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आप्तवाणी-१
तभी वह ध्यान फलदायी होता है। बाकी, 'मैं चंद्भाई' और उसे ध्याता मानकर अपनी कल्पना का ध्येय निश्चित करके, अपनी ही कल्पना से जो समझ में आए वह ध्यान करे, तो उसका क्या फायदा? ऐसे कैसे काम बनेगा? हम आपको ज्ञान प्रदान करते हैं, तब आपको रियल ध्याता बनाकर, आपके स्वरूप में बिठा देते हैं। ध्येय, ध्यान और ध्याता एक ही स्वरूप हो जाते हैं। स्वरूप, स्वरूप में ही रहे, तब ही मोक्ष बरतता है। बाकी यह तो आप ध्यान करने बैठे हों और पक्का किया हो कि आज ध्यान करते समय फलाँ इन्कमटैक्स अथवा विषय का विचार नहीं आए तो अच्छा। मगर वहीं पहले अनचाहे विचारों का ही धमाका होता! उसे ध्यान किस प्रकार रहे?
एक शेठ ध्यान में बैठे थे। बाहर कोई उन्हें पूछता हुआ आया कि सेठजी कहाँ गए हैं? सेठानी ने कहा, 'हरिजनवास में।' सेठ मन ही मन पत्नी के चरणों में झुक गए। वास्तव में सेठ के ध्यान में उस समय विषय ही थे।
पचास मिनट में देते हैं, तो और क्या नहीं मिल सकता?
यदि आठ मिनट तक भी ध्यान रह पाए, तो वह जमा होते होते पचास मिनट का हो जाता है। आठ मिनट का ध्यान जमा होता है, सात मिनट का नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : 'खुद' के (शुद्धात्मा के) गुणधर्म अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, उनका ध्यान करें, तो क्या वे प्राप्त होंगे?
दादाश्री : होंगे, अवश्य होंगे। आत्मा के जितने गुण जानें और उतनों का ध्यान करें, तो उतने गुणधर्म प्राप्त होते हैं।
भगवान, नाम है या विशेषण? प्रश्नकर्ता : नाम।
दादाश्री : यदि नाम होता, तो हमें उन्हें 'भगवानदास'! कहना पड़ता। भगवान शब्द तो विशेषण है। जैसे भाग्य पर से भाग्यवान विशेषण होता है, वैसे भगवत् शब्द से भगवान हुआ है। जो कोई भगवान के गुण प्राप्त करता है, उसे यह विशेषण लागू होता है। हमें सभी भगवान कहते हैं, पर 'हमारा पद' निर्विशेष अनुपमेय है। उसे कौन-सा विशेषण देंगे? इस देह को देंगे? वह तो फूट जानेवाला है। अंदर जो प्रकट हो गए हैं, वही परमात्मा हैं। गज़ब का प्रकाश हो गया है!!
शुद्ध ज्ञान ही परमात्मा है। 'आत्मा' वह भी शब्द रखा गया है, वह संज्ञासूचक शब्द है। 'ज्ञान' ही परमात्मा है। ज्ञान सबकछ चलाता है पर शद्ध ज्ञान के दर्शन होने चाहिए। शुद्ध ज्ञान से मोक्ष है। सद्ज्ञान रखें, तो सुख मिलेगा, विपरीत ज्ञान रखें, तो दुःख मिलेगा। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है। भगवान कौन कहलाता है? जो इस दुनिया में स्वतंत्र हुआ है
और जिसका कोई मालिक नहीं है, वह भगवान। कोई ऊपरी भी नहीं है और कोई अन्डरहैन्ड भी नहीं है, मगर खुद की 'परवशता' ही समझ में नहीं आई है, वहाँ स्वतंत्रता कैसे समझ में आए? संसार तो परवशता का संग्रहस्थान है और परवशता ही दुःख है। यह तो लोग खद, खुद से
यदि यह ध्यान यथार्थ रूप से किया जाए, तो उसमें गज़ब की शक्ति है। ध्यान की परिभाषा समझिए। ध्येय निश्चित हो, तब ध्याता होता है, ध्याता और ध्येय को जो जोइन्ट करता है, वह ध्यान है। एक घंटा यदि हक्के को देखकर, फिर ध्येय निश्चित करके कहें कि यह हुक्का मुझे चाहिए, फिर चाहे वह किसी दुकान में क्यों न हो। हुक्का चाहिए ऐसा ध्येय पक्का करके आप पचास मिनट उसका सतत ध्यान करें, एक सेकिन्ड के लिए भी ध्यान ब्रेक नहीं होना चाहिए। पचास मिनट आप कन्टिन्युअस उसका ध्यान लगाएँ, तो पचासवें मिनट में वह हुक्का आपके हाथों में होगा। कहाँ से आएगा? यह मत सोचना। ध्यान की इतनी बड़ी गजब की शक्ति है। यदि पद्धति अनुसार ध्यान करें, तो ध्येय का साक्षात्कार अवश्य होना ही चाहिए। पर यह तो तरीका ही गलत हो, तो जवाब किस तरह आएगा? ध्यान से तो परमात्मा की भी प्राप्ति हो सकती है. ऐसा है। ध्यान में गजब की शक्ति है। पर ध्यान समझ में आए तब काम होगा। ये 'दादा', कभी नहीं हुआ हो, ऐसा भगवान का पद आपको