल नहीं देखता ।
दोष तो सभी के गटर हैं। ये बाहर के गटर हम खोलते नहीं हैं, छोटे बच्चे को भी वह अनुभव होता है। रसोईघर रखा है तो गटर तो होना ही चाहिए न? परंतु उस गटर को खोलना ही नहीं। किसी में कोई दोष हो, कोई चिढ़ता हो, कोई उतावला होकर घूमता हो, ऐसा देखना वह गटर खोला कहलाता है। उसके बजाय गुणों को देखना अच्छा। गटर तो अपना खुद का ही देखने योग्य हैं। पानी भर गया हो, तो खुद का गटर साफ करना चाहिए। यह तो गटर भर जाता है, पर समझ में नहीं आता और समझ में आए, तो भी करे क्या ? आखिर वह अभ्यस्त हो जाता है, उसीसे तो ये सारे रोग पैदा हुए हैं। शास्त्र पढ़कर गाते हैं कि किसी की निंदा मत करना, पर निंदा तो चालू ही रहती है।
किसी के बारे में ज़रा उलटा बोला, तो उतना नुकसान तो हुआ ही समझो। यह बाहरवाले गटर के ढक्कन को कोई नहीं खोलता, पर लोगों के गटर के ढक्कन खोलते ही रहते हैं।
किसी की निंदा करने का मतलब है, अपना दस रुपये का नोट देकर एक रुपया लेना । निंदा करनेवाला हमेशा खुद का ही नुकसान करता है। जिसका कोई फल नहीं मिलता हो, ऐसी मेहनत हम नहीं करते। निंदा से आपकी शक्तियों का दुर्व्यय होता है। यदि हमें पता चले कि यह तिल नहीं है पर रेत है, तो फिर उसे पेलने की मेहनत क्यों करें? टाइम और एनर्जी दोनों वेस्ट होते है। निंदा करके तो सामनेवाले का मैल धो दिया और तेरा अपना कपड़ा मैला किया। इसे अब कब धोएगा, मुए?
यह हमारे 'मुआ' शब्द का भाषांतर या अर्थ आप क्या करेंगे? इस शब्द का गूढ़ अर्थ है। इसमें उलाहना तो है, मगर तिरस्कार नहीं हैं। बहुत गहरा शब्द है। हमारी ग्रामीण भाषा है, पर है पावरफुल। एक-एक वाक्य
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पर विचार करने लगें, ऐसा है क्योंकि यह तो ज्ञानी की हृदयस्पर्शी वाणी है, साक्षात सरस्वती !
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स्मृति
प्रश्नकर्ता: दादाजी, भूतकाल भूल नहीं सकते, ऐसा क्यों?
दादाश्री : भूतकाल अर्थात् याद करने पर याद नहीं आता और भूलना चाहें, तो भुलाया नहीं जाता, उसका नाम भूतकाल । सारे संसार की बहुत इच्छा है कि भूतकाल भुलाया जा सके, पर बिना ज्ञान के संसार की विस्मृति नहीं हो सकती ।
यह याद आती है, वह राग-द्वेष के कारण है। जिसका जिस वस्तु पर जितना राग है, उतनी वह वस्तु उसे याद आया करती है और यदि द्वेष हो, तब भी वह वस्तु ज़्यादा याद आया करती है। बहू सास को भूलने पीहर जाती है, पर भूल नहीं पाती, क्योंकि द्वेष है, अच्छी नहीं लगती। जब कि पति याद आता है, क्योंकि सुख दिया था इसलिए राग है। जिसने बहुत दुःख दिया हो या बहुत सुख दिया हो, वही याद आता है, क्योंकि राग-द्वेष से बंधे हैं। उस बंधन को मिटा दें, तब विस्मृत हो जाएगा। अपने आप ही विचार आया करें, उसे 'याद' आना कहते है। यह सब धो दिया जाए, तो स्मृति बंद हो जाती है और उसके बाद मुक्त हास्य उत्पन्न होता है। स्मृति है इसलिए तनाव रहता है। मन खिंचा हुआ रहता है, इसलिए मुक्त हास्य उत्पन्न नहीं होता। सबको अलग-अलग याद आया करता है। एक को याद आता हो वह दूसरे को याद नहीं आता, क्योंकि सबके अलग-अलग ठिकानों पर राग-द्वेष होते हैं। स्मृति राग-द्वेष के कारण है।
प्रश्नकर्ता: दादाजी, उसे निकालनी तो पड़ेगी न?
दादाश्री : स्मृति इटसेल्फ बोलती है कि हमें निकालो, धो डालो। यदि स्मृति नहीं आती, तो सब गड़बड़ हो जाता। वह यदि नहीं आएगी, तो आप किसे धोएँगे? आपको मालूम कैसे होगा कि कहाँ पर राग-द्वेष
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आप्तवाणी - १
हैं? स्मृति आती है, वह तो अपने आप निकाल होने के लिए आती है। बंधन को मिटाने आती है। यदि स्मृति आए और आप उसे धो डालें, साफ कर डालें, तो धुलकर विस्मृत हो जाएगी। याद इसलिए ही आता है कि आपका यहाँ लगाव है, उसे मिटा दीजिए, उसका पश्चात्ताप कीजिए और फिर से ऐसा नहीं होगा, ऐसा दृढ़ निश्चय कीजिए। इतना करने से वह खत्म होती है इसलिए फिर वह विस्मृत हो जाता है। जो ज्ञान जगत् विस्मृत कराए, वह यथार्थ ज्ञान है।
विधा
भगवान ने कहा था कि असुविधा में सुविधा खोज निकालना । असुविधा में ही सुविधा होती है। परंतु खोजना आए तब न?
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सोफ़ा पाँच साल पुराना हो, तो उसके मालिक को वह असुविधाजनक लगने लगता है। ओल्ड टाइप का हो गया है, ऐसा लगता है। यह तो सुविधा में असुविधा पैदा की। आजकल तो ईज़ी चेयर में बैठकर लोग अनईजी रहते हैं। अरे, पूरी जिंदगी में एक ही दिन अनईज़ी होना होता है, पर यह तो सदा ही अनईज़ी रहता है। सारा दिन उलीचता ही रहता है। इस मुंबई में भरपूर सुख पड़ा है, पर यह तो सारा दिन दुःख में ही पड़ा रहता है। असुविधा तो तब कहलाए कि जब नये-नये सोफे के, पाँच ही दिनों में पाये टूट जाएँ। पर यह तो नये सोफे की सुविधा में असुविधा पैदा की। पड़ोसी के घर सोफासेट आया, इस पर पति के साथ छः महीने तक झिकझिक करके, रुपये उधार लेकर पत्नी, नया सोफासेट ले आई। वह जब टूटा, तो उसका जी जल गया। अरे, जी भी कोई जलाने की चीज़ है ? कपड़ा जले, तो हर्ज नहीं पर जी तो जलाना ही नहीं चाहिए। अपने तो कैसा रहना चाहिए कि किसी की नकल नहीं करनी है। कम अक्कलवाले ही नकल करते हैं और दुःखी होते हैं। आजकल कौन सोफासेट नहीं लाता है ? वैसा हम भी ऐसा करें? हमें तो नकल नहीं असल होना चाहिए। घर में बैठक रूम में असल भारतीय बैठक लगाना । गद्दी तकिये
आप्तवाणी - १
और स्वच्छ सफेद चद्दर, ताकि फिर किसी की नकल नहीं करनी पड़े और बैठने में भी कैसी सुविधा ! वास्तव में चीजें तो कितनी होनी चाहिए? खाने-पीने की, पहनने की और रहने की सुविधा हो, तो काफ़ी हो गया। जब कि आजकल तो सुविधा के नाम पर नये-नये दुःख खड़े करते हैं। वास्तव में दुःख संसार में नाम मात्र को भी नहीं है। यह तो नासमझी में दुःख पैदा करते हैं।
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पड़ोसी आज बुलाए और कल नहीं भी बुलाए । उसमें रोज़-रोज़ बुलाने में क्या सुविधा ? बुलाए, तो लगता है कि उसे मेरी क़ीमत है । इसलिए अच्छा लगता है। नहीं बुलाए, तो बुरा लगता है। ऐसा रखो बुलाए, तो भी अच्छा नहीं बुलाते, तो भी अच्छा।
खुद के पास भरपूर सुख पड़ा है, पर कैसे निकालना यह मालूम नहीं है। एक ही तरह का सुख, एक ही तरह का माल है पर यह तो समाज ने स्तर बनाए हैं। वास्तविक क्या है, जानें तो सुख मिले। कब तक इस काल्पनिक सुख में रहेंगे? पर करें क्या? आ फँसे हैं भैया आ फँसे! फिर करें क्या?
यह कैसी बात है, मैं आपको बताता हूँ। एक बनियाभाई और एक मियाँभाई में पक्की दोस्ती थी। एकबार मुहर्रम के दिनों में दोनों घूमने निकले। रास्ते में ताज़ियों का जुलूस जा रहा था। बनिया मित्र से दो मिनट में आता हूँ कहकर, मियाँभाई जुलूस में शामिल होकर 'या हुसैन, या हुसैन' करने लगे। बनिये ने तो बहुत राह देखी, पर मियाँभाई तो बाहर आने का नाम ही नहीं लेते थे। वे तो मग्न हो गए थे। आख़िर घंटाभर बितने के बाद बनिया ऊब गया और जुलूस में घुसकर मियाँ का हाथ पकड़कर बाहर खींचने लगा तो मियाँभाई ने उसे ही अंदर खींच लिया कहे, "बस, दो मिनट 'या हुसैन, या हुसैन' कर लेते हैं, हम दोनों फिर निकल जाएँगे।" बनियाभाई मुँह लटकाकर बोले, 'आ फँसे भैया आ फँसे । '
एक बार आ फँसने के बाद निकलना मुश्किल है। वह तो ज्ञानी
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पुरुष मिलें और हाथ खींचकर बाहर निकालें, तब निकल सकते हैं। इस भ्रांति के फँसाव में से तो भ्रांति जाने पर ही छट सकते हैं। मगर वह भ्रांति जाए कैसे? वह तो ज्ञानी पुरुष झकझोरकर जगाएँ, तभी भ्रांति जाती है। उनके सिवाय और किसी का काम नहीं है यह। उनके बिना तो ज्योंज्यों छूटने जाएँ त्यों-त्यों ज्यादा और ज्यादा फँसते जाते हैं।
चार्ज और डिस्चार्ज दर्शनमोह अर्थात् चार्ज मोह और चारित्रमोह अर्थात् डिस्चार्ज मोह। पानी, दर्शन मोह है और बर्फ चारित्रमोह है। चार्ज किस कारण से होता
वहीं का वहीं, दुकान की साड़ी में ही होता है। इस पर पति भी चंदन से पूछता है कि आज तबियत ठीक नहीं क्या? मँह उतर गया है न! उस बेचारे को क्या पता कि यह जो घर में घूम-फिर रहा है, वह तो पुतला ही है, चंदन का चित्त तो दुकान पर साड़ी में है। इसे ही भगवान ने 'चार्ज-मोह' कहा है।
चेतन जड़ को स्पर्शा कि खुद के स्वरूप का भान चला जाता है और इसलिए चार्ज होता है। जो-जो बहुत याद आते हैं, उनमें तन्मयाकार होता है, उसके कारण ही चार्ज होता रहता है। याद क्या आता है? जिस पर बहुत राग होता है अथवा तो बहुत द्वेष होता है। जो डिस्चार्ज हो रहा है, उसके प्रति राग-द्वेष करें, तो आत्मा की स्वभाविक कल्पशक्ति विभाविक रूप से विकल्प होकर उसमें मिलती है, उससे चार्ज होता रहता है। ऐसे ही संसारक्रम चलता रहता है। भूल के कारण चार्ज हुआ है, भ्रांति से भरा गया है, वह डिस्चार्ज होता रहता है।
राह चलते, 'चंदन' ने दुकान में साड़ी देखी और उसमें तन्मयाकार हो गई। दुकान में साड़ी देखी उसमें हर्ज नहीं है, पर उसके लिए मोह उत्पन्न हुआ, उसीका हर्ज है। साड़ी को देखा और पसंद आई, वह डिस्चार्ज मोह है, पर चंदन उसमें ऐसी तन्मयाकार होती है कि जो मोह डिस्चार्ज होने लगा था, वह फिर से चार्ज हो जाता है। चंदन साड़ी में ऐसी तन्मयाकार होती है कि साड़ी सवा छ: मीटर लम्बी हो, तो चंदन भी सवा छ: मीटर की हो जाती है। साढे तीन मीटर चौडी हो. तो वह भी साढ़े तीन मीटर चौड़ी हो जाती है। साड़ी में जितने फूल हों या शीशे हों उतने चंदन को भी हो जाते हैं। प्रतिष्ठित आत्मा उसमें ही रमा हुआ रहता है। इसलिए चंदन जब वापिस घर आती है, तब फिर भी चित्त तो
अच्छे से अच्छे पकौड़े या अच्छे से अच्छी मिठाई मिले और खाए उसमें हर्ज नहीं है, पर उसमें स्वाद रह जाए. तो चार्ज होता है। तन्मयाकार होकर पकौड़े और मिठाई खाए, तो पकौडे और मिठाई के जैसा हो जाता है और मोह फिर से चार्ज करता है।
व्यापार करते हैं, वह डिस्चार्ज हो रहा है। पूर्व जन्म में ऐसा चार्ज किया था, इसलिए व्यापार शुरू किया और शुरू किया तब से ही डिस्चार्ज होता है, पर उसमें तदाकार होकर फिर से चार्ज करते हैं।
जन्म से मृत्यु पर्यंत सभी डिस्चार्ज होता है। अभी का यह मनुष्य जन्म भी डिस्चार्ज है। पिछले जन्म में मनुष्य होना चार्ज किया था, जो अब डिस्चार्ज हो रहा है। डिस्चार्ज का तो भगवान को भी एतराज नहीं है, पर डिस्चार्ज के समय आपका ध्यान कहाँ बरतता है, उसकी कीमत है। भगवान के दर्शन को मंदिर गया, भगवान की मूर्ति के दर्शन किए
और साथ-साथ बाहर रखे जूतों की भी फोटो ली (मेरे जूते सलामत हैं न!)। दर्शन किए, वह डिस्चार्ज हुआ और जूतों की फोटो खींची, वह चार्ज किया।
पानी पीया वह चार्ज कहलाता है क्योंकि उसमें खुद को कर्ता मानता है। फिर पानी का पेशाब बनता है। जब वह बाहर आता है, वह डिस्चार्ज है।
