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आप्तवाणी-१
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आप्तवाणी-१
से देह की शांति अनुभव में आती है, पर 'मुक्ति सुख' अनुभव में नहीं आता। वह सुख तो आत्मयोगी ही अनुभव कर सकते हैं।
समाधि किसे कहते हैं? देहयोग की कष्ट उठाकर प्राप्त की गई समाधि यानी जितनी देर तक हैन्डल घुमाया उतनी देर ठंडक लगती है। शाश्वत ठंडक तो निर्विकल्प समाधि उत्पन्न होने पर ही मिलती है। निर्विकल्प समाधि यानी सहज समाधि। उठते-बैठते. खाते-पीते. अरे! लड़ते-झगड़ते भी समाधि नहीं जाती। ऐसी समाधि उत्पन्न हो, तभी मोक्ष प्राप्त होता है।
नाक दबाकर तो कहीं समाधि होती होगी? किसी छोटे बच्चे की नाक दबाकर देखिए, तुरंत काट लेगा। उससे तो दम घुट जाता है। आधि, व्याधि और उपाधि नहीं हो उसे समाधि कहते हैं। आखिर में जाना हो, (मृत्यु समय) तब 'खुद का' भाग सारा ही सिकोड लेता है और उसकी ही समाधि में रहता है। हमारे सम्यक् दृष्टिवाले महात्माओं का समाधि मरण होता है। 'शुद्धात्मा' के लक्ष्य के साथ ही देह छूटती है।
प्रश्नकर्ता : वृत्ति स्थिर नहीं रहने का कारण क्या है?
दादाश्री : आप खुद स्थिर बैठ सकते हैं? फिर वृत्ति कैसे स्थिर रह सकती है? वृत्तियाँ स्थिर करने के अपार साधन हैं, परंतु मुश्किलें भी अपार हैं। त्रिविध ताप में भी समाधि रह सकती है, ऐसा है।
ध्याता-ध्येय-ध्यान
विकल्पी कभी भी निर्विकल्पी नहीं हो सकता। वह तो, जो खुद निर्विकल्पी नैचरली हो गए हैं, वही दसरे को निर्विकल्प पद दे सकते हैं। देह और आत्मा दोनों बिलकुल अलग-अलग ही रहते हैं, कभी तन्मयाकार नहीं होते। फिर चाहे कोई भी अवस्था हो, उसका नाम निर्विकल्प समाधि।
संकल्प-विकल्प बंद हों, तब आत्मा निर्विकल्पी होता है। निर्विकल्प का ज्ञान लिए बगैर, निर्विकल्पी नहीं हो सकता। ऐसे कुछ योगी हैं कि जो सभी संकल्प-विकल्प निकाल देते हैं और एक ही संकल्प-विकल्प पर पहँचते हैं और वह 'मैं हँ' ही होता है, लाइट (ज्ञान प्रकाश) नहीं होती। दशा ऊँची होती है, तेज आता है, पर ज्ञान नहीं होता। वस्तु का (आत्मा का) अपना स्वगुण होता है, स्वधर्म होता है, स्वअवस्था होती है। भगवान अलख निरंजन हैं। यह ज्ञानी पुरुष के लक्ष्य में आता है। ध्येय जब तक नहीं जानते, तब तक ध्येय स्वरूप नहीं हो सकते। हजारों उल्कापात हों, फिर भी सहज समाधि नहीं जाती। धारणा तो कल्पित होती है। इनडाइरेक्ट प्रकाश, वह रिलेटिव आत्मा है। रियल आत्मा सतत रहा ही करता है। उसमें केवल ज्ञाता-दृष्टापन ही रहता है। हर तरह से मन का समाधान रहे, उसका नाम ज्ञान। पाँचों इन्द्रियाँ जागृत हों और समाधि रहे, वही सच्ची समाधि है।
प्रत्येक अवस्था में अनासक्त योग, वही पूर्ण समाधि।
प्रश्नकर्ता : दादाजी, ध्यान ठीक से नहीं होता हो, तो क्या करें?
दादाश्री : ध्यान में तो मैं आपको अभी बिठा दूँ, पर उसके बाद अनंत सीढ़ियाँ तो बाकी रहीं! तो ऐसे ध्यान का क्या करना? मैं आपको सीधे मोक्ष में ही बिठा दूंगा, आना! हमें तो रियल ध्यान ही पूरा माँग लेना है, रिलेटिव ध्यान क्यों माँगें? वह तो अधूरा ध्यान है।
प्रश्नकर्ता : वह तो बहुत मुश्किल है न?
दादाश्री : देनेवाला मैं हूँ न, फिर काहे की मुश्किल? एक मंत्री की पहचान से सारे काम होते हैं, तो ज्ञानी पुरुष की 'पहचान' से क्या नहीं हो सकता? हम पक्षपात नहीं करते, वीतराग होते हैं। सच्चा हो, और हमसे आ मिले, तो उसे ज्ञान देते हैं।
यह आप ध्यान करते हैं, पर किस का ध्यान? ध्येय क्या? ध्याता कौन? ध्येय को बिना पहचाने, निश्चित किए बगैर, किस का ध्यान करना? ध्यान तो साधन है, ध्येय स्वरूप का और ध्याता 'शुद्धात्मा' है,