मनुष्य खुजलाता है, वह डिस्चार्ज है, पर खुजलाने में आनंद आता है। देह की जो स्थूल क्रियाएँ हैं, वे डिस्चार्ज स्वरूप है, उसमें आनंद लेने जैसा भी नहीं है और चिंता करने जैसा भी नहीं है। आनंद आता है, वह 'प्रतिष्ठित आत्मा' को आता है, उसको जाननेवाला खुद
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'शुद्धात्मा' है। वह जानता है, खुजलाने पर अभी जलन होगी तब मालूम होगा। पर वहाँ उस आनंद में तन्मयाकार हो जाता है, इसलिए फिर चार्ज होता है। डिस्चार्ज मोह खप रहा है, पर तन्मयाकार होकर अगले जन्म के लिए फिर चार्ज करता है। मनुष्यपन चार्ज करने जाता है, पर हो जाता है गधा। ऐसा बिना ठौर-ठिकाने का है सब। हिताहित का भान ही नहीं है, इसलिए करने जाए क्या और हो जाता है क्या? लोकनिंद्य कार्य होता हो, वहाँ मन-वचन-काया से कह देना और उन्हें खींच लेना, पर लोकमान्य हो, तो हर्ज नहीं है। लोकअमान्य हो, वहाँ पर उपाय करना पड़ता है। मिकेनिकल 'मैं' को कंट्रोल में रखने की सत्ता मूल 'मैं' की नहीं है। इंजन चालू होने के बाद बंद करने की सत्ता रहती नहीं है। चार्ज होने के बाद डिस्चार्ज होगा ही। उसमें भगवान की भी सत्ता नहीं थी। डिस्चार्ज में तो बैटरी जैसी चार्ज हुई होगी, वैसी ही डिस्चार्ज होगी। मूल स्वरूप में 'मैं' जानने के बाद कोई बैटरी चार्ज नहीं होती। चार्ज बंद हो जाता है। स्वरूप का ज्ञान मिलने के बाद डिस्चार्ज में दखल नहीं होता, पर काफी कुछ तो पुरुषार्थ से खप जाता है।
नहीं है। जन्में तब से ही मन-वचन-काया की तीन बैटरियाँ डिस्चार्ज होती रहती हैं। क्योंकि पूर्व जन्म में चार्ज किया था इसलिए। डिस्चार्ज हो तब पता चलता है कि उलटा चार्ज किया था। इसलिए फिर से सुलटा चार्ज करें, तो सुलटी लाइफ जाएगी। बाकी आज की तो सारी फिल्म तैयार हो चुकी है, वही है। अब जो रोल अदा करने को आया है, उसे अदा कर। जो फिल्म आज परदे पर दिखाई देती है, उसकी शूटिंग तो पहले कब की हो चुकी है, पर आज उसे वह पर्दे पर देख रहा है। उसमें जब अनचाहा आता है, तब चिल्लाता है कि कट करो, कट करो, मगर अब कट कैसे हो सकती है? वह तो जब शूटिंग कर रहे थे, तब सोचना था न? चार्ज करते थे, तब सोचना था न? अब तो कोई बाप भी बदल नहीं सकता। इसलिए बिना राग-द्वेष किए चुपचाप फिल्म पूरी कर दे।
सारा संसार ही चार्ज के वश में हो गया है।
रुचि-अरुचि, लाइक एन्ड डिस्लाइक. सभी अब डिस्चार्ज मोह है और राग-द्वेष चार्ज मोह है। चार्ज भगवान की आज्ञा के विरुद्ध है, डिस्चार्ज भगवान की आज्ञा के विरुद्ध नहीं है।
लोग डिस्चार्ज मोह के पत्ते काटते रहते हैं, पर चार्ज मोह तो चालू ही है, तो कैसे पार आए? कुछ तो डालियाँ काटा करते हैं, कुछ सारा तना ही काट देते हैं, पर जब तक जड़ रहेगी, तब तक वह फिर से उगता जाएगा। इसलिए लोग चाहे जितने उपाय करें, इस संसार वृक्ष को निर्मूल करने के लिए वैसे हल निकलनेवाला नहीं है। वह तो ज्ञानी पुरुष का ही काम है। ज्ञानी पुरुष पत्ते, डाली, तना किसी को नहीं छूते, अरे! छोटीछोटी असंख्य जड़ों को भी नहीं छूते। वे तो वृक्ष की मुख्य जड़ को जानते है और पहचानते हैं। वहाँ पर चुटकी भर दवाई लगा देते हैं, जिससे सारा वृक्ष सूख जाता है।
ज्ञानी पुरुष और कुछ नहीं करते। वे केवल आपकी चार्ज बैटरी को सरका कर दूर रख देते हैं, ताकि फिर से चार्ज नहीं हो। आपका चार्जिंग पोइन्ट ही पूरा का पूरा उड़ा देते हैं।
चार्जेबल मोह चार्ज होता है, पूरण होता है। १ अंश, २ अंश, ३ अंश ऐसे पूरण होते होते ५०० तक पहुँचता है। अब मोह डिस्चार्ज होता है, तब कैसे होता है? पहले एकदम से ५०० पर आता है। जैसे, क्रोध पहले ५०० डिग्री का आता है, फिर ४५० पर आता है, फिर ४०० पर आता है, ऐसा करते-करते अंत में २ पर आकर खतम हो जाता है, संपूर्ण डिस्चार्ज होता है। प्रत्येक वस्तु डिस्चार्ज में एकदम से आती है, फिर धीरे-धीरे घटती जाती है। क्रोध पहले ५०० पर आकर एकदम धमाका करता है। ५०० से शुरू होकर फिर धीरे-धीरे खत्म होता जाता
राह चलते रुचि-अरुचि उत्पन्न हो, ऐसा होता रहता है। हमारी इच्छा नहीं हो, फिर भी रुचि-अरुचि होती रहती है, पर रुचि क्यों होती है और अरुचि क्यों होती है? इस पर कोई विचार ही नहीं करता। तेरी इच्छा नहीं हो, तो भी उसमें परिवर्तन संभव नहीं है। तेरी इच्छा की बात
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बाकी चाहे जो भी उपाय करे मगर जब तक चार्ज बंद नहीं होता तब तक मोह नहीं छूटता, फिर तू चाहे जो भी त्यागे या जो भी करे, चाहे उलटा लटके पर मोह नहीं छूटनेवाला। उलटे और अधिक फँसता जाएगा। पचास प्रकार के (पच्चीस चार्ज और पच्चीस डिस्चार्ज) मोह जाएँ, तो हल निकलेगा। ___'मैंने यह किया' ऐसा कहा कि चार्ज हुआ। मैंने दर्शन किए, प्रतिक्रमण किए, सामायिक की ऐसा कहा कि चार्ज हो गया। नाटकीय भाषा में बोलें, तो हर्ज नहीं है, पर निश्चय से बोलें, तो उसका मद चढ़ता है। इसलिए डिस्चार्ज होते समय नया चार्ज भी होता है। चार्ज हमारे हाथों में है, डिस्चार्ज हमारे हाथों में नहीं है। मात्र मोक्ष की ही इच्छा करने जैसी है, तो मोक्ष का मार्ग मिल जाएगा। मोक्ष की इच्छा का चार्ज करो
प्रश्नकर्ता : कल्पना और इच्छा में क्या अंतर है?
दादाश्री : कल्पना मूल स्वरूप की अज्ञानता से खड़ी होती है और इच्छा डिस्चार्ज के कारण होती हैं। पर मूल इच्छा जो खड़ी होती है, वह कल्पना में से खड़ी होती है। ऐसा है, आकाश से पानी बरसता है, आकाश अपनी जगह पर ही है, हवा चलती है और ऊपर का पानी नीचे के पानी में पड़ता है, तब बुलबुले बनते हैं। बरसात होती है उसमें किसी की इच्छा नहीं है, न हवा की, न पानी की। ऐसा है यह सब!
प्रश्नकर्ता : चार्ज हुआ या डिस्चार्ज यह लक्ष्य में कैसे आए?
दादाश्री : 'मैं चंदूलाल हूँ,' ऐसा भान हुआ तब से चार्ज हुआ। 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसी सभानता रहे, तो कुछ भी चार्ज नहीं होता। पर यदि डाँवाडोल हो, तो चार्ज होता है। पर ऐसा कौन करेगा? जितनेजितने चार्ज के लक्षण दिखाई देते हैं, वे भी डिस्चार्ज हैं। चार्ज होता है या डिस्चार्ज इसका पता नहीं चलता, यदि इसका पता चल जाता, तो हर कोई चार्ज बंद कर देता। वह तो ज्ञानी पुरुष के बगैर कोई उसे समझा नहीं सकता। खुद 'शुद्धात्मा' है, इसलिए डिस्चार्ज ही है। यदि चंदूलाल हुआ तो चार्ज है। जब डिस्चार्ज होता है, तब उस पुरानी बैटरी का इफेक्ट सहन नहीं होता, इसलिए उसके असर से ही नयी बैटरी चार्ज होती रहती है।
न?
देखने का अधिकार सभी को है, पर चिंतन का नहीं है, उसमें तन्मय होने का नहीं है। देखते तो ज्ञानी पुरुष भी हैं पर चिंतन में अंतर है। इस मोहमयी नगरी (मुंबई) में सभी घूम-फिर रहे हैं और ज्ञानी पुरुष भी घूमते हैं, पर किसी वस्तु का उन्हें चिंतन नहीं होता है। कहीं पर भी उनका चित्त नहीं जाता है।
भावकर्म चार्ज बैटरी है। आत्मा के अत्यंत निकट पड़ी है, इसलिए निरंतर चार्ज होती रहती है। उस बैटरी का चार्ज होना हमने बंद कर दिया, इसलिए महात्माओं के अब डिस्चार्ज बैटरी ही रही। अब तो जिस भी भाव से डिस्चार्ज होना हो, होता रहे। 'हम' उसे देखेंगे। मन आगे-पीछे होता हो, तो उसे जानना और सीधा हो उसे भी जानना, ताकि चार्ज नहीं हो। अब तो जिसे आना हो वह आए। यह हो, तो भी ठीक और नहीं हो, तो भी ठीक।
चार्ज होना शुरू हो, तो चिंता शुरू हो जाती है। भीतर जलने लगता है। अग्नि सुलगती है। आकुलता और व्याकुलता में रहते हैं। जब कि अकेले डिस्चार्ज में ऐसा नहीं रहता। निराकलता रहती है, क्योंकि उसमें तन्मयाकार नहीं हुआ होता है।
भगवान कहते हैं, 'यदि डिस्चार्ज होता है, तब उसकी ज़िम्मेदारी हमारी है, पर चार्ज मत होने देना' इन दो वाक्यों में ही दनिया के सभी शास्त्रों का ज्ञान समाया हुआ है।
चार्ज बंद हुआ, इसलिए डिस्चार्ज बंद ही हुआ कहलाएगा। मोह
'भावकर्म ही चार्ज बैटरी है।' इन पाँच शब्दों में भगवान के पैंतालीस के पैंतालीस आगम समा गए। बाकी एक मोह को निकालने में लाख-लाख जन्म लेने पड़ते हैं।
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'मैं करता हूँ' और 'मेरा है', ऐसा प्रवर्तन ही चारित्रमोह है। भगवान कहते हैं, वैसी चारित्र मोह की यथार्थ समझ, समझने योग्य है। 'मैं सामायिक करता हूँ' ऐसा जो भान है वह चारित्र मोह।
सामायिक, प्रतिक्रमण या संसार की किसी भी क्रिया में कर्त्ताभाव, वह चारित्रमोह और रुचिभाव वह दर्शनमोह।
चारित्रमोह अर्थात् परिणमित हुआ मोह। जो फल देने को सन्मुख हुआ हो, वह चारित्रमोह मतलब डिस्चार्ज मोह । जो मोह चार्ज होता रहे, वह दर्शन मोह और डिस्चार्ज होता रहे, वह चारित्रमोह।
डिस्चार्ज मोह भटका देता है।
जो चार्ज किया, वह 'प्रोमिसरी नोट' है और जो डिस्चार्ज हुआ, वह 'कैश इन हैन्ड' है।
जा, 'हम' तुझे गारन्टी देते हैं कि 'दादा भगवान' के मिलने के बाद तेरा चार्ज नहीं होगा!
मोह का स्वरूप मोह के मुख्य दो प्रकार हैं। दर्शन मोह - चार्ज मोह और चारित्र मोह - डिस्चार्ज मोह।
दर्शन मोह रुचि पर आधारित है अर्थात् रुचि कहाँ है इस पर आधारित है। संसार की विनाशी चीज़ों मैं ही रुचि रहे, वह मिथ्यात्व मोह है।
आत्मा जानने की रुचि और साथ में संसार की विनाशी चीज़ो की रुचि, वह मिश्रमोह है। यह सत्य है और वह भी सत्य है, ऐसा बरते वह मिश्रमोह है।
आत्मा जानने की उत्कंठा हो और यही सत्य है, ऐसा बरते वह सम्यक मोह। आत्मा में आत्मबुद्धि होना, उसका नाम समकित. आत्मा में आत्मरूप होना, उसका नाम ज्ञान।
ज्ञान और ज्ञानी के प्रति मोह, वह अंतिम मोह है। वह सम्यक् मोह है। अन्य सारे ही मोह मिथ्या मोह हैं।
जैसा है वैसा दर्शन में नहीं आता, वह दर्शन मोह के कारण। दर्शन के आवरण के कारण 'मैं चंदूलाल हूँ' ऐसा दिखता है।
यह संसार किस के आधार पर टिका है? दर्शन मोह के आधार पर। भगवान कहते हैं कि चारित्र मोह का एतराज नहीं है वह डिस्चार्ज मोह है। अज्ञानी का भरा हुआ माल निकलता है, पर फिर से 'मैं चंदूलाल हूँ' कहता है, इसलिए पुनः नया माल भरता रहता है।
आत्मा की हाजिरी से पुद्गल में चेतनभाव चार्ज हो जाता है और वही फिर डिस्चार्ज होता है। पुद्गल चेतन के संसर्ग में आने से उसमें चेतन चार्ज होता है, पर उसमें चेतन का कुछ भी बिगड़ता नहीं है। इस शरीर में से डिस्चार्ज होनेवाली प्रत्येक वस्तु अनुभव होती देखने में आती है, इसलिए चार्ज हुआ था, ऐसा कहते हैं। गलन का अर्थ ही डिस्चार्ज है। हम उसे भावाभाव कहते हैं, उसमें चेतन नहीं होता है।
एक मनुष्य को सारी जिंदगी जेल में गुजारनी पडे और उसे खाने को मिलता रहे, मगर जलेबी-लङ्क नहीं मिलते, इसलिए क्या उसका मोह चला गया? नहीं, अंदर तो मोह होता ही है। मिलता नहीं है, इसलिए मोह चला गया, ऐसा नहीं कहलाता।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, मुझमें मोह बहुत होगा और दूसरों में कम होगा, ऐसा है?
दादाश्री: एक ज़रा-सा मोह का बीज होता है, वह जब व्यक्त होता है, तब सारे संसार में व्याप्त हो जाए, ऐसा है। इसलिए कम हो या ज्यादा, उसमें समझ को लेकर अंतर नहीं है। जब संपूर्ण मोह क्षय होता है, तभी काम बनता है।
मन-वचन-काया के योगों का मूर्छित प्रवर्तन, वह चारित्रमोह है।
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भगवान और सत्पुरुष के सत्संग का मोह है, वह प्रशस्तमोह और प्रशस्तमोह से मोक्ष |
मोह के तो अनंत प्रकार हैं। उनका कोई अंत आनेवाला नहीं है। एक मोह छोड़ने को लाख जन्म करने पड़ें, ऐसा है। मनुष्यपन तो मोक्ष का संग्रहस्थान ही है। 'स्वरूप ज्ञान के बिना मोह जाए ऐसा नहीं है ।'
माया
प्रश्नकर्ता माया के बंधन में से मुक्त होने को क्या करें?
:
दादाश्री : अज्ञान ही माया है। खुद के निज स्वरूप का अज्ञान ही माया है और वह माया तो मूढ़ मार मारती है। इस संसार में कोई हमारे ऊपर है ही नहीं। माया के कारण कोई ऊपर है, ऐसा लगता है।
माया क्या है? भगवान का रिलेटिव रूप, वही माया है। यह माया फँसाती है ऐसा लोग बोलते हैं, वह क्या है? यह सब कौन चलाता है ? यह वह जानता नहीं है, इसलिए 'मैं चलाता हूँ' ऐसा मानता है। यही माया है और उसमें फँसता है।
इस संसार में यदि कोई कच्ची माया नहीं है, तो वे भगवान हैं। कच्चे सभी मार ही खाते हैं, भगवान की माया की ही तो! यह मार अनहद है या बेहद है, यह कहा नहीं जा सकता, पर वह मार ही मोक्ष में जाने की प्रेरणा देगी।
खुद, खुद को जानता नहीं है। यही सबसे बड़ी माया है। अज्ञान गया कि माया गई ।
जहाँ जो वस्तु नहीं है, वहाँ उस वस्तु का विकल्प होता है, उसका ही नाम माया।
हमारी उपस्थिति में आपकी माया टिकती नहीं, बाहर ही खड़ी
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रहती है। आप हमारी उपस्थिति में से बाहर निकलेंगे, तो आपकी माया अपने आप आ लिपटेगी। हाँ, हमारे पास से एक बार स्वरूप ज्ञान ले जाओ, फिर आप चाहे जहाँ जाओ, फिर भी माया आपको छूएगी ही नहीं ।
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भगवान कहते हैं कि यह सब नाटकीय है। तू उसमें नाटकीय मत हो जाना। मूल मन का झमेला है, इसलिए लोग मन के पीछे लगे हैं, पर मन परेशान नहीं करता है। उसके पीछे माया है, वह परेशान करती है। माया जाए, तो मन तो सुंदर एन्डलेस फिल्म है। कुछ लोगों ने सांसारिक माया छोड़कर त्यागी बनना स्वीकार किया, तो क्या उनकी माया चली गई? नहीं, उलटे दुगुनी माया लिपटी हुई है। माया छोड़ी किसे कहेंगे ? संसार वैभव भोगना छोड़ें, उसका नाम माया छोड़ी। यह तो बीवी-बच्चों को छोड़ा और साथ में अज्ञानता की गठरियाँ बांधी। उसे माया छोड़ना कैसे कहेंगे?
चाहे कहीं भी जाएँ, पर 'मेरा तेरा' गया नहीं और 'मैं' गया नहीं, तो तेरी माया और ममता साथ ही रहनेवाली है।
एक बार मेरे पास एक आदमी आया और बहुत रोने लगा। कहने लगा, 'अब तो जीना बहुत भारी पड़ता है, आत्महत्या करने को मन करता है।' मुझे मालूम था उसकी बीवी पंद्रह दिन पहले चल बसी थी और पीछे चार बच्चे छोड़ गई थी। इसलिए मैंने उसे पूछा, 'भैया, तुझे ब्याहे कितने साल हुए?' 'दस साल', वह बोला तो दस साल पहले जब तूने उसे देखा नहीं था तब मर गई होती, तो तू रोने बैठता क्या? 'उसने कहा, ' नहीं, तब क्यों रोता? मैं तो उसे पहचानता तक नहीं था तब ।' फिर अब तू क्यों रोता है यह मैं तुझे समझाता हूँ। देख! तू ब्याहने गया, बाजे-गाजे के साथ गया और जब लग्न मंडप में फेरे लेने लगा तब से तू 'यह मेरी पत्नी, यह मेरी पत्नी' ऐसे तू लपेटता गया। मंडप में उसे देखता गया, 'यह मेरी पत्नी' बोलता गया और ममता लपेटता गया। पत्नी यदि बहुत अच्छी हो, तो रेशम का बंधन और बुरी हो, तो सूत का बंधन। यदि तू
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इससे छूटना चाहता है, तो जितने बंधन 'मेरी, मेरी' के बांधे, उतने ही 'नहीं है मेरी, नहीं है मेरी' बोलकर खोल दे, तभी ममता से तेरा छुटकारा होगा।
मेरी बात वह अच्छी तरह समझ गया और उसने तो 'नहीं है मेरी', 'नहीं है मेरी' का हैन्डल ऐसा घुमाया, ऐसा घुमाया कि सारी लपेटें खुल गईं उसकी। फिर पंद्रह दिन के बाद आकर आँखों में आनंदाश्रु के साथ पाँव छूकर कहने लगा, 'दादाजी, आपने मुझे बचा लिया, मेरी सारी ममता के बंधनों को खोलने का मार्ग दिखलाया, उससे मैं छूट गया।
मेरी इस सत्य घटना को सुनकर, कितनों के बंधन खुल गए हैं।
कहलाता है कि जब आत्मा को जलन हो, जलन हो तब आँच लगती है और दूसरों को भी उसका असर हो जाता है, वह कढ़न कहलाती है। और बैचेनी में अंदर अकेला ही जलता है, पर तांता तो दोनों में ही रहता है। जब कि उग्रता अलग वस्तु है। क्रोध में तांता हो उसे ही क्रोध कहते हैं। जैसे कि रात को पति-पत्नी दोनों खूब झगड़े, जबरदस्त क्रोध धधक उठा, सारी रात दोनों जागते पड़े रहे। सबेरे पत्नी चाय का कप थोड़ा पटककर रखे, तो पति समझ जाता है कि अभी तांता है। यह क्रोध कहलाता है। फिर तांता चाहे कितने भी समय का हो। अरे! कितनों को तो सारी जिंदगी का होता है। बाप, बेटे का मुँह नहीं देखता
और बेटा, बाप का मुँह नहीं देखता। क्रोध का तांता तो, बिगड़े हुए मुँह पर से पता चल जाता है।
क्रोध
वर्ल्ड में कोई मनुष्य क्रोध को जीत नहीं सकता। क्रोध के दो प्रकार हैं, एक कुढ़न के रूप में और दसरा बेचैनी के रूप में। जो लोग क्रोध को जीतते हैं, वे कुढ़न के रूप में जीतते हैं। इसमें ऐसा होता है कि एक को दबाने पर दूसरा बढ़ जाता है। फिर यदि ऐसा कहे कि मैंने क्रोध जीत लिया है तो मान बढ़ जाता है। वास्तव में क्रोध पूर्ण रूप से नहीं जीता जाता है। दृश्यमान क्रोध को जीतता है। क्रोध तो अग्नि जैसा है, खुद भी जले और सामनेवाले को भी जलाए।
जहाँ क्रोध आता हो और क्रोध न करे, वह शुभ चारित्र कहलाता है। शुभ चारित्र से संसार सुधरता है, जब कि मोक्ष तो शुद्ध चारित्र से ही होता है।
_ 'क्रोध' उग्र परमाणु हैं। 'अनार' के पटाखे में अंदर बारूद भरा होता है, इसलिए फूटने पर आग पकड़ता है और अंदर का बारूद पूरा हो जाने पर अपने आप शांत हो जाता है। ऐसा ही क्रोध के संबंध में है। क्रोध उग्र परमाणु हैं, इसलिए जब 'व्यवस्थित' के नियम के आधार पर फूटता है, तब सब तरफ से जलता है। हम उग्रता को क्रोध नहीं कहते हैं। क्रोध में तांता हो, वही क्रोध कहलाता है। क्रोध कब
__लोभ क्रोध-मान-माया-लोभ में लोभ का तांता बहुत भारी होता है। लोभ अर्थात् कुछ इच्छा रखनी। लोभी को कोई झिड़के, तब भी वह हँसता है। ज्ञानी भी हँसते हैं (ज्ञान में रहते हैं इसलिए), पर लोभी लोभ की गाँठ अधिक बड़ी करके हँसता है।
सेठ दुकान पर बैठे हों और ग्राहक लड़ने आए कि मेरे बेटे से आपने छल करके आठ आने ज्यादा ले लिए। इस पर सेठ गद्दी-तकिये पर बैठे हुए हँसता रहता है। उस पर कुछ भी असर नहीं होता। राह चलते लोगों की भीड़ जमा हो जाती है। वे सेठ और ग्राहक की दशा देखते हैं। सेठ को शांत, धीर गंभीर और ग्राहक को बदहाल, चीखता-चिल्लाता देखते हैं तभ भीड़ में लोग भी कहते हैं कि इस आदमी का दिमाग खिसक गया है। इसलिए उसे कहते हैं कि चुपचाप घर जा, इतने बड़े सेठ ऐसा करते होंगे? और सेठ मूछ में हँस रहा होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि उसका लोभ उसे मन में कहता है कि यह पगला शोर मचाकर चला जाएगा, उसमें मेरा क्या जानेवाला है? मेरी जेब में तो अठन्नी आ गई न? लोभी वास्तव में ज्ञानी जैसा ही दिखता है।
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सकें ऐसा क्रोध कहते हैं। इस स्टेज पर पहुँचें, तो व्यवहार बहुत ही सुंदर हो जाता है।
दूसरे प्रकार का क्रोध जो मोड़ा नहीं जा सकता। लाख प्रयत्नों के बावजूद पटाखा फूटे बगैर रहता ही नहीं। वह मोड़ा नहीं जा सके ऐसा अनिवार्य क्रोध। यह क्रोध खुद का भी अहित करता है और सामनेवाले का भी अहित करता है।
क्रोध-मान की अपेक्षा कपट-लोभ की गाँठें भारी होती हैं। वे जल्दी नहीं छूटतीं। लोभ को गुनहगार क्यों कहा है? लोभ किया मतलब दूसरों का लूट लेने का विचार किया। बांध के पानी के सभी नल एक आदमी अपने लिए खोल दें, तो दूसरों को पानी मिलेगा क्या?
कपट
जब कि मानी को झिड़कें, तो वह हँसता नहीं है, तुरंत ही उसका क्रोध भड़क जाता है। पर लोभी को क्रोध नहीं आता।
भगवान ने कहा कि क्रोध और मान के कारण लोग दुःखी होते हैं। मान के कारण तिरस्कार होता है। मान प्रकट तिरस्कार करता है। क्रोध जलता है और जलाता है। उसका उपाय लोग भगवान के वाक्य सुनकर करने गए। क्रोध नहीं करते, मान नहीं करते, इसलिए त्रियोग साधना करने लगे। त्रियोग साधना से क्रोध-मान कुछ कम हुए, परंतु बुद्धि का प्रकाश बढ़ गया। बुद्धि का प्रकाश बढ़ने से लोभ का रक्षण करने के लिए कपट बढ़ाया। क्रोध और मान भोले होते हैं, इसलिए कभी कोई यह बतानेवाला मिल भी जाता है, जब कि लोभ और कपट तो ऐसे हैं कि खुद मालिक तक को भी पता नहीं चलता। वे तो आने के बाद निकलने का नाम तक नहीं लेते।
लोभी कब क्रोध करता है? जब बड़े से बड़े लोभ का हनन होता हो और कपट भी काम नहीं करता, तब अंत में लोभी क्रोध का सहारा लेता है।
जन्मा तब से ही लोभी के लोभ की डोर टटती ही नहीं है। क्षण भर के लिए भी उसका लोभ नहीं छूटता। निरंतर उसकी जागति बस लोभ में ही होती है। मानी तो बाहर निकले, तो मान और मान में ही रहता है। रास्ते में भी जहाँ जाए वहाँ, मान में और लौटे तब भी मान में ही। पर यदि कोई अपमान करे, तो वहाँ वह क्रोध करता है।
मोक्ष मार्ग से कौन भटकाता है? क्रोध-मान-माया-लोभ । लोभ का रक्षण करने के लिए कपट है, इसलिए कपडा बेचते समय एक उँगली कपड़ा बचा लेता है। मान के रक्षण के लिए क्रोध है। इन चारों के आधार पर लोग जी रहे हैं।
क्रोध-मान-माया-लोभ दो प्रकार के हैं : एक मोड़े जा सकें ऐसेनिवार्य। दूसरे मोड़े नहीं जा सकें ऐसे-अनिवार्य। जैसे कि किसी पर क्रोध आया हो, तो उसे अंदर ही अंदर मोड़ लें और शांत कर सकें, उसे मोड़
कपट अर्थात् जैसा है वैसा नहीं बोलना, वह। मन-वचन और काया तीनों को स्पर्श करता है। स्त्री जाति में कपट और मोह के परमाण विशेष होते हैं। पुरुष जाति में क्रोध और मान के परमाणु विशेष होते हैं। यदि कपट और मोह के परमाणु विशेष खिंचे, तो दूसरा जन्म स्त्री के रूप में आता है। क्रोध व मान के परमाणु विशेष खिंचे, तो दूसरा जन्म पुरुष के रूप में आता हैं।
स्त्री जाति भय के कारण कपट करती है। उससे बहुत आवरण आते हैं। मोह से मूर्छा बढ़ती है। पुरुषों में मान अधिक होता है। मान से जागृति बढ़ती है। जैसे-जैसे कपट बढ़ता है, वैसे-वैसे मोह बढ़ता जाता
क्रोध-मान-माया-लोभ की खुराक क्रोध-मान-माया-लोभ निरंतर खुद का ही चुराकर खाते हैं, पर लोगो की समझ में नहीं आता है। इन चारों को यदि तीन साल भूखा रखें, तो वे भाग जाएँ। मगर जिस खुराक से वे जीवित हैं वह खुराक क्या है, यदि वह नहीं जानते, तो वे भूखे कैसे मरेंगे? वह नहीं समझने
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से उन्हें खुराक मिलती रहती है। वे जीते हैं किस प्रकार? और वह फिर अनादिकाल से जी रहे हैं। इसलिए उनकी खुराक बंद कर दो। ऐसा विचार तो किसी को भी आता नहीं है और सभी उन्हें मार-पीटकर निकालने में लगे हैं। वे चारों ऐसे जानेवाले नहीं हैं। वह तो आत्मा बाहर निकले, तो अंदर सबकुछ झाड़-बुहार कर साफ करने के बाद निकलता है। उन्हें हिंसक मार नहीं चाहिए। उन्हें तो अहिंसक मार चाहिए।
आचार्य शिष्य को कब झिडकते हैं? क्रोध हो. तब। उस समय कोई कहे, 'महाराज, इसे क्यों झिड़काते हैं?' तब महाराज कहते हैं, 'वह तो झिड़कने योग्य ही है।' बस, खतम। ऐसा कहा वही क्रोध की खराक। किए गए क्रोध का रक्षण करना ही उसकी खुराक है।
कोई कंजूस स्वभाव का आपसे चाय की पुड़िया लाने को कहे और आप ३० पैसे की लाएँ, तो वह कहेगा, 'इतनी महँगी थोड़े ही लाते है?' ऐसा बोला, उससे लोभ को पोषण मिलता है और कोई अस्सी पैसे की चाय की पुड़िया लाए, तो फजूल-खर्च मनुष्य कहता है 'अच्छी है।' तो वहाँ फजूलखर्ची के लोभ को पोषण मिलता है। यह हुई लोभ की खुराक। हमें नोर्मल रहना है।
अब कपट क्या खाता होगा? रोज़ कालाबाजारी करता हो, पर कपट की बात निकले तब वह बोल उठता है कि हम ऐसी कालाबाजारी नहीं करते। ऐसे वह ऊपर से साहुकारी दिखाता है, वही कपट की खुराक।
मान की खुराक क्या? चंदूलाल सामने मिल जाएँ और हम कहें 'आइए चंदूलाल जी', तब चंदूलाल की छाती फूल जाती है, अकड़ जाता है और खुश होता है, वह मान की खुराक।
आत्मा के अलावा सभी अपनी-अपनी खुराक से जीते हैं।
हम तो इन चारों को क्रोध-मान-माया-लोभ से कहेंगे कि आओ बैठो, पर उसे खुराक नहीं देंगे।
क्रोध-मान-माया-लोभ, ये चारों किस से खड़े होते हैं? खुद के ही प्रतिष्ठा करने से। ज्ञानी पुरुष उस प्रतिष्ठा में से उठाकर, उसकी जगत् निष्ठा में से उठाकर ब्रह्म में, स्वरूप में बिठा देते हैं और ब्रह्मनिष्ठ बना देते हैं, तब इन चारों से छुटकारा मिलता है।
ज्ञानी पुरुष चाहें सो करें! ये क्रोध-मान-माया-लोभ तो आत्माअनात्मा, ज्ञान-अज्ञान के बीच की कड़ी जैसे हैं, जंजीर हैं। नहीं तो अनासक्त भगवान को आसक्ति कैसी?
होम डिपार्टमेन्ट-फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट पेरू या अन्य किसी देश में तूफ़ान आए या ज्वालामुखी फट पड़े, तब हमारे देश के प्रधानमंत्री मीटिंग बुलाकर देश के विदेश मंत्री द्वारा पेरू के प्रधानमंत्री के नाम दिलासे का पत्र भिजवाते हैं कि आपके देश में तूफ़ान के कारण हज़ारों लोग मर गए हैं और लाखों बेघर हुए हैं, यह जानकर हमें गहरा दुःख हुआ है। हमारे देशवासी भी बहुत शोक संतप्त हैं। हमारे देश के ध्वज भी हमने नीचे उतार दिए हैं, आपके दुःख में हमें सहभागी समझिए, वगैरा, वगैरा। अब एक ओर ऐसा आश्वासन पत्र लिखा जा रहा हो और दूसरी ओर नाश्ता-पानी, खाना-पीना सबकुछ चल रहा होता है। यह तो ऐसा है न कि फ़ॉरेन अफेयर्स (विदेशी मामलों) में सभी सुपरफ्लुअस रहते हैं और होम अफेयर्स में सावधान। फ़ॉरेन की बात आई अर्थात् ऊपर-ऊपर से। बाहरी शोक और सांत्वना होते हैं, अंदर से कुछ नही होता। अंदरूनी तौर पर तो चाय-नाश्ते ही होते हैं। वहाँ पर तो कम्पलीट सुपरफ्लुअस रहते हैं।
वैसे ही हमारे अंदर दो डिपार्टमेन्ट हैं, होम और फ़ॉरेन। फ़ॉरेन डिपार्टमेन्ट में सुपरफ्लुअस रहने जैसा है और होम डिपार्टमेन्ट में सतर्क रहने जैसा है। बाकी, मन-वचन-काया के संसार व्यवहार में फ़ॉरेन अफेयर्स की तरह सुपरफ्लुअस रहने जैसा है।
"संयोग निरंतर बदलते ही रहेंगे, पर उनमें से 'शुद्ध हेतु योग्य संयोगो' में ही एकाकार होने जैसा है। बाकी शेष सारे संयोगो में
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सुपरफ्लुअस ही रहने जैसा है।"
संयोग
इस संसार में संयोग और आत्मा दो ही हैं। संयोगों के साथ एकता हो, तो संसार और संयोगों का ज्ञाता हुआ, तो भगवान।
इस संसार में निरंतर परिवर्तन होते ही रहते हैं, क्योंकि वह परिवर्तन स्वभावी है। संयोग हैं, वे वियोग स्वभावी हैं। संयोग तो परिवूतत होते ही रहेंगे।
जगत सारा संयोग-वियोग से ही चल रहा है। इस जगत् का कर्ता कौन? कोई बाप भी कर्ता नहीं है। सांयोगिक प्रमाणों से ही सब चलता रहता है। मात्र साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स से ही चला करता
वस्तुओं का सम्मेलन जैसा होता है वैसा दिखाई देता है, उसमें किसी को कुछ करना पड़ता नहीं है। यह इन्द्रधनुष दिखाई देता है, उसमें रंग भरने कौन गया? वे तो सांयोगिक प्रमाण (साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स) आ मिले, वस्तुओं का सम्मेलन हुआ, तब इन्द्रधनुष दिखाई दिया। सांयोगिक प्रमाणों में, सूर्य का होना, बादलों का होना, देखनेवाला होना आदि अनेकों प्रमाण इकट्ठे हों, तब इन्द्रधनुष दिखाई देता है। उसमें यदि सूर्य अहंकार करे कि मैं नहीं होता, तो नहीं हो पाता, तो ऐसा अहंकार गलत है। क्योंकि बादल नहीं होते, तब भी नहीं हो पाता और यदि बादल अहंकार करें कि हम नहीं होते, तो मेघधनुष होता ही नहीं, तो वह भी गलत है। यह तो वस्तुओं का सम्मेलन हो, तब ही रूपक में आता है। सम्मेलन बिखर जाए, तब विसर्जन होता है। संयोगों का वियोग होने के बाद फिर इन्द्रधनुष नहीं दिखता।
संयोग मात्र वियोगी स्वभाव के हैं और फिर 'व्यवस्थित' के हाथ में हैं। संयोग कब, किस भाव से मिलेंगे, वह 'व्यवस्थित' है। इसलिए
झंझट छोड़ न? यह दुनिया कैसे पैदा हुई? मात्र साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स से। बट नैचुरल है। मुख्य वस्तु 'व्यवस्थित' है। संयोग-वियोग के अधीन रहकर 'व्यवस्थित' चलाता है। कितने ही संयोग जमा हों, तब एविडन्स खड़ा होता है। कितने ही संयोग आ मिलें, तब नींद आती है और कितने ही संयोग आ मिलें, तब जाग सकते हैं। 'व्यवस्थित' इतना अच्छा है कि संयोग मिला ही देता है।
___जलप्रपात होता हो, वहाँ बुलबुले दिखाई देते हैं, वे कैसे भाँतिभाँति के होते हैं? कोई आधा गोल, कोई छोटा होता है, बड़ा होता है, उन्हें किस ने बनाया? किस ने रचा? वे तो अपने आप ही बने। हवा, जोरों से गिरता जल, लहरें आदि अनेक संयोग जमा हों, तब बुलबुले बनते हैं। जिसमें हवा ज्यादा भर गई, वह बड़ा बुलबुला और कम भर गई, वह छोटा बुलबुला होता है। वैसे ही ये मनुष्य भी सारे बुलबुले ही हैं न! मात्र संयोगों से ही उत्पन्न होते हैं।
एक ही तरह के संयोग, एक को पसंद आते हैं और दूसरे को पसंद नहीं आते। प्रत्येक संयोग का ऐसा है। एक को पसंद आते हैं और दूसरे को पसंद नहीं आते। जो अच्छा लगे वह जमा किया, उसका कब वियोग होगा, इसका क्या ठिकाना? फिर ऐसा है कि एक संयोग आता है और दूसरा आता है, फिर तीसरा आता है। पर एक आया उसका वियोग हए बगैर दूसरा संयोग नहीं आता।
संयोग दो तरह के, मनचाहे और अनचाहे। प्रिय-अप्रिय। अप्रिय संयोग, अधर्म का फल, पाप का फल है और प्रिय संयोग, धर्म का, पुण्य का फल है और स्वधर्म का फल मोक्ष है।
संयोग मात्र दुःखदायी हैं, फिर चाहे पसंद के हों या नापसंद हों। मन चाहे का वियोग होना भी दुःख और अनचाहे का संयोग होना भी दु:ख, और नियम से दोनों का ही संयोग-वियोग, वियोग-संयोग होता ही है।
भगवान ने कहा है कि सुसंयोग हैं और कुसंयोग हैं। जब कि
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शुद्ध संयोग मिलें तब ही मोक्ष होता है। ज्ञानी पुरुष का सत्संग ही एकमात्र शुद्ध संयोग है। क्योंकि ज्ञानी पुरुष के लिए क्या लिखा गया
कुसंयोग को लोग ऐसा कहते हैं कि इसकी बुद्धि बिगड़ी है। सिपाही आकर पकड़ ले जाए, वह कुसंयोग और सत्संग में जाने को मिले, वह सुसंयोग। इस जगत् में संयोग यानी पूरण और वियोग यानी कि गलन, इसके सिवा और कुछ है ही नहीं।
वियोग करना जितना मुश्किल है, उतना ही मुश्किल संयोग करना
'शुद्धात्मा मूळ उपादानी, अहं ममतना अपादानी। मूळ निमित्त शुद्ध संयोगी, छोड़ाव्यो भव संसारे,
वंदु कृपाळु ज्ञानी ने...' शुद्धात्मा मूल उपादानी, अहम् ममत के अपादानी। मूल निमित्त शुद्ध संयोगी, छुड़वाया भव संसार से,
वंदन कृपालु ज्ञानी को... ज्ञानी पुरुष ही एक ऐसा संयोग है, मूल निमित्त है कि जो 'शुद्धात्मा' का उपादान करवाते हैं और अहंकार और ममता का. 'मैं'
और 'मेरा' का अपादान करवाते हैं। दूसरे शब्दों में 'शुद्धात्मा' ग्रहण करवाते हैं और अहंकार और ममता का त्याग करवाते हैं। इसलिए उन्हें 'मूल निमित्त' और मोक्ष प्राप्ति के एकमात्र 'शुद्ध संयोगी' कहा गया
___ स्वाद हमेशा संयोग आने से पहले आता है। जब तक जमाराशि होती है, तब तक स्वाद आता है। जब से जमाराशि खर्च होना शुरू होती है, तब से स्वाद कम होता जाता है। यात्रा रविवार को जानेवाली है, इस समय सभी को अनूठा स्वाद आता है, पर रविवार साढ़े सात बजे जब गाडी चलेगी, तब से जमा राशि खर्च होने लगेगी और फिर खतम हो जाएगी।
संयोग जब से आता है, तब से ही वह वियोग की ओर जाने लगता है और वियोग आता है, तब से संयोग का आना शुरू हो जाता है। एक का एविडन्स आ मिले, उसका वियोग होने पर दूसरे के एविडन्स मिलना शुरू हो जाते हैं। ___संसार में संयोग, सार निकालने के लिए हैं। एक्सपिरियेन्स (अनुभव) करने के लिए हैं। पर लोग कोने में घुस गए हैं। शादी करके खोजते हैं कि सुख किस में है? बीवी में है? बच्चे में है? ससर में है? सास में है? किस में सुख है? इसका सार निकालो न? लोगों को द्वेष होता है, तिरस्कार होता है, पर सार नहीं निकालते। इस संसार के सभी संबंध जो हैं, वे रिलेटिव संबंध हैं, रियल नहीं हैं। केवल सार निकालने के लिए रिश्ते हैं। सार निकालनेवाले मनुष्यों के राग-द्वेष कम हो जाते हैं और वे मोक्ष के मार्ग के खोजी बनते हैं।
मनुष्यदेह के अलावा और कोई ऐसी देह नहीं है. कि जो मोक्ष की अधिकारी हो। मनुष्यदेह मिले और मोक्ष के संयोग मिलें, साधन मिलें, तो काम हो जाए।
जब कि आत्मा और संयोगों का तो ज्ञाता-ज्ञेय का संबंध है। आत्मा को तो सबसे संयोग संबध मात्र ही है। 'शुद्धात्मा' खुद असंयोगी है और उसके अलावा, सभी संयोग संबंध है। संयोग-वियोग तो ज्ञेय हैं और 'तू खद' ज्ञाता है, पर ज्ञाता ज्ञेयाकार हो जाता है. इसलिए तो अनंत जन्मों से भटका है। पाँच करण से जो दिखता है, अनुभव में आता हैं, वे स्थूल संयोग और अंत:करण के सूक्ष्म संयोग और वाणी के संयोग, उन सारे संयोगों के साथ आत्मा का मात्र 'संयोग संबंध' है, सगाई (रिश्ते का) संबंध नहीं है। ज्ञाता-ज्ञेय का, 'संयोग संबंध' मात्र है। यदि ज्ञाता-ज्ञेय के 'संयोग संबंध' मात्र में ही रहें, तो वह अबंध ही है।
जब कि लोग तो संयोगों के साथ 'शादी संबंध' की कल्पना कर बैठे, इससे ऐसा फँसाव खड़ा हुआ कि बाहर निकल ही नहीं सके न!
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आत्मा बिलकुल निराला है। संयोगों को हर तरह से देख सके, जान सके ऐसा है, पर संयोगों में एकाकार हो जाओ और उनसे शादी कर बैठो, तो क्या हो सकता है।
सारे ही संयोग पौद्गलिक हैं, अनात्मा के हैं। गधा मिले, तो पौद्गलिक नहीं कहलाता क्योंकि अंदर अनात्मा और आत्मा का संयोग साथ मिला हुआ है। वास्तव में उसमें आत्मा एकाकार नहीं हुआ है, पर भ्रांति से आपको ऐसा दिखाई दे, तो वह भयंकर भूल है।
सभी संयोग ऑटोमेटिक ही आ मिलते हैं और ज्ञान भी उससे ऑटोमेटिक विभाविक हुआ है। बाकी, द्रव्य नहीं बदला, गुण नहीं बदले, मात्र पर्याय बदले हैं। दर्शन-ज्ञान पर्याय विभाविक हो गए हैं।
एक लेबोरेटरी में बैठा साइन्टिस्ट प्रयोग के सारे साधन लेकर बैठा हो और प्रयोग करते समय कहीं अचानक किसी एकाध साधन में से गैस लीक हो जाए और उस आदमी का दम घुटने लगे और बेहोश हो जाए, तब वह सबकुछ भूल जाता है, संपूर्ण रूप से भान गवाँ देता है। पर बाद में जैसे-जैसे होश में आता जाता है, वैसे-वैसे उसका प्रकाश बढ़ता है
और उसे और अधिक समझ में आता जाता है। शुरू में ऐसा समझता है कि सब मेरे ही हाथों में है। मेरी ही सत्ता में है। फिर जैसे-जैसे भान आता है वैसे-वैसे समझ में आता है कि यह तो भगवान की सत्ता में है, मेरे हाथ में नहीं। जब और अधिक भान में आता है, तब ऐसा लगता है कि यह सब तो भ्रांति स्वरूप है। भगवान की सत्ता में भी नहीं और अंत में जब संपूर्ण भान में आए, तब संयोग ही कर्ता हैं, ऐसा भान होता है और तभी उसे संयोगों से मुक्ति का सुख बरतता है। ऐसे समझ में ही परिवर्तन होता रहता है। प्रयोगकर्ता यदि संयोगों में संयोगी हो जाए, एकाकार हो जाए, तो वह भयंकर अभानावस्था कहलाती है। और जब संयोग अलग और 'मैं' अलग, ऐसा भान हो जाए तब मुक्ति का आस्वाद मिलता है।
बीज पड़ते हैं। फिर हल कैसे आए? उनके ज्ञाता-दृष्टा रह सकें, तो फिर नये बीज नहीं पड़ते। अनंत संयोग हैं, पर वे सभी उगने लायक नहीं रहे उसका अर्थ मोक्ष।
प्रत्येक मनुष्य संयोगो से बंधा है। हमारे महात्मा संयोगों से घिरे हैं और वे संयोग मात्र के ज्ञाता-दृष्टा हैं। संयोगों में फँसा, बंधा, तो शक्ति कुंठित हो जाती है। जब कि ज्ञानी को संयोग आते और जाते है, परंतु ज्ञानी उनसे हाथ मिलाने नहीं ठहरते। हम तो दूर से ही देख लेते हैं, इसलिए संयोगों का वियोग हो जाता है। आत्मा स्व-पर प्रकाशक होने से, उसमें संयोग केवल झलकते ही हैं। मात्र, प्रकाश प्राप्त हो चुका होना चाहिए।
संयोग होता है, वह चेतन नहीं है। असंयोगी ही 'हमारा' द्रव्य है। किसी के लिए अच्छे भाव हों या खराब भाव हों, वे मात्र संयोग ही हैं, वे हमारे नहीं होते। संयोग सदा नहीं रहते। जो आएँ और जाएँ वह स्वरूप नहीं होता। जो हमारा स्वरूप नहीं हो, उसे हमारा कैसे मानें? वे तो हमारे पड़ोसी आते हैं और जाते हैं, वैसे ही ये संयोग हैं। नासमझ तो, खुद को विचार आते हैं, उसमें यदि अच्छे विचार आएँ, किसी का भला करने का विचार आया, तो उसे आत्मा कहता है, पर वह आत्मा नहीं होता। आपको चाहे कैसा भी भाव होता है, पर वह 'मेरा नहीं है' इतना ही जानने की ज़रूरत है। स्वामित्वभाव किसी भी संयोग के लिए नहीं होना चाहिए। चाहे वह शुभ विचार हो या अशुभ विचार हो। हम स्पष्ट शब्दों में संसार को बता देते हैं, जैसा है वैसा कि स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग, वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन है।
आत्मा और संयोग दो ही हैं। कार्य-अकार्य संयोगाधीन हैं, पराधीन हैं, स्वाधीन नहीं हैं। स्वाधीन होते, तो अप्रिय संयोगों को कोई पास भी फटकने नहीं देता और प्रिय संयोगों का कोई वियोग ही होने नहीं देता, फिर तो कोई मोक्ष में ही नहीं जा सकता था।
अनेकों संयोग खड़े होते हैं। उनमें फिर तन्मयाकार हों, तो नये
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जो कुछ टेम्परेरी है, संयोग-वियोग है, वह 'मेरा' नहीं ऐसा जो जाने, वह 'ज्ञान'। सारे ही पर्यायों का शुद्ध होना, अनंत ज्ञान कहलाता है। सूक्ष्म संयोग तो उस ज्ञान के शुद्ध पर्याय उत्पन्न हों, तब ही झलकते हैं और जिसके सभी पर्याय शुद्ध हो जाएँ, वह अनंतज्ञानी ! परमात्मा स्वरूप!
'संयोग ही कर्ता हैं' ऐसा, यदि ज्ञान न हो, फिर भी अहंकार से भी मानें, तो बहुत बड़ा पुण्य बंधता हैं। उच्च श्रेणी के देवता बनते हैं। यह तो, कुछ करें और उलटा हो, तो कहते हैं कि संयोगाधीन करना पड़ा
और वही उलटा किया हुआ यदि फेवर में जाए, तो कहते हैं कि वह तो ऐसा ही करने योग्य था। बस, इतना बोले कि हस्ताक्षर हो गए और जिम्मेदारी आ गई। हमारे महात्माओं की तो रोंग बिलीफ़ उड़ गई है। उनके सभी संयोग वही के वही, प्रकृति वही की वही, ससुर-जमाई, बीवी-बच्चे आदि सब वही के वही, फिर भी कैसा गजब का सुख बरतता है उन्हें!
संयोग, जिसका कि वियोग होनेवाला है उससे डरना क्या?
कर लेना। दो हाथों से थोड़े ही खाया जाता है? शांति से भोजन करना मतलब, चित्त उस समय कोर्ट में नहीं जाना चाहिए। पहले शांति से भोजन करना और फिर आराम से कोर्ट जाना। लोग क्या करते हैं कि प्राप्त संयोग को भोग ही नहीं सकते और अप्राप्त के पीछे अधीर होकर पड़ जाते हैं। अत: दोनों को गँवा देते हैं। मुए, भोजन प्राप्त हुआ है, सुमेल सहित उसे भोग, तभी निपटारा होगा। कोर्ट तो अभी दूर है, अप्राप्त है, उसके पीछे क्यों पड़ा है? संयोगानुसार काम निपटा लेना। ज्ञानी पुरुष का संयोग मिले, तब काम न निकाल लें, तो बात पूरी हो गई न? फिर कोई आशा ही नहीं रही न? ऐसी सच्ची और सरल समझदारीवाली बात कौन बताता है? यह तो आत्मानुभवी का ही काम है।
सारे जगत के तमाम जीवों के लिए यह 'ज्ञानी-पुरुष', एक उत्तम निमित्त का संयोग है।
'वैसे भवि सहज गुण होवे, उत्तम निमित्त संयोगी रे।'
अल्प काल में मोक्ष जानेवालों को सहज ही उत्तम निमित्त आ मिलता है। मोक्ष अति सुलभ है, पर मोक्षदाता का संयोग होना अति अति दुर्लभ है। उसकी दुर्लभता अवर्णनीय है।
जीव सभी योनियों में भटक-भटक कर आया है, कहीं भी सच्चा सुख नहीं मिला। वहाँ अहंकार की गर्जनाएँ और विलाप ही किया है। छूटने की इच्छा है, मगर मार्ग मिलता नहीं है। मार्ग मिलना अति अति दुर्लभ है। यह 'ज्ञानी पुरुष' का संयोग आ मिलना ही मुश्किल है। सभी संयोग जमा होकर बिखर जानेवाले हैं, पर ज्ञानी पुरुष के संयोग से 'सदा की ठंडक' प्राप्त होती है। अब तो काम निकाल लेना है, ज्ञानी पुरुष के पास पड़े रहना है, ऐसी भावना से पराक्रम खड़ा होता है। फिर चाहे कैसे भी संयोग आएँ, फिर भी पराक्रम से पार उतर सकते हैं।
प्राकृत संयोग यह आपको जो कुछ मिलता है, वह आपकी प्रकृति के हिसाब से ही मिलता है। प्रकृति के अनुसार ही हर चीज़ मिल जाती है।
'हमारे' तो बुढ़ापा नहीं, मरण नहीं, जन्म नहीं, केवल संयोग आते और जाते हैं। ज्ञानी पुरुष के तो मरण और भोजन दोनों संयोग जैसे ही होते हैं। केवल संयोग ही होते हैं।
प्राप्त संयोगों के अलावा संसार में कोई वस्तु नहीं है। प्राप्त संयोगों' का सुमेल सहित समता भाव से निपटारा करो।' यह गज़ब का वाक्य निकला है। इस एक ही वाक्य में जगत् के तमाम शास्त्रों का ज्ञान सार रूप से समा गया है। प्राप्त संयोगों के हम ज्ञाता-दृष्टा हैं, अप्राप्त के नहीं।
ग्यारह बजे कोर्ट में जाना हो और ग्यारह बजे भोजन की थाली आई, तो उस समय वह संयोग प्राप्त हुआ ऐसा कहलाता है। उसे पहले सुमेल रखते हुए समभाव से निपटाना पड़ेगा। इसलिए शांति से भोजन
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कालीमिर्चवाले को कालीमिर्च और इलायचीवाले को इलायची मिल जाती है, बैंगनवाले को बैंगन और चाय पीता हो, उसे चाय मिल जाती है और यदि सूंठवाली चाय प्रकृति में रही, तो सूंठवाली चाय भी उसे मिल जाती है। पर जो क्रोध-मान-माया-लोभ हैं, वे दखल करते हैं। लोभ संग्रह करना सिखाता है। ऊपर से, उसके लिए कपट करते हैं और भयंकर दखल कर बैठते हैं। मगर किसी प्रकार की दखल ज़रूरी नहीं है। प्रकृति के अनुसार, अंदर की डिमान्ड के अनुसार, सबकुछ आपको मिले ऐसा है। इन लोगों को विचार आता है कि कल सूर्यनारायण नहीं निकले, तो क्या होगा? मुए, यह सभी तेरे लिए है, तझे भोगना आना चाहए। ये सूर्य, चंद्र, तारे, हवा, पानी सबकुछ तेरे लिए ही है।
प्रकृति के अनुसार दस दिन के लिए हिल स्टेशन जाना हुआ हो, तो मन में होता है कि दस दिन और रहने को मिलता, तो अच्छा होता
और अन्यत्र दो दिन भी ज्यादा ठहरना पसंद नहीं आता। यह खाते हैं, पीते हैं, वह सब प्रकृति के अनुसार ही मिलता है। हाँ, जितना लोभ में हो, उतना नहीं भी मिलता। यह त्याग करते हैं, उपवास करते हैं, वह भी प्रकृति के अनुसार ही होता है, पर अहंकार करता है कि मैंने किया। त्याग हुआ, वह भी प्रकृति के अनुसार और त्याग नहीं हुआ, वह भी प्रकृति के अनुसार।
बड़ौदा में एक सेठ थे। उनकी पत्नी बहुत किच-किच किया करती थी। घर में पाँच-छ: बच्चे, खातापीता घर था, पर पत्नी बहुत तेज़ थी। इसलिए सेठ तंग आ गए। उन्होंने सोचा, "इस से तो साधु हो जाना अच्छा, लोग 'बापजी, बापजी' तो करेंगे कम से कम।" अत: सेठ तो चुपचाप भाग खड़े हुए और साधु बन गए। पर पत्नी बड़ी होशियार निकली, सेठ को खोज निकाला उसने तो और ठेठ दिल्ली के उपाश्रय में अचानक जा पहुँची, जहाँ वे रहते थे। वहाँ महाराज का व्याख्यान चल रहा था। सेठ भी सिर मुंडवाकर साधवेष में बैठे थे। सेठानी ने तो वहीं पर ही सेठ को डाँटना शरू कर दिया, 'अरे, आपने मेरे साथ यह कैसा व्यापार शुरू किया है? घर पर छ: बच्चे मेरे सिर पर डालकर कायरों की
तरह क्यों भाग खड़े हुए? उनकी पढ़ाई, शादी कौन करवाएगा? उसने तो सेठ का हाथ पकड़ा और लगी घसीटने। सेठ समझ गए कि ज्यादा खींचा-तानी करूँगा तो नाहक बदनामी होगी। उन्होंने कहा, 'जरा ठहर! कपड़े तो बदल लेने दे!' इस पर सेठानी बोली, 'नहीं, ऐसे अब आपको खिसकने नहीं दूंगी, इन्हीं कपड़ों में घर चलिए। घर से भागते हुए शरम नहीं आई थी?' उपाश्रय के महाराज भी समझ गए और इशारे से जाने को समझाया। सेठानी तो उसी वेष में सेठ को घर ले आई वापस। प्रकृति में त्याग नहीं था, इसलिए सेठ को वापस लौटना पड़ा।
एक महाराज बहुत वृद्ध हो गए थे। घूमना-फिरना बंद हो गया। कोई चाकरी करनेवाला नहीं था। इसलिए महाराज को घर याद आया। बेचारे जैसे-तैसे करके किसी की मदद से घर पहुँचे। आखिरी समय में बीवी-बच्चे चाकरी करेंगे, इसी आशा से ही तो न! पर बीवी-बच्चों ने घर में रखने से साफ इनकार कर दिया। प्रकृति में त्याग था, तो वही सामने आया उनके।
ऐसा विचित्र है प्रकृति का कामकाज़। पर प्रकृति है क्या? यदि वह कोई वस्तु होती, तो हम उसका नाम गंगाबहन रखते। पर नहीं, प्रकृति यानी 'सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' यह तो प्रकृति नचाती है वैसे नाचता है और कहता है, 'मैं नाचा, मैंने त्याग किया' प्रकृति में त्याग हो, तो हो सकता है। वर्ना बीवी आकर उठा ले जाती है अंत में!
प्रकृति का अंत आए, ऐसा नहीं है। यदि खुद पुरुष हो जाए, तो प्रकृति, प्रकृति का काम करे और पुरुष, पुरुष के भाग में रहे। पुरुष अर्थात् परमात्मा। जब तक परमात्मा नहीं हुआ हो, तब तक प्रकृति नचाए वैसे नाचता है।
सभी ग्रंथों ने पुरुष का, आत्मा का ज्ञान जानने को कहा, पर प्रकृति को जानने का किसी ने नहीं कहा। अरे! पर-कृति जान तब आत्मा को जान सकेगा। यदि तेल और पानी एक हो गए हों, तो पानी को जान और अलग कर। तब तू तेल को जान सकेगा। इसलिए हम कहते हैं कि
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प्रकृति-ज्ञान को जानो। चंचल भाग जो-जो है, वह सारा ही प्रकृति भाग है, उसे तू जान। चंचल भाग में क्या-क्या आता है? पाँच इन्द्रियाँ। आँख, नहीं देखना हो तब भी देख लेती है। बांद्रा की खाडी आए, तब नाक, नहीं सूंघना हो, तो भी सूंघ लेती है। देह चंचल किस प्रकार है? सामने से मोटर टकराने आए, तो फट से एक ओर हो जाती है। उस समय मन-बन कुछ नहीं करता। मन चंचल, चित्त चंचल, इसलिए बैठे हैं यहाँ, और चित्त स्टेशन जा पहुँचता है। बुद्धि भी चंचल। कोई कहे वहाँ नहीं देखना चाहिए, तो भी बुद्धि झट से दिखा देती है। और यदि कोई ऐसा कहे कि चंदूभाई आइए, तो छाती फूल जाती है, वह अहंकार की चंचलता। इसलिए चंचल भाग को पूर्ण रूप से जान लिया, तो शेष रहा अचंचल भाग, वही आत्मा। दया, मान, अहंकार, शोक-हर्ष, सुखदुःख ये सब द्वन्द्व गुण हैं। वे सब प्रकृति के ही गुण हैं। प्रकृति धर्म है। प्रकृति अर्थात् चंचल विभाग, एक्टिव विभाग और आत्मा पुरुष, जो अचंचल है। यदि पुरुष को जानें, तो आत्मज्ञान होता है और तभी परमात्मा हो सकते हैं।
पर कुछ रह गया, इसलिए फिर मुझसे कहा, 'दादाजी, पर मैं रोजाना चार घंटे योगसाधना करता हूँ न?' मैंने पूछा, 'किस की योग साधना करते हो? जाने हुए की या अनजाने की?' आत्मा को तो जाना नहीं है, देह को ही जाना है। अत: देह को जानकर देह की साधना की। किसी अनजाने आदमी के मुँह का ध्यान कर सकते हैं? नहीं कर सकते। आत्मा से अनजान, तो आत्मा का ध्यान कैसे करें? यह किया, वह तो देह साधना हुई, उसमें आत्मा के ऊपर क्या उपकार किया? आत्मयोग उत्पन्न हो, तभी मोक्ष होता है। देहयोग से तो संसार फल मिलता है। ये हमारे महात्मा, सभी आत्मयोगी हैं और हम आत्मयोगेश्वर
योग-एकाग्रता एक इंजिनीयर मेरे पास आए थे। उन्होंने मुझसे कहा, 'दादाजी, मुझे मोक्ष साधन चाहिए।' मैंने उनसे पछा, 'आज तक आपने कौन-सा साधन किया है?' उसने कहा, 'मैं एकाग्रता करता हूँ।' मैंने उनसे कहा, 'जो व्यग्रता का रोगी हो, वह उस पर एकाग्रता की दवाई लगाता है।' एकाग्रता कौन करेगा? जिसे व्यग्रता का रोग है, वह। इन मज़दूरों को एकाग्रता क्यों नहीं करनी पड़ती? क्योंकि उन्हें व्यग्रता नहीं है, इसलिए। हम ज्ञानी पुरुष भी एकाग्रता नहीं करते। हमें व्यग्रता नाम मात्र की भी नहीं होती। यह तो अगन होती है, उस पर ठंड के लिए दवाई लगाते हैं, उसमें आत्मा पर क्या उपकार किया आपने? एक भी चिंता कम हुई? भाई ब्रिलियन्ट थे, इसलिए उसने कहा, 'दादाजी, मेरी बुद्धि फ्रेक्चर हो गई है। आपने जो कहा वह मुझे एकदम एक्सेप्ट हो गया है, वह रोग ही निकल गया मेरा तो।'
योग अर्थात् टु जोइन, युज धातु पर से बना है। जाने हुए का ही योग होता है। देह का योग, वाणी का योग, तो कोई मन का भी योग करता है। ऐसे योग से भौतिक शक्ति बढ़ती है, पर मोक्ष नहीं होता है। आत्मयोग से ही मोक्ष होता है।
इस संसार में मनोयोगी होते हैं, बुद्धियोगी हैं, उलटी-सुलटी बुद्धिवाले, कितने ही सम्यक् बुद्धि तो कितने विपरीत बुद्धिवाले होते हैं। देहयोगी-तपस्वी और वचनयोगी-वकील आदि तरह-तरह के योगी पड़े हैं। आत्मयोग वही एक सच्चा योग है, बाकी सब अयोग हैं। आत्मयोग में बैठे हों, तब मन फाइलें लाए, तब उसे कहना कि चला जा! नहीं तो तेरा अपमान करूँगा, अभी मत आना, बाद में आना। आत्मयोग के ध्यान में रहोगे, तब अनुभूति होती है और वह अनभूति कभी नहीं जाती। स्वरूप के भान के अलावा जो-जो जानते हो वह अज्ञान है। स्वरूप के ज्ञान के बाद जो-जो जानते हो, वही जाना हुआ कहलाता है। आत्मयोग हुआ, वही स्वरूप का भान हुआ। ज्ञानयोग ही सिद्धांत है। त्रियोग (मन-वचनकाया का योग), वह असिद्धांत है।
निर्विकल्प समाधि
योगमार्ग की समाधि में मन-वचन-काया की जलन हो, तब योग
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से देह की शांति अनुभव में आती है, पर 'मुक्ति सुख' अनुभव में नहीं आता। वह सुख तो आत्मयोगी ही अनुभव कर सकते हैं।
समाधि किसे कहते हैं? देहयोग की कष्ट उठाकर प्राप्त की गई समाधि यानी जितनी देर तक हैन्डल घुमाया उतनी देर ठंडक लगती है। शाश्वत ठंडक तो निर्विकल्प समाधि उत्पन्न होने पर ही मिलती है। निर्विकल्प समाधि यानी सहज समाधि। उठते-बैठते. खाते-पीते. अरे! लड़ते-झगड़ते भी समाधि नहीं जाती। ऐसी समाधि उत्पन्न हो, तभी मोक्ष प्राप्त होता है।
नाक दबाकर तो कहीं समाधि होती होगी? किसी छोटे बच्चे की नाक दबाकर देखिए, तुरंत काट लेगा। उससे तो दम घुट जाता है। आधि, व्याधि और उपाधि नहीं हो उसे समाधि कहते हैं। आखिर में जाना हो, (मृत्यु समय) तब 'खुद का' भाग सारा ही सिकोड लेता है और उसकी ही समाधि में रहता है। हमारे सम्यक् दृष्टिवाले महात्माओं का समाधि मरण होता है। 'शुद्धात्मा' के लक्ष्य के साथ ही देह छूटती है।
प्रश्नकर्ता : वृत्ति स्थिर नहीं रहने का कारण क्या है?
दादाश्री : आप खुद स्थिर बैठ सकते हैं? फिर वृत्ति कैसे स्थिर रह सकती है? वृत्तियाँ स्थिर करने के अपार साधन हैं, परंतु मुश्किलें भी अपार हैं। त्रिविध ताप में भी समाधि रह सकती है, ऐसा है।
ध्याता-ध्येय-ध्यान
विकल्पी कभी भी निर्विकल्पी नहीं हो सकता। वह तो, जो खुद निर्विकल्पी नैचरली हो गए हैं, वही दसरे को निर्विकल्प पद दे सकते हैं। देह और आत्मा दोनों बिलकुल अलग-अलग ही रहते हैं, कभी तन्मयाकार नहीं होते। फिर चाहे कोई भी अवस्था हो, उसका नाम निर्विकल्प समाधि।
संकल्प-विकल्प बंद हों, तब आत्मा निर्विकल्पी होता है। निर्विकल्प का ज्ञान लिए बगैर, निर्विकल्पी नहीं हो सकता। ऐसे कुछ योगी हैं कि जो सभी संकल्प-विकल्प निकाल देते हैं और एक ही संकल्प-विकल्प पर पहँचते हैं और वह 'मैं हँ' ही होता है, लाइट (ज्ञान प्रकाश) नहीं होती। दशा ऊँची होती है, तेज आता है, पर ज्ञान नहीं होता। वस्तु का (आत्मा का) अपना स्वगुण होता है, स्वधर्म होता है, स्वअवस्था होती है। भगवान अलख निरंजन हैं। यह ज्ञानी पुरुष के लक्ष्य में आता है। ध्येय जब तक नहीं जानते, तब तक ध्येय स्वरूप नहीं हो सकते। हजारों उल्कापात हों, फिर भी सहज समाधि नहीं जाती। धारणा तो कल्पित होती है। इनडाइरेक्ट प्रकाश, वह रिलेटिव आत्मा है। रियल आत्मा सतत रहा ही करता है। उसमें केवल ज्ञाता-दृष्टापन ही रहता है। हर तरह से मन का समाधान रहे, उसका नाम ज्ञान। पाँचों इन्द्रियाँ जागृत हों और समाधि रहे, वही सच्ची समाधि है।
प्रत्येक अवस्था में अनासक्त योग, वही पूर्ण समाधि।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, ध्यान ठीक से नहीं होता हो, तो क्या करें?
दादाश्री : ध्यान में तो मैं आपको अभी बिठा दूँ, पर उसके बाद अनंत सीढ़ियाँ तो बाकी रहीं! तो ऐसे ध्यान का क्या करना? मैं आपको सीधे मोक्ष में ही बिठा दूंगा, आना! हमें तो रियल ध्यान ही पूरा माँग लेना है, रिलेटिव ध्यान क्यों माँगें? वह तो अधूरा ध्यान है।
प्रश्नकर्ता : वह तो बहुत मुश्किल है न?
दादाश्री : देनेवाला मैं हूँ न, फिर काहे की मुश्किल? एक मंत्री की पहचान से सारे काम होते हैं, तो ज्ञानी पुरुष की 'पहचान' से क्या नहीं हो सकता? हम पक्षपात नहीं करते, वीतराग होते हैं। सच्चा हो, और हमसे आ मिले, तो उसे ज्ञान देते हैं।
यह आप ध्यान करते हैं, पर किस का ध्यान? ध्येय क्या? ध्याता कौन? ध्येय को बिना पहचाने, निश्चित किए बगैर, किस का ध्यान करना? ध्यान तो साधन है, ध्येय स्वरूप का और ध्याता 'शुद्धात्मा' है,
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तभी वह ध्यान फलदायी होता है। बाकी, 'मैं चंद्भाई' और उसे ध्याता मानकर अपनी कल्पना का ध्येय निश्चित करके, अपनी ही कल्पना से जो समझ में आए वह ध्यान करे, तो उसका क्या फायदा? ऐसे कैसे काम बनेगा? हम आपको ज्ञान प्रदान करते हैं, तब आपको रियल ध्याता बनाकर, आपके स्वरूप में बिठा देते हैं। ध्येय, ध्यान और ध्याता एक ही स्वरूप हो जाते हैं। स्वरूप, स्वरूप में ही रहे, तब ही मोक्ष बरतता है। बाकी यह तो आप ध्यान करने बैठे हों और पक्का किया हो कि आज ध्यान करते समय फलाँ इन्कमटैक्स अथवा विषय का विचार नहीं आए तो अच्छा। मगर वहीं पहले अनचाहे विचारों का ही धमाका होता! उसे ध्यान किस प्रकार रहे?
एक शेठ ध्यान में बैठे थे। बाहर कोई उन्हें पूछता हुआ आया कि सेठजी कहाँ गए हैं? सेठानी ने कहा, 'हरिजनवास में।' सेठ मन ही मन पत्नी के चरणों में झुक गए। वास्तव में सेठ के ध्यान में उस समय विषय ही थे।
पचास मिनट में देते हैं, तो और क्या नहीं मिल सकता?
यदि आठ मिनट तक भी ध्यान रह पाए, तो वह जमा होते होते पचास मिनट का हो जाता है। आठ मिनट का ध्यान जमा होता है, सात मिनट का नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : 'खुद' के (शुद्धात्मा के) गुणधर्म अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, उनका ध्यान करें, तो क्या वे प्राप्त होंगे?
दादाश्री : होंगे, अवश्य होंगे। आत्मा के जितने गुण जानें और उतनों का ध्यान करें, तो उतने गुणधर्म प्राप्त होते हैं।
भगवान, नाम है या विशेषण? प्रश्नकर्ता : नाम।
दादाश्री : यदि नाम होता, तो हमें उन्हें 'भगवानदास'! कहना पड़ता। भगवान शब्द तो विशेषण है। जैसे भाग्य पर से भाग्यवान विशेषण होता है, वैसे भगवत् शब्द से भगवान हुआ है। जो कोई भगवान के गुण प्राप्त करता है, उसे यह विशेषण लागू होता है। हमें सभी भगवान कहते हैं, पर 'हमारा पद' निर्विशेष अनुपमेय है। उसे कौन-सा विशेषण देंगे? इस देह को देंगे? वह तो फूट जानेवाला है। अंदर जो प्रकट हो गए हैं, वही परमात्मा हैं। गज़ब का प्रकाश हो गया है!!
शुद्ध ज्ञान ही परमात्मा है। 'आत्मा' वह भी शब्द रखा गया है, वह संज्ञासूचक शब्द है। 'ज्ञान' ही परमात्मा है। ज्ञान सबकछ चलाता है पर शद्ध ज्ञान के दर्शन होने चाहिए। शुद्ध ज्ञान से मोक्ष है। सद्ज्ञान रखें, तो सुख मिलेगा, विपरीत ज्ञान रखें, तो दुःख मिलेगा। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। भगवान कौन कहलाता है? जो इस दुनिया में स्वतंत्र हुआ है
और जिसका कोई मालिक नहीं है, वह भगवान। कोई ऊपरी भी नहीं है और कोई अन्डरहैन्ड भी नहीं है, मगर खुद की 'परवशता' ही समझ में नहीं आई है, वहाँ स्वतंत्रता कैसे समझ में आए? संसार तो परवशता का संग्रहस्थान है और परवशता ही दुःख है। यह तो लोग खद, खुद से
यदि यह ध्यान यथार्थ रूप से किया जाए, तो उसमें गज़ब की शक्ति है। ध्यान की परिभाषा समझिए। ध्येय निश्चित हो, तब ध्याता होता है, ध्याता और ध्येय को जो जोइन्ट करता है, वह ध्यान है। एक घंटा यदि हक्के को देखकर, फिर ध्येय निश्चित करके कहें कि यह हुक्का मुझे चाहिए, फिर चाहे वह किसी दुकान में क्यों न हो। हुक्का चाहिए ऐसा ध्येय पक्का करके आप पचास मिनट उसका सतत ध्यान करें, एक सेकिन्ड के लिए भी ध्यान ब्रेक नहीं होना चाहिए। पचास मिनट आप कन्टिन्युअस उसका ध्यान लगाएँ, तो पचासवें मिनट में वह हुक्का आपके हाथों में होगा। कहाँ से आएगा? यह मत सोचना। ध्यान की इतनी बड़ी गजब की शक्ति है। यदि पद्धति अनुसार ध्यान करें, तो ध्येय का साक्षात्कार अवश्य होना ही चाहिए। पर यह तो तरीका ही गलत हो, तो जवाब किस तरह आएगा? ध्यान से तो परमात्मा की भी प्राप्ति हो सकती है. ऐसा है। ध्यान में गजब की शक्ति है। पर ध्यान समझ में आए तब काम होगा। ये 'दादा', कभी नहीं हुआ हो, ऐसा भगवान का पद आपको
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है, पर साथ में दूसरों को भी डुबोता है। हम लघुत्तम हैं। हम तो डूबते नहीं हैं और किसी को डुबोते भी नहीं हैं। 'हम' हलके फूल जैसे होते हैं। हम तर गए हैं और सबको तारते हैं, क्योंकि हम तरण तारण हैं। खुद तर गए और दूसरे अनेकों को तारने का सामर्थ्य रखते हैं।
ही गुप्त रहे हैं। जितने विचार आते हैं, उतने संसार में मार्ग हैं। तुझे अनुकूल आए, उस मार्ग पर भटक और जब थक जाए, तो 'इस' मोक्ष के रास्ते पर आ जाना। तुझे स्वतंत्र होना हो तब आना। संसार गलत नहीं है, जगत् गलत नहीं है, जगत् में कुछ भी गलत नहीं है, पर तेरी समझ गलत है। जगत् में प्रति क्षण भय है, प्रति क्षण परवशता ही है, इसी कारण आप निरंतर डर रहा करता है।
कितनों ने तो 'यम और यमदूत' के नाम से लोगों को डरा दिया है। यमराज, यमराज ही तो! फिर लोगों ने तो तरह-तरह के यमराज के चित्र बनाए। भैंसे बनाई, बड़े-बड़े दाँतवाला राक्षसी रूप चित्रित किया और लोगों को डरा दिया। अरे! यमराज नाम का कोई जानवर नहीं है। वह तो नियमराज हैं। नियमराज ही सबकुछ चलाते हैं। नियमराज ही जीवित रखते हैं और नियमराज ही मारते हैं। यदि ऐसी सच्ची समझ मिले, तो फिर रहेगा किसी प्रकार का भय या डर?
किसी ने कहा हो कि यह जो जंगल के रास्ते पर तुझे जाना है, वहाँ बाघ-सिंह नहीं हैं। पर साथ-साथ इतना कहना भूल गया कि एक जगह पर बाघ-सिंह हैं, मगर वे पिंजरे में हैं। बस, इतना ही बताना रह गया और वह जंगल के रास्ते चल पड़ा। वहाँ एक ही बाघ गुर्राया और उसके छक्के छूट गए और वापस भाग आया। यदि उसे पहले से बता दिया होता कि बाघ-सिंह हैं, पर पिंजरे में हैं, तो उसे डर नहीं लगता। अत: ऐसे अधूरे ज्ञान से हल कैसे निकले? बतानेवाले के अधूरे ज्ञान से वह डरकर भाग गया।
गुरु किल्ली भगवान ने कहा था कि गुरु बनना मत और बनो, तो गुरु किल्ली साथ रखना, वर्ना कैफ़ चढ़ गया, तो डूबेगा। भगवान किसी के गुरु नहीं थे और आज ये सभी जगह-जगह गुरु बन बैठे हैं। घर पर दो बच्चे और बीवी रूपी, तीन घंट छोड़कर यहाँ दो सौ-पाँच सौ शिष्यों के घंट गले लटकाए हैं। मुए! डूब मरेगा। गुरु अर्थात् भारी। भारी खुद तो डूबता ही
भगवान ने भी कहा था कि गुरुपद जोखिमवाला पद है, ऐसा लक्ष्य में रखकर गुरु बनना, वर्ना मारा जाएगा। यदि गुरु बनना हो, तो ज्ञानी पुरुष के पास से गुरु किल्ली ले जाए, तभी काम होगा, नहीं तो भारी कैफ चढ़े ऐसा पद है। गुरुपद तो रिस्पोन्सिबिलिटी है।
लोगों के गुरु बन बैठे थे, ऐसे पाँच-छ: गुरु एकबार मेरे पास आए और मुझसे पूछने लगे, 'क्या लोगों को गुरु नहीं चाहिए?' मैंने बताया, सच्चे गुरु हों तो काम के! बाकी, गुरु अर्थात् भारी और भारी तो खुद डबें और दूसरों को डुबोएँ। मैं तो लघुत्तम पुरुष हूँ, गुरुत्तम पुरुष हूँ। मैं कच्चा नहीं हूँ कि लोगों का गुरु बन बैठें। यदि त् गरु बन बैठा है, तो जानना कि तू लघु है। वर्ना बिना लघुता के भान के बिना गुरु बनेगा, तो डूबेगा और डुबोएगा।
अगमज्ञान तो, सभी के लक्ष्य के बाहर ही गया है। कभी भी गम नहीं पड़े, वह अगम। हमने आपको अगम का ज्ञान दिया है। निगम का ज्ञान लोगों को होता है, मगर अगम का नहीं होता। गरुगम शब्द है, पर गुरु खुद ही उत्तर को दक्षिण समझें, तो क्या हो?
शुष्कज्ञान अर्थात् जो परिणमित नहीं होता, वह । पेड़ पर फूल लगते हैं, पर फल नहीं आते। उसी तरह आज जगह-जगह शुष्कज्ञान घर कर गया है। काल की विचित्रता है यह!
अक्रम ज्ञान - क्रमिक ज्ञान 'क्रमिक मार्ग' में, रिलेटिव धर्म की भाषा में, व्यवहार-निश्चय का जो विभाजन करने में आया है, वह समझ से ठीक है, परंतु अक्रम मार्ग की, रियल धर्म की ज्ञानभाषा में तो निश्चय व्यवहार है, अर्थात् निश्चय
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यथार्थ प्रकट हो, उसके बाद ही यथार्थ व्यवहार की शुरूआत हुई, ऐसा माना जाता है। ऐसे निश्चय-व्यवहार संबंध में ही, यथार्थ निश्चय से यथार्थ व्यवहार होता है और इसलिए चाहे कोई भी जाति हो. वेष हो. श्रेणि हो या फिर चाहे किसी भी प्रकार की अवस्था हो, परंतु उस प्रत्येक अवसर पर, संयोगों में संपूर्ण, समाधानकारी जागति रहती है अर्थात् असमाधान मात्र से विराम पाना संभव होता है। तात्पर्य यह कि व्यवहार यथार्थ तभी कह सकते हैं जब यथार्थ निश्चय प्रकट हुआ हो। सर्व अवस्थाओं में सर्व समाधान रहे ऐसा 'ज्ञान' है यह।
तो श्रद्धा को मदद करनेवाला ज्ञान मिल जाता है और ज्ञान तथा श्रद्धा एक हों, तो चारित्र ऐसा ही हो जाता है। आत्मा वैसा ही हो जाता है। कोई सास अपनी बहू को पागल कहे, पर जब तक बहू को इसमें श्रद्धा नहीं बैठती, तब तक उस पर कोई इफेक्ट (असर) नहीं होता है। चाहे सारी दुनिया उसे पागल कहे, तब भी उस पर सायकोलोजिकल इफेक्ट नहीं होता है। पर यदि उसकी श्रद्धा बदली, तो वह सचमुच पागल हो जाएगी। इसलिए इस दुनिया में कभी किसी का दबाव मत पड़ने देना अपने पर!
जैसी-जैसी प्रतिष्ठा तूने की वैसा ही तेरा प्रतिष्ठित आत्मा हो जाता
चौरासी लाख योनि-चार गति की भटकन क्यों?
है।
आत्मा खुद पुद्गल को ऊर्ध्वगामी खींचता है। जब पुदगल का बोझ बढ़ता है, तब पुद्गल आत्मा को अधोगति में ले जाता है। इसलिए अभी कलियुग में तो धर्म ऐसा देना चाहिए कि भैया, हिंसा चोरी आदि के भाव हों, तो उन्हें मिटा देना ताकि अधोगति नहीं हो। पाशवी और राक्षसी विचारों को मिटा देना। यदि ऐसा करेगा, तो आत्मा का तो स्वभाव ही है ऊर्ध्वगामी होना।
प्रश्नकर्ता : श्रद्धा और ज्ञान में क्या अंतर है?
दादाश्री : श्रद्धा अन्डिसाइडेड ज्ञान है। 'ज्ञान' डिसाइडेड ज्ञान है. मतलब 'अनुभववाला ज्ञान' है। बगीचे में बैठे हों और कुछ आवाज हो,
और मैं कहूँ कि कुछ है, आप भी कहें कि कुछ है, यह कौन-सा ज्ञान? उसका नाम 'श्रद्धा' अथवा 'दर्शन'। फिर सब खडे होकर पता लगाते हैं। हाथ फेरकर सब तय करते हैं कि यह तो गाय है वह ज्ञान है। बिलीफ़ यानी दर्शन में कभी रोंग (गलत) भी हो सकता है। सामान्य रूप से जानना, वह 'दर्शन' कहलाता है और विशेष रूप से जानना, वह 'ज्ञान' कहलाता है।
इससे गति सीधी होगी। पाशवता और राक्षसी विचार सारा दिन करते ही रहते हैं, इसलिए सारा दिन आत्मा पर आवरण का लेप चढ़ाया ही करते हैं। अपने लाभ के अवसर की ताक में ही रहा करते हैं, यही पाशवता है।
जेबकतरे को जेब काटना कैसे आता है? पहले श्रद्धा उत्पन्न होती है और फिर ज्ञान मिलता है, चारित्र अपने आप ही आ जाता है।
टेप की आवाज़ जैसे मिटाई जा सकती है, वैसे ही अंदर भी मिटाया जा सके ऐसा है। ग्यारह बजे भोजन से पहले जो विचार आया, उसके प्रकट होने से पहले उसे मिटाया जा सकता है। हम यही कहते हैं कि भाई! उसे मिटा देना।
'ज्ञान ही आत्मा है।' जैसा-जैसा जिसका ज्ञान होता है, वैसा उसका आत्मा होता है। विपरीत ज्ञान हुआ, तो विपरीत आत्मा होता है। जिस ज्ञान पर श्रद्धा होती है, वैसा वह हो जाता है। श्रद्धा बैठी,
ज्ञान-दर्शन का फल क्रियामान। लोग उसे चारित्र कहते हैं। सम्यक् अर्थात् यथार्थ, रियल। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन से सम्यक् चारित्र उत्पन्न होता है। जिसमें रियल चारित्र होता है, वह संपूर्ण भगवान ! रियल चारित्र से किसी को भी दु:ख नहीं पहुँचता।
बर्ताव, बिलीफ़ (मान्यता) और ज्ञान एक दूसरे पर आधारित हैं।
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जैसी बिलीफ़ होगी, वैसा ज्ञान मिलता है और वैसा ही बर्ताव हो जाता है। बर्ताव करना नहीं पड़ता है।
क्रिया, आत्मा नहीं है। आत्मा के अपने गुणधर्म हैं। पर आत्मा की सक्रियता नहीं है। जैसी-जैसी कल्पना, वैसा-वैसा अनुभव होता है। दुःख-सुख कोई वस्तु नहीं है, कल्पना है। आत्मा की इतनी बड़ी शक्ति है, पर खुद निर्लेप है। आत्मा की उपस्थिति से अन्य सभी की सक्रियता दिखती है।
भगवान क्या कहते हैं कि जो सारी क्रियाएँ की गई हैं, उनका फल आएगा। जिस क्रिया का फल नहीं आता, उस क्रिया से मोक्ष! परम विनय से मोक्ष, उसके अलावा सब जंजाल है, और उसका अंत नहीं आता है। गुफा में होगा, तो गुफा का जंजाल और संसार में हो, तो संसार का जंजाल, इस प्रकार जहाँ होगा, वहाँ का जंजाल आ घुसेगा।
लोग कहते हैं कि क्रिया कीजिए पर बिना ज्ञान के क्रिया कैसी? क्रिया तो ज्ञान की दासी है। भगवान ने कहा 'ज्ञानक्रिया करो, ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्ष।'
'ज्ञानक्रिया' अर्थात् क्या? खुद के स्वरूप में ही रहना और जानना। दर्शन क्रिया में देखना और ज्ञानक्रिया में जानना। देखना और जानना, यही आत्मा की क्रिया है। जब कि आत्मा के अलावा अन्य किसी तत्त्व में ज्ञान-दर्शन-क्रिया नहीं होती है। अन्य सभी क्रियाएँ होती
नहीं है। वह तो केवल देखता है और जानता है।
जो जानता है, वह करता नहीं है और जो करता है, वह जानता नहीं है। जो करनेवाला होता है, वह जाननेवाला नहीं होता और जो जाननेवाला होता है, वह करनेवाला नहीं होता। इस इंजन से पूछे, तो वह कहेगा कि नहीं भैया मैं कुछ नहीं जानता। यह इलैक्ट्रिक बल्ब लाइट देता है, पर वह जानता नहीं है।
समुद्र में से नाव आपको किनारे पर लाई या आप नाव को लाए? नाव लाई। करनेवाली नाव, मगर वह खुद नहीं जानती। ऐसे 'जाननेवाली'
और 'करनेवाली' दोनों धाराएँ अलग होती हैं। पर यदि 'जो करे वह जाने' कहा, तो दोनों धाराएँ जो अलग बहती थीं, वे एक हो जाती हैं
और इसी कारण स्वाद भी बेस्वाद कढ़ी जैसा लगता है न? कर्ताधारा और ज्ञाताधारा दोनों अलग ही हैं।
जो करता है, वह जानता नहीं और जो जानता है, वह करता नहीं। क्योंकि कर्तापन में एविडन्स चाहिए, जब कि ज्ञातापन में एविडन्स की ज़रूरत नहीं होती। कुछ भी करना पड़े, उसमें सांयोगिक प्रमाण चाहिए, यों ही नहीं होता।
प्रज्ञा
दादाश्री : आत्मा देह से अलग ही होता होगा न? प्रश्नकर्ता : अलग ही है।
दादाश्री : तो यह देह तू चलाता है, वह किसी की मदद से चलता है? यह तो 'व्यवस्थित' शक्ति की मदद से सब चलता है। यह सब करती है, वह 'व्यवस्थित' शक्ति करती है। उसमें आत्मा कुछ भी करता
प्रज्ञा आत्मा का डायरेक्ट प्रकाश है, जब कि बुद्धि इनडायरेक्ट प्रकाश है। मिडियम श्रु आनेवाला प्रकाश है।
केवलज्ञान स्वरूप के अंश स्वरूप को हम प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा ज्ञान पर्याय है। जैसे-जैसे आवरण हटते जाते हैं, वैसे-वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है और केवलज्ञान बढ़ता जाता है। संपूर्ण केवलज्ञान तो ३६० अंश पूरे हों, तब होता है।
जैसे एक मटके में हजार वॉट का बल्ब लगाया हो और मटके का मँह बंद किया हो, तो प्रकाश मिलेगा क्या? नहीं मिलता। ऐसा इस मूढ़ात्मा का है। भीतर तो अनंत प्रकाश है, पर आवृत होने से घोर अंधकार
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आप्तवाणी-१
२५५ है। ज्ञानी पुरुष की कृपा से, उनकी सिद्धि के बल से, मटके में यदि जरासा छेद हो जाए, तो पूरे कमरे में प्रकाश हो जाता है। उतना आवरण टा और उतना डायरेक्ट प्रकाश प्राप्त हुआ। ज्यों-ज्यों आवरण ट्टते जाते हैं, ज्यों-ज्यों अधिक छेद होते जाते हैं, त्यों-त्यों प्रकाश बढ़ता जाता है। और जब पूरा मटका टूट जाए और बल्ब अनावृत हो जाए तब संपूर्ण प्रकाश चारों और फैल जाता है। जगमगाहट हो जाती है।
डायरेक्ट ज्ञानकिरण फूटती है, वही प्रज्ञा कहलाती है। जब सारे आवरणों से आत्मा मुक्त हो जाए, तब उसे सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करने की शक्ति प्राप्त होती है। सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करता है। दूसरे शब्दों में सारे ब्रह्मांड के ज्ञेयों को देखने जानने की शक्ति प्राप्त होती है, वही केवलज्ञान कहलाता है।
दोनों को अलग ही रखती है, वही प्रज्ञा है, वही आत्मा है, वही चारित्र है। बर्ताव ही चारित्र। बर्ताव अर्थात् 'स्व' और 'पर' को एकाकार नहीं होने दे वह।
हम जब ज्ञान देते हैं, तब सीधी ही अनुभूति होती है, उसे परमार्थ समकित कहते हैं। इससे आपको उसी समय प्रज्ञा भाव उत्पन्न हो जाता है। सारा संसार जो चल रहा है, वह सब चंचल भाग है, जब कि प्रज्ञाभाव स्थायी रह सके, ऐसा भाव है। प्रज्ञा उत्पन्न हो, तब सीढियाँ नहीं चढ़नी पड़ती पर सीधे ही ऊपर पहुँच जाते हैं। प्रज्ञा के अलावा सारे भाव जो हैं, वे भावाभाव माने जाते हैं और वे सभी चंचल भाग में आते हैं। प्रज्ञाभाव को आत्मभाव नहीं कह सकते। प्रज्ञाभाव अचंचल भाग में आता है। प्रज्ञा का कार्य केवलज्ञान होते ही समाप्त हो जाता है। इसलिए उसे आत्मभाव कहा ही नहीं जा सकता। क्योंकि यदि ऐसा कहें, तो वह आत्मा का अन्वय गुण कहलाएगा और अन्वय गण कहें, तो फिर सिद्धक्षेत्र में विराजमान सिद्ध भगवंतो को भी प्रज्ञा होनी चाहिए, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि वहाँ कोई कार्य ही नहीं होता। फुल्ली इन्डिपेन्डेन्ट गवर्नमेन्ट की स्थापना होने के बाद इन्ट्रिम गवर्नमेन्ट अपने आप ही विसर्जित हो जाती है। ऐसा ही प्रज्ञा के लिए है।
आत्मा की खुद की सारे ब्रह्मांड को प्रकाशित करने की जो शक्ति है, उसे केवलज्ञान कहते हैं।
___ इस प्रज्ञा का फंक्शन क्या है? कार्य क्या है? प्रज्ञा तो पति ही परमेश्वर' ऐसा माननेवाली वफादार पत्नी का कार्य करती है। आत्मा के संपूर्ण हित को ही दिखलाती है और अहित को छुड़वाती है। जितनेजितने बाह्य संयोग आएँ, उनका समभाव से निपटारा कर देती है और फिर अपने स्वरूप के ध्यान में बैठ जाती है। अतः अंदर का कार्य भी करती है और बाहर का भी कार्य करती है, इन्ट्रिम गवर्नमेन्ट की तरह।
और वह भी तभी तक, जब तक कि फुल्ली इन्डिपेन्डेन्ट गवर्नमेन्ट स्थापित नहीं हो जाती।
हम 'स्वरूपज्ञान' देते हैं, तब प्रज्ञा बैठा देते हैं, फिर वह प्रज्ञा आपको प्रतिक्षण सावधान किया करती है। भरत राजा को तो चौबीसों घंटे (आत्मा में रहने के लिए), अपने को सावधान करने के लिए नौकर रखने पडते थे। पर यहाँ तो, चाहे कैसा भी विकट संयोग आए तब हमारा ज्ञान हाज़िर हो जाता है, हमारी वाणी हाज़िर हो जाती है, हम स्वयं हाजिर हो जाते हैं। और आप जागृति में आ जाते हैं। प्रतिक्षण जागृत रखे, ऐसा हमारा यह 'अक्रम ज्ञान' है। यहाँ काम निकाल लेने जैसा है। यदि एक बार तार जुड़ गया हो, तो सदा के लिए हल निकल आए। समस्या सदा के लिए सुलझ जाए ऐसा है।
प्रज्ञा क्या है? आत्मा से जो पराया है, उसे कभी भी अपना नहीं होने देती और जो खुद का है, उसे पराया नहीं मानने देती, वही प्रज्ञा। प्रज्ञा तो आत्मा का ही अंग है और वह निरंतर आत्मा को मुक्ति दिलाने का कार्य करती है। जैसे-जैसे प्रज्ञा खिलती जाती है, वैसे-वैसे वर्तन में बदलाव आता जाता है। वर्तन बदले, तब भार कम लगता है। 'स्वयं का' और 'पराया', इस प्रकार होम डिपार्टमेन्ट और फ़ोरेन डिपार्टमेन्ट
इस शरीर में दो विभाग हैं, एक चंचल विभाग और दूसरा अचंचल
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यदि देह रूपी संयोग ही नहीं मिला होता, तो समसरण मार्ग ही नहीं होता। यह तो पुद्गल के संयोग से बिलीफ़ ही बदली है और इसलिए ही यह तृतीयम् जंत् उत्पन्न हो गए हैं और इसलिए ही अनंत शक्तियाँ आवरित हो गई हैं। जंतु जिस प्रकार उत्पन्न हुए हैं, वैसे ही विसर्जित हो जाएँ, तभी आत्मा स्वतंत्र होगा। ज्ञानी पुरुष तो समसरण मार्ग का अंत है। वे तो चरम निमित्त हैं, मुक्ति के! धर्म प्राप्ति के!
'जेणे आप्युं भान निज, तेने आत्म अभिनंदन,
रणके घंट-घंटडीओ, जय सच्चिदानंद।' जिसने दिया भान निज़, उन्हें आत्म अभिनंदन, बाजे घंटे घंटियाँ, जय सच्चिदानंद।
जय सच्चिदानंद
विभाग। अचल जो है वह आत्मा है। आप अपने व्यापार में जितनी निपुणता रखते हैं, उतनी यदि आत्मा में हो, तो काम की। सभी विषयों में गहराई में उतरते हैं, पर इसमें कैसे उतरें? यह तो निर्विषय ज्ञान कहलाता है, पर निर्लेप और निर्विकारी।
हम ज्यादा मिलावटवाला, हलका सोना लेकर सुनार के पास जाएँ, तब भी वह हमसे नाराज नहीं होता है। वह तो केवल सोने को ही देखता है। लोगों का तो मिलावट करने का ही स्वभाव है, फिर भी, सुनार तो सोने को ही देखता है। ये डॉक्टर तो चिढ़ते हैं कि शरीर का क्यों ख़याल नहीं रखते? पर सुनार नहीं चिढ़ता। ज्ञानी पुरुष भी सुनार की तरह आत्मा ही देखते हैं, बाहर का माल नहीं देखते। सोने की अवस्थाएँ, बदलती रहती हैं, मिलावट होती है, पिघलाएँ तो द्रव बन जाता है, पाउडर हो जाता है और उसमें से फिर शुद्ध सोना हो जाता है। ऐसे अवस्थाएँ भले बदलती रहें, परंतु सोना आखिर सोना ही रहता है। सुनार का सोने में जैसा लक्ष्य रहता है, वैसे ही आपको आत्मा का लक्ष्य रहे, तब काम होगा। सुनार सोने में ही लक्ष्य रखता है। बाहर से चाहे कैसा भी मिलावटी दिखाई दे, पर लक्ष्य तो सौ प्रतिशत के सोने में ही होता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष चेतन में ही लक्ष्य रखते हैं।
कोई मनुष्य शास्त्र पढ़े, धारण करे, मगर समझ तो उसकी अपनी ही न? लोग अपनी भाषा में समझे हैं। बात सच है जीवाजीव तत्त्व की, मगर लोग खुद की भाषा में समझे हैं। अजीव तो ना जाने किस को मानते हैं? और जब अजीव ही समझ में नहीं आता, तो जीव तो समझ में ही कैसे आएगा? भगवान हाजिर थे, तब भी आत्मा का लक्ष्य बैठा नहीं था। लक्ष्य बैठता है, पर वह शब्दब्रह्म का लक्ष्य बैठता है और वह तो भूल कि चूक भी सकते है। पढ़े गए वर्णन के शब्दब्रह्म और देखे गए ब्रह्म की बात में बड़ा अंतर है। जिसका वर्णन पढा है. ऐसे खेत का लक्ष्य याद रहे या नहीं भी रहे, पर प्रत्यक्ष रूप से देखे हुए खेत का लक्ष्य हटता नहीं हैं, उसे भूलते नहीं। यह तो जो शुद्धब्रह्म को देखा है, उसका आनंद रहता है हमारे महात्माओं को।
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